दहलीज़
शहर के मध्य में, पहाड़ों और नदी के बीच बने एक नए मकान में 19 वर्षीय किशोरी "अवन्तिका" किराये पर रहने आई थी। उसी शहर के ही एक प्रतिष्ठित महाविद्यालय से वह मनोविज्ञान विषय के साथ त्रि-वर्षीय स्नातक कर रही थी। पतझड़ की ऋतु में भी अवन्तिका के मुख-मण्डल की आभा बसंत ऋतु के आगमन की जैसे मिथ्या अनुभूति करा रही थी, जैसे उस युवती का यौवन चरम पर हो। स्थानीयों में उसके सौन्दर्य की प्रशंसा किसी वन में लगी आग से भी तीव्र गति से फैल रही थी। उस युवती को भी जैसे अपने इस सौन्दर्यवान रूप पर अभिमान होने लगा था। अवन्तिका को प्रतिदिन अपने मुख्य द्वार के बाहर पड़ा एक सुन्दर लाल गुलाब का फूल मिलता था, जिसे देखकर वो अचम्भित सी रह जाती थी। "मोहल्ले के किसी अज्ञात एक-तरफ़ा प्रेमी द्वारा किए जा रहे इस दुष्टतापूर्ण कृत्य" ऐसा मानकर अवन्तिका गुस्से से भर चुकी थी किन्तु अपनी सुरक्षा सम्बन्धी एक डर में भी वो आती जा रही थी। वो प्रतिदिन विचार करती कि सुबह उस एक-तरफ़ा प्रेमी को पकड़ कर उसकी अच्छे से पिटाई करके पुलिस के हवाले कर देगी लेकिन विफ़ल रहती। चाहें जितना भी जल्दी वो क्यों न उठ जाए, मुख्य द्वार की देहरी या दहलीज़ पर उसे लाल गुलाब पड़ा ही मिलता। एक दिन अवन्तिका ने प्रण किया कि ब्रह्म-मुहूर्त में उठकर वो छत से इसकी निगरानी करेगी कि आखिर वह कौन है जो इस गतिविधि को नित्य कार्यरूप में परिणत कर रहा है। प्रण के अनुसार अवन्तिका छत से खड़ी निरीक्षण कर ही रही थी कि उसे सड़क पर जल रहे लैम्प के प्रकाश में साइकिल पर आता हुआ एक युवक दृश्यमान हुआ। युवक ने अवन्तिका के उस घर के कोने की दीवार के सहारे टिका कर अपनी साईकिल को खड़ा कर दिया और अवन्तिका के घर के मुख्य द्वार के निकट आने लगा। अवन्तिका के मन का एक भाग उस प्रेमी को अपशब्द सुनाकर उसे पीटने का कर रहा था आखिर उसकी कई रातों की नींद जो ख़राब हुई थी, वहीँ दूसरी ओर उसका मन उसकी इस गतिविधि का पूर्ण प्रेक्षण करने को विवश कर रहा था। मन के दूसरे भाग की सुनते हुए अवन्तिका ने बिना शोरगुल किये उसकी गतिविधि को किसी अपराध-अन्वेषक की भाँति देखना जारी रखा। वो हल्के भूरे बालों वाला युवक ऊपर छत से देखने में कोई अंग्रेज सा जान पड़ रहा था और उसे इस मोहल्ले में अवन्तिका ने पहले कभी नहीं देखा था। वह युवक अवन्तिका के घर के मुख्य द्वार पर आया, अपनी पादुका उतार कर देहलीज़ पर नतमस्तक हो गया। फिर उसने जेब से एक ताजा गुलाब का फूल निकाल कर उसे देहलीज़ पर रखकर साइकिल की तरफ बढ़ने लगा। अवन्तिका समझ नहीं पा रही थी कि किसी के सौंदर्य में क्या इतना बल, इतना आकर्षण, हो सकता है जो लोग इस हद के पागलपन तक पहुँच जाए। दीवार के सहारे खड़ी उस बिना स्टैंड की साइकिल के निकट जैसे ही युवक पहुँचा, अवन्तिका आपा खो बैठी और चीखने-चिल्लाने लगी। युवक ने छत की तरफ देखा तो उसे किसी के खड़े होने की आशंका हुई लेकिन अँधेरे में कुछ भी स्पष्ट न हुआ, वहीं अवंतिका को स्ट्रीट लैंप के प्रकाश में दूरी से बहुत कुछ तो दिखाई न दे सका पर उसे इतना अनुमान लग गया कि युवक की आयु 20-22 के आस पास होगी। अवन्तिका ने हर स्तर की गालियाँ देनी शुरू की जिससे युवक वहां से साइकिल पर सवार होकर भाग लिया। अवन्तिका को पूरा भरोसा हो चुका था कि ये युवक अब कभी मुड़कर गलती से भी इस घर की तरफ नहीं देखेगा। इस प्रकरण के बाद से अवन्तिका अपने सौंदर्य के अभिमान में भी चूर-चूर हो चली थी कि जहाँ उस जैसी युवतियाँ हो, युवक तो उनकी सौंदर्यभक्ति में डूबेंगे ही, जैसे व्याकुल आत्मा परमात्मा की शरण चाहती हो। अगले दिन सुबह अवन्तिका जब किसी सामग्री को क्रय करने हेतु मण्डी की तरफ जाने के लिए अपने गृह के प्रवेश द्वार पर पहुँची, द्वार पर पड़े गुलाब के फूल ने अवन्तिका को स्तब्ध कर दिया। गुस्से में उसने सोचा कि कल प्रातः वो उस युवक को रंगे हाथों पकड़ कर वो मज़ा चखाएगी कि उसकी सात पीढ़ियां कभी एक-तरफ़ा प्रेम का सोचेगी भी नहीं। अवन्तिका ने इस सब घटना का वर्णन अपनी एक सबसे अच्छी मित्र "वृष्टि", जो उसी के साथ मनोविज्ञान में स्नातक कर रही थी, को बताया। दोनों ने अगले ही दिन प्रातः उस युवक को रंगे हाथों पकड़ने की एक योजना बनाई। दोनों रात भर जागते रहे और घर के सामने खड़े कुछ विशालकाय बरगद के पेड़ों के आश्रय में छुप गए कि एकाएक वो युवक आया। हमेशा की तरह उसने देहलीज़ पर नतमस्तक होते हुए गुलाब के फूल को वहाँ रखने की जैसे ही चेष्टा की पीछे से आकर वृष्टि और अवन्तिका ने उसे बेसबॉल बैट की सहायता से बंधक बना लिया और उस सुन्दर नयन-नक्श वाले युवक को वहीँ बैठाकर उससे पूछताछ शुरू कर दी।
वृष्टि: "नाम क्या है तेरा?"
युवक: "माधव"
अवन्तिका: "ये माधव स्वयं को साक्षात श्रीकृष्ण समझ रहे हैं और रासलीला करने को इन्हें मेरा ही घर मिला है।"
युवक: "रास.."
वृष्टि: "चुपकर। वरना ये बैट मारकर तेरा खोपडा यही खोल दूँगी। जितना पूछा जाए उतना बोल बस।"
अवन्तिका: "इन जैसे एकतरफा प्रेमियों को अच्छे से जानती हूँ मैं, जहाँ कोई रूपवान और सौन्दर्यरस से ओत-प्रोत लड़की दिखती है मँडराने लगते हैं उसके आगे पीछे, भँवरों की तरह। तू पुलिस बुला वृष्टि इसकी बुद्धि तो पुलिस की पिटाई से ही ठिकाने पर आएगी।"
वृष्टि: "ये कैसे भैंस की पूँछ जैसे बाल है? अंगेज़ है क्या? ऐसे हल्के भूरे बाल हमने तो न देखे किसी के।"
माधव: "अंग्रेज़ नहीं इसी शहर से हम। पहाड़ी जनजाति के।"
अवन्तिका: "वृष्टि, तू इसका बायो-डाटा बाद में लेना। और तू ये बता तेरे घर में माँ-बहन नहीं है? कि सुन्दर युवती देखी नहीं कि बस शुरू।"
माधव: (बात काटते हुए) "नहीं है माँ-बहन।"
अवन्तिका: "देखो तो इसकी बेशर्मी। एक तो चोरी, ऊपर से सीना जोरी। तुनक किस पर रहा है?"
