कल्पना अब तक भी मध्यम वर्गीय परिवार का हिस्सा ही बनी रही।
तभी एक दिन स्वर्णा ने कल्पना को फ़ोन किया, "हैलो कल्पना।"
“हैलो स्वर्णा कैसी है तू? बहुत दिनों बाद तेरी आवाज़ सुन कर बहुत अच्छा लगा।”
“मैं तो बिल्कुल ठीक हूँ, तू बता तू कैसी है? पढ़ाई कैसी चल रही है?”
“स्वर्णा सब कुछ एकदम ठीक चल रहा है। अच्छा बता, कुछ ख़ास बात है क्या?”
“हाँ कल्पना, तुझसे एक ज़रूरी बात करनी है।”
“हाँ स्वर्णा बोल क्या बात है?”
“कल्पना मुझे मेरे साथ काम करने वाला राहुल बहुत अच्छा लगता है। तू जानती है ना उसे, उससे अपने प्यार का इज़हार कर दूं क्या? "
"यह क्या कह रही है स्वर्णा अभी तो तेरे कैरियर की शुरुआत ही हुई है, अभी से तू ..."
"अरे कल्पना चल बाय, उसी का फ़ोन आ रहा है।"
उसके बाद स्वर्णा ने राहुल से विवाह कर ही लिया।
समय आगे बढ़ता रहा। उधर इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी होने के बाद कल्पना को नौकरी भी मिल गई। वह जानती थी कि उसकी पढ़ाई के लिए उसके पापा ने कितना ख़र्चा किया है। वह अब अपने पापा का हाथ बटाना चाहती थी लेकिन उसके इस सपने को उसके पापा ने दरकिनार कर दिया।
एक दिन जयंती ने कल्पना से कहा, "कल्पना बेटा तुम्हारे लिए एक बहुत ही अच्छे परिवार से रिश्ता आया है। लड़का भी बहुत अच्छा है। वह भी तुम्हारी तरह इंजीनियर ही है। उसके पूरे परिवार को तुम बहुत पसंद हो।"
"नहीं पापा अभी तो मेरी नौकरी शुरु ही हुई है, इतनी जल्दी नहीं।"
"जल्दी कहाँ है बेटा? वह तुम्हारी दोस्त स्वर्णा को ही देख लो, कब की शादी कर ली है उसने।"
"पापा उसकी बात अलग है। अभी मुझे आपके कंधे से कंधा मिलाकर मेहनत करनी है। मैं जानती हूँ पापा आपने मेरी पढ़ाई के लिए कितना ख़र्च किया है। आपने नहीं बताया वह पैसा कहाँ से आया पर मैं जानती हूँ पापा हमारा यह छोटा-सा मकान गिरवी रखा है।"
अपनी बेटी के मुँह से यह सब सुन जयंती और विद्या आश्चर्य चकित रह गए।
जयंती की आँखें उसे निहार रही थीं। उसकी तरफ़ प्यार से देखते हुए उन्होंने कहा, "अच्छे रिश्ते बार-बार नहीं आते बेटा और आजकल तो धोखाधड़ी के भी कितने किस्से अख़बार में आते रहते हैं। तुझे मेरी क़सम, ना मत कर।"
विद्या ने उनकी बातें सुनकर बीच में ही कहा, "कल्पना तुम्हारे पापा सही कह रहे हैं। इतना अच्छा लड़का, अच्छा परिवार भाग्य से मिलता है। दहेज भी नहीं ले रहे हैं वह वरना आजकल तो दहेज की मांग सबसे पहले दरवाज़े पर दस्तक देने लगती है।"
अपने माता-पिता का विरोध करना अब कल्पना के लिए संभव नहीं था। इस तरह कल्पना का भी विवाह हो गया।
स्वर्णा का कैरियर इस समय ऊँचाइयों पर था। एक के बाद एक फ़िल्में आ रही थीं और चल भी रही थीं। एक-दो वर्ष के बाद ही स्वर्णा का पति राहुल बच्चे के लिए उस पर दबाव डालने लगा। स्वर्णा को भी बच्चों से प्यार था। बच्चा चाहिए भी था लेकिन अपने सुंदर शरीर का मोह उसे इस बात के लिए कतई तैयार नहीं कर रहा था। शरीर बिगड़ जाने का खौफ़ उसके मन और दिमाग़ में फेविकोल की तरह चिपक गया था। इस कारण अब आए दिन उन दोनों के बीच तनाव रहने लगा था।
स्वर्णा अपने पति राहुल से बेहद प्यार करती थी। वह उसकी और ख़ुद की इच्छा पूरी करना भी चाहती थी पर जब भी वह उसके बाद अपने शरीर की कल्पना करती तो उसका मन सिहर उठता। वह तो अपने शरीर पर एक दाग भी बर्दाश्त नहीं कर पाती थी तो फिर अपनी कोख में बच्चे को रखना और उसके बाद पेट पर सलवटों का आना, दाग पड़ जाना, शरीर ढीला हो जाना, सोच कर ही उसका इरादा बदल जाता था। उसे अपना भविष्य डूबते हुए सूरज की तरह दिखाई देने लगता था।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः