Prem Gali ati Sankari - 89 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 89

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प्रेम गली अति साँकरी - 89

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अब वातावरण काफ़ी सामान्य हो चुका था | सरकार ने भी काफ़ी छूट दे दी थी, फ़्लाइट्स खुल गईं थीं लेकिन सरकार ने अभी सबको ध्यान रखने की सलाह दी थी | दूसरे दौर में जो हालत हुई थी उससे सब लोग घबरा गए थे लेकिन किसी भी स्थिति में हमेशा कुछ ऐसे लोग भी होते ही हैं जो अपने आपको पहलवान समझना नहीं छोड़ते | और तो और वे यह भी समझने की कोशिश नहीं करते कि उनके कारण और लोगों को परेशानी होगी | सामने सड़क के पार वाले मुहल्ले में ऐसे बहुत लोग थे जिन्हें काम-धाम तो करना नहीं होता था बस सड़क पर खड़े होकर गुटबाज़ी करके बातें बनाने में निपुणता हासिल होती है ऐसे लोगों को कुछ होता भी नहीं  | ऐसे लोग बातें बनाने में अधिक चतुर भी होते हैं, उनकी इन्हीं बातों से हमारे महाराज चिढ़ गए थे!

खैर, ज़रूरत पड़ने पर उनकी काफ़ी सेवा कर दी गई थी | अब सबके काम शुरू हो ही गए थे तब भी पापा ने सबको इंस्ट्रक्शन्स दे रखे थे कि बेकार में नहीं लेकिन कुछ ज़रूरत पड़ने पर सबको चीज़ें मुहैया करवाई जाएं | बेशक, महाराज और संस्थान के काफ़ी लोग सड़क पार के मुहल्ले से नाराज़ थे जिनमें शीला दीदी और रतनी भी सम्मिलित थे | उन्होंने उन सबको बड़े समीप से भुगता हुआ था | उन्हें मालूम था कि उनमें बहुत से लोग ऐसे हैं जो जिस थाली में खाते हैं, उसी में छेद किए बिना नहीं रहते लेकिन पापा-अम्मा न जाने किस मिट्टी के बने थे | दादी की ही मिट्टी के थे पापा और अम्मा ने अपने आपको पापा इन्हीं अच्छाइयों के कारण उनसे कभी भी असहमति नहीं रख पाईं थीं | 

परिस्थितियों के सामान्य होने पर भाई अब बार-बार शोर मचा रहा था, और भाई ही नहीं भाभी एमिली और बिटिया भी | काफ़ी दिनों का एक ट्रिप प्रतीक्षा में था, योजना कुछ ऐसी बनाई गई कि इस बार दस लोगों के समूह को दिव्य ‘लीड’करके उन्हें यू.के ले जाएगा | इधर की कुछ व्यवस्था करके अम्मा-पापा ज़रूर भाई के पास जाएंगे बल्कि जाएंगे क्या उसके पास लंबे समय रुकेंगे | वैसे इस पोजीशन पर आकर पापा-अम्मा को स्वयं कुछ करना नहीं होता था फिर भी उनसे पूछे अथवा उनके मार्ग-दर्शन के बिना कोई नहीं चलता था | यहाँ तक कि मैं भी नहीं | पापा-अम्मा यहीं तो अटक जाते थे बेचारे, अब सब कुछ समझ गए हैं सब, तो अपने आप निर्णय लेना भी सीख लें | शायद यह एक प्रकार का मान-सम्मान था जो सब लोग काम करते तो खुद थे लेकिन अम्मा-पापा से ‘हाँ’की मुहर जब तक न लगे, वहीं अटक जाते थे | 

रुपये-पैसे , खर्चे का सब हिसाब किताब शीला दीदी और उनके पति रखने लगे थे, ज़रूरत पड़ने पर रतनी भी | हमारे सारे रिश्तेदारों में इसी बात को लेकर परेशानी कि संस्थान में हमारे परिवार के अपने लोग कोई नहीं हैं, उनके लिए बाहर के लोग ही उनके अपने हैं | इन सब बातों पर तो दादी ने कभी कान नहीं दिए थे फिर अम्मा-पापा क्या देते | हाँ, शुरू-शुरू में उनकी दृष्टि और ट्रेनिंग इतनी पुख्ता रही थी कि पुराने लोगों के साथ उनके बेटे अथवा परिवार के वे लोग भी काम समझकर आगे बढ़ने लगे थे | 

“विश्वास पैदा करना ज़रूरी है लोगों में ---”पापा बातों बातों में कहते | 

“अगर वे विश्वास के लायक ही न हों तो अंकल ?”दिव्य आजकल पापा से खूब बहस करने लगा था लेकिन वह बहुत तहज़ीब वाला लड़का था पापा से बहुत कुछ सीखता था | 

“उसे कुछ दिन परखो बेटा, कुछ लगे तो समझाने की कोशिश करो लेकिन दो/तीन बार से अधिक नहीं | अगर महसूस करो कि बात नहीं बन रही है यानि लोग समझने के लिए तैयार ही नहीं हैं फिर उससे दूर हट जाओ | हर चीज़ का समय होता है | दिव्य! तुम्हारे सामने न जाने कितनी चुनौतियाँ आएंगी | संसार रूपी समुद्र में कूदने के बाद इंसान को खुद हाथ-पैर मारने पड़ते हैं | नहीं मारोगे तो डूब जाओगे | ”पापा दिव्य को बहुत प्यार करते थे और उनकी इच्छा रहती थी कि उसको जो प्यार बचपन में नहीं मिला उसे दे सकें | 

“बहते पानी की तरह बन जाओ, कचरा अपने आप निकल जाएगा---”पापा सबको ही कहते | 

“कुछ लोगों के बारे में हम जानते हैं लेकिन उन्हें भी दो/एक बार अवसर मिलना चाहिए, मुझे ऐसा लगता है | हो सकता है उनमें कोई ऐसा सुधार आ जाए और उनकी ज़िंदगी सुधर जाए | ”दिव्य के मन में अपने पिता की तस्वीर उभरने लगती और वह उदास हो उठता लेकिन पापा का मानना था कि इंसान का फोकस उस बात पर हो जो वह पाना चाहे, जो हो चुका वह तो मुट्ठी से रेत की भाँति फिसल चुका होता है और समय की परिधि से दूर उड़ जाता है | 

दिव्य को पापा एक देवदूत की तरह लगते थे और उसे ही क्या अधिकतर सभी लोग इस आश्चर्य में रहते कि इतने बड़े लोग होते हुए भी उनकी सोच इतनी मध्यमवर्गीय कैसे है?यही जीवन की खूबसूरती थी | जबकि पापा हँसकर कहते’बड़े लोग क्या होते हैं ? उनके सींग लगे होते हैं क्या?’ अम्मा उनकी बात पर ठठाकर हँस देती थीं | उन्हें दादी अक्सर याद आतीं और उनका प्यार से‘काली‘ कहकर पुकारना भी | पापा उन्हें उदास देखकर भी कोई चुटकुला छोड़े बिना न रहते | 

दिव्य एक ‘टीम-लीडर’के रूप में जाने के लिए बहुत उत्सुक था | अपने ऊपर उसने काम भी बहुत किया था | शास्त्रीय में उसने वोकल और सितार, दोनों पर बहुत श्रद्धा से श्रम किया था | डॉली नृत्य सीख रही थी और बेहतरी के लिए खूब श्रम कर रही थी | स्वाभाविक था कि उसका मन भी भाई के साथ यू.के जाने के लिए ललक रहा था | अम्मा-पापा उसे समझाने की कोशिश कर रहे थे कि अभी कुछ और गंभीरता से श्रम करे | लेकिन उसका मन भाई के साथ जाने के लिए फुदक रहा था | 

आज विक्टर, कॉर्लोस के अस्पताल से फ़ोन आया था कि वे दोनों पहले से भी अधिक ताकतवर हो गए हैं। क्या करना है?क्या उन्हें अभी वहीं देख-रेख में और रखना है या संस्थान में वापिस लाना है?गार्ड की पत्नी को पता चला और वह अपने बच्चों के साथ मिलकर खुद भी बच्चा बन गई | उनके जाने के समय कैसी सुबक-सुबक कर रोई थी जैसे उसके बच्चों को ही ज़बरदस्ती वहाँ से भेजा जा रहा था | 

“साहब !बुला लीजिए न, कितने दिन हो चुके हैं | कैसा सूना-सूना हो गया उनके बिना---”

सबको ही उनके बिना सूना लगता था लेकिन अब आदत सी पड़ गई थी उनके बिना रहने की भी | उनके आने की खबर सुनकर जैसे सबके चेहरे खिल उठे | इन जानवरों पर जहाँ इतना प्यार लुटाया जाता हो वहाँ एक इंसान कैसे चुप्पी साधे रह सकता है | दुनिया में बहुत कुछ मिल जाता है लेकिन प्यार---जैसे टॉर्च लेकर ढूँढना पड़ता है | फिर भी मिले न मिले, इसकी कहाँ कोई गैरेन्टी है?

विक्टर कार्लोस के आते ही जैसे संस्थान चहकने लगा | उनकी सेहत वाकई बहुत अच्छी हो चुकी थी | हमारे  संस्थान के बब्बर शेर! शाहज़ादे थे वे दोनों!कितने उत्साह से उनका स्वागत हुआ था!शायद ही किसी ने देखा हो गार्ड की पत्नी राधा और उसके बच्चे आरती का थाल सजाकर लाए  | राधा उनके टीका लगाने आगे बढ़ी और वे दोनों उसके लाड़ में आकर उसके ऊपर उछल-कूद मचाने लगे | आरती की थाली एक तरफ़ और उन दोनों की उछल-कूद एक तरफ़ | हँसते-हँसते सब लॉट पोट हो गए | राधा बेचारी खिसिया गई  | अम्मा ने कहा;

“इस टीके से अच्छा तो था राधा, बैड-बाजे से स्वागत करतीं इनका और एक दावत दे डालतीं सबको | ”

“वो तो देनी ही है मैडम, सब तैयारी कर रखी है | ”फिर खिसियाकर बोली;

“पहले से भी शैतान हो गए हैं, बताओ मेरी थाली ही गिर दी | ”और दोनों से चिपटकर लाड़ लड़ाने लगी | 

राधा और उसके बच्चों के वे ‘रीयल फ्रैंडस थे’!उन बच्चों का बस चलता, तो उन्हें उसे अपने स्कूल में भी साथ लेकर जाते दोनों | पापा तो यह बात कितनी बार कह चुके थे, साथ में बच्चों को डाँट भी देते थे कि पढ़ाई ठीक से नहीं करेंगे तो कार्लोस, विक्टर को वहाँ से भेज देंगे | पापा के डर से दोनों बच्चे ठीक से पढ़ते थे | अच्छे परिणाम आ रहे थे दोनों के!