वृष्टि: "अवन्तिका, इसकी हड्डियाँ मरम्मत मांग रही है, कहे तो इलाज कर दू इसका?"
माधव: "हमारी बोली ही ऐसी है। हमें जाने दो।"
वृष्टि: "बात तो तू ऐसे कर रहा है जैसे किसी बड़े घराने का कोई राजा महाराजा हो।"
अवन्तिका: "रहने दे। इसके मुँह न लग। पुलिस के हवाले करते हैं इसे। लड़की छेड़ना भूल जाएगा।"
माधव: "हमने कब छेड़ा तुम्हें?"
अवन्तिका: (गुस्से से) "तो क्यों आता है हमारे द्वार पर सर झुकाने? क्यों प्रतिदिन हमारे द्वार पर गुलाब का फूल रखकर जाता है।"
वृष्टि: "देखी नहीं होगी कभी इसने इतनी सुन्दर लड़की।"
इसी के साथ अवन्तिका और वृष्टि दोनों ठहाके मार कर हँसने लगती हैं।
माधव: "हाँ हैं हम नतमस्तक। हैं किसी सुन्दर महिला के प्रेम में।"
वृष्टि: "आ गया न अपनी औकात पर। अवन्तिका पुलिस बुला अब तो इसने स्वयं से स्वीकार भी लिया है।"
अवन्तिका: "वृष्टि रुक ज़रा।"
अवन्तिका: (माधव की ओर देखते हुए) "क्या बोला तूने, महिला! मैं तुझे महिला दिखती हूँ?"
माधव: "क्या तुम अपने आप को बहुत सुन्दर समझती हो? हम तुमसे भी कई गुना अधिक सुन्दर महिला के स्नेह के लिए यहाँ आते हैं। हमारी माँ के लिए।"
अवन्तिका: (चौंकते हुए): "पर यहाँ मेरे अतिरिक्त और कोई नहीं रहता। तुम संभवतः दिग्भ्रमित हो।"
माधव: "ये भूमि जहाँ तुम्हारा घर है वो एक श्मशान भूमि थी। जब हम मात्र 12 वर्ष के था हमारी माँ हमें छोड़ कर चली गई थी। इसी स्थान पर हमने अपनी माँ को मुखाग्नि दी थी। तब से ही हम प्रतिदिन अपनी माँ के पास आकर उन्हें प्रेम से नमन करते और उनको उसी पौध का गुलाब समर्पित करते जिसे उन्होंने ही लगाया था। लेकिन कुछ समय पश्चात सरकार ने इस ज़मीन को आवासीय में परिवर्तित करके यहाँ घर बनाने की अनुमति दे दी। अगर हमारे पास घर खरीदने जितना पैसा होता तो इसे हम ही क्रय कर लेते। घर बनना आरम्भ हुआ पर हमारा ये क्रम निरंतर चलता रहा हमें क्या पता था कि तुम्हें अपनी सुन्दरता का इतना घमण्ड है कि तुम हमें एक तरफ़ा प्रेमी मान बैठी हो। मार दो ये बैट हमारे सर पर और इसी स्थान पर हमें भी हमारी माँ की गोद में ही सुला दो हमेशा के लिए फिर कोई तुम लोगों को परेशान करने वाला न होगा।"
माधव इतना कहकर बिलख-बिलख कर रो पड़ा। वृष्टि और अवन्तिका के नयनों में भी इतनी नमी थी कि संभवतः पलक झपकने पर उनकी आँखों से अश्रुओं की वृष्टि हो सकती थी।
अवन्तिका ने वृष्टि से माधव के लिए पीने का पानी लाने का इशारा किया और माधव को घर में अंदर आने का अनुरोध किया। घर में पड़े एक सोफा पर माधव को बैठने का इशारा करते हुए वृष्टि ने उसके हाथों में पानी का गिलास थमा दिया। वृष्टि के हाथों में अब बैट नहीं था लेकिन मन में बहुत सारे प्रश्न थे।
वृष्टि: "तुम्हारी माँ की मौत प्राकृतिक थी या अकस्मात्?"
माधव: "कैंसर था।"
अवन्तिका: "कैंसर..। लेकिन तुम्हे इसका पता कब चला?"
माधव: "एक दिन अचानक माँ का स्वास्थ्य बिगड़ने पर जब हम उन्हें सरकारी अस्पताल लाए तब ज्ञात हुआ कि उन्हें कैंसर है। इलाज को पैसा नहीं था। डॉक्टर की तमाम मिन्नतें करने के बाद भी उसने प्रारम्भिक चिकित्सा देकर माँ को ले जाने को कह दिया। वापस लाते समय माँ ने रास्ते में ही अपना दम तोड़ दिया।"
वृष्टि: "कमीना डॉक्टर।"
अवन्तिका: "क्या तुम्हारे परिवार में और कोई नहीं? भाई, पिता, कोई बहन?"
माधव: "हमारे पिता की मृत्यु हमारे जन्म के एक वर्ष के अंदर हो गई थी। न कोई भाई, न बहन। बस एक प्यारी माँ थी। मेहनत-मजदूरी करके माँ ने हमें बड़े प्यार से पाला था। लेकिन ईश्वर को वो भी नामंज़ूर था। हमारी प्यारी माँ भी हमसे छीन ली। इतना कहते हुए माधव पुनः बिलख-बिलख कर रोने लगा।"
इस बार अवन्तिका और वृष्टि का भी कोमल हृदय भर आया और उनकी आँखों से भी आँसू छलक पड़े।
अवन्तिका: "माधव तुम चुप हो जाओ। धीरज रखो। आज से तुम्हें जब भी अपनी माँ से मिलने आना हो, आना, कोई तुम्हे नहीं रोकेगा। और यदि हमारी तरह कोई तुमसे पूछे कि तुम्हारे घर में और कौन कौन है तो अपनी इस बहन अवन्तिका को न भूलना।"
वृष्टि की आँखों में अभी भी आँसू थे। कठोर हृदय वाली "वृष्टि" अब बेबसों की भाँति रो रही थी लेकिन माधव के चेहरे पर एक प्यारी सी मुस्कान थी। ये मुस्कान कुछ पाने की थी। कई वर्षों बाद उसे किसी के साथ अपनत्व का एहसास हुआ था। उसे एक बहन मिल गई थी।
उस दिन के बाद से माधव पूर्व की भाँति ही प्रतिदिन एक गुलाब का फूल अवन्तिका के घर के मुख्य द्वार की देहलीज़ पर रखने आता रहा। वृष्टि प्रतिदिन अवन्तिका को महाविद्यालय साथ ले जाने के लिए उसके घर आकर द्वार से उस लाल गुलाब को चोरी छुपे उठाने लग गई। संभवतः माधव के उस साक्षात्कार ने वृष्टि के कठोर हृदय को पिघलाकर भावनाओ से भर दिया था।
अवन्तिका के प्रयासों से माधव को एक ठीक-ठाक से व्यापारिक प्रतिष्ठान में काम मिल गया। जहाँ की बचत से माधव ने एक छोटा सा व्यापार शुरू किया। समय बदला, माधव एक बड़ा व्यापारी बन गया। दिन प्रतिदिन वृष्टि का माधव की ओर आकर्षण इतना बढ़ गया कि उसने माधव को अपने हृदय की भावनाओं से अवगत करवा दिया। आज माधव उसी घर को क्रय कर चुका है, जिसकी देहलीज़ उसकी माँ के इतिहास को सहेजे हुए थी, और अपनी जीवन संगिनी वृष्टि के साथ हँसी-ख़ुशी जीवन व्यतीत कर रहा है। अवन्तिका आज भी माधव को अपने भाई से ज़्यादा प्रेम करती है। बैकुंठधाम में आसीन माँ के आशीर्वाद ने अपने बच्चे के भाग्य से दुःखों का नाश करके उसे खुशियों से भर दिया। जिस ईश्वर ने माधव से उसका पूरा परिवार छीन लिया था आज उसी ईश्वर ने माधव को न केवल उसका परिवार, बल्कि सुख समृद्धि और धन से भी भर दिया है।..
लेखक
मयंक सक्सैना 'हनी'
आगरा, उत्तर प्रदेश
(दिनांक 31/अक्टूबर/2023 को लिखी गई एक कहानी)