स्वर्णा के पिता चुपचाप खड़े उसकी सब बातें सुन रहे थे। उन्हें तो यह भी नहीं मालूम था कि ऐसा भी होता है। फिर उन्होंने स्वर्णा से केवल इतना ही कहा, "स्वर्णा बेटे अब तुम ग़लत रास्ते पर जा रही हो। तुम हीरोइन बनना चाहती थीं, तब तुम्हारे बढ़ते कदमों की रफ़्तार को हमने नहीं रोका। तुम्हारी ख़्वाहिशों को पूरा करने का हर अवसर तुम्हें दिया। लेकिन यह ठीक नहीं है बेटा, कर ली तुमने अपनी हीरोइन बनने की इच्छा पूरी। अब अपना पारिवारिक जीवन जियो। उसका भी पूरा आनंद उठाओ। हर अनुभव को स्वयं महसूस करो। हमारा फर्ज़ है तुम्हें समझाना, आगे तुम बड़ी हो, ख़ुद ही बहुत सयानी हो, जैसा ठीक लगे कर सकती हो। एक ऐसा अनुभव, ऐसा सुख जो तुम्हें मिल सकता था तुम उस से वंचित रह गईं, ये सोच कर ज़िन्दगी के किसी मोड़ पर तुम्हें दुख ना हो।"
"नहीं पापा सच्चाई यह है कि मेरा कैरियर अभी बहुत आगे जा सकता है और मुझे उस पर ध्यान देना चाहिए। पापा राहुल की फैमिली, उसके पापा मॉम इस बात के लिए तैयार हैं।"
"ठीक है बेटा जैसी तुम्हारी मर्जी।"
स्वर्णा का यह निर्णय अंतिम था। उधर रौनक के माता-पिता समझाने के बाद, भले ही अनमने मन से लेकिन अंततः मान गए। वह कल्पना की मजबूरी समझ रहे थे। उन्हें मालूम था कल्पना स्वर्णा के एहसानों के नीचे दबी हुई है। कल्पना के पिता जयंती और माँ विद्या तो सब जानते थे।
जयंती ने विद्या से कहा, "आज जो कल्पना करने जा रही है, वह कोई किसी के लिए नहीं करता। आज उसे मौका मिला है स्वर्णा की मदद करने का और वह उस मौके को हरगिज़ जाने नहीं देगी।"
"हाँ तुम ठीक कह रहे हो, कर लेने दो उसे उसकी इच्छा पूरी।"
इस तरह दोनों ही परिवार स्वर्णा की मदद के लिए तैयार हो गए। इसके बाद शुरू हुआ सिलसिला अस्पतालों का। अनेक तरह की जांच पड़ताल के पश्चात स्वर्णा और राहुल के अंश को कल्पना की कोख में डाल दिया गया।
स्वर्णा ने कल्पना को अपने आलीशान मकान में एक शानदार कमरा दे दिया। जहाँ हर सुख सुविधा उपलब्ध थी। कल्पना ने एक बहुत लंबा अवकाश अपनी नौकरी से ले लिया। जितना हो सकता था वह घर से काम अवश्य ही कर लेती थी। नौकर चाकर, नर्स सब उसकी देखरेख में लगे ही रहते थे। सुबह की शुरुआत से रात तक उसके खाने पीने के लिए हर तरह की पौष्टिक वस्तुऐं होती थीं। स्वर्णा रोज़ अपनी व्यस्ततम दिनचर्या से समय निकालकर कल्पना के पास आकर काफ़ी समय बिताया करती थी। देखते-देखते नौ माह गुजर गए और उसके बाद कल्पना ने एक बहुत ही प्यारी सुंदर-सी बेटी को जन्म दिया।
जन्म देते से ही स्वर्णा अपनी बेटी को गोद में उठाना चाह रही थी लेकिन इस समय डॉक्टर ने बच्ची को कल्पना की छाती पर लिटा दिया ताकि बच्ची उन धड़कनों को महसूस कर सके जिन्हें वह पिछले नौ माह से महसूस कर रही थी। स्वर्णा को अपनी ही बेटी को गोद में उठाने के लिए इंतज़ार करना पड़ रहा था। उसका माँ का दिल धड़क रहा था फिर भी वह ख़ुश थी यह सोच कर कि ना उसका शरीर बिगड़ा, ना शरीर पर सलवटें आईं, ना काम पर कोई असर हुआ और उसकी बच्ची आ गई।
उसके बाद बच्ची को स्वर्णा की गोद में दिया गया। स्वर्णा और राहुल बहुत ख़ुश थे। अपनी बेटी को गोद में लेकर प्यार के समंदर में गोते लगा रहे थे कि तभी उनकी बेटी रोने लगी और नर्स ने उसे दूध पिलाने के लिए वापस कल्पना की बाँहों में दे दिया।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः