Nature Human and Land in Hindi Love Stories by Sharovan books and stories PDF | प्रकृति मानव और धरती

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प्रकृति मानव और धरती

प्रकृति, मानव उपन्यास
शरोवन

                           ***

'ज़िन्दगी की प्यार की संजोई हुई हसरतों पर जब अचानक ही बिगड़ी हुई किस्मत की आंधी अपना प्रभाव दिखाने लगे तो उम्मीदों के सपने चटकते देर नहीं लगती है। ऐसा जब भी होने लगता है तो मनुष्य का दिल तो टूटता ही है, साथ ही उसके आगे चलने का वह रास्ता भी समाप्त हो जाता है, जिस पर चलते हुये वह कभी अपनी जीवन नैया का ठिकाना पा लेना चाहता है। जीवन की वास्तविकता को सामने पाकर तब मनुष्य यह सोचने पर विवश हो जाता है कि धर्मग्रंथों में जो लिखा है, वह सब मानव जीवन की वास्तविकता से कोसों दूर है। सच तो वह है जो मनुष्य अपनी आँखों से देख रहा होता है।'

                              ***

       शहनाइंयों की गूंज के साथ अचानक ही धूरगोले ने अपनी धमाकेदार आवाज़ के साथ आकाश में फूल बरसाये तो अपने घर के एक अकेले कमरे में उदास कामनाओं की प्रतिमूर्ति बनी प्रकृति के मसले हुये दिल पर जैसे अंगारे लोट गए। एक ओर खुशियों के तरानों के मध्य आकाश में कृत्रिम सितारों के पुष्प अपनी चकाचौंध के साथ  धरती के आंचल को भर रहे थे तो दूसरी तरफ यही पुष्प प्रकृति के दिल पर चिंगारियों समान जल रहे थे। बारात का सारा हुजूम हर पल नजदीक आता जा रहा था। शहनाइयों और बाजों के शोर­शराबे के साथ किसी का सुहाग दिल के आइने में सजाये हुए सपनों के समान बाबुल के घर के द्वार के पास बढ़ता जा रहा था तो बिना पतवार की नैया की तरह निराश खड़ी प्रकृति अपने कमरे की वीरानी में चुपचाप अपनी फूटी किस्मत पर आंसू बहा रही थी। वह कमरे की खिड़की से बारात की रोशनियों को देखती थी तो दूसरे ही क्षण अपना दिल मसोस कर अपने अरमानों पर विवशता की छुरियां भी चलाने को विवश हो जाती थी। आज तो उसके सारे सजे­ सजाये सपनों पर अंगारे बरस पड़े थे। उसके जीवन की सारी खुशियां उजड़ी हुई प्रकृति का बे­मौसम पतझड़ बन कर बेबस पड़ चुकी थीं। उम्मीदों के अमृत भरे प्याले सारी ज़िन्दगी का ज़हर बन कर उसके हलक से नीचे उतरने को जैसे उतावले हो रहे थे। दिल के ख्वाब उसकी डबडबाई हुई आंखों के सामने ही किसी बरसाती जल के समान बहे चले जा रहे थे। भविष्य के प्यारे­प्यारे सपनों के महल अचानक ही ढह­ढह कर उजाड़ हस्तियों के खंडरों समान उसको बार­बार रूला रहे थे। हर बार उसके दिल के किसी कोने में यही प्रश्न चीख पड़ता था कि उसके मानव ने ऐसा क्यों किया? क्यों किया? क्यों? आखिर क्यों?

             मानव— हां ! मानव ही। उसने क्यों प्रकृति के जीवन को उदासियों का मृतसागर बना डाला? क्यों? आखिर क्यों? प्रकृति ने तो अपने मानव को अपनी जान से भी बढ़ कर प्यार किया है। दिल की सारी हसरतों से उसकी हर पल उपासना की है। उसको चाहा था। उसके ख्वाबों में हर पल एक साये के समान उसके साथ चिपकी रही है। क्या मानव उसको प्यार नहीं कर सका? क्या स्वंय प्रकृति ने मानव को प्रभावित नहीं किया है? क्या वह मानव को समझा नहीं सकी या खुद मानव ही उसको छोड़ कर धरती की गोद में कैद हो गया है? उसका मानव ऐसा तो नहीं था। वह तो हर समय ही प्रकृति की उपासना और इबादत के वादे किया करता था। फिर कहां खो गया उसका ये महान प्यार? कहां चला गया उसका सारा वह आकर्षण जो कभी उसने अपनी प्रकृति के लिए संभाल कर रखा था। क्या उसका प्यार और आकर्षण प्रकृति के केवल एक पतझड़ को देख कर धरती के मात्र एक बसंत में ही जाकर लुप्त हो गया? यदि ये सब झूठ है तो फिर सच क्या है? झूठ तो वह था जो कभी भी सामने नहीं आ सका, लेकिन सच तो वही है जो वह देख रही है। क्यों किया मानव ने अपनी प्रकृति के साथ ऐसा ओछा विश्वासघात? क्या इसी सबब से मानव ने अपने प्यार का कभी भी प्रकृति के समक्ष खुल कर कभी भी प्रदर्शन नहीं किया था? परन्तु देखने वाले तो यही समझते हृो कि मानव और प्रकृति अभी साथ हैं। सदा साथ रहेंगे और साथ ही इस संसार के अस्तित्व में विलीन भी हो जायेंगे। परन्तु आज ये मानव जीवन की नैया उल्टे बहाव में किस तरह से चल उठी? प्रकृति का दीवाना, मानव क्यों किसी दूसरे के लिए बारात लेकर आ रहा है? शायद इसलिए कि, मुहब्बत की गुल्लक में जब बे-वफाई चुपचाप अपनी सेंध मार जाती है तो नेकी भी बदनामी के भय से चुपचाप हाथ से सरक जाती है. 

          क्यों ? आखिर क्यों ? वह तो मानव को बहुत पहले से ही जानती है। तब से जब कि उसका घर शिकोहाबाद में ही था। मुगलों के इतिहास में पैदा हुआ एक बादशाह दारा शिकोह के द्वारा बसाया हुआ ये छोटा सा कस्बा अब उत्तर प्रदेश के चूड़ी उद्योग के विशाल पर निहायत ही गन्दे और अवव्यवस्थित जिला फिरोज़ाबाद की तहसील है। लेकिन फिर भी शिक्षा के स्तर पर ये कस्बा अपने जिले से भी आगे है। आगरा विश्व विद्दयालय के अन्तर्गत चल रहे तीन मुख्य विद्दयालयों में से तब प्रकृति एक विद्दयालय की छात्रा थी। उस समय वह नरायन कालेज में पढ़ा करती थी। बी. ए. के द्वितीय वर्ष में जिस समय वह थी, तब तक मानव अपनी शिक्षा को अधूरा छोड़ कर नौकरी पा चुका था।

          प्रकृति का घर भी मसीहियों के गिने चुने परिवारों के द्वारा बसे हुए उस छोटे से चर्च कम्पाउंड में है कि जिसकी स्थापना किसी अंग्रेज मिश्नरी ने की थी और जो शायद आज भी नरायन कालेज के ठीक सामने ही बसा हुआ है। ये और बात है कि समय के बदलते हुए अंदाजों और हर पल बढ़ती हुई आबादी के कारण आज इस कम्पाऊंड का कद और आकार छोटा क्यों न लगता हो, परन्तु जब भी बीती हुई स्मृतियां मस्तिष्क के दरवाजों पर अपनी दस्तक देने लगती हैं तो अतीत के चित्रों को समेटने के लिए दिल के कमरे बहुत छोटे पड़ जाते हैं। यादें अपना ख़ाका बड़ी ही बेरूखी से सामने फैला कर जब भी कोई बिसरी हुई बात को दोहराने लगती हैं तो याद करने वाले के दिल में एक हूक सी उठ कर रह जाती है। अफसोस, क्षोभ, विषाद, दुख­दर्द, खुशी या फिर एक कभी भी न हल होने वाला पछतावा जैसी स्थितियों से वास्ता याद करने वाले को चाहे क्यों न पड़े पर अतीत की इन परछाइयों को वर्तमान की व्यस्त ज़िन्दगी से भगाया नहीं जा सकता है। यह मानव जीवन की वह दुखों से युक्त दर्दीली कसक भरी यादें होती हैं कि जिनके आंसू कभी थमते नहीं हैं। हां ये और बात है कि वक्त की हवायें इनको सुखा अवश्य ही देती हैं।      

           प्रकृति के लिए तब वयोसंधि का ये वह समय था जब कि उसे मालुम है कि वह मानव को अनजाने में ही कितना अधिक प्यार करने लगी थी. किसकदर उसको चाहती थी. इस कदर कि वह मानव की अनुपस्थिति  में तब अपना कोई अस्तित्व भी महसूस नहीं कर पाती थी। इतने अधिक उसके अछूते दिल में मानव के प्रति सजाये हुए प्यार के घरौंदे थे कि जिनकी कोई संख्या भी नहीं थी। प्यार का कोई माप दंड उसके पास नहीं था। उस समय स्वंय मानव भी उसका हर तरह से ख्याल किया करता था। ये वह जानती थी और उसका प्यार का मारा दिल। जब वे दोनों एक साथ पढ़ा करते थे, तब दोनों साथ ही कालेज जाया करते थे और साथ ही वापस भी आया करते थे। दोनों की कक्षायें और विषय विभिन्न होने के उपरान्त भी ऐसा प्रतीत होता था कि जैसे दोनों एक ही कक्षा के सहपाठी हैं।

         ...... सोचते­सोचते उदास खड़ी हुई प्रकृति की बोझल पलकों में स्वतः ही आंसू रात्रि में बेदम और मायूस टूटी हुई शबनम की बूंदों के समान भर आए। उसके दिल के अंदर छिपा हुआ दर्द उसकी सूनी पलकों में आंसुओं के साथ निराश कामनाओं का बिखरा हुआ प्रतिबिम्ब बन कर छलक उठा। यादों के दुख भरे,  भूले­बिसरे चित्र प्रकृति की नम आंखों के सूने पर्दे पर किसी मजबूर दुखिया की बेबसी बन कर स्वतः ही सरकने लगे . . . .

 . . .तब भी एक ऐसा ही ढलती हुई संध्या का समय था।    

            दूर क्षितिज के किनारे ढलते हुए सूर्य की दम तोड़ती हुई रश्मियों की अंतिम लालिमा के कारण सुर्ख़ हो चुके थे। आकाश में छुट­पुटे ठहरे हुए बादलों के काफ़िले नीचे धरती के प्राकृतिक सौंदर्य को बड़ी ही हसरत भरी निगाहों से निहारे जा रहे थे। इसके साथ ही सपनों की दुनियां में कलाबाजियां खाती हुई प्रकृति चर्च कम्पाऊंड की बाहरी दीवार के सहारे खड़ी हुई मानव के विचारों में लीन थी। सोच रही थी कि,  उसका मानव . . . . . उसका ही। किसी भी गैर का उस पर कोई भी अधिकार नहीं होना चाहिये। वह तो उसका ही है। केवल उसी भर का।

             'मानव' ! कितना सुन्दर नाम है? इतना सुन्दर कि, जिसकी सृष्टि ईश्वर ने अपने स्वरूप के अनुसार ही की है। ये कितनी अनोखी और विशेष बात है कि परमेश्वर ने जब प्रकृति की सृष्टि की थी तो उसकी रक्षा और हिफाज़त के लिए मानव को अपना स्वरूप दिया था। केवल मानव को ही। किसी व्यक्ति विशेष को नहीं। मानव और प्रकृति के शरणस्थल के लिए उसने धरती का आंचल पहले फैलाया था। परमेश्वर के बनाए हुए ऐसे अनूठे मानव को प्रकृति कितना कुछ प्यार करती है? इसकी ना तो कोई कल्पना है और न ही कोई सीमा।

             कम्पाऊंड की बाहरी दीवार पर अपना मुंह टिकाये हुये प्रकृति अपने मानव के लिए ऐसा ही कुछ सोचे जा रही थी। वह सोच रही थी कि उसका मानव जितना अधिक अच्छा है, उससे कहीं अधिक उसका असाधारण व्यक्तित्व भी है। कितना अधिक वह सभ्य भी है। कोई भी तो बुराई उसको मानव में नज़र नहीं आती है। कोई कमी भी नहीं। और होनी भी नहीं चाहिये। उसकी सहेलियां जब भी उसको मानव के साथ देखती हैं तो जैसै किसी ईष्र्या से जल भी जाती होंगी। उसकी पसन्द और चाहत को देख कर अपने दांतों से अंगुली भी काटने लगती हैं। ऐसा है उसका प्यार और उसकी पसन्द मानव। उसके भावी जीवन और ज़िन्दगी की सारी हसरतों का सुनहला सपना मानव। सपनों का अनोखा महल और जीवन साथी मानव। उसके दिल की धड़कन— धड़कनों का शोर— शोर में बसा हुआ संगीत— संगीत का मधुर गीत— गीत की आवाज़- उसकी अपनी आवाज़— अपना स्वर— मानव—मानव और केवल मानव ही।              

          प्रकृति खड़ी­खड़ी दीवार की टेक लगाए दूर क्षितिज के एक कोने में लगातार कम होती हुई सूर्य की लालिमा को देख­देख कर इन्हीं ख्यालों में खोई हुई अपने मानव के लिए सोचने में लीन थी। संध्या ढलते हुए रात्रि में परिणित हो जाना चाहती थी। दूर कहीं, बहुत दूर पर किसी ईंट के भट्टे की चिमनियों से उठता हुआ धुआं आकाश में बादलों की कृत्रिम पर्तें तैयार कर रहा था। सामने हरे­भरे खेतों की सजी हुई बहार किसी दुल्हन के समान सुहागिन बनने के सपने सजा रही थी। ठीक प्रकृति की उफ़नती हुई दिल की सारी यादों के समान ही वह भी खड़ी हुई इसी तरह के अपने भविष्य के उन दिनों के सपनों के लिए सोच रही थी, जब कभी उसने भी अपने भविष्य के लिये किसी की दुल्हन बनने का सपना देखा था। कितना सुन्दर और खुशियों से भरा उसका सपना था। किस कदर मन को लुभाने वाला। उसके मन के कोने­कोने में तारों की झंकार उत्पन्न करने वाला एक ऐसा सपना कि एक दिन उसका मानव भी उसकी सुन्दर सी मनमोहक बारात लेकर उसके द्वार पर आयेगा। शहनाइयों और बाजों की धूम के साथ और फिर बाकायदा उसको उसके द्वार से अपनी दुल्हन बना कर ब्याह कर ले जायेगा। तब सदा के लिए वह उसकी ही बन कर अपनी ससुराल चली जायेगी। वह उसकी बन कर और वह उसको अपना बना कर। ऐसी कहानी का जन्म होगा उसके जीवन में कि, जिसका आरम्भ तो होगा पर समाप्ति कभी भी नहीं हो सकेगी। तब कितना अच्छा वह वातावरण होगा. कितना अधिक मन को भाने वाला। ऐसा समय तो जिस किसी के जीवन में आता है तो वह भी केवल एक बार ही। कितनी खुशनसीबों वाली होती हैं वे जो ऐसा समय अपने जीवन में देख पाती हैं। तब प्रकृति अपने मानव के घर चली जायेगी। उस घर में जो कि उसका अपना होगा। एक छोटा सा घर। महल समान जिसमें वह होगी और उसका अपना मानव। उसके मन मंदिर पर राज्य करने वाला। उसके जीवन का सहारा— उसका हमसफर बन कर ही वह तब उसके साथ­साथ चला करेगा। ऐसे घर में वह जायेगी कि जहां पर हमेशा उसकी खुशियों के फूल उसके जीवन की महक बन कर मुस्कराते रहेंगे। तब उसके भविष्य के सारे सपने कल्पनाओं का साथ छोड़ कर वास्तविकता के धरातल पर एकत्रित हो जायेंगे।

             इसी मध्य उसकी छोटी बहन वर्षा ने उसको आवाज़ दी तो विचारों में मग्न प्रकृति अचानक ही चौंक गई।

'दीदी  कितनी देर से वहां पर खड़ी हुई हैं आप ? अंधेरा हो चुका है। मच्छर नहीं काट रहे हैं आप को क्या? मामा बुला रही हैं आप को अंदर।'

'?'- प्रकृति सुनकर चौंक गई.

          वर्षा की इस प्रकार की अप्रत्याशित बात पर प्रकृति ने आश्चर्य तो किया मगर वह बोली कुछ भी नहीं। बस चुपचाप वर्षा के कहने पर घर के अंदर चली गई। फिर जब अंदर आई तो उसकी मां ने उसे एक संशय से निहारा। थोड़ा आश्चर्य भी किया. फिर बोली,

'क्या हो गया है तुझको आजकल? बाहर दीवार के सहारे खड़े­खड़े हर वक्त किसको ताकती रहती है? कालेज से थकी-थकाई आती है. ये नहीं कि थोड़ा बहुत आराम ही कर लिया करे। कितने अच्छे मैंने मन से ये गोभी के पकौड़े बनाये थे. सब ठंडे भी हो गए हैं। ले अब ठंडे ही खा ले।'

       तब प्रकृति ने अपनी मां के हाथ से पकौड़ों की प्लेट को हाथ में थामते हुए उनकी बात को बड़ी ही सरलता से लेते हुए कहा कि,

“मामा आप लोगों के लिये लड़की थोड़ा बड़ी हुई कि न, बस जांच-ड़ताल शुरू हो जाती है। कहां गई थी? इतनी देर क्यों लगी? किससे बात कर रही थी? इससे मत बोला कर . . . . . .. इत्यादि न जाने कितने तरह के प्रश्न आरंभ हो जाते हैं?'

'मां हूं न तेरी। तू क्या जाने मेरा रोग? तुम दोनों लड़कियों को पाल कर ऐसे ही पचास साल की नहीं हो गई हूँ मैं. जब तू किसी दिन अपनी बेटी की मां बनेगी तब समझेगी कि, लड़की जवान होने लगती है तो मां­बाप का हर तरह का उठना­बैठना, खाना­पीना, सोचना­विचारना क्यों उसकी ओर केन्द्रित हो जाता है?'

अपनी मां की इस बात पर प्रकृति ने उससे लिपटते हुए कहा कि,

'मामा, क्यों इस तरह से चिन्ता करती हैं आप मेरी? अब मैं बच्ची थोड़े ही हूं.  कालेज में ग्रेजुएट कक्षा की छात्रा हूं।'

'जब बच्ची थी, तब इतनी चिन्ता नहीं थी, अब बड़ी हो गई है, इसी कारण दिन­रात तेरी फिकर लगी रहती है।'

मां की ये बात सुन कर तब प्रकृति ने आगे कुछ भी नहीं कहा। वह चुपचाप पकौडों की प्लेट लेकर अपने कमरे में चली गई। उसकी मां ने उससे क्या कुछ बोला था,  उसके लिए प्रकृति ने कुछेक पल विचारा, फिर बाद में यह सोच कर कि मां तो प्राय:  ही ऐसा कहती रहती है, अपने को सामान्य कर लिया और पुन:  अपने कार्य में व्यस्त हो गई।

         दूसरे दिन रविवार था। कालेज बन्द था। जाड़े के मनोहर दिन थे, जो हल्की ठंड के सहारे और भी लुभावने हो गये थे। सुबह की नाज़ुक धूप अभी अपना आंचल ढंग से पसार भी नहीं पाई थी कि चर्च की घंटियों ने प्रत्येक मसीही व्यक्ति के कानों में रविवार की आराधना का मधुर संगीत छेड़ दिया था। सर्दी की ऋतु में तो दिन यूं भी छोटे हुआ करते हैं। चर्च की आराधना आरंभ होने वाली थी। मसीही लोग कम्पाऊंड में सुकड़े-सिमटे नज़र भी आने लगे थे। वे गर्म और ऊनी स्वेटर तथा कोट आदि पहने हुए अपने प्रभु परमेश्वर की आराधना के लिये चर्च की ओर चले जाते थे। चर्च की दूसरी घंटी बजने ही वाली थी। इस समय हरेक के दिल में शायद पवित्र विचार थे? कोमल ख्यालातों के साथ अपने परमेश्वर से प्रार्थना करने के लिये वे सब आगे बढ़े जाते थे। आज के इस दिन तो वे सब ही अपने परमेश्वर से पिछले हफ्ते की सब तरह की सलामती के लिये विशेष धन्यवाद की प्रार्थना करेंगे और अपने किये पापों की क्षमा भी मांगेगें. अपने जीवन के इस विशेष दिन रविवार को प्राप्त करने के लिये वे अपने सिरों को परमेश्वर के आगे धन्यवाद के लिये झुका देंगे। उस ईश्वर के चरणों में जो एक ही ईश्वर और जो हरेक धर्म में भी विराजमान है। जिसने सारी सृष्टि की रचना की है। जिसने इंसान को इस संसार में एक सही मानवीय ज़िंदगी जीने के लिये सृजा था। मनुष्य को किसी भी गलत मार्ग पर चलने के लिये ऐसे ईश्वर ने सदैव ही मनाही की है। यदि किसी ने कोई गलत कार्य जाने या अनजाने में किया भी होगा तो वह आज की इस आराधना में क्षमा भी मांग सकता है। उनका दयालु परमेश्वर उनको क्षमा भी कर देगा, यदि वे फिर से गलत कार्य नहीं करेंगे। अपनी प्रार्थनाओं और मन के परिवर्तन के माध्यम से वे फिर अपने जीवन के अगले दिनों के पूर्ण सहयोग के लिये अपने सिरों को परमेश्वर के चरणों में झुकायेंगे। ऐसा है उनका प्रेमी परमेश्वर और परमेश्वर का महान और अनोखा प्रेम कि उसने इस जगत से ऐसा प्यार किया कि अपना एकलौता पुत्र भी दे दिया, ताकि जो कोई उस पर विश्वास लाये वह नाश न होये बल्कि अनन्त जीवन पाए। इसी विश्वास के साथ सारे लोग चर्च के प्रांगण की तरफ बढ़े जाते थे.

         प्रकृति भी अपने घर में जल्दी ­जल्दी तैयार हो चुकी थी। उसे भी बचपन से ही सदैव चर्च जाने की शिक्षा दी गई थी। पहले वह तैयार हुई फिर अपनी छोटी बहन वर्षा को तैयार करने में सहायता की और फिर चर्च की ओर चल दी। उसके माता­पिता पहले ही उसको आवश्यक हिदायत देने के पश्चात चर्च जाने के लिये निकल चुके थे। फिर वह जैसे ही अपनी बहन वर्षा के साथ कम्पाऊंड के मैदान में आई तो तुरन्त ही दीवार के दूसरी ओर से आते हुये मानव से उसका अचानक ही सामना हो गया। मानव ने उसे देखा तो वह उसे देख कर हल्के से मुस्करा दी। साथ ही मानव भी मुस्कराया। फिर दोनों ही अपने आप ही कुछेक पलों के लिये खड़े भी हो गये। प्रकृति बड़ी ही गम्भीरता के साथ मानव को निहार रही थी। ऊपर से नीचे तक वह अपने सफेद वस्त्रों में सजा हुआ किसी अपोलो यान का यात्री लग रहा था। उसके हाथ में क्रिकेट की गेंद को देख कर प्रकृति चाह कर भी उससे कुछ कह नहीं सकी। प्रकृति को तब चुप देख कर मानव ने उससे कहा कि,

'चर्च जा रही हो?'

“हां ! और तुम?' प्रकृति के उत्तर के साथ मानव के प्रति उसका शिकायत भरा एक प्रश्न भी था।

'मैं फील्ड में जा रहा हूं।'

'?'

मानव के इस उत्तर पर प्रकृति उससे बोली,

'चर्च जाना तो कभी जीवन में सीखा ही नहीं है तुमने ?'

'देखो बात एक ही है। तुमने फील्ड में जाना नहीं सीखा है और मैंने चर्च. कितनी बार मैंने तुमसे व्यक्तिगत रूप से अनुरोध किया है कि कम से कम एक बार आकर तो मेरा मैच देख लो. पर तुम्हें तो आना ही नहीं है।'

 मानव ने भी जैसे उससे शिकायत सी की, तो प्रकृति ने उससे कहा कि,

'मैंने कितनी ही बार तुमको समझाया होगा कि, तुम्हारे ये चौके और छक्के तुम्हारे जीवन का उद्धार नहीं कर सकते हैं। मनुष्य के लिये उसके परमेश्वर की आराधना, पूजा और उसका साथ होना बहुत ही आवश्यक है। मेरी समझ में ये नहीं आता है कि, क्या तुम इस कदर स्वार्थी प्रवृति के हो कि अपने परमेश्वर के लिये हफ्ते में एक घंटा भी नहीं दे सकते हो? अपने साथ के ज़रा हिन्दू लडकों को देखो कि, वे कुछ भी करने से पहले अपने मन्दिर में जाकर एक बार घंटा तो बजा ही आते हैं? आखिरकार तुम एक मसीही लड़के हो। तुम्हारे पापा यहां के चर्च के पास्टर हैं। तुम्हारे घर के सारे लोग चर्च और दुआ बंदगी में हिस्सा लिया करते हैं। एक तुम हो कि या तो तुम्हें खेलने से ही फुर्सत नहीं है और नहीं तो सारे­सारे दिन पादरी साहब की कोठी में घुसे हुये कहानियां ही पढ़ते रहते हो?'

'देखो, प्रकृति ! मैं बड़ा क्रिकेटर तो बन नहीं सकता हूँ, ये मुझे मालुम है. चर्च जाकर मसीहियत का प्रचार करूं, लोगों के ताने सुनूँ, जूते खाऊँ, ऐसा करके कोई अगर ईसाई बन गया तो अपने ऊपर धर्म-परिवर्तन कराने का आरोप लगाऊँ, मिशन की ज़रा सी तनख्वाह में जी सकूं और न मर सकूं, ये मुझसे हो नहीं सकता है, हां कहानियां पढ़ने से कभी कहानीकार या उपन्यासकार बन जाऊं, इसकी संभावना तो हो सकती है.'

'हूँ? तुमसे तो बात ही करना गुनाह है.'

प्रकृति की इस प्रकार की झुंझलाती हुई बात पर मानव थोड़ा सा गम्भीर हो गया। वह कुछेक पलों तक खामोश बना रहा। फिर बाद में गम्भीर होकर बोला कि,

'प्रकृति, कहानियां लिखना और पढ़ना मेरी हॉबी है। मेरे जीवन की सबसे बड़ी कमजोरी भी है। खेलता इसलिये हूं कि इस खेल के अतिरिक्त मुझे और कुछ आता भी नहीं है।'

'तुमको और आयेगा भी क्या?'

'अच्छा?' कहते हुए मुस्कराया तो प्रकृति आगे बोली,

'मैं जो कहती हूँ उसे हल्के में मत लिया करो. तुम अपनी सारी कहानियों और रचनाओं को एक स्थान पर जमा करके अपनी एक वक्त की रोटी भी नहीं खा सकते हो। इसीलिये कहती हूं कि ज़िन्दगी को बहुत करीब से देखना सीखो। कुछ बनने की कोशिश करो। मनुष्य लगन और परिश्रम से ही अपने जीवन की नाव को पार लगा पाता है।'

'शायद तुम ठीक ही कहती हो। मैं जो कुछ भी आज लिखता हूं उसे कोई भी पसन्द नहीं करता है, क्योंकि उसमें चोट नहीं है। लेकिन याद रखना कि जिस दिन मेरे जीवन में किसी ने कस कर तमाचा मारा, उसी दिन मेरी रचनाओं में दर्द समा जायेगा। और जिस दिन भी ऐसा हुआ, उस दिन से मेरी रचनाओं के शब्द चारों तरफ फैलते जायेंगे और मैं खुद धीरे­धीरे करके हर दिन मरता जाऊंगा. किसी मोमबत्ती के समान— जो पिघल­पिघल कर अपने सारे अस्तित्व को इस धरती की गोद में बहा देती है।'

मानव की इस बात पर प्रकृति जैसे रूष्ट हो गई। वह उससे आगे बोली,

 'मैंने तुमको ज़रा सा समझाने की कोशिश क्या की, तुम अब मरने­जीने की बात करने लगे? लेकिन ठीक है जब तुम्हारा ऐसा ही निर्णय है तो तुम अपने रास्ते पर चलो और मैं अपनी राह पर। देखते हैं कि कौन किनारे पर आता है?'

तब मानव ने जैसे चौंक कर कहा कि,

'तुम्हारा मतलब?'

'सीधी सी बात है कि जब तक तुम चर्च जाना नहीं सीखोगे तब तक मैं भी तुम्हारा मैच देखने कभी भी नहीं आऊंगी।'  प्रकृति जैसे नाराज़ हो कर बोली।

'प्रकृति?'

'चौंको मत? कोई गलत बात नहीं कही है मैंने।'  प्रकृति ने कहा तो मानव उससे आगे बोला कि,

'नहीं, ऐसी बात नहीं है। कभी­कभार तुम्हारी बात आवश्यकता से अधिक भारी हो जाया करती है।'

'पर तुम ऐसे ढीठ हो कि तब भी तुम पर कोई असर नहीं हुआ करता है?'

'हां ये तो है, पर न मालूम क्यों मुझ पर ईश्वर, भगवान, इबादत और पूजा, विश्वास जैसी बातों का असर क्यों नहीं होता है?'

'शैतान का दिल है और वह भी बिल्कुल काला, असर कहां से होगा?'

प्रकृति की इस बात पर मानव ने विषय को बदलते हुये उससे पूछा कि,

'तो फिर आओगी न मेरा मैच देखने?'

'मेरा नाम प्रकृति है. इन छोटी­छोटी मौसमी हवाओं से मेरे नियम और कानून नहीं बदला करते हैं।'

'और मेरा नाम भी मानव है. सजावट भरे आदर्शों से कभी भी अपनी मानवता जाहिर नहीं किया करता हूं।'

'इसका मतलब?' प्रकृति ने तुरन्त ही पूछा।

तुमको परमेश्वर की आराधना किये बगैर संताष नहीं मिलता है और मुझे खेले बिना। लेकिन बात एक ही है, अर्थात् तुम परमेश्वर की आराधना करती हो और मैं खेल की. जब कि मकसद दोनों का एक ही है, यानि कि, आराधना करना।'

मानव की इस बात पर प्रकृति जैसे खीज गई। वह उससे झुंझलाते हुये बोली,

'मैं तुम से ऐसी बात करने में अपना समय बरबाद नहीं करूंगी। मैं अब चलती हूं। तुम अपनी आराधना करने जाओ और मैं अपनी इबादत।'  ये कहते हुये वह जैसे ही चलने को हुई तो मानव ने उसे रोका। वह बोला कि,

'अरे सुनो तो ज़रा?'

'?'-  तब प्रकृति वहीं खड़ी रह गई तो मानव उसके पास आकर बोला,

'तुम परमेश्वर के मंदिर में तो जा ही रही हो, तो एक चीज़ मेरे लिये भी मांग लेना।'

'वह क्या?' प्रकृति ने एक संशय से पूछा।

'यही कि मानव को किसी की आराधना करने का रोग लग जाये।'

'मेरे मांगने से कोई भी लाभ नहीं होने वाला।' प्रकृति ने कहा।

'वह क्यों?'

'जब पहले ही कोई रोग लगा हो तो दूसरा रोग आसानी से नहीं लगता है।'

'तो इलाज करा दो न. अपने चमत्कारिक यीशु मसीह से दुआ करके.'

'शट अप. लगता है कि अब तुम्हारे दिमाग का भी इलाज़ करवाना पड़ेगा.'

        ये कह कर प्रकृति अपनी बहन वर्षा का हाथ पकड़ कर चुपचाप वहां से चल पड़ी और मानव केवल उसको मुस्कराता हुआ देख कर ही रह गया।

         चर्च के गेट तक पहुंचने से पहले ही आराधना की सर्विस आरंभ हो चुकी थी। प्रकृति भी बहुत खामोशी से अपनी साढ़ी को संभालती हुई एक स्थान पर जाकर बैठ गई थी। उसके पास ही वर्षा भी बैठी थी। कम्पाऊंड के लगभग सारे ही मसीही लोग अपने प्रभु परमेश्वर के सामने अपने सिरों को झुकाये हुये बैठे थे। देखते ही प्रतीत होता था कि सचमुच ही सारी मंडली में अपने परमेश्वर के प्रति एक सम्मान था। आदर था और दिलों में बसी हुई आराधना की लगन भी। लेकिन वहां पर बेमन से जैसे बैठी हुई प्रकृति का दिल इस आराधना के प्रत्येक कार्य से कोसों दूर था। आज प्रकृति का मन किसी भी बात में नहीं लग रहा था। वह बार­बार मानव के प्रति सोचने पर विवश थी। मानव, जिसने आज फिर एक बार उसकी भावनाओं की अवहेलना कर दी थी। अपनी भावनाओं का एक बार उसे कोई मलाल भी नहीं था, पर उसे सबसे बड़ा दुख तो यही था कि मानव को परमेश्वर का भी कोई भय नहीं था। वह सोच रही थी कि, वह क्यों ऐसा है?  उसे क्यूं धार्मिक संस्थानों और उसके कार्य-कलापों में कोई भी आस्था क्यों नहीं है?  क्या इसी कारण कि वह एक युवक है। अभी कालेज में पढ़ रहा है। एक गैर­जुम्मेदार विद्दयार्थी है। उसके सिर पर अभी कोई भी उत्तरदायित्व नहीं है। अपने साथी विद्दयार्थियों के साथ घुलना और मिलना उसकी सबसे पहली रूचि हो सकती है। खेल की ओर उसका रूझान होना बहुत स्वभाविक भी है। प्रकृति को जहां एक ओर मानव की सफलताओं के कारण प्रसन्नता होती थी तो वहीं दूसरी तरफ उसकी धार्मिक आस्थाओं के कारण अरूचि को देख कर बहुत दुख भी होता था।

       ये तो सच था कि मानव कालेज में एक अच्छा खिलाड़ी माना जाता था। विशेष कर क्रिकेट के खेल में उसकी बॉलिंग बहुत ही अच्छी मानी जाती थी, लेकिन प्रकृति के लिये ये सबसे बड़ी दुख की बात थी कि मानव प्राय: किसी भी धार्मिक गति विधियों से सदैव दूर ही भागता रहा था। प्रकृति ने कई बार चाह था कि मानव जिस कदर अपने खेल के मैदान में रूचि लिया करता है उतना ही वह अपने आदर्शों को महान बनाने के लिये परमेश्वर में भी आस्था  रखने लगे। इसी कारण उसने जब भी मानव से चर्च या सन्डे स्कूल जाने के लिये अनुरोध किया तभी उसने बड़ी आसानी के साथ इस विषय को बातों में ही टाल दिया है। उसके अनुरोध को मात्र एक व्यंग का रूप देकर ही जैसे हवा में उड़ा दिया था। मानव तो केवल उसकी बातों को मात्र टाल कर ही चला जाता था, परन्तु प्रकृति के दिल और दिमाग, दोनों ही पर परेशानी के चिन्ह बनते थे और कोई भी हल न मिलने के कारण वहीं फैल कर रह भी जाते थे। मानव तो अक्सर ऐसा करके चला जाता था, परन्तु उसके चले जाने के पश्चात प्रकृति केवल सोचने पर विवश हो जाती थी। वह सोचती थी और ख्यालों में कभी­कभी मानव को बुरा-भला भी बक देती थी। वह भावनाओं में बह कर ऐसा अपने आप कह सुन तो लेती थी परन्तु मन में सदा वह मानव की सफलताओं की कामनायें भी करती रहती थी। सदा उसके हरेक भले के लिये ही सोचा करती थी।

             मानव उसके दिल के आयने के किस कदर करीब था, ये शायद मानव को भी ज्ञात नहीं था। शायद इसी कारण प्रकृति मानव पर अपना अधिकार समझते हुये उसे कभी­कभार डांट भी देती थी। फिर ये एक प्रकार से सामाजिक मानवीय प्रेम का सत्य भी है कि, मनुष्य जिस को अपना बना लेना चाहता है या फिर जिस को अपना समझने लगता है, वह उस पर अपना एक अधिकार भी मानने लगता है. पर ये और बात है कि वह अपने इस अधिकार का उपयोग किसी भी कानूनी तौर से नहीं कर पाता है। ये बहुत ही स्वभाविक तथ्य है कि जो वस्तु मनुष्य की अपनी होती है, अथवा अपनी होने वाली होती है, उसके हरेक अच्छे और बुरे का ख्याल तो मनुष्य को रहने ही लगता है। यही हाल प्रकृति का भी था। वह मानव को अपना समझती थी। मन से ही नहीं बल्कि मन की आत्मा में भी मानव सदैव विराजमान रहता था। वह हमेशा मानव को अपने उस साथी के रूप में देखा करती थी कि, जिसे इंसानी जीवन के हमसफर की संज्ञा दी जाती है। यही कारण एक ऐसा था कि प्रकृति का मन प्राय:  ही मानव के आस­पास टहलता रहता था। उसकी दिल की कोमल भावनाओं में यहां तक मानव का ख्याल छाया रहता था कि वह प्रत्येक समय मानव की गति विधियों को किसी न किसी तरह से अपनी चाहत भरी नज़रों से निहारती रहती थी। निहारती थी और उसके चित्र अपने मन के साफ शीशे पर बनाती जाती थी।

            विचारों के ताने बानों के मध्य अचानक ही दान पात्र प्रकृति के सामने आकर रूक गया तो वह सहसा ही चौंक गई। फिर तुरन्त ही अपने रूमाल में से परमेश्वर के लिये लाया हुआ धन्यवाद का चंदा निकाला और चुपचाप श्रद्धापूर्वक दानपात्र में डाल दिया। आराधना का समय समाप्त हो चला था। फिर सहसा ही प्रकृति को ध्यान आया कि वह इस कदर अपने विचारों की दुनियां में खो गयी थी कि, कब सर्विस समाप्त भी हो गयी है, उसे कोई ध्यान भी नहीं रह सका था। अपनी सोचों और ख्यालों में दरिया के बहते जल में पड़े हुये किसी सूखे पत्ते के समान बहती हुई वह कहां से कहां पहुंच गई थी। उसे कुछ पता भी नहीं चल सका था। दान लेने की रीति पूरी हो चुकी थी और पुलपिट पर खड़े हुये पादरी साहब दान की धन्यवादी प्रार्थना कर रहे थे। सब ही ने अपने सिरों को झुकाया हुआ था, सो प्रकृति भी अपने सिर को झुकाये हुये अपने परमेश्वर के सिज़दे में नत्मस्तक हो चुकी थी।

       आकाश में एक मात्र सूर्य का गोला हर दिन के समान आज भी अपना कर्तव्य विधाता के आदेशानुसार पूर्ण कर रहा था। कभी­ कभार वायु की कोई शीत लहर आती और सब ही के शरीरों से छेड़खानी करके चुपचाप चली भी जाती थी। प्रात: की कोमल धूप अब धीरे­धीरे प्रबल होती जा रही थी। जाड़े के दिन थे-  सर्दी से भरे हुये- सूर्य की किरणें, गुनगुनाती हुई, गरमाती हुई, सब ही को प्यारी लगती थीं।

       अचानक ही सामने बने हुये नरायन कालेज के खेल के मैदान में खेलते हुये लड़कों के शोर का खिलखिलाता हुआ झोंका प्रकृति के कानों से टकराया तो वह फिर से विचलित हो गई। चर्च का मुख्य दरवाज़ा बिल्कुल ही खेल के मैदान के सामने पड़ता था। सो चर्च के अन्दर से भी बैठ कर खेलते हुये लड़कों की कार्य विधियों को भली भांति पलट कर देखा जा सकता था। प्रकृति ने बैठे­बैठे अनुमान लगाया कि शायद क्रिकेट का खेल आरंभ हो चुका है?  फिर पीछे अपनी गर्दन घुमा कर देखा। कालेज के खेल के मैदान में चारों ओर खिलाड़ी नज़र आ रहे थे। उसने सोचा कि, उन्हीं में कहीं उसका मानव भी होगा। अपने खेल में पूर्ण दिलचस्पी ले रहा होगा। सारे जमाने से बेखबर और निश्चिंत। सोचते हुये प्रकृति एक बार फिर मानव के ख्यालों में भटकने के लिये विवश हो गई। उसने सोचा कि मानव उसका मानव और वह ‘मानव’ की एक ‘प्रकृति’ है। कितने वर्षों से वह उस को जानती है। जब मानव कभी अपने माता और पिता के साथ किसी बहुत पिछड़े हुये इलाके से यहां आया था। तब मानव ने किसी स्थानीय प्राइमरी स्कूल में प्रवेश लिया था।

                                                                                                                            तब मानव कितना अधिक गंवार और बे­शहूर किस्म का बच्चा था। बड़ों से तुम करके बात करना। बात करने में गाली देना और किसी भी मसीहत भरे परिवार में रहने के उसके कोई भी चिन्ह नज़र नहीं आते थे। प्रकृति को खूब ही याद है कि तब वह और मानव दोनों एक ही स्कूल में पढ़ा करते थे। वे उन दोनों के लापरवाही और बेफिकरी के ऐसे मोहक दिन थे कि जिन्हें हवा में उड़ते कोई देर भी नहीं लगी थी। उस बचपन के प्राइमरी स्कूल से जो उनका साथ रहा था वह आज तक इस कालेज की दहलीज़ पर आकर भी समाप्त नहीं हो सका है। मनुष्य की यादों की पर्तें बनती हैं और एकत्रित होती हैं, साथ ही ज़िन्दगी की एक कभी भी न पूरी होने वाली हसरतों की कसक बन कर दब भी जाती हैं। शायद यही जीवन है। जीवन का उसूल और जमाने का चलन भी कि, जिसमें सदा ही रस्में जीता करती हैं और ख्वाबों की दुनियां वास्तविकता के धरातल से टकरा­टकरा कर हमेशा अपना सिर पीटा करती हैं। तब से जीवन के कितने ही वर्ष यूं ही व्यतीत हो गये, कोई नहीं जान सका था। बचपन की सारी उमंगें और चंचलतायें बढ़ते हुये वक्त की हवाओं का स्पर्श पा कर युवा तो हुई हीं, पर गंभीर भी हो गईं। तब से मानव अब कितना बड़ा हो गया है? कितना अधिक गंभीर भी। इस बात का अनुभव केवल प्रकृति ने ही किया है। वह ये भी जानती है कि, यादों कि गलियों में घूमना तो सबको अच्छा लगता होगा, परन्तु जब स्मृतियों से हट कर वास्तविकता की सतह का स्पर्श प्राप्त होता है तो दिल के किसी कोने में छिपा हुआ दर्द न तो बाहर आ पाता है और न ही ढंग से अंदर ही ठहर पाता है।

           सहसा ही इबादत का अंतिम समूहगान आरंभ हो गया तो अपने विचारों में डूबी हुई प्रकृति फिर से चौंक गई। चर्च की इबादत समाप्त हो चुकी थी। आज इस इबादत में वह कुछ भी नहीं सुन पाई थी। आराधना के किसी भी भाग में वह दिलचस्पी नहीं ले पाई थी। वह सोचने पर विवश थी कि उसका परमेश्वर का प्रेमी मन क्यों आज इस इबादत के समय भटक गया था?  क्यों वह अपने पथ से विचलित हो गई थी?  क्या मानव के कारण?  तब उसके अंत:करण ने ये स्वीकार कर लिया कि सचमुच ही वह आज मानव के कारण इस आराधना की सर्विस में बैठ कर भी वहां पर नहीं थी। सारी सर्विस में कोई भी हिस्सा नहीं ले सकी थी। हर समय मानव के लिये ही सोचती रही थी। ये कोई नई बात भी नहीं थी. मनुष्य के जीवन में प्राय:  ऐसा ही हुआ करता है। ईश्वर भी सदैव अपने लोगों को ऐसे स्थान पर लाकर छोड़ता है कि जहां से वह हमेशा उनके पास ही बना रहे। पर ये मनुष्य की प्रवृति है कि, वह परमेश्वर के बताये हुये स्थान पर कभी भी नहीं ठहरना चाहता है। मनुष्य सदैव ही उस जगह पर ठहरना चाहता है कि जहां पर परमेश्वर का विरोधी शैतानी मन उसे लाकर छोड़ जाता है।

              ***                              

                                              

 

 

 

       आराधना की सर्विस समाप्त हुई तो सारे लोग चर्च के बाहर आकर एक दूसरे से हाथ मिलाने लगे। जीवन के नये दिन का प्रकाश मिलने की खुशी में सब ही चेहरों पर मुस्कानों की झलक थी। प्रकृति चर्च के दरवाजे से बाहर आई तो उसकी परेशान और बेचैन नज़रें अपने आप ही शहर के बाई पास के उस पार सामने कालेज के लम्बे­चौड़े खेल के मैदान की ओर ताकने लगीं। वहां पर लड़कों की भीड़ का जमघट अभी तक लगा हुआ था। ऐसा दृश्य देखते ही प्रकृति का छोटा सा दिल अपने आप ही भविष्य में आने वाली किसी ख़तरे की पूर्व शंका के कारण भयभीत हो गया। उसने स्वंय ही सोचा कि पता नहीं क्या बात हो?  उसकी बेचैन और परेशान निगाहें उन लड़कों की भीड़ में अपने उस मानव की तलाश करने की कोशिश करने लगीं जो अभी लगभग एक घंटा पूर्व ही अपने परमेश्वर की आराधना से किनारा करके दुनियां की दो पल की रंगत में अपने को जैसे विलीन करके चला गया था। प्रकृति अभी तक अपने आस­पास खड़े हुये लोगों की अनुपस्थिति से बेखबर दूर से ही मानव को देख लेना चाहती थी। यह उसका विश्वास था कि वह उसको कोसों दूर से ही पहचान लेगी। फिर ये सच भी है कि, इंसान के मन में बसी हुई तस्वीर तो अंधेरों में भी पहचान ली जाती है। उसने मानव को ढूंढ़ना चाहा पर वह उसको कहीं भी नहीं दिखाई दिया। खेल भी तो नहीं हो रहा था। प्रकृति ने सोचा कि अचानक वह भी बन्द हो गया है। शायद किसी के चोट आदि लग गई हो? ये क्रिकेट का खेल होता भी ऐसा ही है कि कोई भी घातक चोट लगने का भय सदा ही बना रहता है। कहीं उसके मानव को तो नहीं कुछ हो गया हो?  वह ही एक ऐसा उन लड़कों की भीड़ में था जो नहीं दिखाई दे रहा है। सोचते ही प्रकृति का दिल भय से कांपने लगा। दिल में उसके एक अजीब ही चिंता का विषय समा गया। फिर शीघ्र ही वह वर्षा का हाथ पकड़ कर लोगों की भीड़ में से बाहर निकल आई और तेज कदमों से बाई पास के उस पार से मानव की तलाश में उसकी परेशान आंखें पहले से और भी अधिक परेशान होने लगीं। परन्तु मानव उसको कहीं भी नज़र नहीं आया। उसने दूर से ही एक­एक करके सारे लड़कों को पहचानने की चेष्टा की। हरेक को ध्यान से देखा, परन्तु उनमें उसका मानव कहीं भी नहीं था। जब वह नहीं मिला तो अचानक ही उसका पहले से भयभीत कोमल दिल कांप गया हृदय की सारी धड़कनें अपने आप ही गतिशील हो गई। एक शंका से उसने भयभीत हो कर अनुमान लगाया कि कहीं उसके मानव को ही कोई चोट आदि न लग गई हो?  खुदा न करे कि उसके मानव को कुछ हो। वह तो सदैव ही उसकी सलामती की दुआयें मांगती रहती है। फिर जब उसके परेशान मन को कोई संतोष नहीं मिल सका तो वह अपनी छोटी बहन वर्षा को घर छोड़ आयी और शीघ्र ही अपनी अन्तरंग सहेली तारा के घर चली गई।

           तारा उसको यूं अचानक से अपने घर आये देख कर चौंकी तो पर उसने प्रकृति की आमद को कोई विशेष नहीं लिया। दोनों सहेलियों का तो वैसे भी एक दूसरे के घरों में आना जाना होता ही रहता था।

'अरे ! चर्च से आ रही है तू?'  तारा प्रकृति को देखते ही बोली।

'हां। लेकिन तू तो चर्च जा ही नहीं सकती है। क्या करती रहती है?'  प्रकृति ने शिकायत सी की तो तारा बोली,

'देख तो रही है। सुबह से उठी हुई हूं, पर घर के काम ही नहीं समाप्त होते हैं। चर्च कैसे चली जाया करूं?'

'तेरी सारी जिन्दगी ख़त्म हो जायेगी पर काम कभी भी पूरे नहीं होंगे?'

            प्रकृति की इस बात पर तारा पहले तो मुस्काई फिर उसकी ओर देखते हुये बोली,

'ये भी कोई नई बात कह दी है तूने। ये तो एक कठोर सत्य है। जिस दिन से ये दुनियां बनी है, लोग आये और चले गये, पर इस संसार का कुछ भी नहीं बिगड़ सका है। काम तो सदा चलते ही रहेंगे।'

'तभी तो कहती हूं कि थोड़ा सा वक्त निकाल कर अपने प्रभु का भी ध्यान कर लिया कर। परमेश्वर की दुआ­बंदगी में भी मन लगाया कर।'

            प्रकृति के मुख से ऐसी बात सुन कर तारा अचानक ही जैसे पुलकित हो गई। वह अपनी पुतलियों को फैलाती हुई तुरन्त ही बोली,

'ओह !  ध्यान आया कि तेरी आराधना का क्या हुआ। कोई दर्शन आदि भी हुआ है कि नहीं?'

'?' -  तारा के मुख से संशयभरी बात को सुनकर प्रकृति अचानक ही कुछेक पलों को गंभीर हो गई। लेकिन फिर थोड़ी देर के बाद वह उससे बोली,

'मैं इसी कारण तो तेरे पास आई थी। न मालुम उसे क्या हो गया है। मेरे न चाहने पर भी वह खेलने चला गया और सुनने में आया है कि खेल अचानक ही बन्द हो गया है और किसी के चोट आदि लग गई है?'

'मत घबरा। वह जितना मनमौजी है उससे कहीं अधिक मज़बूत भी। उसे कुछ भी नहीं होने वाला है।अगर बॉल आदि से कहीं चोट लगी भी होगी तो वह तेरे बगैर मरनेवाला भी नहीं है।'  तारा ने कहा तो प्रकृति बोली,

'वह तो ठीक है। मेरी हंसी मत उड़ा। अब तू जल्दी से कपड़े बदल ले और चल फील्ड में चल कर देखते हैं कि आखिरकार बात क्या है?'

         तब तारा शीघ्र ही तैयार होकर प्रकृति के साथ नरायन कालेज के खेल के मैदान की ओर चल दी। फिर वहां जाकर उन्हें ज्ञात हुआ कि सचमुच ही मानव के सिर में गेंद लगने के कारण खेल तो बंद पड़ा ही था और सारे खेलने वाले लड़के मानव को उठाकर शिकोहाबाद के स्थानीय डाक्टर कपूर की क्लीनिक में लेकर गये थे, ताकि तुरन्त ही उसका उपचार हो सके। प्रकृति ने जब ये सब सुना तो उसका तो जैसे दिल ही टूट गया। जिस बात का उसे डर था, वही हुआ भी यहा। वह मानव को एक पल देखने के लिये छटपटा कर ही रह गई। उसने सोचा कि न जाने कैसी चोट हो। कितनी घातक। कहीं उस को कुछ हो न जाये। सोच कर उसका दिल जैसे फड़फड़ा कर ही रह गया। वह यहां से मानव को देखने भी तो नहीं जा सकती है। उसके वापस आने की प्रतीक्षा के पश्चात ही वह उसको देख सकती थी।

'अब क्या सोच रही है?'

तारा ने प्रकृति को गंभीर मुद्रा में यूं देखा तो अचानक ही टोक दिया।

'कुछ नहीं.'

प्रकृति ने तारा को छोटा सा उत्तर दिया। फिर वह उसके साथ अपने घर पर वापस आ गई। उदास सी। मानव की चोट ने आज फिर एक बार उसके दिल के छुपे हुये अरमानों पर चोट पहुंचा दी थी। उसके मन और आत्मा को परेशान करके रख दिया था। मानव की ये दुर्घटना जैसे उसकी अपनी दुर्घटना बन गई थी। 'मानव' के किसी भी कष्ट से उसके अपने दुख का कितना बड़ा सम्बन्ध था। ये बात तो वही अकेली जानती थी। उसके किसी भी दर्द को केवल उसका दिल ही महसूस कर सकता था। शायद किसी अन्य को उसके दिल में छिपे हुये भेदों का ज्ञान नहीं था।

         सारे दिन प्रकृति मानव के लिये ही सोचती रही। हर समय खामोश बनी रही। गुम­सुम खोई­खोई सी। मां ने जब उसकी इस अचानक से परिवर्तित मुद्रा को देखा तो दो एक बार पूछा भी परन्तु प्रकृति इसको किसी न किसी तरह से टाल भी गई।

          फिर जब संध्या ने अपना आंचल समेटा तो प्रकृति उदास मन से कम्पाऊंड में लगे हुये अमरूदों के बाग के किनारे टहलने लगी। बहुत ही खामोश- उदास मन से अपने आप से रूठी­रूठी सी। उसकी परेशान नज़रें बार­बार शहर के बाई पास के उस पार बनी हुई यातायात से भरी हुई उस सड़क पर बिछ जाती थीं, जो सीधी ही शिकोहाबाद के मुख्य बाज़ार की तरफ जाती थी। यही सोच कर वह हर बार देखती थी कि शायद उसका मानव लौट रहा होगा। शायद अब लौटता ही होगा। बहुत देर तो यूं भी हो चुकी थी। सुबह से शाम तक उसे ये तो ज्ञात हो ही चुका था कि मानव के सिर में चोट तो लगी थी, पर घातक नहीं। फिर भी चोट तो चोट ही होती है। रक्त निकल ही आया था। एक बार प्रकृति के दिल में आया भी कि वह स्वंय मानव को किसी न किसी बहाने देख आये। परन्तु वह ये भी महसूस करती कि मानव के प्रति उसकी इस सहानुभूति और लगन को देख कर तो लोग कुछ अन्य ही मतलब निकालने लगते थे। जब भी ऐसा कोई अवसर आया तो उसने सदा ही देखने वालों की दृष्टि में संदेह की भावनायें ही देखीं थीं। लोग तो वैसे ही बातें बनाने लगे हैं। प्राय उसके और मानव के सम्बंधों के कारण अनेकों बातें लोगों में हो ही जाती थीं। यही सोच कर उसने अपने मन की धारणा और ख्यालात को बदल लिया और यही सोच कर अपने आप को संतोष दे लिया कि जब भी मानव वापस आयेगा तो वह इसी मार्ग से ही आयेगा। तभी वह उससे मिल भी लेगी और उसका हाल-चाल भी पूछ लेगी। नहीं तो कालेज में तो वह उससे मिल ही लेगी। हर हालत में- निसंकोच- और बड़ी ही स्वतंत्रता के साथ भी। अपने मन की बात कहने के लिये कॉलेज से अच्छी और सुरक्षित जगह और कौन सी हो सकती है?

             अमरूद के वृक्ष के तने से खड़े­खड़े अब तक प्रकृति को इतनी अधिक देर हो गई कि संध्या  पूर्णत: डूब कर अंधकार में परिणित हो गई। सूर्य का गोला दिन भर भागते­भागते लाल हो कर क्षितिज के किनारे पहुंच कर लुप्त भी हो गया। बाग में अंधेरा छा गया था और दिन भर की थकी­थकाई गौरंयायें तथा फाख्तायें भी अपने पंख फड़फड़ा कर सोने की तैयारी करने लगी थीं। कम्पाऊंड के चारों तरफ एक मटमैली चांदनी जैसा अंधकार बढ़ती हुई रात्रि के सूचक के रूप में अपनी चादर फैलाने लगा था। मानव की चिन्ता और ख्यालों में खोई हुई उदास प्रकृति को तो ये भी पता नहीं चल सका था कि उसकी मां कितनी ही बार उसको घर के दरवाजे के बाहर आकर झांक कर लौट भी चुकी थी। और वह वैसे ही बड़ी लालसा के साथ अपनी हसरतों की दुनियां को एक हर वक्त हाथों से सरकती हुई डोर के समान बार­बार थामे रहने का प्रयास कर रही थी। अपनी पूर्व मुद्रा में उसकी आंखें बार­बार सड़क की ओर ताकने लगती थीं। एक आशा में कि शायद मानव आ रहा होगा। शायद रिक्शे में? शायद अपने किसी मित्र के साथ? मस्तिष्क में पट्टी भी बंधी होगी। पता नहीं उसका क्या हाल हुआ होगा? अब तक तो उसे आ जाना चाहिये था? कितनी तो देर हो गई है?

             मानव की यादों में खड़े हुये प्रकृति को इतनी अधिक देर हो गई कि कुछेक क्षणों में चन्द्रमा भी सामने बनी हुई नरायन कालेज की बड़ी सी इमारत की छत के उस पार से उचक कर उसकी परेशान दशा को निहारने लगा। थोड़ा सा कटा हुआ चांद था। इसलिए फिर भी शीघ्र उग भी आया था. और अब सारे मसीही कैम्पस की तरफ झांकने लगा था। चर्च कम्पाऊंड की बस्ती के कुछ लोग मैदान में घूम रहे थे, तो कुछेक अपने­अपने घरों के सामने खड़े हो गये थे। चन्द्रमा हर क्षण अपनी किरणों की बौछार से उदास घूम रही प्रकृति के छुपे हुये दर्द को छिपाने का एक असफल प्रयत्न कर रहा था। हर तरफ चहल­पहल तो थी, पर इससे भी बढ़ कर खामोशी एक बिन बुलाये आगन्तुक के समान चारों ओर टहलने लगी थी। वातावरण में एक अनोखी ही चुप्पी थी। परन्तु इस चुप्पी से भी बढ़ कर प्रकृति के दिल में कोई आवाज़ थी। एक सदा थी, अपने मानव के लिये। कोई आरज़ू थी। इस आरजू में भी उससे कुछ कहने के साथ ढेरों शिकायतें भी थीं। ऐसी शिकायतें कि जिनमें उसका अथाह प्यार उमड़ता था। अब तक उसने सोच रखा था कि वह जब भी मानव से मिलेगी तो उसे खूब सुनायेगी। उसे आड़े हाथ तो लेगी ही परन्तु समझाने का प्रयास भी करेगी। क्रिकेट का खेल खेलने को मना करेगी। उसने सोचा कि, न जाने लोग प्यार क्यों किया करते हैं? करते हैं या फिर हो ही जाता है? हो भी जाता है तो फिर इतना परेशान क्यों हो जाया करते हैं? तब इस परेशानी में क्यों उन राहों की तरफ एक आस से ताका करते हैं, जहां से किसी को आना ही नहीं है? जिन सन्नाटों में जब कोई है ही नहीं है तो क्यों, किसे और क्यों आवाज़ दिया करते हैं? इन्हीं ख्यालों में वह मानव के आने की प्रतीक्षा करती रही, लेकिन उसका मानव नहीं आया। एक बार भी नहीं।

           रात अधिक बढ़ने लगी तो विचारों में डूबी हुई प्रकृति को अपनी दशा का ख्याल हो आया। उसे मानव के ख्यालों में घूमते हुये इतनी अधिक देर हो चुकी थी कि शाम भी पूरी तरह से ढल चुकी थी। रात पड़ने लगी थी। चन्द्रमा भी पूरी तरह से अपने निखार पर आकर मुस्करा उठा था। अमरूदों की बाग की घास में छिपे हुये छोटे­छोटे कीड़े­मकोड़ों की झंकारे भी सुनाई देने लगी थीं। दिन के उजाले से भयभीत चिपके हुये मच्छरों के काफिले अब अपने भोजन की तलाश में जानवरों और मनुष्यों से चिपकने लगे थे। प्रकृति की प्रतीक्षा का बांध भी टूट चुका था। आस जाती रही थी। मानव नहीं आया था। नहीं आया तो मोह की मारी प्रकृति पूरी तरह से निराश हो गई। उदास होकर वह अपने घर की तरफ लौट पड़ी। थकी­थकी सी। परेशान बेमन सी। सामने ही उसका घर था. अमरूदों के बाग़ से केवल दो मिनट की दूरी पर. फिर भी चलते­चलते उसकी व्याकुल आंखें पीछे मुड़­मुड़ कर मानव को देख लेती थीं। यही सोच कर कि मानव शायद लौट कर आ रहा हो? शायद अब आ रहा हो? हो सकता है कि उसके घर लौटने से पूर्व तक उससे उसकी भेंट हो जाये। हो जाये तो कम से कम वह एक बार तो उसकी कुशलता पूछ ही लेगी।

       प्रकृति को उदासी मिली तो उसके साथ ही सारा वातावरण भी उदास प्रतीत होने लगा। रात जैसे सिसक उठी। धीरे­धीरे- मन ही मन। प्रकृति को चिन्ता और प्रतीक्षा थी तो लगता था कि, चुपचाप सड़क के किनारे शांत खड़े हुये यूक्लिप्टिस के ऊंचे­ऊंचे गगन चुम्बी वृक्ष भी जैसे किसी का इंतजार कर रहे थे। आकाश में तारे चमक उठे थे। चन्द्रमा के सहारे अपनी कोमल और कमजोर रोशनी को नीचे धरती के आँचल में भरते हुए वे मानो 'प्रकृति' के दिल का दर्द भी बटोरने का यत्न कर रहे थे। हर तरफ खामोशी थी। इस रात की खामोशी में जैसे 'धरती' के 'मानव' की खुशियां छिन जाने के कारण सारी 'प्रकृति' का दिल भी दुख कर रह गया था। 'मानव' के दिल की मनोस्थिति का वातावरण की हरेक वस्तु से कितने पास का सम्बन्ध होता है। शायद बहुत करीब का? यदि 'प्रकृति' खामोश है तो उसके साथ का सारा माहौल ही चुप हो जाया करता है। यदि उसमें चंचलता है तो वातावरण की हरेक वस्तु भी मुस्कराती हुई प्रतीत होने लगती है।

           उस रात प्रकृति को बड़ी देर तक नींद भी नहीं आई। गई रात काफी देर तक वह जागती ही रही। मानव की अनुपस्थिति और उससे बहुत चाह कर भी भेंट न हो सकने के कारण उसका मन दुखी हो गया था। आंखों में निराशा के बादल घुमड़ आये थे। दिल परेशान था। बिस्तर पर पड़े­पड़े वह यही सोच रही कि मानव क्यों नहीं आया। क्या  उसके बहुत ही गंभीर चोट लग गई है?  क्या उसको अस्पताल में भर्ती कर लिया गया है?  उसे तो शाम ही को मरहम­पट्टी करवा कर वापस आ जाना चाहिये था? पता नहीं वह अब कहां पर होगा। कैसी दशा में। अभी तो रात है। सुबह होते ही वह उसके बारे में हरेक बात का पता लगा लेगी। कैसी विडंबना थी। कितना अजीब ही संयोग. 'मानव', 'प्रकृति' के माहौल में ही बास करता था, परन्तु वह उसकी कुशलता के लिये पता भी नहीं लगा सकती थी। फिर मानव के घर में था ही कौन?  केवल वह और उसके बूढ़े माता­पिता। उनका भी सहारा तो केवल उनका इकलौता मानव ही था। वह उसके बूढ़े मां­बाप से किस प्रकार मानव के बारे में पूछ सकती थी? किसी अन्य से मानव के बारे में बात चलाती तो लोग तो वैसे ही उसको संदेह से भरी निगाहों से घूरने लगते हैं। दूर क्यों जाओ, स्वंय उसकी मां ही उसको भेद भरी दृष्टि से ताकने लगती है। यहां इतने दोनों से पास रहने पर भी जमाने भर की दूरियां थीं। वे देख तो सकते थे, परन्तु होठों से दोनों में से किसी को भी दो टूक बात करना गवारा नहीं था। ये कैसा जमाने का चलन था कि प्रेम और चाहत में भी समाज का पहरा? सोच कर ही प्रकृति का समूचा मन अशान्त हो गया। वह अपनी विवशता और विडंबना का एहसास करते ही स्वंय को कोसने लगी। ये कितना बड़ा और कठोर सत्य है कि प्रकृति सदा से जो कुछ भी करती आई है वह केवल मानव के उत्कर्ष के लिये ही तो, परन्तु फिर भी जमाने ने सदैव ही उन दोनों के मध्य दूरियां बढ़ाई हैं। 'प्रकृति' और ‘मानव’ एक दूसरे के पूरक हैं, लेकिन फिर भी मनुष्यों के बनाये हुये नियम और कानून दोनों के मिलन की हॉमी नहीं भरते हैं। समाज ने कभी भी दोनों की जोड़ी को स्वीकार नहीं किया है। सदा ही उनके सम्बन्धों पर अंगुली उठाई है। उन्हें टोका ही है।

          रात हरेक क्षण ख़ामोशी के साहृा अपनी उम्र के पल गिन रही हृाी। सुबह होने की प्रतीक्षा में सारा आलम ही सो गया हृाा। समय का हर पल तक मौन हो चुका हृाा ्र परन्तु अपनी मुहब्बत की मारी प्रकृति का दिल अभी तक ह्याड़क रहा हृाा। हल्के­हल्के चुपचाप मगर फिर भी उसके दिल की इन ह्याड़कनों के शोर का ज्ञान जैसे किसी को भी नहीं हृाा। शायद मानव स्वंय भी उसके परेशान दिल की किसी भी दशा से वाकिफ़ नहीं हृाा।

       दूसरे दिन प्रकृति समय से पहले ही उठ गई। सारी रात तो उसे वैसे भी नींद नहीं आई थी। पूरी रात उसने केवल करवटें बदलते हुये ही काट दी थी। सोचों, यादों और चिन्ताओं की तकलीफ में। मानव के ख्यालों में वह चाह कर भी नहीं सो सकी थी। हर पल उसको मानव की चिन्ता ही सताती रही थी। उसकी याद के हरेक एहसास पर वह जैसे बिखर­बिखर जाती थी। शायद प्रेम की अनुभूति की दीवानगी का हाल कुछ ऐसा ही होता है कि अपने सपनों के देवता के गले का क्षण भर को हार बनने के लिये हर प्रेमी की बाहें तरस कर ही रह जाती हैं। लेकिन फिर भी ये कितनी अजीब बात है कि संसार का वह कर्ता कि जिसने सबसे पहले मानव प्रेम का अंकुर फोड़ा था, खुद उसका मानव के प्रति अथाह प्रेम की चाहत का सबसे बड़ा पन्ना कब लिखा जाएगा? प्रेम की कहानियां स्याही से लिखने की बात तो आम होती है, परन्तु पवित्र खून से लिखी हुई कलवरी की पहाड़ी पर लिखी हुई प्रेम कहानी का मेल क्या कहीं मिल सकता है? देश प्रेम की खातिर अपने बदन के रक्त का कतरा-कतरा भारत भूमि में मिला देनेवाले भगतसिंह, अशफाक उल्लाह खां, राम प्रसाद बिस्मिल और चंदर शेखर आज़ाद जैसे शहीदों की आत्माएं क्या भारत देश को सींचने के लिए अब दोबारा जन्म लेंगी?

       दूसरे दिन प्रकृति समय से पहले ही उठ कर शीघ्र ही कालेज चली गई। अपनी सहेली तारा के साथ जब वह कालेज पहुंची तो अच्छी­ खासी, भली धूप निकल कर चारों तरफ अपनी मानव चाहत की ख़ुशबू बिखेर रही थी। शिकोहाबाद के इस मशहूर नरायन कालेज के प्रांगण में गहमा­गहमी आरंभ हो चुकी थी। छात्र और छात्राएं किसी बगिया में खिले हुये रंग­बिरंगे फूलों के समान दिखाई देने लगे थे। प्रकृति ने कल रात से ही सोच रखा था कि वह आज हर हालत में मानव से भेंट अवश्य ही करेगी। यदि नहीं करेगी तो उसको चैन भी नहीं आयेगा।

           कालेज के अंदर चलते हुये तभी तारा ने बात आरंभ कर दी। वह बोली कि,

'प्रकृति'.

'हूं।' प्रकृति चलते हुये बोली।

'क्या तुझे मालूम है कि कल मानव के सिर में चोट लगने से क्या हुआ?'

'क्या हुआ?'  प्रकृति के पैर अचानक ही ठिठक गये।

'उस विचारे के सिर में गेंद क्या लगी कि, उसकी बूढ़ी मां की तबियत भी अचानक ही खराब हो गई।'  तारा ने बताया तो प्रकृति ने छूटते ही पूछा कि,

'क्यों? उन्हें क्या हो गया है?' तब तारा ने आगे कहा. वह बोली,

'तुझे तो मालूम है कि उसकी मां को दिल का रोग है। सो जब उन्हें पता चला कि उनके पुत्र के सिर में चोट लगने के कारण हस्पताल जाना पड़ा है तो फिर इस सदमे से उन्हें भी दौरा पड़ गया. फल स्वरूप उन्हें तुरन्त इलाज के लिये आगरा एस. एन. हस्पताल ले जाना पड़ा है।'

        तारा की इस सूचना पर प्रकृति जैसे जम सी गई। बड़ी देर तक वह कुछ कह न सकी। फिर काफ़ी देर की खामोशी के पश्चात उसने तारा से पूछा कि,

'अब कैसी हैं वह?'

'न मालूम-  खुदा ही जाने। मानव उनको लेकर आगरा गया हुआ है।'

'क्या कहा?'

         प्रकृति तो तारा की बात पर ऐसे चौंकी कि मानो उसको बिच्छू का डंक लग गया हो।

'और नहीं तो क्या? मानव जैसे ही सिर पर पट्टी बांधे हुए अपने घर आया था कि, उसे देखते ही उसकी मां को आगरा ले जाना पड़ गया था। उसे इस हाल में देखते ही उसकी मां को दौरा पड़ गया था। तुझे तो मालूम है कि यहां शिकोहाबाद में केवल डाक्टर कपूर के अलावा अन्य कोई दूसरा अच्छा डाक्टर भी नहीं है और साथ ही कोई अच्छे हस्पताल की सुविधा भी नहीं है। उन्हीं की राय पर मानव अपनी मां को आगरा लेकर गया हुआ है।'

         प्रकृति ने जब ये सब सुना तो वह सन्न सी रह गई। चलते हुये अचानक वह रूक ही गई। पैरों में जैसे पत्थर पड़ गये थे। तारा ने जब उसको टोक दिया तो वह फिर से कक्षा की ओर चलने लगी। बेमन से। मानो कोई जबरन उसे आगे की ओर ढकेल रहा हो। मानव के यूं बिना बताये हुये जाने की खबर सुन कर प्रकृति का दिल अचानक ही जैसे पसीज गया था। फिर ऐसा होता भी क्यूं नहीं?  आशा के स्थान पर निराशाओं के बादलों ने आकर उसके दामन को पकड़ जो लिया था।

        प्रकृति कालेज तो आ गई। नरायन इंटर कालेज। अभी उसकी कक्षा इसी पुरानी इमारत में लगा करती थी। मानव की कक्षा नई बन रही इमारत में लगा करती थी। सड़क के उस पार- यहीं से नरायन डिग्री कालेज की नई इमारत को प्रकृति रोज़ाना खेल के मैदान में आकर एक नज़र देख लिया करती थी। मगर हर दिन के समान जब उसने आज देखा तो निराशा के कारण उसका दिल भर आया। आंखों में सूनापन समा गया। होंठ जैसे ज़ख्मी से हो गये। आज कालेज में मानव नहीं था। मानव की अनुपस्थिति का तो जैसे सारा कालेज ही गवाही दे रहा था। अपने दिल के न जाने कितने ढेरों­ढेर अरमानों को साथ लेकर प्रकृति आज कालेज के लिये अपने घर से बड़े ही प्यार से निकली थी, परन्तु मानव की गैर-हाजिरी ने उसकी सारी लालसाओं के बनाये हुये फूलों के गुलदस्तों को राख़ करके रख दिया था। दिल की संजोयी समस्त बातें और शिकायतें दिल ही में कैद होकर रह गई थीं। अब तो होंठ चाह कर भी कोई गिला­ शिकवा नहीं कर सकते थे। आंखें भी अब किसी अन्य उम्मीद पर अन्यंत्र देखना नहीं चाह रही हीं। कालेज में जैसे बहारों की बरसात बरस रही थी। हर छात्र और छात्राओं के दिल उमंगों से भरे हुये थे। मन चंचल थे। होठों पर मुस्कानें खिल रहीं थीं, परन्तु प्रकृति का दिल अपने मानव के सिर में एक छोटी सी चोट भर लग जाने के कारण से ही उदास हो गया था। उसके एक दिन न मिलने के कारण से ही वह जैसे सूनी पड़ गई थीं। आंखों में जैसे दुनियां­जहान का इंतज़ार बस चुका था। होंठ प्यासे और दिल बेचैन था।

         नरायन इंटर कालेज के खेल के मैदान में खड़ी­खड़ी अकेली प्रकृति ऐसा ही कुछ सोचे जाती थी। एक बार तो उसके मन में ख्याल आया कि वह अपनी पुस्तकें उठा कर घर चली जाये परन्तु तारा का ध्यान आते ही वह टाल गई। वह तो प्राय: ही तारा के साथ कालेज जाती थी और उसी के साथ वापस भी आती थी। तारा उसकी सहेली, सहपाठिनी और पड़ोसन भी थी। उसने सोचा कि यदि वह इस प्रकार तारा को बगैर बताये घर चली भी गई तो वह क्या सोचेगी? सोच कर प्रकृति ने अपने दिल की इस धारणा को बाहर निकाल फेंका। फिर खामोश खड़ी­खड़ी सड़क के उस पार बनी डिग्री कालेज की बनी इमारत को निहारने लगी। यूं ही ख्यालों में कभी सूने आकाश को देखती, जहां पर सूर्य का गोला ठीक उसके सिर के बीचो­बीच अपनी छतरी तान चुका था, तो कभी अपने आस­पास के माहौल को बेमतलब से निहारने लगती थी।

          कक्षा लग रही थी। तारा तो कक्षा में ही थी, परन्तु प्रकृति अपनी परेशानियों में उदासियों का असर मिला कर कक्षा के बाहर चली आई थी। उसकी कक्षा के सभी छात्र और छात्रायें कक्षा के अंदर अपने अध्ययन में लीन थे, परन्तु प्रकृति यहां खेल के सूने और मूक स्थान में अपने विचारों का ताना-बाना साथ लेकर मानव के ख्यालों में भटक रही थी। वह सोच रही थी कि, आज वह डिग्री कालेज भी तो नहीं जा सकती थी। वैसे तो वह अक्सर ही जब भी उसे अवसर प्राप्त होता था, मानव से मिलने उसके कालेज की लाइब्रेरी में मिलने चली जाया करती थी, लेकिन आज तो जाना ही व्यर्थ था। मानव तो कालेज आया ही नहीं था। वह अपने दिल को किस प्रकार मानव की अनुपस्थिति का संतोष दिला पाती। इससे तो अच्छा था वह घर ही चली जाती। घर पर आराम ही करे। यहां पढ़ने में उसका मन तो लगना ही नहीं था। तारा की क्या, वह तो आ ही जायेगी। सोचते हुये उसके कदम स्वत:  ही आगे बढ़ने लगे। बहुत खामोशी के साथ- बिना किसी से कुछ भी कहे हुये बगैर वह चलती गई। उसने सोचा कि मानव आज नहीं तो क्या कल तो आ ही जायेगा। कल नहीं तो क्या दो­एक दिनों में तो उसे वैसे ही वापस आना ही है। जब आ जायेगा तब वह उससे मिल ही लेगी। अभी तो घर चलना ही बेहतर होगा। लेकिन फिर भी यदि मानव से उसकी भेंट हो जाती तो कितना अच्छा होता। कितना प्यारा और सुन्दर माहौल उसको मिल जाता। उसकी उपस्थिति में तो उसको जैसे सारे सजे हुये सपनों का संसार ही मिल जाता है- जीवन की समस्त बटोरी हुई खुशियों का निचोड़ . . . . . .सोचते­ सोचते प्रकृति अचानक ही डिग्री कालेज की लाइब्रेरी के गेट के सामने अचानक ही खड़ी हो गई तो सहसा ही उसे ख्याल आया कि वह तो अपने घर की तरफ जा रही थी, परन्तु मानव की सोचों में हर दिन के समान आज भी वह यहां लाइब्रेरी के सामने आकर खड़ी हो गई है। खड़ी हो गई तो फिर उसे अपनी दीवानगी जो उसने मानव के ख्यालों में खोकर प्राप्त की थी, के बारे में बोध हो सका। सच ही तो है कि, प्यार की अंधी राहों पर चलने वाले कदम केवल चलना और दौड़ना ही जानते हैं, देखना नहीं। यदि देखना सीख जायें तो प्यार के टूटे हुये बसेरों की कहानियां लिखने वाले शायद बहुत ही कम होते?

           प्रकृति अभी तक अपनी लैला जैसी दीवानगी और मूर्खता के बारे में सोच ही रही थी, कि कहां तो वह अपने घर की तरफ जाने की सोच कर निकली थी, परन्तु उसके कदम स्वत:  ही मानव के ख्यालों में उसके कालेज में आकर रूक गये थे। एक बार तो वह स्वंय भी अपनी इस हरकत पर आश्चर्य करके रह गई। ऐसा था, उसका प्यार और प्यार की दीवानगी कि, हर पल उसको एक ही ख्याल आता था-  मानव। आंखों में केवल एक ही तस्वीर थी- मानव। होठों पर एक ही पुकार थी- मानव। एक ही नाम— एक ही आस-  मानव। ऐसा मानव की जिसकी रचना ईश्वर ने अपने ही स्वरूप में बड़ी ही लालसाओं के साथ की होगी, परन्तु ये कैसा संयोग था, कि मनुष्य अपने सृजनहार को भूल कर उस मानव को अपना सदा के लिये बना लेना चाहता है, जिसको एक न एक दिन परमेश्वर की बनाई हुई धरती की गोद में सदा के लिये सिमट जाना होगा।

'अरे ! प्रकृति जी आप?'

          ख्यालों में डूबी हुई प्रकृति के कानों से अचानक ही अपने नाम के शब्द टकराये तो वह सहसा ही चौंक गई। आश्चर्य से उसने पलट कर देखा तो आकाश उसी की ओर देख कर मुस्करा रहा था। आकाश मानव का मित्र और सहपाठी भी था. अपने हाथ में कोई फायल को पकड़े हुये अभी भी वह प्रकृति की ओर देख कर मुस्करा ही रहा था और प्रकृति अभी तक ये निर्णय भी नहीं कर पाई थी, कि वह उसके सम्बोधन का उसे क्या उत्तर दे?  वह उससे कुछ बोले अथवा चुप ही रहे?

'क्या सोचने लगी हैं आप?'

          आकाश ने प्रकृति को खामोश और गंभीर मुद्रा में ध्यान-मग्न होते देखा तो फिर से टोक दिया।

          तब प्रकृति ने उसको एक छोटा सा नपा­तुला सा उत्तर दिया। वह बोली कि,

'कुछ नहीं.'

ये कह कर वह चुपचाप लाइब्रेरी में अंदर घुसने लगी तो आकाश ने फिर से बात आरंभ कर दी। वह बोला कि,

'मानव के पास आई होंगी आप तो? लेकिन वह तो . . . ' ये कह कर आकाश का चेहरा एक भेद भरी मुस्कान से भर गया। तब प्रकृति ने उसके इस परिवर्तित और संदेह से युक्त मुखड़े को देखा तो वह भी गंभीर हो गई। साथ  ही उसे आकाश के इस अप्रत्याशित व्यवहार पर क्षणिक ग्लानि भी हुई पर वह अपनी प्रतिक्रिया को अपने अंदर ही पी गई। फिर भी उसने अपनी थोड़ी सी तेज आवाज में आकाश से कहा कि,

'क्या कह रहे थे आप?'

'आज आया नहीं है वह. पता नहीं आपको कि, कल उसके सिर में खेलते समय चोट लग गई थी।'

आकाश ने प्रकृति के प्रश्न का उत्तर न देकर जब मानव के बारे में अतिरिक्त जानकारी दी तो प्रकृति जैसे मन ही मन झुंझला गई। वह अपने रूख़े और ख़रे स्वर में बोली कि,

'लेकिन मैं तो लाइब्रेरी आई थी, कोई मानव के पास नहीं।'  ये कह कर वह लाइब्रेरी में प्रविष्ट हो गई।

         तब आकाश भी जल्दी से उसके पीछे आ गया और बात को छेड़ता हुआ उससे बोला कि,

'बहुत अच्छा लगता है ये डिग्री कालेज आप को?'  आकाश ने फिर से अपनी एक भेदभरी मुस्कान छोड़ी तो प्रकृति जैसे अचानक से आई हुई किसी मौसमी हवा के एक झोंके से खीझ सी गई। सीढ़ियों पर ऊपर चढ़ते हुये उसके कदम जहां के तहां ही थम गये। वह वहीं सीढ़ी पर रूकते हुये पीछे मुड़ कर आकाश से बोली,

'आसमान के ललाट को चूमने की ख्वाहिश किसके दिल में नहीं होती है?'

         ये कह कर प्रकृति पहले से भी गंभीर हो गई। फिर खामोश होकर वह भीतर चली गई लेकिन आकाश ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। वह भी अंदर ही आ गया। ठीक प्रकृति के पीछे­पीछे ही और उसने पुन: बात आरंभ कर दी। वह बोला,

'सुनिये तो?'

'?'- प्रकृति ने उसे पीछे से मुड़ कर गंभीरता के साथ एक संशय से देखा तो आकाश बोला कि,

'क्या आकाश के ललाट तक पहुंचने के लिये ये सफ़र आपको बहुत ही लम्बा प्रतीत होता है?'

उसकी इस बात पर प्रकृति ने उसको उत्तर दिया,

'आप वह सफ़र खुद पूरा करके आये हैं। अच्छी तरह से जानते होंगे कि आपकी वह यात्रा छोटी थी अथवा बड़ी?'

          ये कह कर प्रकृति अपने आप को व्यस्त प्रतीत कराने के धेय्य से वहीं मेज पर पड़ी हुई किसी पत्रिका के पन्ने पलटने का उपक्रम करने लगी। आकाश उसकी बात पर खामोश तो हो गया था, पर वहां से हटा नहीं था। फिर थोड़ी सी देर की चुप्पी के पश्चात वह फिर से प्रकृति से बोला कि,

'अच्छा छोड़िये वह तो मेरी अपनी बात थी, लेकिन ये बताइये कि यदि 'आकाश' स्वंय ही 'प्रकृति' के कदमों में झुकने की लालसा रखे तो . . .?'

       आकाश की इस बात पर प्रकृति पर अचानक ही ओले गिर पड़े। उसने घूम कर आकाश को देखा। और  घूरा भी। घूरा इसलिए कि, वह जानती थी कि आकाश, मानव का सहपाठी होते हुए भी जब देखो तब ही उसे इसी प्रकार से परेशान करता रहता था. तब कुछेक क्षणों के पश्चात प्रकृति ने उसकी आंखों को निहारा। उनमें छिपी मूक भाषा को पढ़ा। फिर वह उससे गंभीरता से भरी हुई आवाज़ में बोली कि,

'मिस्टर आकाश ! जहां तक मैं समझती हूं कि आपको गलतफहमी नहीं हुई है बल्कि आप अपनी मूर्खता का प्रदर्शन कर रहे हैं। मैंने दूसरे आकाश के बारे में बात कही थी-  परमेश्वर के बनाये हुये उस आसमान की जिसको उसने इस पृथ्वी को जल के दो भाग करके बनाया था। आपके नाम आकाश के लिये नहीं मैंने कुछ भी नहीं बोला था- और ईश्वर के उस 'आकाश' ने हमेशा अपना सिर उठाना सीखा है, आपके समान हरेक लड़की के आगे मतलबी प्यार की भिक्षा का प्रसाद मांगते हुये नहीं। मैं समझती हूं कि अब मुझे यहां से चला जाना चाहिये।'

         इतना कह कर प्रकृति अपने तेज़ कदमों से लाइब्रेरी के बाहर निकल आई। बड़ी ही लापरवाही के साथ। आकाश उसे ठगा सा देखता ही रह गया। प्रकृति ने उससे बड़े ही भेद की ऐसी गंभीर बात कह दी थी कि जिसने शायद उसको पल भर में ही चेतनाविहीन करके रख दिया था।

         प्रकृति डिग्री कालेज से बाहर आई तो सड़क पर उसको अपने साथ की अन्य लड़कियां भी मिल गईं। वे सब ही बाहरी मेन गेट पर खड़ी हुई थीं। सब ही खिलखिला रही थीं और बातों में मग्न थीं। तारा भी उनके साथ  ही थी। प्रकृति ने उनको देखा तो उसके अपने घर की तरफ मुड़ते हुये कदम स्वत:  ही हृाम गये। वह उन सब की तरफ जाती उससे पहले ही उसकी सब सहेलियों ने उसे देख लिया था। प्रकृति उन सब की तरफ जाने के ख्याल से अभी सड़क पार कर ही रही थी कि, तभी किसी ने पुकारा,

 'प्रकृति'

'?' -  प्रकृति ने आश्चर्य से देखा.

      प्रकृति ने एक नज़र ठिठक कर देखा तो अनायास ही उसके मुख से निकल पड़ा,

'ओह तुम?'  कहते हुये प्रकृति जैसे अचानक ही किसी नई निकली हुई कोपल के समान लहलहा उठी।

      मानव उसके सामने खड़ा था। हाथ में ब्रीफकेस पकड़े हुये। मस्तिष्क में उसके अभी भी पट्टी बंधी हुई थी। वह शायद अभी­अभी ही किसी बस से ही उतर कर आ रहा था। प्रकृति उसको अचानक ही पाकर भावुकता में उसकी तरफ जैसे दौड़ पड़ी। चाहा कि वह उससे लिपट ही जाये। परन्तु यहां सड़क थी। लोगों का आना­जाना जारी था। फिर उसके साथ की अन्य सखियों का घ्यान भी केवल उसी ही तरफ था। इसलिये मानव के करीब पहुंचते हुये उसके कदम स्वत:  ही थम गये। उसकी व्याकुल बाहें हाथ फैला कर ही रह गईं।

'कहां चले गये थे तुम अचानक से यूं बगैर बताये हुये?'  प्रकृति ने मानव से छूटते ही शिकायत भरे स्वरों में पूछा।

'मामा को दिखाने ले गया था।'  मानव ने गंभीर होकर कहा।

'कम से कम मुझे तो बता जाते?'  प्रकृति के स्वर में फिर से शिकायत के साथ­साथ उसके प्रति रूष्टता भी थी।

प्रकृति की इस बात पर जब मानव कुछ कह नहीं सका और वह चुप ही रहा तो प्रकृति ने उससे आगे पूछा। वह बोली कि,

'अब कैसी हैं वह?'

'ज्यादा अच्छी नहीं हैं वह।' मानव का स्वर बोझिल था.

'और तुम्हारी यह चोट?'

'कोई विशेष गंभीर नहीं है- जल्दी ही ठीक हो जायेगी।'

'कैसे लगी थी?'  प्रकृति ने जानते हुये भी जानबूझ कर पूछा तो मानव मुस्कराता हुआ उससे बोला कि,

'तुम्हें याद है न, तुमने जरूर रविवार को खुदा से मेरे लिये सजा मांगी होगी? शायद ये उसका ही प्रभाव है?'

'अब छोड़ो भी इसको। वह तो मैंने यूं ही कह दिया था. फिर, तुम मेरी सुनते भी तो नहीं हो?'  प्रकृति बोली तो मानव ने कहा कि,

'तुमने तो यूं ही कह दिया था, पर परमेश्वर ने तुम्हारी सुन ही ली?'

'चलो पहले सजा मांग ली थी, तो अब चंगाई भी मांग लूंगी बस।' कह कर प्रकृति चंचलता से मुस्कराई तो मानव बोला,

'और इस बार तुम्हारी दुआ नहीं सुनी गई तो . . .?'

'मानव मैं प्रकृति हूं। विधाता ने सबसे पहले मेरी ही रचना की थी.'

'और मैं?'

'तुम ! तुम तो निहायत ही बुद्धू हो।'  ये कह कर प्रकृति स्वत: ही खिलखिला पड़ी। साथ में मानव भी मुस्कराने लगा। दोनों ही कुछेक पलों तक हंसते रहे। सड़क के किनारे ही। खड़े­खड़े। रास्ता चलता कोई भी उनको देखता तो देख कर एक बार ठिठक अवश्य ही जाता था। फिर भी दोनों में से किसी को भी जमाने की कोई परवाह नहीं थी। वे पलक झपकते ही अपने प्यार की दुनियां में खो जाते थे। तब इसी मघ्य मानव ने कहा कि,

'प्रकृति।'

'हां, कहो?'

'अब मुझे चलने दो। मुझे आज ही फिर से लौटना होगा। वहां मामा के पास पापा तो हैं, फिर उनको मेरी बहुत जरूरत है।'

'?' -  मानव के मुख से इस बात को सुन कर प्रकृति खामोश सी रह गई। वह चाहकर भी कुछ कह नहीं सकी। उसे ऐसा लगा कि जैसे मानव ने उसके ऊपर ठंडी­ठंडी ओस गिरा दी हो। पल भर में ही प्रकृति की सारी मुस्कान और चेहरे की आभा हवा हो गई। उसके मुखड़े को पढ़ता हुआ मानव आगे बोला,

'उदास हो गई?'

'नहीं तो।'

'तो फिर चुप क्यों हो गईं ?'  मानव ने पूछा।

'पता नहीं। सुनकर जाने क्यों अच्छा भी नहीं लगा।'  प्रकृति ने गंभीरता से कहा। ये कह कर प्रकृति ने अपनी सहेलियों की ओर देखा तो स्वत:  ही झेंप सी गई। वे सब ही उसे और मानव को देख कर मुस्करा रही थीं। बड़े ही भेद भरे ढंग से। एक कौतुहल के साथ। प्रकृति ने उन सब को निहारते हुये मानव से कहा कि,

'अच्छा अब तुम जाओ। मैं फिर बात कर लूंगी तुमसे। नहीं तो मेरी ये सारी सहेलियां मुझे खूब छेड़­छेड़ कर आनन्द लेती रहेंगी।'

          ये कह कर प्रकृति चल दी तो मानव ने उसकी ओर एक नज़र भर देखा तो प्रकृति फिर से मुस्करा दी। वह जाते­जाते मानव से बोली कि,

 ' अब जल्दी ही लौट कर आना। मामा को साथ ले कर।'

          तब मानव आगे बढ़ गया और प्रकृति अपनी सहेलियों के पास। उनके पास भी पहुंच कर वह बड़ी देर तक मानव को जाते हुये निहारती रही। मानव उसकी मनोदशा से बेखबर जल्दी­जल्दी चर्च कम्पाऊंड की तरफ कदम बढ़ा रहा था।

          फिर प्रकृति जैसे ही अपनी सहेलियों के पास जाकर ठिठकी तो तुरन्त ही एक ने उससे पूछा कि,

 'कौन था ये?'

'मानव।'  प्रकृति ने छोटा सा उत्तर दिया तो वह तपाक से बोली कि,

'वह तो हम भी जानते हैं कि इस क्रिकेट के खिलाड़ी का नाम मानव है, परन्तु तुम्हारा उससे क्या रिश्ता है?'

उनकी इस बात पर प्रकृति थोड़ी देर को तो चुप ही रही। मगर फिर बाद में थोड़ा सा, जैसे सोच कर बोली कि,

'जहां कोई रिश्ता नहीं होता है, वहीं पर तो विशेष रिश्ता होता है।'  उसकी इस बात पर सारी सखियां जैसे खिल-खिला पड़ीं। तब नीरू ने उससे कहा,

'अरे घुमा क्यों रही हो। सीधा सा बोलो कि, हमारा समथिंग, समथिंग एल्स . . .'

'नीरू ! ये कॉलेज है। धीरे बात करो न।'  प्रकृति ने उसे टोका तो नीरू आगे बोली,

'जानती हूं कि ये कालेज है। मगर तुम तो उसे प्रेम पर्वत बना रही हो।'  इस पर प्रकृति मौन हो गई। मौन क्या हो गई, उससे कुछ कहते ही नहीं बना। तब दूसरी ने उसे फिर से छेड़ा। वह बोली कि,

'बहुत अच्छा लगता है यह छोकरा तुम्हें?'

'छोकरा. . ?' प्रकृति ने उसके ही शब्द दोहराए।

'हां भई, छोकरा ही तो है. तब ही मैं इतने दिनों से सोच रही थी कि, इस सीधी­साधी, छरहरे बदन की लड़की को इतनी हवायें क्यों लग रही हैं?'  जब दूसरी ने कहा तो प्रकृति जैसे नाराज़ सी हो गई। वह उन सबको जैसे डांट लगाते हुये बोली,

'अच्छा अब बहुत हो चुका है। वुड यू शट अप हियर प्लीज़?'

'अरे हम चुप हो गये तो ये सडक पर चलनेवाले बोलने लगेंगे।'

इस पर उन सब ने जब उसे मुस्करा कर देखा तो प्रकृति खीज गई। वह उनके मध्य से हटते हुये बोली कि,

'मैं तो चलती हूं। तुम सब यहां बकती रहो।'  ये कह कर जैसे ही वह चलने लगी तो नीरू ने उसे फिर से छेड़ दिया। वह बोली,

'जल्दी-जल्दी जाओ। वह अभी मार्ग में ही होगा।'

          इस पर प्रकृति ने आगे उनसे कुछ भी नहीं कहा। वह उनके बीच से निकल कर अपने घर की तरफ जाने लगी। कालेज तो वैसे भी समाप्त हो गया था, सो अब रूकने से लाभ भी क्या था। दूसरा वह अपनी सहेलियों के मध्य रूकी भी रहती तो सिवा उनके कटाक्ष सुनने के अलावा उसे मिलता भी क्या। ये वह अच्छी तरह से जानती थी।

           मानव जैसा आया था, वैसा ही वह आकर चला भी गया। प्रकृति से उसकी क्षणिक ही भेंट हो सकी थी। वह चला गया तो प्रकृति फिर से सूनी हो गयी। बिल्कुल उदास सी। मानव के जाने से पूर्व वह उससे अच्छी तरह मिल भी नहीं सकी थी। इसका भी एक अलग ही मलाल प्रकृति को था। उसके दिल की इच्छा अपने मन में न जाने कितनी ही लालसाओं को दबा कर मौन हो गई थी। फिर एक दिन गुज़रा। दो दिन निकल गये। एक­एक करके कई दिन बीत गये। हफ्ता होने को आया। ना तो मानव आया और ना ही उसकी कोई खबर या फिर सूचना ही प्रकृति को मिली। प्रकृति तो प्रति-दिन ही मानव के वापस आने की प्रतीक्षा में अपनी आंखें बिछाये रहती थी। हर रात को उसकी मधुर स्मृतियों में ही खोई रहती। हरेक नये दिन के उदय होते ही उसको एक आशा बंध जाती। यही कि शायद आज मानव लौट आया हो। शायद पिछली रात ही? परन्तु जीवन का हरेक नया सवेरा अमावस की काली रात बन कर उसके मानव के न लौटने की मनहूस खबर उसको सुना देता था। प्रति दिन ऐसा ही हो रहा था। हर बार वह निराश हो जाया करती थी। फिर इसी प्रकार हफ्ते गुज़र गये। कई हफ्ते। ना तो मानव वापस आया और ना ही उसकी कोई सूचना उसको मिल सकी। इतना अवश्य हुआ कि कुछ दिनों के पश्चात मानव के बूढ़े पिता घर वापस आये और वे दोबारा अपने घर में ताला लटका कर आगरा चले गये। वे भी चले गये तो प्रकृति इतना तो महसूस कर ही रही थी कि, हो न हो मानव की मां की दशा कोई विशेष अच्छी नहीं है। कहीं कोई बुरी सूचना उसको सुनने को न मिल जाये। इसी शंका और आशंका में उसका हरेक दिन व्यतीत हो जाता था।

             मानव की अनुपस्थिति के वियोग में प्रकृति तो बिल्कुल ही उदास पड़ गई। खामोश- गुमसुम- फीकी, मानो पतझड़ की सारी टूटती पत्तियां समय से पहले ही उसके आंचल में डाल दी गई हों। लेकिन फिर भी उसने आशा नहीं छोड़ी थी। उसके दिल को पूरा विश्वास था कि एक दिन उसका मानव अवश्य ही वापस आयेगा और उसकी बीमार मां भी अच्छी हो जायेगी। अवश्य ही वह चाहे कहीं भी चला जाये, पर वह इस स्थान और वातावरण को नहीं त्याग सकता है। वह कहीं भी रहे पर यहां के चर्च कम्पाऊंड के हरेक कोने में उसकी यादों की कड़ियां पड़ी हुई हैं। प्रत्येक चप्पे­चप्पे में उसकी प्रतीक्षा की जा रही है। यहां के रिश्तों को वह किस प्रकार भूल सकता है। यहां तो उसने अपना बचपन गुज़ारा है। यहां उसकी कोई तो प्रतीक्षा करने वाला है। ये तो उसको ज्ञात ही होगा।

           प्रकृति ने मानव को इस बीच एक पत्र भी लिखा था, परन्तु उसका भी उसे कोई उत्तर नहीं मिला था (यह कहानी उन दिनों की प्रष्ठभूमि पर आधारित है, जब भारत में मोबायल फोन की सुविधा नहीं होती थी और फोन की भी सुविधा हरेक के पास सहज नहीं हुआ करती थी)। प्रकृति इसी कारण हर समय उदास रहने लगी। उदास ही नहीं, वह अपने आप में खामोश भी हो गई थी। उसके परिवार में जब सब ने उसकी इस परिवर्तित मुद्रा और व्यवहार को देखा तो वे भी उसको भेदभरी दृष्टि से निहारने लगे। सबसे अधिक चिन्ता उसकी मां को रहने लगी। प्रकृति घर में न तो किसी से अधिक बोलती और न ही उसके स्वभाव में वह पहले जैसी चंचलता और खिल-खिलाहट ही बाकी बची थी जो प्राय:  मानव की उपस्थिति में सदैव उसके मुख पर बनी रहती थी। प्रकृति यह भी जानती थी कि मानव के विषय में जितनी अधिक चिन्ता उसे थी उतनी अधिक शायद किसी अन्य को नहीं होगी। मानव की परेशानी उसकी अपनी चिन्ता थी। उसका दुख उसका अपना मलाल था। इसीलिये वह अक्सर ही उसके बारे में सोचती रहती थी। घर में पढ़ने बैठती तो उसका मन ही नहीं लगता। कालेज भी जाती तो बेमन से। यदि छुट्टी होती तो अकेलापन उसे काटने लगता। तब ऐसी परेशानी में वह तारा या वर्षा के साथ अपने आप को बहलाने का एक असफल प्रयत्न करती रहती। तारा उसकी परेशानियों और मन के दुख को समझती तो थी, परन्तु वह कर भी क्या सकती थी। केवल उसे एक तसल्ली ही देकर समझा दिया करती थी। तारा को खुद भी दुख होता था। अपनी सहेली की परेशानी और उदासी को देख कर वह भी उदास हो जाया करती थी।

          प्रकृति को तारा से ये ज्ञात हो गया था कि मानव की मां की दशा ज्यादा अच्छी नहीं है। दिन व दिन उनकी दशा खराब होती जा रही है। प्रकृति जब भी ये सब सुनती थी तो एक बार को उसका भी दिल घबराने  लगता था। वह तब ऐसे में सोचने लगती कि पता नहीं क्या होने वाला है। ईश्वर का भी न जाने कौन सा इरादा था। उसको भी न मालुम क्या मंज़ूर है? वह हर समय यही मनाती रहती थी कि ईश्वर ये कभी भी न करे कि मानव की मां को कुछ होये। यदि उन्हें कुछ हो गया तो मानव तो अपने घर में बिल्कुल ही अकेला रह जायेगा। वह तब क्या करेगा? कौन उसके लिये खाना बनायेगा? ऐसे में तब उस पर क्या नहीं गुज़र जायेगी?

          प्रकृति के मन में जब भी ऐसे विचार आते तो वह चुपचाप अपने परमेश्वर से मानव और उसकी मां की सलामती की दुआयें मांगने लगती थी। वह जानती थी कि, मानव का दुख उसका अपना दुख भी था। मानव के चेहरे की मुस्कान उसके अपने जीवन की मुस्कान थी। शायद जमाने के अपने बनाये हुये नियम और कानून इस सच्चाई को न समझें कि 'मानव' और 'प्रकृति' का साथ किसकदर पुराना है। जब परमेश्वर ने इस संसार की सृष्टि की थी, तभी से ‘मानव’ और ‘प्रकृति’ को एक साथ बंधन में बांध दिया था। शायद यही कारण है कि ‘प्रकृति’ को अपने ‘मानव’ का ख्याल रहता है। हर तरह से वह अपने मानव की खुशियों के सारे वातावरण से संघर्ष करती रहती है। वह वातावरण, जिसमें मानव अपना जन्म लेता है, एक जीवन जीता है और अपनी उम्र गुज़ार के एक दिन अपना सब कुछ छोड़कर इसी ‘प्रकृति’ के आंचल में ‘धरती’ की गोद में समा भी जाता है- चाहे पंचतंत्र के द्वारा और चाहे कब्रिस्थानों के प्राचीरों में। बहुत से धार्मिक ग्रन्थ  इस बात की गवाही देते हैं कि, ‘मानव’ इस सृष्टि की रचना के समय परमेश्वर के हाथों के द्वारा ‘धरती’ की मिट्टी से बनाया गया था। 'प्रकृति' और वातावरण की सृष्टि मानव से पहले उसके जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने के धेय्य से की गई थी। इसीलिये 'प्रकृति', ‘मानव’ और ‘धरती’;  तीनों एक ही धागे से बंधे हुये एक दूसरे के पूरक हैं। अब ये और बात है कि, ये तीनों अपने­अपने कार्यों के द्वारा कौन सा वातावरण अपने चारों ओर तैयार करते हैं? परमेश्वर की इच्छानुसार अथवा उसके नियमों को तोड़ कर शैतानी दासतां की बंदिश में अपने जीवन को व्यतीत करना पसंद करते हैं? भारत संस्कारों का देश है। उन संस्कारों का, कि जिसकी मिसाल सारे विश्व में दी जाती है. यदि कोई भी इन संस्कारों की अवेहलना करते हुए अपना जीवन व्यतीत करता है तो आप स्वंय ही यह निर्णय ले सकते हैं कि इस तरह का जीवन जीने वालों को किस श्रेणी में रखना उचित होगा?

            ‘प्रकृति’ का जीवन अपने ‘मानव’ की गुमशुदा खामेशी के पिंजड़े में बंद होकर कैद हो गया। वह मजबूर हो गई। अपने आप को वह एक अधूरेपन के वातावरण में महसूस करने लगी। दिन­रात उसको मानव की कमी सताने लगी। मानव की इस प्रकार की अनुपस्थिति और खामोशी ने उसके जीवन की मानो सारी झंकृत बहारों की आवाज़ ही छीन ली थी। उसकी सारी चंचलता को जैसे दबोच लिया था। वह उदास ही नहीं बल्कि मायूस भी रहने लगी। बिल्कुल उदासीन। ना तो किसी कार्य ही में उसका मन लगता और ना ही किसी भी अच्छी या बुरी वस्तु की ओर उसका ध्यान आकर्षित होता। उसके जीवन के समस्त इठलाते हुये बहारों के झोंके निराश होकर बैठ गये। उसकी अंतरंग सहेली तारा उसकी दिन व दिन उदास दशा को देखती तो खुद उसका भी दिल उदास हो जाता। वह कभी सोचती कि पता नहीं ‘प्रकृति’ पर क्या गुज़रने वाला है। अपने पतझड़ के रास्तों पर हर वक्त बढ़ती हुई ‘प्रकृति’ को देख कर उसकी बहारें भी अपना मुंह चुरा कर भाग गई थीं। आकाश, वर्षा, तारा और धरती, सब ही उसके प्रति मौन हो गये थे। न जाने कौन से तूफ़ान के आने की पूर्व सूचना पाकर प्रकृति के मुख की सारी मुस्कानें विलीन हो चुकी थीं।

      

       फिर एक दिन।

प्रकृति के जीवन का एक और नया दिन उसकी उदासियों में उसका दामन थामने के लिये उसको मिल गया। प्रकृति अपनी कालेज की कक्षा में तारा के साथ बैठी हुई थी। बहुत ही खामोश विचारों में डूबी हुई सी। कोई भी अभी तक पढ़ाने नहीं आया था और सभी छात्र व छात्रायें उनके आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। प्रकृति तो आज भी कालेज नहीं आ रही थी, परन्तु तारा ही उसको जबरन खींच लाई थी। मगर प्रकृति अपनी आदत के अनुसार आज भी मानव के लिये सोचने में लीन थी। हर समय ही उसको मानव का ख्याल रहता था। ऐसे में ही कालेज का एक चपरासी कक्षा में आ गया। सब ही विद्द्यार्थियों की आंखें उसकी ओर स्वत:  ही उठ गईं। तब तक उसने अपने हाथ में पकड़ा हुआ एक कागज का टुकड़ा पास में बैठी हुई लड़कियों की ओर बढ़ा दिया। उनमे से एक लड़की ने वह कागज ले लिया। सब ही उसको पढ़ने लगीं। परन्तु प्रकृति को तब भी इसका होश नहीं था। वह वैसी ही बैठी हुई थी। बिल्कुल शांत और चुप, अपनी सोचों में गम सी।

            तभी उन में से एक लड़की ने कागज को पढ़ते हुये आपस में कहा कि,

'प्रकृति के लिये है।'

'? '

       प्रकृति ने जब अचानक ही अपना नाम सुना तो उसके भी कान ही ठिठक गये। उसने अपनी साथी अन्य लड़कियों की तरफ एक पल देखा फिर बोली कि,

'क्या है? तुम लोगों ने मेरा नाम लिया है?'

'लो जी। तुम्हारे नाम आगरा से फोन आया है। अभी ऑफिस में जाकर बात कर लो।'

प्रकृति ने सुना तो सुन कर आश्चर्य से गड़ गई। एक साथ ही कई अच्छे­ बुरे विचार उसके मस्तिष्क में घूमने लगे। फिर वह शीघ्र ही उठी और तारा का हाथ पकड़ कर सीधी ही कार्यालय की तरफ चल दी।

         जब वह पहुंची तो सचमुच ही उसके नाम फोन आया हुआ था। कार्यालय में आते ही वहां पर बैठे हुए अन्य सब ही लोग उसे आश्चर्य से निहारने लगे। प्रकृति एक प्रश्न सूचक मुद्रा में शांत खड़ी हो गई तो कार्यालय के एक लिपिक ने उससे पूछा कि,

'क्या आप ही मिस प्रकृति बोनापार्ट हैं?'

'जी हां।' प्रकृति बोली तो लिपिक ने उसकी ओर फोन बढ़ाते हुये कहा कि,

'लीजिये। आगरा से बात कर लीजिये। आपके नाम फोन आया है।'  तब प्रकृति ने फोन को उठाते हुये अपने कान से लगा कर धड़कते दिल से भयभीत होकर बोला कि,

'हलो?'

'हलो ! प्रकृति ?'

'हां, मैं?'

'प्रकृति, मैं मानव बोल रहा हूं।'  उधर से मानव की आवाज़ सुनाई दी तो प्रकृति बोली कि,

'ओह ! मानव तुम?  तुम ठीक तो हो?  मामा कैसी हैं?'  प्रकृति ने मानव की आवाज सुनी तो सुन कर ही उसका इतने दिनों से बुझा हुआ चेहरा अचानक ही खिल गया। उसके मन में आया कि वह फोन को ही चूम ले। पर जब मानव ने उसके किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं दिया तो वह फिर से बोली कि,

'कैसे हो अब ?'

'बस . . .'   मानव आगे कुछ नहीं कह सका तो प्रकृति ने अधीर होकर फिर कहा,

'बताओ न, कि सब ठीक तो है न?'

'तो ठीक हूं, पर . . .'

'पर क्या . . .?''

'वह मां . . .'  मानव के रूंधे हुए गले की आवाज सुन कर प्रकृति को आश्चर्य हुआ। वह घबरा कर बोली,

'वह क्या?  तुम बताते क्यों नहीं हो? तुम ही ऐसे करोगे तो मैं क्या करूंगी?'

'वह मामा . . .'  मानव का गला भर आया।

'ओफ ! तुम तो बोलते भी नहीं हो?  प्रकृति ने कहा तो मानव अपनी भरी हुई आवाज में बोला कि,

'मामा मुझे छोड़ कर हमेशा को खुदा के पास चली गई हैं।'

'नहीं . . . हीं . . . ?'

प्रकृति की चीख ने अचानक ही कालेज के कार्यालय की सारी दीवारों का कलेजा हिला कर रख दिया।

तारा ने प्रकृति को इस तरह से चीखते देखा तो तुरंत ही उसे अपने अंक में भर लिया.

   - शेष अगली बार.                                   

***

 

लेखक

 

                प्रेम एक ऐसी विधा है कि, जिसकी उत्पत्ति सबसे पहिले बाइबल से ही या यूँ कहिये कि सबसे पहले मनुष्य की सृष्टि के साथ ही हुई थी. यदि प्रेम की पवित्र भावना परमेश्वर के मन में न बसी होती तो न तो संसार की सृष्टि ही हुई होती, न मनुष्य का जन्म हुआ होता, ना ही पाप जैसे शब्द ने इस धरती पर अपना कदम बढ़ाया होता, ना ही इस्राएल की राजधानी यरूशलेम के बाहर गुलगुता की पहाड़ी यीशु मसीह के पवित्र खून से रंगी होती और ना ही अपने देश की मिट्टी देश-प्रेमियों के खून से तर होती. बाइबल इस बात का बड़े ही कायदे से स्पष्ट उत्तर देती है कि, ‘प्रेम इसमें नहीं है कि हमने परमेश्वर से प्रेम किया, बल्कि प्रेम तो इसमें है कि परमेश्वर ने हमसे प्रेम किया है.’  परमेश्वर का प्रेम ऐसा है कि वह आज तक अपनी दया, अनुग्रह, महिमा और क्षमाशील हृदय के द्वारा मानव जाति से प्रेम हरेक जाति और धर्म में अपने विभिन्न रूपों में करता आ रहा है. लेकिन मनुष्य एक ऐसा जीव है कि जो अपनी नाफ़रमानियों के द्वारा परमेश्वर के इस महान प्रेम की बेकद्री करता आ रहा है.

                ईश्वर के द्वारा की गई सृष्टि में क्रमश:  ‘प्रकृति’, ‘मानव’ और ‘धरती’ तीन ऐसे तथ्य हैं जो परमेश्वर के महान प्रेम की साक्षी सदियों से अपने रूप, सौन्दर्य और कार्यप्रणाली के आधार पर देते आये हैं. किसी से भी प्रेम करना कोई पाप नहीं है, परन्तु इस प्रेम की पृष्ठभूमि में यदि किसी भी ऐसे स्वार्थ की सृष्टि होती है जहां पर अपराध अपना जन्म ले लेता है तो निश्चित ही इसको परमेश्वर और मनुष्य दोनों ही के विरोध में पाप की संज्ञा दी जायेगी.

                परमेश्वर के प्रेम के फलस्वरूप सृष्टि का जन्म हुआ. सृष्टि ने इस प्रेम की ख़ातिर प्रकृति की समस्त सुन्दरता मानव के चरणों में अर्पित कर दी, परन्तु मानव के द्वारा धरती के आंचल में प्रकृति के प्रेम का वह हश्र हुआ कि जिसका अंजाम आहुति जैसे शब्द के द्वारा ही पूरा हो सका.

                मेरे अन्य उपन्यासों के समान ये कहानी भी आपका स्वस्थ मनोरंजन करने के साथ­साथ एक सत्य पथ  पर सही मार्गदर्शन कर सकेगी; ऐसी मेरी आशा है.

                              - शरोवन

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

प्रकृति, मानव और धरती

धारावाहिक उपन्यास / शरोवन / दूसरी किश्त  

 

***

'ज़िन्दगी की प्यार की संजोई हुई हसरतों पर जब अचानक ही बिगड़ी हुई किस्मत की आंधी अपना प्रभाव दिखाने लगे तो उम्मीदों के सपने चटकते देर नहीं लगती है। ऐसा जब भी होने लगता है तो मनुष्य का दिल तो टूटता ही है, साथ ही उसके आगे चलने का वह रास्ता भी समाप्त हो जाता है, जिस पर चलते हुये वह कभी अपनी जीवन नैया का ठिकाना पा लेना चाहता है। जीवन की वास्तविकता को सामने पाकर तब मनुष्य यह सोचने पर विवश हो जाता है कि धर्मग्रंथों में जो लिखा है, वह सब मानव जीवन की वास्तविकता से कोसों दूर है। सच तो वह है जो मनुष्य अपनी आँखों से देख रहा होता है।'

***

क्षितिज में सूर्य की अंतिम लाली ने जब तड़प­तड़प कर एक वेदना के साथ अपना दम तोड़ा तो उठती हुई हवाओं के सहारे संध्या भी सिसक उठी। आकाश में बादलों के झुंड न जाने कहां से थके­हारे से निराश से आकर बैठ गये थे। काले­काले मटमैले बादल के टुकड़े आकाश की गोद में ठंडे शवों के समान जैसे अपनी बिगड़ी हुई दुर्दशा का सारा इतिहास कह देना चाहते थे। हर तरफ खामोशी थी। ऐसी चुप्पी जो उदासी की परतों में लिपटी हुई उदासीन और निराश कामनाओं की अकड़ी हुई लाश के समान बिल्कुल ही चुप और बेजान सी, किसी मनहूसियत का पैगाम देना चाहती थी।

               ऐसे ही दर्द और आंसुओं से भरे हुये वातावरण में प्रकृति आज कहीं और खड़ी हुई थी। बिल्कुल ही खामोश, चुप और किसी पत्थर के बुत के समान। इसी के समान चर्च कम्पाऊंड के सभी लोग भी आज चर्च की इमारत की पीछे बने हुये अंग्रजों के कब्रिस्थान के प्राचीर में चुपचाप से आ गये थे। खामोश, सिर झुकाये, अपना­अपना मुंह लटकाये हुये नीचे धरती की गोद में बेमकसद ही ताके जा रहे थे। सब ही की उदास नज़रें काली चादर में लिपटे हुये उस ताबूत को कभी­कभार देख लेती थीं, जिसमें उन का कोई प्रियजन आज अचानक से उनसे अपना नाता तोड़ कर उस अनजाने जीवन की यात्रा को कूच कर गया था जहां पर एक बार मनुष्य पहुंच कर फिर कभी नहीं लौटा है। एक ऐसा जीवन, जिसे सदा का अनन्त जीवन तो कहा जाता है, पर उस जीवन की महिमा कोई भी मानव चोले में नहीं देख पाता है। मृत्यु या मानव जीवन की समाप्ति, मनुष्य के जीवन का एक ऐसा भाग होता है कि, जिसे जीवन का ही एक हिस्सा माना गया है, लेकिन उसमें जीवन के कोई भी चिन्ह नहीं मिलते हैं। जीवन की समाप्ति-यात्रा का अंतिम छोर और अपनों से टूटे हुये नातों की एक ऐसी कहानी कि जो अपने अंतिम बिन्दु पर आकर भी अंतहीन ही कहलाती है।

         अपनों को अंतिम नमस्कार कह कर इस संसार से जाने वालों में थीं, मानव की मां- उसके जीवन का सबसे महान सहारा—उसकी प्यारी मां- मां का प्यार- बूढ़ी और प्यार भरी आंखों ने आज अपनी संतान का भी साथ छोड़ दिया था। सदा के लिये। उस मानव को अकेला छोड़ा था, जिसको जन्म देकर शायद वह कभी फूली नहीं समाई होगी।

        मानव भी अपने पिता की बगल में खड़ा हुआ था। उजड़ा­ उजड़ा—उदास कामनाओं की अर्थी समान- उदास आंखों में आंसू भरे हुये। प्रकृति भी उसी के पास ही खड़ी हुई थी- अपने दिल की मजबूरियों का पत्थर रखे हुये। जाने वाले के अंतिम संस्कार में आये हुये सभी लोगों की आंखें उस ताबूत पर लगी हुई थी जो थोड़ी ही देर में कब्र में उतारा जाने वाला था और जिसमें मानव की मां का शव बंद करके रख दिया गया था।

       रस्सियों के सहारे ताबूत को जैसे ही नीचे कब्र में उतारा गया तो मानव की पहले से भरी हुई आंखें तुरंत ही छलक आईं। उसकी पलकों के नीचे आंसू बाहर आने के लिये छटपटाने लगे। पास में खड़ी हुई प्रकृति ने जब मानव को निहारा तो उसका भी दिल अंदर ही अंदर रो पड़ा। आंसू पलकों के अंदर ही ठहर गये। परन्तु वह कर भी क्या सकती थी। उसे तसल्ली चाहिये थी, पर उससे कहीं अधिक मानव को तसल्ली की आवश्यकता थी। उसने चुपचाप धीरे से मानव का हाथ पकड़ लिया। एक सहारे के रूप में, ये बताने के लिये कि, वह भी उसके दुख में उतना ही शामिल है जितना कि वह खुद है। लेकिन फिर भी मानव से अपनी प्यारी मां के शव का ये अंतिम संस्कार का दृश्य देखा नहीं गया। वह चुपचाप लोगों की भीड़ से निकल कर एक नीम के वृक्ष के सहारे खड़ा हो गया। सिर उसने तने से ही टिका दिया और फूट­फूट कर रो पड़ा। आंसू उसकी पलकों से निकल कर उसके गालों से बहने लगे। रह­रह कर उसे अपनी मां की याद आ रही थी। उनका ख्याल याद आता था। उनका प्यार उसे सताने लगा था। कितनी अच्छी उसकी मां थी। मां का प्यार। कितना अधिक वह उसको प्यार करती थी। किस कदर वह उसको चाहती थी। अपनी जान से भी बढ़ कर। वह जानता है कि वह यदि उनकी आंखों का तारा था तो वह भी  उसके लिये जीवन का प्रकाश थीं। इसी कारण उनकी आंख के तारे की रोशनी थोड़ी सी देर के लिये मद्धिम पड़ी तो वह इस ग़म में अपनी सारी ज्योति मानव को दे गई थीं। ताकि उनका मानव कभी भी अंधकार में न भटक सके। मानव को बार­बार यही ख्याल आता कि यदि उसके गेंद से चोट न लगी होती तो उसकी मां को कभी भी इतना भयानक दिल का दौरा भी नहीं पड़ता। नहीं पड़ता तो शायद वे अपनी मृत्यु को भी न पातीं?

               दफ़.न की रस्म समाप्त हुई तो कब्र के चारों ओर सिर झुकाये हुये लोगों के साये चुपचाप यूं सरकने लगे मानो पत्थरों के बने बुतों में अचानक ही कहीं से हरकत आ गई हो। सब ही खामोशी से इस प्रकार पीछे लौटने लगे थे जैसे कि सब ही ने अपने सिरों से ढेरों उदासियों का ताज बांध रखा हो। लेकिन मानव अभी भी अपने ही स्थान पर खड़ा हुआ था। नीम के वृक्ष के सहारे। उसी मुद्रा में। प्रकृति भी उसी के पास थी और चाह रही थी कि वह उसको और भी तसल्ली दे। उसका भरपूर ख्याल रखे। उसे खूब ही समझाये और उसका हाथ पकड़ कर उसे अपने साथ ले जाये।

       प्रकृति अभी खड़ी हुई ऐसा ही सोचे जा रही थी कि तभी अचानक से मनुष्यों के हुजूम में से एक लड़की निकल कर आई। चुपचाप। मानव के पास और उसके कंधों पर अपने दोनों हाथ रख कर बोली कि,

'मानव !'

परन्तु मानव को तो जैसे किसी भी बात का होश ही नहीं था।

'अब चलो भी न? तुम इस तरह से यहां खड़े रहोगे तो तुम्हारी मामा की आत्मा को और भी कष्ट होगा।'

       ऐसा कह कर उस अनजान लड़की ने चुपचाप एक नज़र वहां पर खड़ी प्रकृति पर डाली, फिर मानव का हाथ  थाम कर उसे अपने साथ ले चली।

       प्रकृति ने जब ये सब कुछ देखा तो उसके दिल पर छाले क्या पड़े, वह तो देख कर दंग ही रह गई। ठगी­ठगी सी न केवल देखती ही रही बल्कि उसे यूं लगा जैसे कि अचानक ही किसी ने उसको अचानक ही पहाड़ पर से धक्का दे दिया हो और वह गिरी भी नहीं हो। प्रकृति चाह कर भी उस अनजान लड़की का कोई विरोध नहीं कर सकी। ऐसे नाज़ुक समय में वह कुछ कह भी तो नहीं सकती थी। मगर फिर भी न जाने क्यों उसका दिल उस अनजान

लड़की के प्रति एक ईर्ष्या से भर गया।

           फिर जब मानव उस लड़की के साथ कुछेक कदम आगे बढ़ गया तो वह भी धीरे­धीरे चलने लगी। थोड़ी दूर चलने पर तारा भी उसके साथ हो गई। वह तो पहले ही प्रकृति की प्रतीक्षा कर रही थी। प्रकृति और तारा पीछे और मानव उस अनजान लड़की के साथ आगे­आगे चला जा रहा था। प्रकृति तो हरेक दृष्टिकोण से अभी तक उस लड़की ही को देखती जा रही थी जिसने एक ही पल में आकर जैसे सारी कहानी का मजमून ही बदल दिया था।

           प्रकृति फिलहाल इतना तो समझ ही गई थी कि, ये नई लड़की जो मानव में इतनी अधिक रूचि ले रही है उसके साथ ही आगरा से आई है। सुंदर भी है, शायद उससे अधिक ही। नाम भी उसी से मिलता जुलता है धरती-  धरती के समान ही उसका आचार­ व्यवहार भी लगता है। बहुत ही अधिक स्थिर लगती है। समय पर सब ही कार्य करती होगी। अपने समय पर मुस्कराती है। रूठती है, आंखों में आंसू भरती है और मौसम की बहार आने पर लहलहाती भी होगी। इसके साथ ही प्रकृति को इतना और भी ज्ञात हो चुका था कि धरती आगरा की ही रहने वाली भी है।  उसका यहां आने का कारण केवल इतना ही है कि, धरती की मां और मानव की मां आपस में बहुत अच्छी सहेलियां थीं।

            इतना सब कुछ सोचने के पश्चात फिर अंत में प्रकृति की सोचों को एक स्थान पर आकर ठहरना ही पड़ा कि, कुछ भी क्यों न हो, पर ये धरती मानव में इस कदर रूचि क्यों ले रही है? पता नहीं कब ये यहां से वापस जायेगी और न जाने कितने दिनों तक यहीं रहेगी?  मानव का मन ठीक होता तो उससे पूछा भी जाता। पर क्या करे? अभी तो केवल शांत बने रहने में ही भलाई है। अभी मानव से कुछ भी कहना और सुनना ठीक नहीं होगा। जब अवसर अच्छा होगा तो वह वैसे भी मानव से पता कर लेगी। वैसे भी समय आने पर सब ही कार्य अच्छे लगते हैं। यही सोच कर प्रकृति ने धरती के प्रति अपने मन­मस्तिष्क से सब ही तरह के बुरे­भले विचार भगा दिये। वह चलते­चलते तारा के साथ कम्पाऊंड के मैदान में आ गई। तारा तो अपने घर में घुस गई, मगर प्रकृति बड़ी देर तक मानव को निहारती रही। अपने घर के पास आकर भी वह अंदर नहीं गई बल्कि वहीं दरवाजे के पास से मानव को अपने घर की तरफ बढ़ते हुये तब तक देखती रही, जब तक कि वह अंदर नहीं चला गया। मानव जिस प्रकार से चल कर अपने घर में प्रविष्ट हुआ था, उसे देख कर प्रकृति का दिल फिर से तड़प उठा था। मानव के पैरों में तो जैसे जान ही नहीं रही थी। उसकी उदास और परेशान सी दशा देख कर प्रकृति को मन ही मन रोना आ गया। उसने सोचा कि, उसे तो इस समय मानव के पास ही रहना चाहिये था। मगर वह करे भी क्या। यदि ऐसे समय में भी वह मानव से अधिक सहानुभूति दर्शायेगी तो इस कम्पाऊंड के लोग इतने सीधे भी नहीं हैं कि वे बातें न बनायें। वह अच्छी तरह से जानती है कि, जितने भी लोग यहां पर हैं, सब ही के साथ उनके जमाने के प्यार के अफ़सानों की कोई न कोई कहानी जुड़ी हुई है। किसी न किसी ने कुछ तो इस मामले में किया ही है। मगर जब उसका समय आया है तो सब ही की आंखें उसी की तरफ क्यों उठी रहती हैं?  चाहे किसी की भी तरफ अपनी दृष्टि क्यों न उठा लो, कोई भी दूध का धुला हुआ नहीं मिलेगा। राजा, नक्खू और दीना, जितने भी यहां पर रहते हैं, सब पर ही तोहमत लगाया गया है। लोग ये समझने की कोशिश कभी भी नहीं करेंगे कि, इस समय मानव को किसी के साथ  की आवश्यकता है। वह दुखी है। कितना अधिक ही वह इन चार दिनों में टूट गया है। उसकी मां इस संसार से जुदा हो चुकी है और उसकी विवशता ये है कि, वह मानव के कंधों से लग कर अपने चार आंसू भी बरबाद नहीं कर सकती है।

              मानव की मां की मृत्यु के कारण जो ग़म और विषाद के 'बादल' उसके ऊपर छा गये थे, उन्हें 'प्रकृति' की हवायें चाह कर भी नहीं उड़ा सकती थीं। नहीं हटा सकेगी तो ये मनहूस दुखों के बादल या तो वर्षा के रूप में मानव को मिलेंगे, या फिर 'धरती' अपनी गोद में समा लेगी। यही सब का मार्ग था। सबके अपने­अपने दिल के गहरे राज़। मनुष्य जीवन के तीन रूप। अपने प्यार की खातिर होने वाले संघर्ष के तीन इरादे- तीन आयाम; 'प्रकृति', 'मानव' और 'धरती'। मनुष्य के जीवन में सदैव इन तीनों की विशेष भूमिका हुआ करती है।

          कहते हैं कि, समय मनुष्य के किसी भी घाव या दर्द का सबसे बड़ा और सस्ता मरहम होता है। समय गुज़रा तो मानव के दिल से अपनी मां की मृत्यु का ग़म धीमें­धीमें स्वत:  ही कम होने लगा। बढ़ते हुये वक्त के आंचल ने उसकी आंख के आंसू पोंछे तो नहीं थे, मगर 'प्रकृति'  की कोमल हवाओं ने उन्हें सुखा अवश्य ही दिया था। अब वह अपनी मां की यादों में रोता नहीं था। बस खामोश रहता था। बिल्कुल गंभीर। सही मायनों में यही उसकी भरपूर उदासी का संकेत था। अपनी मां की मृत्यु के पश्चात वह इस कदर बदल गया था कि, वह लोगों से हंस­खुल कर बात करना भी भूल गया था। वह हरेक समय खामोश और खोया­खोया सा रहने लगा। कालेज जाना भी वह भूल सा गया। वहां के प्रत्येक आकर्षण को वह भूल गया। अक्सर ही कम्पाऊंड की उस बाहरी दीवार से, जिसको कभी मिशन के प्रबंधक रेव्ह दयालचन्द ने कम्पाऊंड की सुरक्षा के लिये बनवाया था, अपना मुंह टिका कर उसकी दूसरी तरफ के लहलहाते हुये हरे­भरे खेतों की ओर देखता रहता। कभी नीले आकाश की ओर उसकी दृष्टि उठ कर ही रह जाती। चर्च कम्पाऊंड का हरेक मनुष्य उसके दुख को समझता ही नहीं था, पर महसूस भी करता था। परन्तु विधाता के छिपे हुये भेदों से शायद कोई भी वाकिफ़ नहीं था। उसकी नियति पर किसका जोर चल सकता है। उसे तो जो भाता है, वही वह करता भी है। केवल मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है कि जो सदैव परमेश्वर के वे काम जो उसकी इच्छा के अनुकूल नहीं हुआ करते हैं, उन पर अंगुली उठाना नहीं भूलता है।

       धरती अभी तक मानव के साथ ही थी। ये एक अलग परेशानी की बात प्रकृति के लिये बनी हुई थी। न जाने क्यों धरती की उपस्थिति चर्च कम्पाऊंड की भूमि पर प्रकृति के लिये चिंता का विषय बन गई थी। वह मानव के साथ ही, उसके घर में ही अभी तक रह रही थी। उसके साथ रह कर वह मानव का हरेक तरह से ख्याल भी रखने लगी थी। मगर होता भी क्या? आदमी दूसरों को तो तसल्ली दे सकता है, परन्तु स्वंय को कभी भी नहीं। खुद को संतोष देना और समझाना सचमुच बहुत कठिन हो जाता है। जब भी मानव घर से बाहर निकलता तो सदैव ही उदास ज़िंदगी की एक टूटी हुई लाश के समान निराशाओं का बड़ा सा बंडल बना हुआ। अपने घर से यदि वह थोड़ी सी भी देर के लिये बाहर आता तो वहां पर पहले ही से प्रकृति की व्याकुल आंखें उसकी प्रतीक्षा में बिछी हुई तरसती रहतीं। वह सदैव ही अपने घर के सामने खड़ी होकर मानव को दूर से ही बस निहारती रहती। प्रकृति मानव की दुखी हाल की थकी हारी दशा को देखती तो उसका भी उदास दिल तड़प कर ही रह जाता। मन ही मन वह सिसक जाती। उसकी आंखों में आंसू आते­आते रूक जाते। वे प्यार के अतृप्त आंसू जिन्हें बहाने के लिये उसकी सावन­भादों जैसी आंखें सदैव ही तरसतीं थीं।

          उसने कई बार चाहा कि वह मानव से मिल ले। उससे जी खोल कर बातें करे। उसका दुख बांट ले, परन्तु धरती की उपस्थिति और समाज की चौकीदारी जैसी नज़रें दोनों ही उसके मार्ग में आ जाते। धरती के नाम और उसकी उपस्थिति मात्र से ही उसकी समस्त इच्छायें सुस्त पड़ कर खामोश हो जाती थीं। फिर ऐसे में वह बहुत चाह कर भी मानव से नहीं मिल पाती थी। मानव तो अभी तक कालेज नहीं जा रहा था।                                     इसलिये भी उससे मिलने में प्रकृति को परेशानी हो रही थी। केवल तारा ही के साथ वह कालेज चली जाती थी। वह भी मन को जैसे मार कर, अपने आप से रूठ कर और कालेज से भी वह जैसे एक अभागिन बन कर लौट भी आती थी । कालेज का आकर्षण और जीवन के प्रति उसकी समस्त रूचि भी जैसे मानव की उदासियों के साथ घुल कर कहीं किसी चिंताओं की धुंध में विलीन हो चुकी थी।

           प्रकृति ने अपने दिल का सारा हाल तारा को बता भी दिया था। तारा उसके मन की एक­एक बात को जानती थी। इसी कारण प्रकृति जब भी उदास होती या अंधेरों का दामन थामने लगती तो तारा अपनी सहेली के दुख को अपने प्यार का वास्ता दे कर कुछ हदों तक कम कर देती थी। वह कितने ही जीवन के उदाहरण दे कर उसको हरेक तरह से समझाती। संतोष करने को कहती। ऐसे में तारा की मित्रता और अपनत्व से भरी बातें प्रकृति के दुखी और अंधकारमय दिल के पर्दे पर एक तारे की मद्धिम रोशनी के समान हल्का प्रकाश तो देने लगती, पर फिर भी वह उसके दिल के गुबारों को साफ नहीं कर पाती थी। ऐसे में कभी­कभार उसकी छोटी बहन वर्षा भी उसके दिल के द्वारों पर अपनी मीठी बातों की फुहार करके उसके उदास मन को ढोने का प्रयत्न करने लगती थी।

           कुछेक दिनों के गुज़रने के पश्चात धरती आगरा वापस लौट गई। वह चली गई तो गई, पर अपने साथ मानव को भी ले गई थी। प्रकृति ने जब ये सब अपनी आंखों से देखा तो स्वत:  ही उसके प्यासे और पहले ही से सुलगन भरे दिल के ज़ख्मों पर जैसे अंगारे बरस पड़े। दिल ही दिल में वह तड़प कर रह गई, परन्तु वह कर भी क्या सकती थी। यदि उसका जरा भी बस चलता तो वह मानव को अपने पास पकड़ कर रख लेती। किसी अन्य की उस पर आंख भी नहीं पड़ने देती। यदि फिर भी धरती उसके मार्ग में आती तो वह उसको भी आड़े हाथ लेती। खिसिया कर उस पर टूट ही पड़ती। आंधियों समान उस पर अपना कहर ही बरसा देती। शायद अपनी आहों से उस पर बिजली ही गिरा देती। मगर दिल की तमन्नाओं पर किसी का भी कोई अधिकार नहीं होता है। कोई भी अपना व्यक्तिगत हक नहीं होता है। सब ही अपने मन के राजा और मालिक हुआ करते हैं। यदि मानव स्वंय ही धरती में रूचि लेने लगा है तो इसमें धरती का क्या दोष? प्यार के खेल की बाज़ी खेलने की आज्ञा तो परमेश्वर ने सब ही को प्रदान की है। ऐसे में वह उन दोनों के बीच में आने वाली होती भी कौन है। इस सच्चाई से भी नहीं मुकरा जा सकता है कि, जहां एक ओर प्रेम के रिश्ते कच्चे धागों से बंधने के पश्चात मज़बूत हो जाया करते हैं, वहीं मानव का मन एक ऐसा केन्द्र बिन्दु है कि, उसकी पसन्दों में परिवर्तन आते देर भी नहीं लगती है। फिर मानव जीवन के इस प्यार के खेल की धूप­छांव में किसी की किस्मत ऐसी भी हुआ करती है कि सब कुछ हाथों में आने के पश्चात भी कभी­कभी आंचल खाली रह जाया करता है।

              मानव के आगरा चले जाने के पश्चात प्रकृति फिर से एक बार ठंडी पड़ गई। उसके सारे कार्य, मन की भावनायें, जीवन की उठती हुई आकांक्षायें और प्यार के इशारे सब ही एक ही बार में सुस्त पड़ गये। उसकी चंचलताओं में एक प्रकार का रूखापन भर गया। वह उदास रहने लगी। बिल्कुल ही खामोश हो गई। स्वंय से और सामाजिक गति­विधियों के प्रति भी। तारा ने जब उसके इस हाल को देखा तो सारी परिस्थिति के बारे में खुद ही समझ गई। परन्तु फिर भी उसने प्रकृति का मन प्रसन्न रखने के लिये उसको समझाया ही। हर दृष्टिकोण से उसने इन सारी बदली हुई परिस्थितियों को अपने हालात की देन कहा और किसी पर कोई भी दोषारोपण नहीं किया। मानव और धरती दोनों ही उसकी दृष्टि में सही थे। फिर प्रकृति ने ये सारी बातें तारा के मुख से सुनीं तो किसी प्रकार से अपने उदास दिल को समझा लिया। समय के अनुरूप पग बढ़ाने की वह चेष्टा करने लगी। मगर फिर भी मानव का ख्याल उसके दिल के भंडार से एक पल को भी कम नहीं हो सका। वह जितना भी अधिक उसको टालने का प्रयत्न करती, उतना ही अधिक वह उसे परेशान करने लगता था। बार­ बार उसका ख्याल आता तो वह उसके चित्र को अपने दिल के अंदर से निकाल कर आंखों में ही उसकी छवि बनाने लगती। क्षण­क्षण में वह उसके लिये तरसने लगती और इस प्रकार उसकी हरेक याद को मन से निकालने की कोशिश में वह तरस कर ही रह जाती। अपने आप ही सिसक भी लेती। फिर जब उसके दिल का बोझ अधिक बढ़ता तो वह कहीं भी एकान्त में निकल जाती और फिर एक ओर से अपनी किस्मत के सारे आंसुओं को समेट कर आंखों में बन्द करके बहाने लगती।

              फिर एक दिन उसके न चाहने पर भी तारा उसको जबरन कालेज ले गई, मगर प्रकृति का मन फिर भी कालेज में नहीं लग सका। जब से मानव आगरा चला गया और धरती का पदार्पण उसके जीवन में हुआ था तब से प्रकृति ने अपनी सहेलियों से बात करना ही बन्द कर रखा था। वह मौन रहने लगी थी। उसकी अन्य सहेली लड़कियों ने जब उसकी इस बदली हुई दशा को गौर से निहारा तो वे भी भांप गईं। वे एकदम से समझ तो नहीं सकीं, पर इतना अनुमान तो उन्होंने लगा ही लिया था कि, जीवन के प्रति अचानक से आई हुई मायूसी और गंभीरता का कारण दिल का बंटवारा ही हो सकता है। लेकिन प्रकृति के प्यार में हिस्सा लेने वाला कौन है? वे ये नहीं जान सकी थीं।

          फिर एक दिन प्रकृति कक्षा छोड़ कर कालेज के 'सुन्दर गार्डन' में जाकर बैठ गई थी। बिल्कुल ही अकेली। तारा भी उसके साहृा नहीं थी। तभी उसकी कुछेक सहेलियां उसको जैसे ढूंढ़ती हुई सी उसके पास आ पहुंचीं। आते ही सब ने उसको गौर से देखा। उसके खोये­खोये चेहरे को पढ़ने का प्रयत्न किया, फिर अचानक ही सब उसको देखते हुये खिलखिला कर हंस पड़ीं। प्रकृति जब उनकी हंसी के फव्वारे से अचानक ही चौंक पड़ी तो वह उनको अनदेखा करते हुये एक पुस्तक को खोल कर अपनी आंखों के सामने कर लिया। उसकी इस प्रति क्रिया पर नीरू ने उसके पास आकर उसको छेड़ा। वह चंचलता से बोली कि,

'कहिये मिस 'नेचर' आज किस वातावरण का अध्ययन हो रहा है?'

'तुम्हारी मूर्खता का।'  प्रकृति ने उसके मन की धारणा को भांपते हुये झुंझला कर कहा तो सबकी-सब अचानक ही जैसे सहम गईं। तब उनमें से एक ने कहा कि,

'ज़रा संभल कर। लगता है कि आंधी आने की संभावना है।'

इस पर प्रकृति कुछ कहती, तब तक दूसरी लड़की ने कहा कि,

'प्रकृति के दिल का कोई ठिकाना नही होता है। कभी रोती फिरेगी, कभी मुस्करायेगी और कभी तो अचानक से चीख भी पड़ती है।'

इस पर नीरू ने सबको चुप रहने को बोला। फिर वह प्रकृति के पास नीचे ही बैठे हुये उससे बोली कि,

'प्रकृति।'

 '?'-  तब प्रकृति ने अपनी सूनी आंखों को ऊपर उठाया पर बोली कुछ भी नहीं। तब नीरू ने उससे कहा कि,

'तुम्हारी आंखें कितनी प्यारी हैं-  झील सी गहरी; लेकिन इनमें थकावट अच्छी नहीं लगती है।'

 फिर दूसरी आई और वह उसके बगल में बैठते हुये प्रकृति से बोली,

'तुम्हारे ये पतले­पतले होंठ- कितने रस भरे हैं; मगर इन्हें सूखने मत दो।'

 तब तीसरी ने कहा कि,

'ये तुम्हारा फूल सा मोहक चेहरा- कुम्हलाते हुये अच्छा भी नहीं लगता है।'

तब भी प्रकृति कुछ नहीं बोली तो नीरू ने उसे फिर से छेड़ा ्र वह बोली ्र

'बता क्यों नहीं देती हो कि, क्या खो गया है तुम्हारा? ताकि हम सब ही उसे ढूंढ़ने की कोशिश करें।'

इस पर एक अन्य लड़की ने सीधा­सीधा तीर मारा। वह बोली कि,           

'बता क्यों नहीं देती हो कि, 'मानव' खो गया है या उसकी मानवता?'

तब प्रकृति ने जैसे चिढ़ कर कहा । वह बोली कि,

'ना तो मुझे कुछ मिला था और ना ही मेरा कुछ खो गया है। खोया है तो तुम सब का मस्तिष्क खो गया है।'  प्रकृति ने अपनी तीव्र आवाज़ में कहा तो सभी लड़कियां बुरी तरह से हंस पड़ीं। प्रकृति तो चुपचाप वहां से चलने के लिये अपनी पुस्तकें संभालने लगी। लेकिन अधिकतर सब ही उसकी ओर देखते हुये कानाफूसी करने लगीं थीं। एक कह रही थी कि, 'मैंने तभी कहा था कि उसे मत छेड़ो। आंधी आने की संभावना है।' तो दूसरी की राय के अनुसार वह कह रही थी कि, 'तूफान भी हो सकता है।' पर तीसरी का अपना ख्याल था कि, 'शायद आग बरसेगी?'         प्रकृति ने जब उन सब की इस प्रकार की बातें सुनी तो वह फिर से झुंझलाते हुये बोली कि,

'और तुम सब पर ओले भी गिरेंगे।'

तब एक अन्य ने गम्भीरता से कहा कि,

'इसको तो मैंने बहुत पहले ही समझाया था कि, इन चक्करों में मत पड़। आज का कोई ऐसा मजनूं नहीं है जो पत्थर खा ले. अभी भी समय है, संभल जा. वरना, रोयेगी, पछताएगी और कहीं की भी नहीं रहेगी। अपनी पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान दे। मगर इसके मस्तिष्क में कुछ भी अच्छा नहीं समाता है।'

       इतने में अचानक ही कालेज का घंटा बज गया तो उनके मध्य का चंचल वातावरण स्वत:  ही गंभीर हो गया। शोर अपने आप ही शांत हो गया। प्रकृति बगैर किसी से कुछ भी कहे हुये चुपचाप कक्षा की ओर बढ़ती जा रही थी तो अन्य लड़कियां भी फुसफुसाहट करती हुई चली जा रही थीं। अपनी ही गति के साथ।

थोड़ी ही देर में वे रसायनशाला की ओर बढ़ रही थीं, क्योंकि प्रयोगात्मक कक्षा आरंभ होने जा रही थी। फिर जब रसायनशाला के अध्यापक आ गये तो सभी छात्र और छात्रायें अपनी­अपनी जगह पर जाकर खड़े हो गये। छात्र और छात्राओं ने अपने एप्रिन भी बांध लिये थे और सब छात्रों में कोई मुश्किल से कुछ ही छात्र ऐसे होंगे जो कि गंभीरता के साथ अपना कार्य कर रहे होंगे, वरना अधिकांश जैसे अपना समय काटने के उददेश्य से ही आये थे। युवा छात्रों में कोई बातों में लीन था तो कोई कुछ नहीं तो रसायनिक उपकरणों को जैसे बेमतलब ही उनका स्थान बदल­बदल कर रखने लगा था। कोई­कोई शरारती छात्र तो परखनली में विभिन्न रसायनिक पदार्थों को मिश्रित करके उनके बदले हुये रंगों को ही देख रहा था, साथ ही उसके द्वारा बनने वाली कसैली गैस से समस्त प्रयोगशाला का वातावरण ही मैला किये देता था।

         तारा अपनी सीट के सामने खड़ी होकर अपने पूरे मन के साथ अपना प्रयोगात्मक कार्य कर रही थी,  परन्तु प्रकृति चुपचाप उसकी बगल में खड़ी हुई कभी-कभार अन्य छात्र और छात्राओं को बेमन से निहार लेती थी। यूं भी आज उसका किसी भी कार्य में मन नहीं लग रहा था। जब कि अन्य छात्रायें फिर भी अपना कार्य कर रही थीं। इतने में सहसा ही नीरू ने खामोश खड़ी हुई प्रकृति के कंधे पर पीछे से आकर चुपचाप अपना हाथ रखा तो  प्रकृति भी एक पल के लिये अचानक ही चौंक गई। उसने एक प्रश्न सूचक दृष्टि से नीरू को पलट कर देखा तो नीरू ने संदेहयुक्त स्वर में उससे कहा कि,           

'क्या मन नहीं लग रहा है, यहां तुम्हारा?'

'हां।'

प्रकृति ने रूखेपन से एक फीका सा उत्तर दिया। प्रकृति की इस बात पर नीरू ने जैसे उसे चारों तरफ से निहारा। उसकी दशा को भांपने की कोशिश की। फिर कुछेक पलों के पश्चात जैसे एक संशय से बोली कि,      

'क्यों? ऐसी क्या बात है कि जो तुम्हारा मन आज कल किसी भी बात में नहीं लगता है?'

'यूं ही। न मालूम क्या बात है।'

'यूं ही या फिर वो ही  .. . . . . .?'

नीरू ने उसके ही शब्द पकड़े तो प्रकृति चौंक गई। वह आश्चर्य से नीरू से बोली कि,

'तुम्हारा मतलब?'

'मेरा मतलब कि, किसी की स्मृतियों में क्या किसी का मन कभी लगा भी है? कोई याद आ रहा है क्या?'

'हां ! ऐसा ही समझ लो।'

'तो समझ गई।'

'क्या समझ गई?'

'उस 'मानव' से पूछो जाकर, जिसने 'प्रकृति' की बहारों को कुछ ही दिनों में खिज़ाओं के हार पहना दिये हैं।'

         ऐसा कहते हुये वह पल भर को मुस्करायी और फिर धीरे से अपनी सहेलियों की ओर बढ़ने लगी। लेकिन वह आगे जाती, इससे पहले ही प्रकृति ने उसको कंधे से पकड़ लिया और उससे बोली कि,

'ऐ ! इधर आ पहले?'

'अब क्या है?' नीरू अपनी जगह पर ठिठकती हुई बोली।'

'तू ! यह हर समय मुझसे ये डायलॉग कैसे बोलने लगी है?'

'तेरा मतलब ?' नीरू ने पूछा ।'

'तुझसे कितनी बार कहा है कि, ये कालेज है। समय और माहौल देख कर बात किया कर।'  प्रकृति ने जैसे कोई ताड़ना सी दे दी।

इस पर नीरू ने प्रकृति के बदलते हुये भाव देखे तो वह भी उसकी आंखों में झांकती हुई उसी अंदाज़ में बोली कि,

'कहना क्या चाहती हो तुम? 'बहारों की मलिका?'

'तुम्हारा इस तरह से तानों में बात करने का मतलब क्या है?'

प्रकृति ने क्रोध में गम्भीरता से पूछा तो नीरू ने भी उसी तरह से उसके लहजे में मटकते हुये उससे कहा कि,

'और तुम जो अब इस तरह से अपना मौसमी रूप बदल कर बात कर रही हो, उसका भी अर्थ समझा दो?'

'मुझे इस रूप में आने का अवसर तो तुम ही ने दिया है।'

'मुझे इसकी कोई परवा नहीं है।' नीरू ने लापरवाही से कहा।

'परवा तो मुझे भी किसी की नहीं रहती, लेकिन बार­बार किसी अन्य को मेरे मध्य लाकर मुझको परेशान करने की तुम्हारी आदत अच्छी नहीं है?'

'मैं कौन होती हूं तुम्हारे बीच में किसी को लाने वाली। खुद तो बिना वजह का रोग लगाये बैठी हो और दोष मेरे सिर पर मढ़ती हो? फिर मैं किस को तुम्हारे बीच लेकर आती हूं?  नीरू ने कहा तो प्रकृति ने उसे तुरंत उत्तर दिया। वह बोली,

'मानव को। जबकि उस बेचारे का कोई भी दोष नहीं है।'

'बेचारा !!' नीरू ने गोलाई से अपने होंठ सिकोड़े। प्रकृति को फिर एक बार भेद भरे ढंग से देखा और कहा कि,

'बहुत अच्छा लगता होगा न?'

'तुम्हें भी तो कोई न कोई भला लगता ही होगा?'

'हां ! लगता है और आज भी उसके लिये जान दे सकती हूं सबके सामने। तुम्हारे समान घुट­घुट कर मरा नहीं  करती हूं मैं?'

         बातों की तकरार बढ़ी तो दूसरी साथ की अन्य लड़कियां भी आ गईं थीं। फिर तो मज़ाक ही मज़ाक में सारा वातावरण ही बदल गया। कुछेक मनचले छात्र भी उनकी बातों में रूचि लेने लगे। लेकिन दूसरी अन्य आई हुई छात्राओं ने प्रकृति और नीरू को अलग­अलग कर दिया। तारा भी आई और प्रकृति को एक ओर ले गई।

       फिर काफ़ी देर तक लड़कियों के मध्य गंभीरता छाई रही। नीरू तो चुपचाप एक ओर अपनी सीट के सामने जाकर चुपचाप अपना कार्य करने लगी थी, परन्तु प्रकृति तारा के साथ ख़ामोश खड़ी थी। दोनों का चेहरा देखते ही प्रतीत होता था कि अभी तक किसी के भी मस्तिष्क से आपस की हुई तकरार का प्रभाव समाप्त नहीं हो सका  था।

'क्या बात हो गई थी?' सहसा ही तारा ने प्रकृति से पूछा।

'अरे ! हर वक्त चिल्ला­चिल्ला कर बोलती रहेगी। न कोई सुन रहा हो तो वह भी सुन ले।'  प्रकृति ने क्रोध में कहा।

'कह क्या रही थी?'  तारा ने पूछा।

'न कुछ।'  प्रकृति ने अपनी भौंहें सिकोड़ीं, फिर आगे बोली कि,

'जान देगी अपनी। जब कि खुद किसी की जान लिये बैठी है। अपनी क्या जान देगी?'

         तभी नीरू की एक सहेली उनके मध्य से गुज़री और उन दोनों की सारी बात सुनती हुई चली गई। जाकर उसने उनकी सारी बात का बखान नीरू से कर दिया। नीरू ने सुना तो मन ही मन झुलस गई। झुलस गई तो वह भी अपनी सहेली से इसी विषय पर बात करने लगी। कभी­कभी वह प्रकृति को तिरछी और तेज़ निगाहों से घूर भी लेती थी। अपना बुरा सा मुंह बनाते हुये।

         फिर कुछेक क्षण ही व्यतीत हुये होंगे कि, नीरू और उसकी सहेली तारा और प्रकृति के पास से अपने तेज स्वरों में जान बूझ कर ये बात करते हुये गुज़रीं कि,

'जान देने वाले तो हिम्मत वाले ही होते हैं?'

         नीरू की इस बात को प्रकृति सहन नहीं कर सकी। वह समझ गई कि नीरू ने जान बूझ कर ये बात उसको ही सुनाने के लिये कही थी। इसलिये वह रसायन पदाथों की अलमारी में तूतिया (कॉपर सल्फेट) की भरी हुई बोतल निकाल कर लाई और उसको शीघ्र ही नीरू के पास ले जाकर उसे देते हुये उससे बोली कि,

'ले इसे खा डाल। ज्यादा बात करती है अपनी जान निछावर करने की?'

'?'

        नीरू ओर उसकी सहेली ने जब प्रकृति को इस रूप में देखा तो दोनों ही सकते में आ गईं। नीरू तो फिर भी सारी बात समझ गई, पर उसकी सहेली फिर भी नहीं समझ पाई थी। तब तक प्रकृति ने फिर से नीरू को बोतल हृामाते हुये उससे कहा कि,

 'ले, इसे खा ! तब समझूंगी कि, कितना साहस है तुझ में किसी पर कुरबान होने का?'

'मैं तो खा ही लूंगी, लेकिन शर्त लगा कर?'  नीरू बोली।

'कैसी शर्त?'

'मेरे साथ तुम्हें भी खाना होगा।'

'?'-   प्रकृति क्षण भर को मौन हो गई। तब नीरू ने आगे कहा कि,

'बोलो मंज़ूर है कि नहीं?'

तभी एक दूसरी लड़की जो बहुत देर से उन दोनों की बातें सुन रही थी, अचानक से उनके बीच में आई और बोली,

'क्या तुम लोगों ने बच्चों की तरह ज़िद पकड़ रखी है? दोनों कॉलेज की छात्राएं हैं और झगड़ रही हैं बालिकाओं के समान. कोई नहीं पिएगा यह सब. लाओ मुझे दो.'

       यह कहते हुए उसने जैसे ही उस रसायनिक पदार्थ तूतिया की भरी बोतल नीरू के हाथ से लेनी चाही तभी वह बोतल दोनों के हाथ से छूटकर भड़ाक से अमोनिया बनाने वाले उपकरण से जा टकराई और अमोनिया का उपकरण नीचे गिरा तो उसमें भरा हुआ सारा तरल पदार्थ भी नीचे लुढ़क गया. फिर तो जरा सी देर में ही सारी लैब का वातावरण अमोनिया की तीक्ष्ण गंध से भर गया. साथ ही अमोनिया के उपकरण के साथ अन्य दुसरे पदार्थों भी नीचे गिर कर फैल गये और क्षण भर में ही लैब में आग से लग गई. कुछेक छात्र आग बुझाने लगे और अन्य छात्र व छात्राएं लैब से बाहर निकल कर बाहर छींकने और खांसने लगे. देखते ही देखते आग तो बुझाई गई पर साथ में कॉलेज की लैब का एक बड़ा नुक्सान इन दोनों की लड़कियों की नादानी से हो चुका था.

       फिर सारा मामला कॉलेज के प्रधानाचार्य के पास पहुंचा. समिति बैठी और क्रमश: नीरू तथा प्रकृति, दोनों ही को दंड-स्वरूप तीन माह के लिए कॉलेज से बाहर कर दिया गया. 

       पाकिस्तान में वजीरे-आलम जुल्फकार अली भुट्टो का शासन था. मुजीबर-रहमान जो पाकिस्तान के दूसरे हिस्से के राष्ट्रपति चुने गये थे उन्हें कैद कर लिया गया था. सारी जनता उनके ही समर्थन में सड़को पर आ चुकी थी. सारे पाकिस्तान में मार-काट का आलम था. अपनी जान बचाने की खातिर बंगला देश के शरणार्थी भारत की सरहदों में घुसकर आसरा मांग रहे थे. इसके साथ ही पकिस्तान भारत से युद्ध की तैयारियां करने में व्यस्त हो चुका था. दुसरी तरफ देश में अनुशासनहीनता, भ्रष्टाचार तथा आर्थिक स्थिति के गिरते हुये मापदंडों के कारण और पड़ोसी देश में हालात अनुकूल न होने के कारण देश की प्रधानमंत्री ने सारे देश में आपातकाल की घोषणा कर दी थी। परन्तु प्रकृति के माता­पिता ने अपनी पुत्री के भविष्य के ख्याल को देख कर उसके ऊपर भी एक दूसरी प्रकार की बंदिश लगा दी थी। इस बंदिश में अब उसका घर से बाहर जाना बंद कर दिया गया था। साहृा ही वे अब उस पर विशेष निगाह भी रखने लगे थे। कॉलेज में हुई घटना और वहां से निकाले जाने के कारण उन्हें प्रकृति और मानव के प्रेम-सम्बन्धों के बारे में भी ज्ञात हो चुका था. प्रकृति के कदम अपरिपक्व प्यार की दीवानगी के कारण भटक उठे थे,  इस बात के कारण उनका अपने समाज में सिर तो नीचा हुआ ही था, साथ ही उन्हें दुख भी बहुत हुआ था। इसके साथ ही लड़की के भविष्य की चिन्ता लग जाना भी कोई नई बात नहीं थी। उन्हें अपनी पुत्री से इस प्रकार की मानव को अपना बहुत कुछ समझने लगी है, ये जानकर उन्हें दुख नहीं हुआ था, तो कोई प्रसन्नता भी नहीं हो सकी थी। परन्तु फिर भी उन्होंने मानव से इस विषय में कुछ भी कहना उचित नहीं समझा था। शायद यही सोच कर कि, जब अपने ही हीरे में दोष हो तो जौहरी से कैसा कहना और सुनना? अपनी लड़की पर नियंत्रण कर लेने में ही समझदारी है, ऐसा सोच और विचार कर उन्होंने प्रकृति पर पाबंदी लगा दी थी। लड़की के पैर प्यार की अनजानी राहों पर फिसल चुके हैं, वे इतना तो जान ही चुके थे.

             इस प्रकार प्रकृति के माता और पिता ने उसको मानव से तो बिल्कुल ही बात करने की मनाही कर दी थी, साथ ही अन्य स्थानों में बगैर उनकी इच्छा के भी वह नहीं जा सकती थी। कालेज जाना तो उसका वैसे ही बंद हो चुका था। हांलाकि, जब प्रकृति से पूछा गया कि, उसने समझदार होते हुये भी ऐसा क्यों किया था तो वह अपनी भूल पर लज्जित थी, उसने अपनी गलती भी मान ली थी कि उसे यूँ ही नीरू से नाहक नहीं उलझना चाहिए था। सो इस प्रकार प्रकृति अपने ही घर में कैदियों समान घुटने लगी। इसके साथ ही अपनी इस भूल के कारण वह अपने मां­बाप की दृष्टि में एक प्रश्न चिन्ह बन कर उभरने लगी थी। प्रश्न चिन्ह यह कि उसने अपनी इस हरकत से मां-बाप और समूचे परिवार के प्रति अपना विश्वास भी खो दिया था- अब कोई भी उस पर इस प्रकार के मामले में सहज ही विश्वास नहीं करनेवाला था।

              उसकी कालेज की घटना का प्रभाव ऐसा हुआ कि, उसकी मां भी अब हर समय उसको आड़े हाथ  लेने लगी थी। यदि उससे कभी­ कभार ज़रा सी भी भूल हो जाती थी तो वह भी उसको खरी­खोटी सुनाने से नहीं चूकती थी। प्रकृति जब भी ये सब सुनती तो सुन कर केवल तड़प कर ही रह जाती थी। मन ही मन वह रो भी लेती थी। दिल ही दिल में वह सोचती रहती। घंटों इसी प्रकार विचारों में उलझी रहती। कभी­कभी वह अपनी सोचों में इस कदर भटक जाती कि, वापस आने का फिर कोई समय ही नहीं होता। वह खाना खाती, तो कभी उसे खाने का कुछ होश ही नहीं रहता। रातों में उसे नींद भी आना बंद हो गई। सारी रात करवटें ही बदलती रहती। आकाश में चमकने वाली छोटी­छोटी नादान तारिकाओं से वह अपना दुखड़ा रोती रहती। कभी कल्पनाओं में ही चन्द्रमा से अपनी मुक्ति की याचना करने लगती। परन्तु यहां पर उसकी उसके दिल की सिसकियों भरी मुराद को सुनने वाला था भी कौन?  मन की सारी लालसाओं का सींखचों की दीवारों में कैद हो जाना ही सबसे बड़ा ज़ुल्म हो जाता है। ये एक ऐसी कैद होती है कि जिसमें बंद होकर दिल की सारी आरज़ुयें छटपटाती रहती हैं। दिन­रात तड़पती हैं- इसी आस पर कि, शायद कोई तरस खाकर मुक्ति दे दे। शायद प्यार के फूटते हुये आंसुओं की बाढ़ से कैदखाने की दीवारें ढह जायें। शायद ईश्वर ही उसकी दशा पर रहम खा ले और वह स्वतंत्र हो कर अपने बिखरे हुये सपनों को फिर से जमा कर ले।

            प्रकृति अपने घर में कैद हो गयी तो मानो उस पर उदासियों के पहाड़ भी टूट पड़े। वह उदास रहने लगी। हर वक्त ही उसकी झील सी गहरी आंखों में सूनापन समाने लगा। होंठ सूख चले। चेहरे पर दुनियां जहान का दर्द अपना डेरा जमा बैठा। उसके लम्बे, सूखे और घने बालों में उसकी सताई हुई सिसकियों के ढेर ने अपना घोंसला बना लिया। इसके साथ ही वह अपने दिल में अपनी फूटी किस्मत का भेद छिपाये हुये अपने सामने आने वाले समस्त दुखों को बटोरने पर विवश हो गई। घर में उससे कोई भी बात करने वाला नहीं था। कोई भी जैसे उसके मन की भावनाओं को सम्मान देना तो अलग बात,  उनको ढंग से समझने वाला भी नहीं था। कभी­कभार तारा किसी मद्धिम सितारे की भांति उसके पास आती थी और क्षण भर को अपनी सहानुभूति के द्वारा प्यार की हल्की रोशनी करके चली भी जाती थी। जब भी वह आती थी तो कालेज की खबरें भी दे जाती थी। इसके अतिरिक्त कभी­कभी उसकी छोटी बहन वर्षा अपनी प्यारी­ प्यारी बातों से उसका दिल बहलाने का एक असफल प्रयत्न करती तो प्रकृति के उदास दिल पर जैसे ठंडी फुहारों की रिमझिम वर्षा हो जाया करती थी।

          दशहरे की छुट्टियों में कालेज कुछ दिनों के लिये बंद हुये तो प्रकृति का बड़ा भाई क्लाईमेट फरूखाबाद से घर आ गया। वह वहां के मसीही स्कूल में अध्यापक का कार्य कर रहा था और प्राय: ही छुट्टियों में अपने घर आ जाया करता था। क्लाईमेट घर आया तो उसके माता­पिता ने उसको घर की परिस्थिति का रहा बचा हाल भी विस्तार से बता दिया। जो कुछ भी इससे पूर्व हुआ था, उसकी सूचना तो वे पहले ही दे चुके थे। उसने भी सुना तो वह भी क्षण भर को गंभीर हो गया। उसका गंभीर और चिन्तित होना बहुत स्वभाविक ही था। आखिर वह घर का बड़ा लड़का था। बहन वाली बात थी, उसे तो चिन्तित होना ही था। मगर फिर भी उसने प्रकृति से इस समय कुछ भी नहीं कहा। वह शांत ही रहा। पर फिर भी उचित अवसर की वह प्रतीक्षा अवश्य ही कर रहा था।

          क्लाईमेट और मानव बचपन से ही एक दूसरे को जानते थे। वे एक साथ पढ़े तो नहीं थे, लेकिन एक ही स्थान पर साथ रहने के कारण दोनों ही एक दूसरे से अच्छी तरह परिचित थे। मगर फिर भी ये और बात थी  कि वे कभी भी मित्र नहीं बन सके थे। शायद इसका कारण दोनों ही के विचारों में कोई भी मेल न होना ही था।

          क्लाईमेट ने घर में जब प्रकृति को उखड़ा­उखड़ा और उदास देखा तो मां की कही बातों की पुष्टि उसे स्वत:  ही हो गई। उसकी बहन अनजाने और अपरिपक्व प्यार के रास्तों पर भटक कर अपने पहले­पहले प्यार की दास्तां लिखने लगी है- वह उसके हाव भाव देखते ही समझ गया। उसने सोचा कि, कोई और बात आगे बढ़े, इससे पहले ही उसे प्रकृति को समझाना आवश्यक था ।

          प्रकृति प्राय:  काफी रात तक अपना अध्ययन कार्य करती रहती थी। घर में सब लोग सो जात थे,  परन्तु वह फिर भी जागती रहती थी। उसकी रात गुज़रती थी, कुछ किताबों में आंख लगाये हुये तो कुछ अपने ऊपर आई हुई मानसिक यातनाओं की सोचों और विचारों में।

       फिर एक रात।

आकाश में चन्द्रमा अपने टिमटिमाते हुये सितारों की बारात के साथ रोज़ की तरह धरती पर झांक रहा था। वातावरण में गहरी खामोशी थी। हवायें शांत थीं। चर्च कम्पाऊंड के मसीही परिवारों के घरों के सभी दरवाजे बंद हो चुके थे। हर तरफ सन्नाटा था। कभी­कभार कम्पाऊंड के ढेर सारे कुत्ते किसी भी आहट पर एक साथ भौंक उठते तो क्षण भर में ही बस्ती की सारी शान्ति अपनी दुम दबा कर भाग जाती थी।

         प्रकृति अपने घर के बंद कमरे में किसी सताई हुई दुखिया के समान बेमन से एक पुस्तक खोले हुये अभी तक जाग रही थी। घर में धीरे­धीरे करके लगभग सभी सो चुके थे, लेकिन प्रकृति का भाई क्लाईमेट अभी तक जाग रहा था। अपने बिस्तर पर लेटा हुआ वह छत की ओर नज़रें उठाये हुये अभी भी अपनी छोटी बहन प्रकृति के लिये ही सोचे जा रहा था। उस 'प्रकृति'  के लिये कि,  जिसकी एक ही मनचले हवा के झोंके के कारण सारे परिवार की नींदें खो गई थीं। प्रकृति की कालेज वाली भावुक घटना ने सारे परिवार को उसके प्रति जैसे चेतन्य करके रख दिया था। क्लाईमेट लेटा हुआ अपने बिस्तर पर ऐसा ही कुछ सोचे जा रहा था। कभी­कभी वह एक नज़र प्रकृति की ओर भी निहार लेता था। प्रकृति के कालेज की घटना और उसके कालेज से कुछ दिनों के लिये निलंबित होने के कारण सब ही की दृष्टि उस पर ही केन्द्रित हो गई थी। साथ ही मानव भी उनकी शक की लिस्ट में आ चुका था। सब ये तो समझ ही गये थे कि, प्रकृति का रूझान मानव की तरफ विशेष रूप से बढ़ चुका है। ये तो अच्छा हुआ था कि उन दिनों मानव आगरा गया हुआ था, वरना सारा दोष फिर उसी के सिर पर आसानी से पड़ जाता। परन्तु इतना सब कुछ होने के पश्चात भी मानव को प्रकृति के परिवार वाले निर्दोष नहीं कह पा रहे थे।

         जब बड़ी देर तक क्लाईमेट को नींद नहीं आई तो वह भी उठ कर प्रकृति के कमरे में ही एक कुर्सी पर बैठ कर कोई पुस्तक खोल कर देखने लगा। प्रकृति ने उसको इस प्रकार देखा तो पूछ ही लिया,

'क्यों?  क्या नींद नहीं आ रही है भैया। तबियत तो आपकी ठीक है न आपकी ?'

'जब आदमी परेशान हो तो नींद कैसे आ सकती है?'  क्लाईमेट ने लगने वाला उत्तर दिया तो प्रकृति क्षण भर में ही गंभीर हो गई। वह तुरन्त ही समझ गई कि, स्वंय उसके ही कारण उसके परिवार के सब ही लोग परेशान हो गये हैं। इसीलिये क्लाईमेट ने भी जो कुछ भी कहा था, वह परोक्ष रूप में उसी से सम्बन्धित था। यदि वह मानव को अपने दिल में नहीं स्थान नहीं देती, उसे प्यार नहीं करती होती और उसके लिये नहीं सोचती होती, तो शायद ये सब कुछ नहीं होता। सच ही तो है कि, उसकी ये उम्र पढ़ने­लिखने और अपना भविष्य बनाने की है, परन्तु वह तो अभी से प्यार­मुहब्बत के खेल में पड़ चुकी है। उसका भाई कोई गलत बात तो नहीं कह रहा है। ये सोच कर कि मात्र उसके ही कारण घर के सारे लोग परेशान और चिन्तित हैं, ऐसा सोचते ही प्रकृति का मन एक आत्मग्लानि से भर गया। परन्तु फिर ये सोच कर कि उसने तो केवल मानव को अपने भावी भविष्य के बारे में कोई स्थान देने की केवल एक योजना ही बनाई है, अभी ठोस निर्णय तो नहीं कर लिया है। वह मानव के साथ कहीं भागी तो नहीं जा रही है? फिर क्यों सारे घर के लोग नाहक परेशान हुये जाते हैं? उसने अगर किसी को चाह है तो वह एक इंसान है, कोई जानवर तो नहीं, न जाने क्यों उसके अपने ही परिवार के लोग उसे गलत समझने लगे हैं? ऐसा सोचते हुये प्रकृति ने एक दृष्टि अपने भाई पर डाली- फिर बोली,

'चाय पियेंगे?'

'नहीं, इसकी कोई जरूरत नहीं है।'

क्लाइमेट ने एक नपा-तुला उत्तर दिया तो प्रकृति के भी कान खड़े हो गये. वह तुरंत ही उससे बोली,  

'आवश्यकता से अधिक किसी बात को अहमियत देने के कारण मनुष्य का परेशान होना स्वभाविक ही है।'

' ?' -  प्रकृति के मुख से इस प्रकार की बात सुन कर क्लाईमेट अचानक ही चौंक गया। फिर थोड़ी देर की गंभीरता के पश्चात उसने प्रकृति से सीधा ही पूछा कि,

'तुम्हारी बात का मतलब क्या है?'

' क्यों परेशान है आपका मन?'  प्रकृति ने पूछा तो क्लाईमेट तुरन्त बोला,

'तेरी परेशान हालत को देख कर।'

' ?'- प्रकृति ने एक संशय से अपने भाई को देखा।

क्लाईमेट ने ऐसी बात कही तो इसको सुन कर प्रकृति जैसे अचकचा सी गई। वह पल भर को अपने भाई का चेहरा ही देखती रही। परन्तु फिर बाद में अपने आप को संतुलित करती हुई वह बोली कि,

'मैं तो कोई परेशान नहीं हूं।'

' तेरे कहने भर से क्या ये बात सच हो सकती है?'

'कौन सी बात?'  प्रकृति ने तुरन्त ही पूछा तो क्लाईमेट तुरन्त ही अपने वास्तविक विषय पर आ गया। उसने विषय को बदलते हुये प्रकृति से कहा कि,

'अच्छा, छोड़ इन बातों को। तू एक बात बतायेगी मुझे?'

'कैसी बात?'  प्रकृति ने जैसे सहम कर एक भेद भरे ढंग से कहा।

'मानव तुझको बहुत अच्छा लगता है न।'  क्लाईमेट ने उसके मन की छिपी हुई बात कह दी तो प्रकृति तुरन्त ही जैसे झेंप सी गई। वह खामोश तो हुई, पर उसके बाद वह फिर अपने भाई से दृष्टि मिलाने का साहस नहीं कर सकी। न ही कुछ कह सकी। केवल मूक ही बनी रही।

उसकी चुप्पी देखते हुये क्लाईमेट ने अपनी बात जारी रखी। वह आगे बोला कि,

'बताया नहीं तूने?'

'क्या बताऊं मैं?'  प्रकृति ने जैसे मायूस होकर कहा।

'अपने मन की छिपी हुई बात।'

तब प्रकृति ने जैसे अपने आप को संभाला। चारों ओर से साहस एकत्रित किया। फिर काफी देर तक सोचने के पश्चात उसने कहा कि,

'जब आपको सब कुछ मालुम ही है तो फिर मुझसे क्यों पूछते हैं?'

तब प्रकृति की इस बात पर क्लाईमेट ने उसको समझाना चाहा। वह उससे बोला कि,

'देख ! मानव मेरे दोस्त समान है। मैं उसको बचपन से जानता हूं। आज को यदि वह तेरे दिल की पसन्द बन गया है तो इसमें भी मुझको कोई एतराज़ नहीं है, मगर फिर भी मैं तुझको इतना बता देना चाहता हूं कि, इस प्रकार के लड़के किसी एक पर निर्भर नहीं रहते हैं। तू जो भी फैसला अपने जीवन के लिये करे, उसे सोच समझ कर करना। अपना जीवन तुझको काटना है, मुझे या मामा­पापा को नहीं। हम लोगों ने इस दुनियां की ऊंच­नीच खूब देखी है, इसी लिये तुझको समझाना हमारा कर्तव्य बनता है।'  

क्लाईमेट की बात सुन कर तब प्रकृति ने उससे बड़ी देर बाद कहा कि,

'आपकी बात सही हो सकती है। ये माना कि, मानव अभी चंचल स्वभाव का है। अपने जीवन के प्रति वह गंभीर नहीं बन सका है, परन्तु उसको एक ही स्थान पर निर्भर करना तो मेरे हाथ में है। वैसे भी मैंने अभी उसके प्रति कोई ऐसा निर्णय नहीं लिया है कि शादी करूंगी तो केवल उसी से ही। वह मेरी चोइस है फैसला नहीं। आगे आनेवाले दिनों में अगर वह मेरी कसौटी पर खरा उतरेगा तभी कोई बात आगे बढ़ेगी।'

'नये­नये प्यार के मामले में हर लड़की को अपने ऊपर ऐसा ही विश्वास हुआ करता है। उसे सारी दुनियां में तो खोट दिखाई देती है, मगर अपनी पसंद में वह कोई भी दोष नहीं देख पाती है। वैसे तेरी इच्छा, हम लोग जबरन तेरी इच्छा के बगैर तुझे कहीं अन्यंत्र बांधने की भूल कभी भी नहीं करेंगे।'

          ये कह कर क्लाईमेट चुप हो गया। साथ ही प्रकृति ने भी कुछ नहीं कहा। वह भी चुप हो गई और चुपचाप अपनी पुस्तक को देखने लगी। तब कुछेक पलों के पश्चात क्लाईमेट ने ही बात आगे चलाई। वह बोला कि,

'प्रकृति, मानव की वास्तविकता जितनी अधिक मैं जानता हूं, उतनी तुझे भी नहीं ज्ञात होगी।'

'कैसी वास्तविकता और क्या? मैं यहाँ उसको दिन-रात देखा करती हूँ, मुझसे ज्यादा आप उसके बारे में कैसे जानते हैं? प्रकृति ने पूछा।

'मानव जब मेरे साथ ही कालेज में पढ़ता था तो उस समय वह रूबेनी का दीवाना था। जस्सो के लिये भी वह बेहद परेशान रहा था। कितने दिनों तक वह पहाड़ी लड़की तमीता के लिये भागता फिरा था। मेरा कहने का मतलब है कि, किसी भी सुंदर लड़की को देख कर वह तुरन्त ही विचलित हो जाता है।'

'लेकिन आप कहना क्या चाहते हैं?'

'यही कि, मानव जब किसी एक पर स्थिर ही नहीं रह सकता है तो फिर वह तेरे साथ किस प्रकार टिक सकेगा?' क्लाईमेट ने फिर से प्रकृति को समझाने की कोशिश की तो वह बोली कि,

'बाजार में अच्छी वस्तुओं को देख कर किसका मन नहीं मचल उठता है। हरेक की इच्छा होती है कि, वह सारी मनभाऊ वस्तुओं को समेट कर अपने पास रख ले। मगर इतना चाहने पर भी इंसान अपनी सामर्थ के अनुरूप किसी एक वस्तु को ही खरीद पाता है। ऐसा तो हर किसी के साथ घटित होता ही रहता है। इसमें किसी का क्या दोष?'

       ऐसा कह कर प्रकृति फिर से अपनी पुस्तक पढ़ने लगी तो क्लाईमेट फिर कुछ नहीं बोला। उसने उससे कुछ भी कहना उचित नहीं समझा। उसने समझ लिया कि उसकी बहन की आंखों पर इस समय प्यार की पट्टी चढ़ी हुई है, सो वह अभी कुछ भी देखने-समझने में असमर्थ होगी। उसके दिल और दिमाग पर इतना गहरा मानव का अक्श बन गया है कि जिसे अभी किसी भी दशा में मिटाना असंभव होगा। इतना गहरा कि जिसको वह इन छोटी­छोटी बातों के द्वारा नहीं मिटा सकता है। 'मानव' की परछाईं उसकी बहन के दिल के पर्दे पर से एक मनुष्य के द्वारा ही हटाई जा सकती है और वह है, स्वंय 'मानव'। जब तक मानव स्वंय ही प्रकृति का दिल नहीं तोड़ेगा तब तक प्रकृति का मन मानव के प्रति कभी खट्टा नहीं हो सकेगा। इसलिये इस बारे में उसे मानव से मिलना बहुत ही आवश्यक होगा। अब प्रकृति से कुछ भी कहना और सुनना केवल समय को खराब करना ही होगा। ये सोच कर वह कुर्सी से उठ बैठा और पुस्तक को बंद करके वह अपने बिस्तर पर आ गया। मन ही मन उसने शीघ्र ही मानव से व्यक्तिगत रूप से मिलने की योजना बना डाली। साथ ही उसे यह भी समझते देर नहीं लगी कि उसकी बहन उसके हाथों से न केवल निकल ही चुकी है, बल्कि कहीं दूर एक ठिकाने पर खड़ी हुई अपनी मंजिल ढूंढ़ने और उसे संवारने जैसे महत्वपूर्ण फैसले भी खुद ही करने लगी है।

                                X X X

                   

 

 

 

 

 

 

 

                           

       जीवन की नई सुबह।

नया सबेरा-  नया संदेश। नर्ई-नई उमंगों के साथ नई­नवेली लालसाओं का जन्म। छिपी हुई हसरतों के पूर्ण होने की आशाओं के साथ प्रकृति ने अपने घर के बाहर आकर दूर क्षितिज के पूर्व की ओर अपनी सूनी आंखों को उठाया तो प्रातः की शबनम में धुली हुई उषा की नई­नई कोमल किरणों ने उसके कमसिन भोले मुखड़े को चूम लिया। चूम लिया तो प्रकृति ने विवश होकर अपनी भारी पलकों को फिर से बंद कर लिया। सुबह हो चुकी थी। पूर्व में सूर्य की लालिमा अपनी मांग में सिंदूर भरे हुये अपने सपनों के देवता के आने की प्रतीक्षा में खड़ी हुई जैसे घड़ी के हर पल गिन रही थी। रात भर के सोये हुये पक्षी अपने नीड़ों से न जाने कब के निकल कर उड़ भी चुके थे। चर्च कम्पाऊंड के मैदान की हरी घास पर रात भर की बैठी हुई ओस की छोटी­छोटी बूंदें यूं चमक रहीं थीं, कि जैसे किसी सुन्दरी की माला की कड़ियां रूठ कर बैठ गई हों।

       रविवार का दिन था।

       मसीहियों के लिये उनके विश्राम का पवित्र दिन। चर्च कम्पाऊंड की इस छोटी सी मसीही बस्ती में दिन निकलते ही रविवार की आराधना की तैयारियां होने लगी थीं। शायद आज तो अपने किये हुये हफ्ते भर के पापों की क्षमा मांगी जा सकती थी? बगैर इस बात को सोचे हुये कि ऐसे हम कब तक पाप करते रहेंगे और कब तक अपने यीशु को बार­बार सलीब पर ठोंकते रहेंगे?

       प्रकृति अभी तक चुपचाप अपने घर के दरवाजे से बाहर खड़ी हुई अपने ही समान 'प्रकृति' की सुंदर बहारों को निहार रही थी। कभी­ कभार उसकी बेचैन और व्याकुल नज़रें एक आशा में उस दरवाजे की ओर भी देख लेती थीं, जिसमें उसके समूचे जीवन की धड़कनें कैद हो चुकी थीं।     

मानव का घर।

       परन्तु दरवाजे पर पड़ा हुआ ताला बार-बार जैसे उसको मुहं चिढ़ा देता था। प्रकृति प्रति दिन ही जल्दी उठती और सबसे पहले बाहर निकल कर वह मानव के घर ही को देखती थी। इसी आस में कि शायद उसका मानव पिछली रात में लौट आया हो?  मगर हर बार ही उसकी उभरती हुई लालसाओं पर निराशाओं के ओले टूट पड़ते थे। मानव अभी तक, तब से वापस नहीं आया था जब से वह धरती नाम की अनजान लड़की के साथ फिर से आगरा चला गया था। प्रकृति तो हर दिन ही उसकी प्रतीक्षा करती थी। हर क्षण उसकी प्यासी नज़रें अपने मानव के आने की आस में ताकती रहती थीं। इसी उधेड़बुन में वह अक्सर ही सोचा करती, कि कितना अधिक वह प्यार करने लगी है, अपने इस मानव को? किसकदर चाहने लगी है वह? इतना अधिक कि, जिसकी शायद कोई सीमा भी नहीं होगी? उसका यदि वश चलता तो वह मानव को अपने दिल की धड़कनों में बंद करके रख लेती। किसी की तब वह उस पर परछाईं तक नहीं पड़ने देती। दिन­रात उसकी आंखों में एक ही तस्वीर रहती- मानव। होठों पर एक अकेला नाम- मानव। दिल की धड़कनों पर एक ही नाम था- मानव। उसकी धड़कनों का संगीत- मानव। संगीत में बसा हुआ गीत- मानव। गीत की आवाज़- मानव। मानव- मानव- और कुछ भी नहीं।

          सोचते­ सोचते प्रकृति ने एक नज़र पलट कर सामने दूर तक उस हरी घास की लाईन पर जो सीधे ही मानव के दरवाजे तक जाती थी, देखा तो वह पल भर को अपनी पलकें थम कर ही रह गई। होंठ खुले के खुले ही रह गये। उसे पल भर को अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हो सका। मानव अभी­अभी ही लौटा था। अपने हाथ  में एक छोटी सी अटैची पकड़े हुये वह सीधा ही अपने घर के दरवाजे की ओर बढ़ा चला जा रहा था। थका­ थका सा- जैसे सारी उदासियों का डेरा उठाये हुये। बिल्कुल पूरी तरह से नितान्त खामोश, उदासीन, निराश कामनाओं की थकी हुई ठंडी लाश के समान- प्रकृति उसकी दशा को नज़रें गड़ा कर देखती ही रह गई।

            तुरन्त ही उसके जी में आया कि वह दौड़ कर मानव के करीब चली जाये और उससे इतने दिनों तक दूर रहने के कारण उस पर तमाम प्रश्नों की बौछार कर दे। शिकायतों पर शिकायतें कर डाले। उसके सीने पर अपना सिर रख कर रो पड़े। रो­रोकर उसकी कमीज़ को ही भिगो डाले। परन्तु अपने घर की बंदिशों का ख्याल आते ही उसकी उठती हुई दिल की सारी उमंगें तड़प कर ही अपना साहस तोड़ गईं। वह विवश हो गई, लेकिन फिर भी उसके मन को एक संतोष मिल चुका था कि, कम से कम मानव अपने घर वापस तो आ गया है। एक विश्वास हो गया था कि, अब मानव फिर से उसके करीब तो है। विश्वास का आधार प्राप्त हो जाने पर ही मनुष्य अपने जीने के लिये एक नई लालसा को जन्म दे लेता है। जीवन का यही आधार उसे नई उमंगों के मार्गों पर आगे बढ़ने की सलाहें भी देता है और नये­नये मार्ग भी दिखाता है।

            फिर अपने समय पर चर्च की मधुर घंटियों ने टन­टनाते हुये सारे मूक वातावरण को झंकृत किया तो प्रकृति के दिल में जैसे खोई हुई खुशियों की बहारें एक बार फिर से लौट आईं। उसके दिल में तुरन्त ही प्रसन्नताओं के ढेर सारे फूल मुस्करा उठे। आंखों में एक नई चमक और आशाओं ने जन्म लेना आरंभ कर दिया। यही सोच कर कि, अब मानव वापस आ गया है तो वह इस बार उससे अवश्य ही मिल लेगी। कम से कम चर्च की इबादत में जाने के नाम पर वह घर से बाहर तो निकल सकेगी।

           तब इतना सोच कर वह मानव से मिलने की आशा बांधकर उसने जब अपनी छोटी बहन वर्षा से चर्च के लिये चलने को कहा तो वह आना­कानी करने लगी। फिर प्रकृति ने वर्षा से अधिक आग्रह भी नहीं किया। उसे तो किसी न किसी बहाने घर से बाहर निकलना था, सो वह जल्दी­जल्दी चर्च जाने के लिये तैयार होने लगी। तब चर्च की दूसरी घंटी बजती, इससे पहले ही वह बाइबल और मसीही गीत की पुस्तक अपने हाथ में थाम कर दरवाजे के बाहर निकल आई। घर के बाहर निकलने पर उसकी मां ने एक बार उसको निहारा तो, मगर कहा कुछ भी नहीं। फिर प्रकृति जैसे ही दरवाज़े से बाहर आई तो दूर से ही उसको तारा जाती हुई दिखाई दे गई तो उसने इशारे से उसको अपने पास बुला लिया। तारा ने आते ही प्रसन्न मन से कहा कि,

'सुन।'

' क्या?'

 'तुझे मालूम है कि, तेरा 'वह' आ गया है।'

'कौन?'  प्रकृति ने जान कर भी अनजान बनते हुये पूछा तो तारा ने उसे चुटकी लेते हुए बताया कि,

'तेरा मानव। और कौन?' ज्यादा मुझे पट्टी मत पढ़ाया कर। लगता है कि तुझे भी मालुम पड़ चुका है।  ये कह कर तारा मुस्करा दी।

'कब आया है वह?'  प्रकृति ने जब पहले से और भी अधिक अनजान बनने का ढोंग करते हुये कहा तो तारा को उस पर संदेह हुआ। इस पर तारा ने पहले तो प्रकृति को गौर से देखा। उसके चेहरे पर छाई शरारत के चिन्ह देखे तो उसे फिर समझते देर नहीं लगी। वह उसकी शैतानी को भांपते हुये जैसे खीज़ कर बोली,

'तू मेरे को उल्लू समझती है क्या?'

 तब प्रकृति जैसे खिल­खिला कर हंस पड़ी। उसकी चोरी पकड़ी गई तो वह तारा के गले से लिपट गई।

'अरे छोड मुझे। उसके आते ही देखा, कैसे तेरे सारे बदन में जान आ गई है। वरना  . . . .'

' वरना क्या?'

' ऐसा लगता था कि, तू अब गई कि, कब गई?'

'?'- अरे चल हट। यूँ आसानी से मरनेवाली नहीं हूँ मैं।'

इस पर तारा कुछ भी नहीं बोली। वह हल्के से केवल मुस्कराती रही। तब कई एक पलों के पश्चात तारा ही ने बात फिर से आरंभ की। वह बोली,

'कोई विशेष संदेश हो तो मैं पहुंचा दूं उस तक?'  तारा ने पूछा।

'रहने दे अब। मैं उससे खुद ही मिल लूंगी।'

           तभी चर्च की अंतिम घंटियों ने उन दोनों की बातों में अपनी आवाज़ का प्रभाव घोल दिया तो उनकी बातों का सिलसिला स्वत: ही टूट गया। फिर वे अपनी बातों को समाप्त करके चुपचाप चर्च की ओर बढ़ने लगीं। जब वे चर्च में पहुंचीं तो दोनों सखियां एक ही स्थान पर अंदर जाकर बैठ गईं। मगर प्रकृति का मन फिर भी वहां नहीं लग सका। वह अंदर बैठे हुये भी मानव के लिये सोचती रही। उसका व्याकुल मन मानव के प्रति ही लगा रहा। अधिकांश समय उसने मानव के प्रति सोचने के लिये गंवा दिया। कभी­कभी उसकी परेशान नज़रें एक आशा से पीछे मुड़­मुड़ कर युवकों की पंक्ति में मानव को तलाश करने लगती थीं। मगर जब कुछ भी नहीं मिलता था तो फिर निराश भी हो जाती थीं।

        इन्हीं विचारों के ताने­बानों में काफी समय व्यतीत हो गया। चर्च की सर्विस समाप्त होने को आई तो प्रकृति फिर से निराश हो गई। उसका दिल अपने मानव की बेवफा और ला-परवा आदत के विषय में सोच कर एक बार फिर से टूट गया। उसने सोचा कि, कितने अरसे के पश्चात तो वह वापस आया था और तब भी क्या वह यहां नहीं आ सकता था। उसे क्या मालूम है कि यहां तो उसकी प्रतीक्षा में किसी की आंखें ही पथरा चुकी हैं। कितनी ढेर सारी उम्मीदों को लेकर वह यहां आई थी, परन्तु सारी की सारी टूट भी गई हैं। बिखर गई हैं। बिखर कर जैसे खो भी गई हैं। वह क्या जाने कि, एक केवल 'मानव' नाम के कारण इस 'प्रकृति' पर क्या­क्या बीती है" न जाने कितनों की जली­कटी बातों को उसने सुना है। सारी मसीही बस्ती में उसकी बदनाम मुहब्बतों के चर्चे होने लगे हैं। कम्पाऊंड का सारा माहौल ही उसको अब एक प्रश्न भरी निगाहों से घूरने लगा है। उसे क्या ज्ञात? वह तो बड़ा ही निष्ठुर निकला। ला-परवा तो वह पहले से ही था, पर अब शायद 'धरती' के आंचल का भी असर उस पर पड़ने लगा हो? परन्तु नहीं। ऐसा कैसे हो सकता है? उसका 'मानव' ऐसा तो नहीं है। वह तो 'प्रकृति' का ही है। केवल 'प्रकृति' का ही। 'धरती' चाहे कितनी भी मोहक क्यों न हो जाये पर वह 'प्रकृति' की मधुर हवाओं से कैसे बच सकेगा? वह क्या समझे कि, 'धरती' तो 'मानव' के लिये श्रापित होने के कारण अपने रूष्ठ मिजाज को छोड़ ही नहीं सकती है। अवसर मिलते ही वह उसके लिये ऊंट­कटारे उगाने लगेगी। एक 'प्रकृति' ही तो है जो ईश्वर की ओर से श्रापित नहीं हुई है, वरना क्या 'मानव', क्या 'धरती'- कौन है जो उसके प्रकोप से बचा हुआ है?  सब ही तो पाप के भागीदार होने के कारण परमेश्वर की महिमा से वंचित हैं।

         सोचते­सोचते चर्च में आराधना की अंतिम आशीष की प्रार्थना समाप्त हुई तो एक देर तक की खामोशी के पश्चात लोग धीरे­धीरे उठ कर बाहर आने लगे। तब प्रकृति भी तारा के साथ उदास मन से न चाहते हुये भी उठ कर बाहर आ गई। बाहर आकर किसी से भी कोई बात नहीं की। किसी की ओर उसने एक पल को भी नहीं देखा। चुपचाप तारा का हाथ थामे हुये अपने घर के कमरे में आ गई और अंदर आते ही उसने जल्दी से एक चिट लिख कर तारा को दी और कहा कि,

'सुन।'

'?'-  तब तारा ने उसको आश्चर्य से निहारा।

'ये, उसको दे देना। अभी और अवश्य ही।'

तब तारा ने शीघ्र ही वह कागज का टुकड़ा लेते ही छुपा लिया और प्रकृति को आश्वासन देकर चली आई। इसके साथ ही प्रकृति फिर से अपने कमरे की सूनी दीवारों में कैद हो गई। सारे दिन के लिये। एक बार फिर से मन ही मन घुटने के लिये।

        जैसे ही दिन ढला तो क्षितिज में सूर्य की अंतिम किरणें अपना दम तोड़ने के लिये जैसे सिसक उठीं। सूर्य भी सारे दिन भर की यात्रा को पूरा करता हुआ अब लाल होकर दूर आकाश के एक कोने में थक कर बैठ गया था। क्रमश: शाम की दुल्हन लाज के मारे अपना बदन समेटने लगी और दूर कहीं आकाश के किनारों से रात्रि का  धुंधलका धीरे­धीरे अपना पग बढ़ाने लगा।

         अमावस की रात थी। इस कारण चन्द्रमा को अपना मुंह दिखाने की स्पष्ट मनाही थी। रात का आंचल थोड़ा और सरक कर स्याह हुआ तो प्रकृति तारा के घर का बहाना बना कर बाहर चर्च कम्पाऊंड के मैदान में निकल आई। आज उसको मानव से हर हालत में मिलना बहुत ही आवश्यक था। हर दशा में इस मिलन की सूचना वह पहले ही से मानव को तारा के हाथ से भिजवा चुकी थी।

         निश्चित समय पर वह चर्च के पीछे स्थित अंग्रेजों के बने हुये कब्रिस्थान में बने हुये उस वर्षों पुराने कुयें की मनि पर आकर चुपचाप बैठ गई, जिसके जल में न जाने कितने वर्षों का बूढ़ा इतिहास घुला हुआ था। प्रकृति अभी तक बहुत खामोशी के साथ चुपचाप बैठी हुई मानव के आने की प्रतीक्षा कर रही थी। रात्रि का अंधकार हवाओं के हल्के कम्पन का सहारा लेकर सांय­सांय कर उठा था। कबिस्थान की लम्बी­लम्बी झाड़­ झंखाड़ सी घास में कीड़े­मकोड़े अपना राग अलापने में जैसे मस्त हो चुके थे। हर तरफ खामोशी थी। चुप्पी साधे हुये भयानक अंधकार कब्रिस्थान में ऊंची­ऊंची बनी हुई कब्रें इस संसार से सदा के लिये चले गये हुये लोगों की याद को आज भी ताजा दम दिये हुये थीं। प्रकृति अभी तक चुपचाप बैठी हुई थीं। बहुत खामोश सारे ज़माने­संसार के दुख­सुख से बेजान और बे-सुध। बिल्कुल ही ला-परवाह, प्यार की दीवानी बनी हुई अपने मानव के लिये अंखिंयां बिछाये हुये थी। उसे इस समय उसे किसी भी बात का तनिक भी होश नहीं था। किसी का कोई डर भी नहीं। ऐसा था- उसका दिल- दिल का दीवाना- प्यार और प्यार का रास्ता। पर ये उसके नसीबों की लकीरों की कैसी विडम्बना थी। कितना अधिक आश्चर्यजनक संयोग कि, दो प्यार भरे दिल अपने प्यार को जीवन देने की खातिर उस स्थान पर मिलने को बाध्य  थे कि जहां पर आकर मनुष्य का अपने जीवन से नाता सदा को टूट जाता है। कब्रिस्थान के अंधेरों का मानवीय जीवन का मृत्यु-स्थान और सहारा कि, जिसकी पनाह में आज अपने उस प्यार को जीवन देने के लिये 'प्रकृति' और 'मानव' दोनों ही को आना पड़ गया था। वह स्थान कि जिसके लिये खुद कभी मसीहियों के ईश्वर 'यीशु' को भी तीन दिनों के लिए दफन होना पड़ा था। ऐसा था, प्रकृति का अपना प्यार- उसका सपना कि, अपने प्यार के दीप जलाने के लिये उसने कब्रिस्थान के उन भयानक और ख़ौफनाक अंधियारों का स्थान चुना था कि जहां पर मानव के जीवन की ज्योति का नाम मात्र भी अवशेष नहीं बचता है। लोग तो अपने जीवन को सांसें देने के लिये जीवित की लकीरों की मंजिल और उसकी प्यार भरी दीवानगी का वह रास्ता कि, जिसके वशीभूत वह यहां कुयें की मनि पर बैठी हुई अपने दिल के देवता की प्रतीक्षा कर रही थी। मानव की। मानव-एक इंसान- उसका प्यार- उसका जीवन- उसका संसार- उसका सपना और उसके सपनों की हरेक वह ख्वाईश कि जिसको पूरा करने के लिये वह अब सारे संसार के दुख झेलने को भी तैयार हो चुकी थीस्थानों का सहारा लिया करते हैं, परन्तु यहां प्रकृति ने अपने प्यार को जीवन देने के लिये मौत का घर ढूंढ़ा था। संसार से सदा को जुदा हुये लोगों का घर- मृत्यु का बसेरा- कब्रिस्थान का प्राचीर- ऐसी थी, उसके प्यार की किस्मत- किस्मत ।

          सहसा ही, नीम के घने वृक्षों के साये में से एक छाया अचानक ही उभरी। बहुत ही खामोशी के साथ-अपने दबे पांवों के द्वारा, बिल्कुल सफेद लिबास में। उसे देख कर कुयें की मनि पर चुपचाप बैठी हुई प्रकृति की आंखों में अचानक ही जहां एक चमक आई, वहीं उसके दिल की धड़कनें भी सहसा तेज भी हो गईं। फिर वह सफेद और लम्बी छाया अपने आस­पास की स्थिति का जायजा लेती हुई धीरे­धीरे कुयें की मनि पर बैठी हुई प्रकृति की ओर बढ़ने लगी तो प्रकृति की सांसें भी तीव्र होती गईं।

          फिर वह छाया आई। प्रकृति के और भी पास आई, तब वह चुपचाप प्रकृति के सामने आकर खड़ी हो गई। बिल्कुल शान्त- एक बेजान मूर्ति के समान। तब प्रकृति ने कब्रिस्थान के सन्नाटे से भरे प्राचीर के अंधकार में उस मौन छाया की ओर जी भर कर देखा। खूब तबियत से वह बड़ी देर तक निहारती रही।

'मुझे मालूम था कि 'धरती' चाहे कितने ही तुम्हारे मार्ग में ऊंट­कटारे बिछा दे, परन्तु तुम अपनी 'प्रकृति' से मिलने ज़रूर आओगे।'  प्रकृति ने अपनी दर्द में डूबी आवाज़ में कहा तो मानव ने उससे पूछा कि,

'क्यों बुलाया है मुझको तुमने इस तरह से?'

'बहुत सारी बातें कहनी थीं तुमसे, इस लिये।' प्रकृति ने मानव की आंखों में गहराई से झांकते हुये कहा।

'लेकिन, उसके लिये दिन का उजाला भी तो था?'

'हां था, तो मगर . . .'

'मगर क्या?'

'दिन की चमक में मुझे घर से बाहर आने की अनुमति नहीं मिलती है। क्या तुम्हें ये भी नहीं मालूम है?'  मानव की बात सुन कर प्रकृति ने जैसे अपनी बिफरी हुई आवाज़ में कहा तो मानव ने तुरन्त ही पूछा। वह बोला,

' क्यों?'

'मानव?'

प्रकृति अचानक ही तड़प सी गई। भावुकता में उसने मानव के दोनों कंधों पर अपने हाथ रख दिये। वह कुछ कहना चाहती थी परन्तु चाह कर भी जैसे उसे शब्द नहीं मिल पा रहे थे। होंठ कांप रहे थे, परन्तु जैसे आवाज़ को तरस रहे थे। उसकी इस दशा को निहारते हुये मानव ने उसके मुखड़े को अपने दोनों हाथों में थामते हुये उससे कहा कि,

'अब कुछ बोलोगी भी या फिर यूं ही देखती रहोगी?'

'!!' -फिर खामोशी बनी रही।

लेकिन, प्रकृति तब भी उससे कुछ न कह सकी। वह खामोश हो गई और अपनी हसरत भरी निगाहों से लगातार मानव की आंखों में झांकती ही रही। देखती रही। अपनी प्यार भरी दृष्टि के साथ न जाने दिल में कितने ही छिपे हुये अरमानों के साथ, वह बड़ी देर तक अपनी निगाहें मानव की दृष्टि से मिलाये रही।

         तब काफी देर के पश्चात जब मानव ने उसकी दिल की दशा को समझा। उसने प्रकृति के सम्पूर्ण चेहरे के भावों को गहराई से निहारा।

                                                                                                                                            उसकी उस दृष्टि की ओर देखा, जहां पर उसकी दो बड़ी­बड़ी झील सी गहरी आंखों में मानव की तस्वीर बैठी हुई स्वंय मानव को ही निहार रही थी। प्रकृति की आंखों में आंसुओं की कुछेक बूंदें भी झलक आई थीं। तब प्रकृति के अथाह प्यार की जैसे थाह पाकर मानव ने उससे पूछा कि,

'मुझसे विवाह करोगी?'

'??'

     प्रकृति के दिल में अचानक ही कहीं जैसे सुबह की ओस में नहाए हुए बेला के सफेद मोहक फूल खिल उठे। इस प्रकार कि, उसकी खुशबू से उसका सारा बदन ही महक उठा। उसके होठों पर सहसा ही रंगत आ गई। दिल में इन फूलों की महकती सुगंध के साथ­साथ जैसे उसकी ज़िंदगी की सारी आशायें भी मुस्करा उठी थीं।

'मुझसे शादी करोगी?'  मानव ने फिर से दोहराया।

'?'

          फिर से खामोशी। प्रकृति फिर भी खामोश ही रही। मुख से उससे कुछ भी नहीं कहा गया। मारे लाज के वह स्वंय में ही जैसे सिमट सी गई। जब उससे कुछ भी नहीं कहा गया तो उसने चुपचाप अपना सिर मानव के दिल की धड़कनों पर रख दिया। बहुत प्यार से। दिल की सभी इच्छाओं के साथ वह अपने सपनों के राजा के दिल की आवाज़ को सुनने का प्रयत्न करने लगी। एक शांति और चैन के साथ। मानव ने उसके दिल की बात खुद जो कह दी थी, शायद इसी खुशी में वह कुछ कह भी नहीं सकी थी। इसीलिये कहा जाता है कि नारी के दिल की स्वीकृति उसकी मौनता ही होती है।

         प्रकृति और मानव दोनों ही खामोश थे। साथ ही बहुत गंभीर भी। हर तरफ मौन छाया हुआ था। बढ़ती हुई रात की मूकता का सहारा लेकर वातावरण के आस­पास के सब ही वृक्षों की पत्तियां भी अपने सोने की तैयारी कर उठी थीं। कब्रिस्थान में रात्रि का अंधकार अब भी सांय­सांय कर रहा था। कीड़े­मकोड़ों की मनहूस गूंज वातावरण को और भी भयावह बनाये हुये थी । परन्तु प्यार के इन दो दीवानों को किसी की भी कोई परवाह नहीं थी। किसी का कोई भी होश नहीं था। दोनों ही बहुत खामोशी के साथ एक दूसरे के दिलों की धड़कनों को सुन रहे थे। इस प्रकार कि जैसे दिलों की इन धड़कनों के शोर में भी कोई आवाज़ थी। आपस की कसमें थीं। वायदे थे। एक-दूसरे के प्रति शिकायतें थीं। मगर इन शिकायतों के बीच में भी साथ­साथ मरने-जीने का कोई दृढ़ संकल्प भी था।

        प्रकृति मानव का हाथ थामे हुये जैसे कहीं भविष्य के सपनों में खो गई थी। मानव चुप था। कब्रिस्थान के सूने वातावरण में शाम को अपने बसेरों में चिपकी हुई अबाबीलें भी अब जैसे सो चुकी थीं। कहीं कोई भी नहीं था। चारों तरफ सन्नाटे और चुप्पी का आलम फैला हुआ था। पास की बाई पास की सड़क से जब भी कोई लारी या ट्रक गुज़रता था तो अपने आस­पास की खामोशी को भी भंग कर जाता था। इस प्रकार कि चर्च कम्पाऊंड की कोठी में पले हुये अलशेशियन कुत्ते भी जोरों से भौंकने लगते थे। इसी बीच मानव ने आपस की चुप्पी को तोड़ते हुये प्रकृति से कहा कि,

'चलोगी नहीं अब क्या?'

'?'

 प्रकृति इस पर बोली तो कुछ भी नहीं, पर बहुत प्यार से वह मानव की आंखों में झांकने लगी।

'अब चलो भी, नहीं तो यहाँ कब्रों में बैठी हुई कोई दुष्ट आत्मा हम दोनों के कान मरोड़ देगी।'  ये कह कर मानव आगे बढ़ा तो प्रकृति ने तुरन्त ही उसकी शर्ट को पकड़ लिया- जकड़ कर- शायद मानव को यूं फिर से छोड़ने के लिये अब उसका दिल गवाही नहीं दे रहा था। तब बहुत देर तक वह मानव की आंखों में देखने के पश्चात बोली,

'मानव।'

'हां ! कहो?'

'मुझको तुम कभी छोड़ोगे तो नहीं?'

'नहीं ! कभी नहीं- कम से कम इस जन्म में तो नहीं।'

'कभी भी नहीं?'  प्रकृति ने अधिक जोर दे कर दुबारा पूछा तो मानव ने कहा कि,

'हां, कभी भी नहीं।'

'मुझसे अधिक सुन्दर लड़की का प्यार मिलने पर भी नहीं?'

'नही, बिल्कुल नहीं।'

'तुम्हें मालूम है कि, मेरा रंग अधिक साफ नहीं है?'

'हां, जानता हूं।'

तब प्रकृति जैसे पहले से और भी अधिक भावुक होते हुये बोली,

'मानव।' उसके कलेजे से जैसे कोई डूबी हुई आह निकली। इस प्रकार कि उसने फिर से मानव को पकड़ कर उसके सीने पर अपना सिर रख दिया। अपने मन के देवता की छाया में। एक विश्वास पर। तब मानव ने उसको फिर से एक बार चेतन्य किया। वह बोला,

'प्रकृति?'

'?'-  प्रकृति ने उसकी आंखों में फिर से देखा तो वह बोला कि,

'अब तो घर चलो। रात बहुत काली हो चुकी है। नहीं चलोगी तो तुम्हारा भाई तुम्हें खोजता हुआ आ जाएगा?'

' हां काली है, फिर भी बहुत प्यारी है।'

'वह भी इस लिये कि, हमारी मिलन की इस घड़ी में सहायक जो सिद्ध हुई है।'

'मानव।'

'हां।'

'मैं, तुम से एक बात कहूं?' प्रकृति ने उससे पूछा तो वह बोला,

'कहो न। तुम्हारे लिये तो हर तरह की छूट है।'

'मैंने जिस दिन तुमको खो दिया, तो जानते हो कि मैं क्या करूंगी?'

'क्या?'  मानव ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा तो वह बोली कि,

'कब्रिस्थान के इसी कुंयें में डूब कर अपना जीवन समाप्त कर लूंगी।'

'अच्छा, अब पागल मत बनो।'  ये कह कर मानव ने उसके होठों पर अपना हाथ रख दिया। तब प्रकृति को अवसर मिला तो फौरन ही उसने मानव के हाथ को प्यार कर लिया। तब मानव ने उसके कंधे पर अपना हाथ रख कर उसे चलने को बाध्य किया और कहा कि,

'चलो।'

       प्रकृति ने भी तब अपने दूसरे हाथ से मानव का हाथ थाम लिया और उसके साथ­साथ चलने लगी। जैसे किसी भटकी हुई नैया को उसका मांझी मिल गया हो। अपने प्यार के विश्वास के सहारे- अपने जीवन को एक नये चिराग की दीप्ति देने की आशा में- आज जैसे उसको अपने सम्पूर्ण जीवन की खुशियों का खज़ाना मिल गया था। एक ऐसा अनमोल धन कि जिसमें उसके मानव के प्यार के इतने मोती भरे हुये थे कि, वह उसकी गिनती भी नहीं कर सकती थी। अपने सपनों के राजा का पल दो पल का प्यार पाने के लिये प्रथम प्यार की बेला किस कदर तरसती है, इसकी अनुभूति तो केवल उन्हें ही हुआ करती है, जो इसकी खुशबू को महसूस किया करते हैं।

                         x x x                       

                                                        

 

 

 

 

तीसरा भाग/ प्रकृति, मानव और धरती

***       

       धरती।

प्रकृति की ओर आंख उठा कर टकटकी लगाकर देखने वाली धरती। मानव को आश्रय देने वाली धरती फिर से वापस आ गई।        प्रकृति ने जब अपनी आंखों से उसकी उपस्थिति को चर्च कम्पाऊंड में देखा तो उसके दिल पर जैसे अनेकों छाले पड़ गये। उसे अचानक ही ऐसा लगा कि, जैसे ‘धरती’ के झाड़­झंखाड़ों और कांटों ने एक साथ  मिल कर उसके दिल के सारे अरमानों पर हमला कर दिया हो। इस प्रकार कि उसकी सारी जमा की हुई उम्मीदों को कोई जबरन छीनने लगा हो।

        धरती भी इस बार आई थी तो अपनी पूरी तैयारियों के साथ ही। चूंकि वह आगरा के सैंट जॉन्स कालेज में बी. ए. की छात्रा थी और विश्वविद्यालय भी एक ही था, सो उसे भी बगैर किसी विघ्न के नरायन कालेज में शीघ्र ही प्रवेश मिल गया था। इस प्रकार धरती ने आकर चर्च कम्पाऊंड में ही अपना आश्रय भी बना लिया। वह भी मानव के पड़ोस में ही एक खाली मकान में आकर रहने लगी। उसके साथ उसका भाई और मां भी आईं थीं।

       धरती का इस प्रकार शिकोहाबाद आने का मुख्य कारण उसके भाई की नौकरी थी, जो उसको शिकोहाबाद के सरकारी अस्पताल में प्राप्त हुई थी। इस तरह प्रकृति ने जब ये सब देखा तो वह अपने दिल के ऊपर एक ईर्ष्या  का भारी पत्थर रख कर ही रह गई। ज़िंदगी की इतनी ढेर सारी प्यार की हसरतें उसने जमा कर ली थीं कि वह उन पर अब किसी की छाया झूठे से भी नहीं पड़ने देना चाहती थी। अपने प्यार की बन्दगी की इबादत के समय वह किसी को क्षण भर के लिये भी सामने नहीं देख सकती थी। मगर वह करती भी क्या? धरती पर उसका किसी भी तरह का जोर और वश तो था नहीं। कोई भी प्रतिबंध वह उस पर नहीं लगा सकती थी। जितना 'प्रकृति' का इस संसार में अधिकार था उतना ही धरती का भी। दोनों ही एक दूसरे के पूरक थे। दोनों ही की सृष्टि परमेश्वर के हाथों  के द्वारा हुई थी। दोनों ही की अपनी­अपनी सुन्दरता थी, मगर ये कैसा संयोग था कि जीवन-पथ  की इस यात्रा में दोनों साथ तो थे, मगर एक नहीं। शायद इसका कारण भी यही हो सकता है कि धरती को 'धरती'  बनाया था और प्रकृति को 'प्रकृति'। पहले जब धरती शिकोहाबाद आई थी तो मानव की मां की मृत्यु का कारण था, परन्तु अब तो वह यहीं आकर बस भी गई है। यदि उसे पढ़ना भी था तो क्या आगरा में कालेजों की कमी थी? फिर यदि शिकोहाबाद में ही पढ़ना था तो रहने के लिये क्या यही एक चर्च कम्पाऊंड ही रह गया था? रहने को उसे घर भी मिला है तो ठीक मानव के पड़ोस में ही, ताकि हर समय उसे आसानी से मानव पर डोरे डालने का अवसर भी  प्राप्त होता रहे? अवश्य ही धरती के इस स्थानान्तरण के पीछे उसका कोई स्वार्थ होगा? क्या पता कि उसकी आंख मानव पर आ लगी हो? जब वह पहले आई तभी किस कदर वह मानव में रूचि ले रही थी? कितने अधिकार से तब उसने बगैर किसी संकोच के कैसे मानव का हाथ थाम लिया था और मानव ! उसने भी कोई विरोध नहीं किया था?

       प्रकृति अक्सर ही इस प्रकार के विचारों में उलझ जाया करती थी। उसके दिन इसी तरह से व्यतीत हो रहे थे। एक ओर धरती मानव में हर प्रकार से अपनी रूचि के दायरों को बढ़ाती जा रही थी तो दूसरी तरफ प्रकृति की सीमायें मन मसोस कर अपनी हदों को सुकोड़ती जा रही थीं। प्रकृति के पास मानव से मिलने और बात करने की भी ना तो कोई स्वतंत्रता थी और ना ही अवसर; बस उसके दिल में केवल वे हसरतें और आस्थायें ही शेष रह गई थीं, जिनको कभी उसने बचपन में ही जैसे ना समझी में अपने आंचल में भर कर संभाल लिया था।

         धरती की रूचि और कदम दोनों ही मानव की तरफ लगातार बढ़ते जा रहे थे। वातावरण का मौसम का मिजाज़ भी बदल चुका था। ठंडक ने अपने पग बढ़ाने आरंभ कर दिये थे, तो धरती भी आगे बढ़ती जा रही थी. ठीक पास आती हुई जाड़े की ऋतु के समान ही। ठंडी­ठंडी हवायें चर्च कम्पाऊंड के बाहरी मैदान और उसके बाहर सटे हुये खेतों की हरियाली का दामन चूमने लगीं थीं। वातावरण अब रातों में भीगने लगा था और इसके साथ ही 'प्रकृति' पर भी उदासियों की बदलियां जैसे उसकी दुश्मन बनकर अपना डेरा तानने लगी थी। इन सब बातों का अंजाम यह हुआ कि, फिर प्रकृति के दिल का प्यार फीका पड़ा तो वह भी उदास हो गई। मन से और मन की इच्छाओं से भी। हर तरह से गंभीर और उदास रहने लगी। खामोश भी हो गई। मानव से बहुत चाहा कर भी अब उसकी भेंट नहीं हो पाती थी। इसका कारण भी शायद यही था कि,  दोनों के मिलन के लिये ना तो समाजवाले राज़ी थे और ना ही समाज के सारे कायदे­कानून। इसी कारण उन दोनों की क्षणिक भी भेंट को समाज की घूरती हुई आंखें मानो चोर नज़रों से हर समय ताकती रहती थीं।

       सर्दी के दिन आने लगे थे। दिसम्बर करीब ही था। मसीही परिवारों में अपने उद्धारदाता के पर्ब्ब के लिये अब तैयारियां होने लगी थीं। यीशु ख्रीष्ट के विश्व­विख्यात त्यौहार की खुशियों के चिन्ह स्पष्ट दिखाई देने लगे थे। एक ओर लोगों में खुशियों की बहार देखने की ललक थी, तो दूसरी तरफ अपने प्यार की मारी दुखिया समान प्रकृति के गालों पर से उसके प्यार की उड़ती हुई लाली का फीकापन। एक ओर सारे माहौल में उमंगों की मचलती हुई लहरें थीं, तो कहीं पर उदासियों के ठहरे हुये बादल। धरती क्या आई थी कि, उसके आगमन पर प्रकृति की उदास और खामोश ज़िंदगी से अब जैसे कोई धुआं उठना शुरू हो चुका था  . . . ' 

'चल यहां अंधेरे में खड़ी­खड़ी क्या कर रही है?'

'?'-

       अपने विचारों से अचानक ही हट कर प्रकृति ने उदासियों के घेरे में पलट कर देखा तो उसकी बचपन की अंतरंग सहेली तारा ने उसके कंधे पर अपना हाथ रख कर उसे चेतन्य कर दिया था। प्रकृति का उदास मुखड़ा देख कर तारा ने उससे कहा कि,

'चल ! मेरे घर चल कर चाय पी ले?'  ये कह कर तारा ने बहुत प्यार से प्रकृति का हाथ पकड़ लिया। जब उसने प्रकृति का उदास चेहरा देखा तो वह भी क्षण भर को तड़प सी गई। प्रकृति की बड़ी­बड़ी सूनी आंखों में ठहरे हुये आंसू उसके दिल के सारे छुपे हुये दर्द की गवाही में रो देना चाहते थे।

'जिसे खोना था, वह खो गया। अब आंखों में आंसू भरने से कोई लाभ नहीं। यूं रो­रोकर कहीं जीवन के गुज़रे हुये दिन वापस मिल जाते हैं क्या?  यही सोच कर तसल्ली कर ले कि, मानव जिसका था, वह तुझसे छीन कर ले भी गई। तेरी किस्मत में तो मानव का एक सपना ही भर था. ऐसा बे-हूदा और धोखेबाज़ सपना कि जो आंख खुली और टूट गया।'

       तारा ने प्रकृति को समझाना चाहां,  मगर वह तो जैसे बुत सी बनी खड़ी रही। न अपने स्थान से हिली और न ही उसने तारा की किसी बात का कोई उत्तर ही दिया। फिर जब तारा ने उसकी इस मुद्रा को देखा तो वह उसका हाथ पकड़ कर बोली,

'अब चल भी न? दुनियां बहुत बड़ी है. एक से एक हैंडसम 'मानव' भरे पड़े हैं. तू न जाने क्यों उस लम्बू, सूखे के लिए मरी जाती है. मुझे तो वह एक नज़र भी नहीं भाता है?' '  ये कहते हुये वह उसे जबरन अपने साथ खींच ले गई।

        घर के अंदर आकर तारा ने प्रकृति को बैठने को कहा और फिर वह चाय का पानी रखने लगी। मगर प्रकृति बैठने के बजाय खिड़की के सहारे खड़ी हो कर बाहर ढलती हुई शाम के मायूस नज़ारों में फिर एक बार अपने जिये हुये दिनों की मधुर स्मृतियों में भटकने लगी . . .'

          ' . . . बारात,  न जाने कब की शिकोहाबाद के कम्पाऊंड में आ चुकी थी। बारात के आ जाने पर लोगों की गहमा­गहमी आस­पास के वातावरण में महसूस होने लगी थी। शहनाईयों की गूंज, जो प्रकृति के लिये उसके दिल की चीख बन कर आई थी, अब जैसे किसी भटकी हुई अबाबील के समान अपना छिपने का स्थान पाकर कहीं अंधियारे में चिपक गई थी। बाजों आदि का शोर समाप्त हो चुका था। धूरगोलों के वे फूल जो आसमान के दामन में उसके लिये ज़हरीले कांटों का उपहार बन कर आये थे,  अपना प्रभाव दिखाने के पश्चात अब दिखने भी बन्द हो गये थे। इसके साथ ही दो दिलों के सदा-मिलन की वह बहारें जो प्रकृति के लिये उसके प्यार की लुटी हुई हसरतों का पतझड़ बन कर आई थी,  अब सदा के लिये उसके दामन में उलझ चुकी थीं। प्रकृति अपने अतीत की यादों में इस कदर खो गई कि उसे समय का कुछ पता ही नहीं चल सका थी। खिड़की के सहारे खड़ी­खड़ी वह इस थोड़ी सी देर में अपने बीते हुये दिनों की कितनी ही ढेर सारी यादों को दोहरा गई थी। अपने दिल की कसकती हुई आहों के साथ आंखों में आंसू भरे हुये अपनी हरेक याद पर तड़पती हुई, उस पर जैसे रहा भी नहीं जा रहा था।

          तारा, उसके दिल की परेशानी को बखूबी समझती ही नहीं, बल्कि दिल से महसूस भी कर रही थी। मगर उसके भी हाथों में किसी के दिल के फैसलों का कैसा भी प्रतिबंध नहीं था। वह भी क्या करती? सिवा इसके चुप रहती और प्रकृति को समझाती। उसे तसल्ली देती और वह कर भी क्या सकती थी?

           इस बीच उसने प्रकृति को चाय बना कर दे भी दी थी,  परन्तु प्याले को होठों तक लाने के लिये ना तो प्रकृति के हाथों में बल ही रहा था और ना ही कोई मन की इच्छा ही। यूं भी टूटे हुये दिल के अरमानों के साथ  इंसान के सारे हौसले ही समाप्त हो जाते हैं। फिर ऐसे में जीने की उसकी इच्छा भी नहीं रहती है।

           प्रकृति ने जब चाय नहीं पीना चाही तो तारा से भी उसके दिल का हाल देखा नहीं गया। वह तब स्वंय ही प्रकृति को अपने हाथों से चाय पिलाने का एक असफल प्रयत्न करने लगी। प्रकृति के दिल की दशा और परेशानी को केवल तारा ही तो समझ रही थी। उसकी दशा का हाल क्यों कर ना समझती वह? वह तो उसकी रग­रग से परिचित हो चुकी थी। उसका दर्द वह समझ रही थी,  मगर इतना नहीं जानती थी कि,  एक दिन प्रकृति का दुख उसके भी दिल की परेशानी बन कर उसे तंग करने लगेगा।

            फिर किसी तरह से तारा ने प्रकृति को विदा किया। वह उसे घर तक छोड़ने भी आई। शादी के हुजूम में सम्मिलित होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता था। जबकि, प्रकृति के परिवार के सारे लोग विवाह के भोज में  जा चुके थे। सो इस बीच जब प्रकृति को फिर से अवसर प्राप्त हुआ तो वह सबकी आंखों से छुप कर कब्रिस्थान के मनहूस अंधेरों के प्राचीर में आ गई। सदियों पुराने कुयें की जगत पर आकर वह अपने टूटे मन से बैठ गई। उसी कुयें पर जहां पर कभी उसके प्यार ने हमेशा के लिये जवान रहने के सपने देखे थे।

           प्रकृति चुपचाप दुखी बैठी थी। अंधेरे में कोई उसको आसानी से देख न ले, इस कारण वह काली साढ़ी पहन कर आई थी। काली साढ़ी के साथी ही उसने काला ब्लाऊज भी पहन लिया था। मगर फिर भी काले वस्त्रों के लिबास में उसके मुखड़े का सौंदर्य थोड़े से भी प्रकाश का सहारा मिलने पर यूं दमक जाता था जैसे कि, किसी ने अचानक ही सूर्य को शीशा दिखा दिया हो।

            प्रकृति बिल्कुल ही चुप थी। उदास थी। उदास अरमानों की किसी ठंडी लाश के समान ही, पल­पल अपना दम तोड़ती हुई जैसे उसके जीने की उदास कामनायें थीं। कब्रिस्थान के इस सूने और मनहूस प्राचीर में खामोशी नहीं,  बल्कि सन्नाटों का पूरा प्रभाव था। सारा डरावना वातावरण जैसे भांय­भांय कर रहा था। कीड़े­मकोड़ों की बेमतलब अपना राग अलापती झंकारें आज प्रकृति के कानों में किसी अबला की चीखों के समान घुसी जा रही थीं। ठंडी­ठंडी हवायें उसके सुन्न पड़े गालों पर आकर सुइयां सी चुभा रही थीं।

            प्रकृति बैठी रही। अपनी पूर्व मुद्रा में। वैसी ही। उदास ज़िंदगी की अंतिम सांसें गिनती हुई किसी लुटी हुई हसरत के समान। कभी उसका मन करता तो वह बहुत खामोशी के साथ आकाश की ओर अपनी आंखें उठा कर देखने लगती थी। इस प्रकार कि, मानो अपने परमेश्वर से अपने जीवन के दहकते हुये अरमानों का हिसाब मांग रही हो। आकाश भी सूना और रिक्त था। बिल्कुल उसके सूने और खाली दामन के समान। ऐसा दामन कि जिसमें सब कुछ आने से पूर्व ही सब कुछ समाप्त हो चुका हो। केवल इस समय कुछेक नादान सितारे ही उसके दिल की तड़प के समान धीमें­धीमें टिमटिमा रहे थे।

           प्रकृति चुपचाप आकाश की ओर अपनी आंखें उठाये देखती रही। देखती रही। बहुत देर तक। तभी अचानक ही आकाश में किसी सितारे ने आह भरते हुये अपना दम तोड़ा- इस प्रकार कि, बड़ी दूर तक उसके कलेजे की दर्दीली चीख उजाले की अंतिम लकीर बन कर पल भर में समाप्त भी हो गई। प्रकृति के दिल को अहसास हुआ कि उसके जीवन के प्यार का सितारा भी आज टूट गया था। लोग तो यूं भी किसी सितारे का टूटना अच्छा नहीं मानते हैं। ना मालूम अब क्या अनिष्ट होने वाला हो? उसने सोचा कि, काश कितना बेहतर होता जबकि उसके जीवन का ये सितारा पहले ही टूट जाता। बहुत पहले। उन दिनों से भी पहले जब कि, उसके जीवन के वे दिन, वे पल जो आज उसकी कसैली यादों का दर्द बन कर उसको मारे दे रहे हैं . . .'

            ' . . . तब ऐसी ही कोई रात थी। चर्च कम्पाऊंड में रोशनी की बहारें आई हुई थीं। कम्पाऊंड के हरेक घर में उजाला था। हर दिल में खुशियों की तरंग थी। बड़े दिन की वह प्यारी रात थी,  जब कि कम्पाऊंड के चारों तरफ फुलझड़ियां ही फुलझड़ियां दमक रही थीं। तब प्रकृति ने अनजाने में उस दिन क्रिसमस की रात को अपने दामन की सारी फुलझड़ियां धरती की गोद में भर दी थीं . . . . . .' 

            उन दिनों धरती से उसका सम्बंध केवल कभी­कभार औपचारिकता की बात­चीत तक ही सीमित था। एक मानवीय सम्बंध को ध्यान में रखते हुये प्रकृति ने किसी भी प्रकार से अपने मन के विचारों से तब धरती को वाकिफ़ नहीं होने दिया था। उस दिन तब प्रकृति बड़े दिन की रात को अपने घर के सामने अपनी छोटी बहन वर्षा और सहेली तारा के साथ फुलझड़ियां छुड़ा रही थी। तब ही अचानक से धरती मुस्कराती हुई उसके सामने आई थी। आते ही वह उससे बोली थी,

'प्रकृति।'

'हां कहो ?'  प्रकृति ने एक संशय से उसको देखा।

तब धरती ने मुस्कराते हुये एक भेद भरे ढंग से प्रकृति से कहा कि,

'कुछ मांगूं तुमसे, तो मुझे दे दोगी?'

'??'-  धरती की इस अप्रत्याशित बात को सुन कर तब प्रकृति एक दम ही गंभीर हो गई। थोड़ी देर तक वह धरती का केवल मुंह ही ताकती रही। फिर कुछ सोच कर वह धरती से बोली,

'कहो तो ?  देने वाली चीज यदि मेरी सीमा में होगी तो मना नहीं करूंगी ?'

'थोड़ी सी फुलझड़ियां चाहिये। मानव ने मंगाई हैं।'

'मानव ने ?'

      प्रकृति ने दिल में कई बार दोहराया। मानव के लिये तो वह अपना जीवन ही दे देगी। 'लेकिन, क्या वह खुद नहीं आ सकता था?' ऐसा सोचते हुये उसने धरती से कहा कि,

'लो, मेरा तो यूं भी मन भर गया है इनसे। लो सब ही ले जाओ।'

      तब जब धरती शीघ्र ही सारी फुलझड़ियां लेकर वहां से तुरंत चली गई तो तारा उसकी इस हरकत को देख कर दंग रह गई। उसने आश्चर्य से प्रकृति को देखा? फिर जैसे उसे टोकते हुये वह उससे बोली,

'दीवानी . . .?  तू कुछ समझती भी है? वह मानव के नाम से तुझसे फुलझड़ियां मांग कर ले गई है। जबकि उसने नहीं कहा होगा।'

        तारा की इस बात पर प्रकृति केवल मुस्करा कर ही रह गई। उसने कुछ नहीं कहा तो तारा भी चुप रह कर फिर अपने घर आ गई थी।

        बाद में फिर ऐसा हुआ भी था। तारा का अनुमान बिल्कुल ही सच निकला था। धरती ने झूठ बोल कर मानव के नाम से अपना मतलब पूरा किया था और उस दिन मानव के साथ खूब ही फुलझड़ियां छुड़ा कर बड़े दिन के समय अपना मनोरंजन कर लिया था। इस प्रकार उस बड़े दिन की रात्रि के बाद ही उसके लुटे हुये प्यार के अक्श उसकी नज़रों के सामने बनने लगे थे। प्रकृति ने अपने मानव को खो दिया था। उसका बचपन से सजाया हुआ प्यार का घरौंदा जैसे उजड़ने लगा था। उसका प्यार छिन गया था। वह सोच नहीं सकी थी कि, ये उसकी अनजानेपन की कोई भूल थी अथवा उसके हाथ में बनी हुई उसकी किस्मत की लकीरों का कोई दोष? इस बात का निर्णय तब प्रकृति आज तक नहीं ले सकी थी।

        तभी से उसकी आंखें मानव और धरती को एक दूसरे में रूचि लेते हुये देखने लगी थीं। समय­समय पर, हर बार वह धरती और मानव को जब भी देखती थी तो एक साथ ही देखती थी। दोनों ही एक दूसरे में बेहद ही रूचि लेते हुये प्रतीत होते थे। प्रकृति जब भी दोनों को देखती थी तो अपने अरमानों पर बेवफाई का पत्थर रख कर ही रह जाती थी। तड़प जाती। लेकिन फिर भी संतोष कर लेती थी। यही सोच कर कि, मन के अंदर बसे हुये प्यार की कोमल अनुभूतियों के नाज़ुक फैसलों में कोई दूसरा अपना हस्तक्षेप सहज ही नहीं कर सकता है। हरेक की अपनी ऐसी पसंद हुआ करती हैं, जो दिल की चाहतों के आधार पर टिकती हैं। पसंद में बदलाव आता है तो चाहतों की आधार शिला ढहते देर भी नहीं लगती है। हो सकता है कि, 'मानव' की पसंद और रूचि 'प्रकृति' से हट कर ‘धरती' की लहलहाती हुई बहारों  में रूचि लेने लग गई हो?

         प्रकृति क्षण भर को ऐसा सोच कर अपने आपको एक झूठी तसल्ली के लिबास में ढांक तो लेती थी,  मगर फिर भी वह अपने दर्द को सहन नहीं कर पाती थी। फिर कर भी कैसे सकती थी? वह अपने अरमानों की लाश पर किसी अन्य के प्यार भरे दीप जला रही थी, दुख तो होना ही था। दर्द भी उसी को झेलना था। अपने ग़म के हरेक सदमे का एहसास और ऐलान भी उसी को करना था। और वह चुपचाप ऐसा ही कर भी रही थी। चुपचाप- अकेले­अकेले- घुट भी लेती थी। रोती तो वह एक समय से ही आई थी।

           'मानव' के अनूठे प्यार ने जब 'धरती'  के आंचल में अपनी हसरतों की मधुर बहारें भरनी आरंभ कर दीं तो 'प्रकृति' के चमन में उसके अरमानों का पतझड़ स्वत:  ही आरंभ हो गया। वह टूटने लगी। उसके दिल ने लह-लहाना छोड़ कर उदास हवाओं का दामन थाम लिया। निराश कामनाओं के बलशाली दायरों ने उसको हर तरफ से घेरना आरंभ कर दिया। उसके जीवन में पतझड़ों की बारिश एक बार फिर से अपनी बदतमीज़ी करने लगी। फलस्वरूप प्रकृति उदास हो गई। उसका मुस्कराता हुआ चेहरा फीका पड़ गया। आंखें ज़िंदगी की हर उम्मीद को टूटा देख कर किसी भी आस को न पाकर सूनी पड़ गईं। उसके होंठ प्यार के जल के अभाव में सूख चले। दिल में फिर एक बार उसका प्यार किसी उजड़े हुये सपनों की चिता समान दहक उठा। प्रकृति जलने लगी। उसका दिल जल उठा। होंठ जल गये। मानव का अपने प्रति बेरूखी का रवैया देख कर उसका तो जैसे सारा शरीर ही जलने लगा था।

            तारा ने जब फिर से एक बार प्रकृति को उजड़ा­उजड़ा और मायूस देखा तो उसे टोक भी दिया। उससे पूछा तो प्रकृति ने रो­रोकर अपनी सारी कहानी उसको सुना दी। तारा ने जब सुना तो उसे भी बुरा लगा। उसका भी दिल उदास हो गया। प्रकृति उसकी बहुत प्यारी सहेली थी। उसका अपनी शेली के साथ बहुत पुराना था। बचपन से वह प्रकृति को जानती थी। उसका दुख वह समझती ही नहीं बल्कि दिल से महसूस भी करती थी।

            तारा ने फिर अपने भी दिल पर पत्थर रखते हुये प्रकृति को समझा दिया। बार­बार उसको तसल्ली दी। खुश रहने को कहा और यही कहा कि,

'मेरी समझ में एक बात नहीं आती है कि, सुंदर लड़कियां ही क्यों इन प्यार के खेलों में फंस जाया करती हैं? मेरी तरफ तो कोई देखता भी नहीं है? फिर तू क्यों मरी जाती है उसके लिये, जब वह तेरी परवाह नहीं करता है? अपनी ओर देख ! तू क्या किसी से कम पड़ती है? एक से एक लड़के मिलेंगे तुझे। और वैसे भी अभी तेरे पढ़ने­लिखने और अपना कैरियर बनाने के दिन हैं, मगर तुझको भी उसकी चिन्ता न होकर, अपने प्यार­मुहब्बतों के चक्कर में पड़ गई है? खैर ! तू चिन्ता न कर, मैं बात कर लूंगी उस बे-मुरब्बत से, मगर अपना ध्यान बराबर रखना। ये सब तो चलता ही रहता है।'

       इस प्रकार से तारा प्रकृति को बहुत देर तक हर दृष्टिकोण से समझाती रही।

         इन्हीं हालात और कशमकश में कई दिन और बीत गये। फिर, दिन पर दिन गुज़रते चले गये। महीनों हो गये। जाड़े की ऋतु गर्मी का प्रकोप और साया देख कर भाग गई। बड़ा दिन भी अपनी खुशियां बांट कर चला गया। मसीहियों का अगला त्यौहार ईस्टर भी आ गया। यीशु ख्रीष्ट के पुनर्जन्म का एक महत्वपूर्ण दिन। ईसाइयों के विशवास के अनुसार जब उन्होंने सलीब पर अपनी जान देकर तीसरे दिन मृत्यु पर विजय पाकर हरेक पापी के लिये उद्धार का मार्ग खोला था।

            एक ओर ईस्टर के दिन करीब आ गये और दूसरी तरफ प्रकृति का दिल जलता रहा। धरती मानव के साथ अपने भविष्य के सुनहले सपनों के महल खड़े करती रही। मगर सारी स्थिति को जानते और समझते हुये भी प्रकृति किसी प्रकार अपने कराहते हुये दिल को समझाये रही। वह कोई भी पग उठाने से पूर्व पहले मानव से एक बार अवश्य ही मिलना चाहती थी। केवल एक बार, उससे उसे बहुत सारी बातें करनी थीं। काफी कुछ शिकायतें भी थीं। मगर समस्या थी कि, वह किस प्रकार मानव से मिले? समाज की हरेक आंख जैसे उसे ही चोर नज़रों से ताकने लगी थी। सारे कम्पाऊंड में हरेक मुंह में उसी के प्रति छुपी­छुपी उसी की बातें थीं। यदि वह यूं खुले-आम मिलती तो वह तो और भी अधिक चर्चा का विषय बन जाती। मानव से सारे लोगों के सामने यूं बात कर लेने के दिन अब हवा हो चुके थे। उसके मां­बाप और भाई तथा अन्य आने जाने वाले सम्बन्धियों की तरफ से उसको मानव से मिलने और बात करने की पूरी मनाही कर दी गई थी। फिर ऐसे में वह किस प्रकार मानव से मिल सकती थी? इसलिये वह उचित और हर संभव अवसर की तलाश में थी। समय का पहिया एक­एक पल का साथ पकड़कर तीव्रता से आगे भागता जा रहा था और धरती प्रकृति की पाबंदियों का भरपूर सहारा पाकर जैसे अपने मुकाम पर आगे बढ़ती जा रही थी। इसलिये समय से पहले ही जब प्रकृति को अपने सारे सजाये हुये अरमानों की लाश नज़र आने लगी तो वह और भी अधिक परेशान होने लगी। अपनी मजबूरियों और परेशानियों को सामने पाकर वह तड़प­तड़प जाती थी। ऐसे में परेशान होकर तब उसका मन जैसे घर से कहीं बाहर भाग जाने के लिये करने लगता था। लेकिन जब उसका कोई भी वश नहीं चल पाता था तो वह कहीं भी अकेले का दामन थाम कर या फिर अपने घर के एकांत कमरे में बैठ कर चुपचाप रो लेती थी। अपनी सोचों में वह जब भी होती तो स्वत:  ही उसकी गहरी झील सी आंखों में आंसू उसकी बेबस दशा का साथ देने के लिये भर आते थे। आखिर उसने भी मानव से प्यार ही किया था। उसको अपना समझ कर चाहा था। अपने दिल के किसी कोने में उसने मानव की तस्वीर बना कर सुरक्षित रख ली थी। ऐसी तस्वीर, दिल के कैनवास पर बनाया हुआ एक ऐसा चित्र जो शायद हर किसी मानवी के अंतरग में केवल जीवन में एक बार ही बना करता है। पहले­पहले प्रथम प्यार के वे मधुर लम्हे और साथ भरे दिन कि, जिनका इख्तियार छूटते ही मनुष्य अपने को संसार में नितान्त अकेला तो समझने ही लगता है, साथ-साथ  उसके जीवन की सारी रौनक भी समाप्त होने लगती है।

            प्रकृति के अछूते और निस्वार्थ दिल की गहराइयों में इस प्रकार की तस्वीर केवल मानव ही की बन सकी थी। उसने इस तस्वीर की किस प्रकार अपने दिल की गहराइयों से भरपूर इबादत की थी, ये वह जानती थी  और उसका प्यार का मारा परेशान, तन्हा दिल। फिर ऐसे में वह किस मन से अपने प्यार का गला घुटते हुये देख सकती थी। क्या सोच कर वह अपने आंचल पर किसी अन्य के प्यार के दीप जला सकती थी? भारतीय नारी जो जीवन में काफी उम्मीदों के पश्चात, अपने जीवन का एक बड़ा ही महत्वपूर्ण निर्णय लेने के बाद, किसी एक का हाथ पकड़ती है, तो फिर कभी भी छोड़ने के लिये सपने में भी सोच नहीं पाती है। वह जिसको भी अपना बनाती है, उसी के लिये सदा जीती भी रहती है। ये और बात है कि, समय, समाज और सम्बंधों के दायरे उसके मकसदों को तोड़ कर उसे अपनी चाहतों से जुदा कर दें, मगर मन के अंदर बसी हुई अपने प्यार की तस्वीर मिट नहीं पाती है। जो चित्र उसके दिल के अंदर एक बार सज जाता है, वही उसकी दुनियां का सरताज बन कर उसके दिल में धड़कता रहता है। हर समय- हरेक पल- हर दिन- हरेक सूनी रात को। शायद प्रतिपल ही वह उसके आस­पास मंडराता रहता है।

             प्रकृति जब भी धरती को मानव के साथ देख लेती थी तो जैसे सुलग कर ही रह जाती थी। परेशान होने के साथ­साथ उसकी सारी तमन्नायें तब ऐसे में कसमसाकर अपना दम तोड़ने लगतीं। वह जब भी धरती और मानव को एक साथ कालेज जाते हुये देखती तो उसका मन करता कि, वह भी भाग कर चली जाये और शीघ्र ही मानव का हाथ पकड़ ले। उस हाथ को जिसको थामने का अधिकार वह केवल अपना ही समझती आई है। मगर जब अपनी बंदिशों का उसको ख्याल आता तो वह उदासीन होकर रह जाती। तब निराश होकर वह बहुत देर तक दोनों को साथ जाते हुये देखती रहती और तब ऐसे में उसकी निराश आंखों में आंसू उसके दिल की आग के दहकते हुये अंगारे बनकर ठहर जाते। होठों पर चाह कर भी कोई आवाज़ नहीं आ पाती और तब ऐसी करूण परिस्थिति में वह अपने कमरे में जाकर बिस्तर पर बेजान सी होकर गिर पड़ती। गिर पड़ती और फूट­फूट कर रो पड़ती। रोने लगती अपने हाल पर। अपनी बेबसी पर। अपने प्यार की मज़ार सजती देख वह सहन भी कैसे कर सकती थी?

           ईर्ष्या के दामन में पलती हुई सौतिया डाह की अग्नि के धधकते हुये शोलों में परेशान प्रकृति अपने घर के दरवाज़े पर खड़ी­खड़ी धरती की सारी गतिविधियों को निहारती रहती। खड़े­खड़े गिनती रहती कि, धरती दिन में कितनी ही बार मानव के घर जाती है। कभी किसी बहाने से, तो कभी किसी कार्यवश, उसके दिन भर चक्कर लगते ही रहते थे। चूंकि, धरती स्पष्ट और खुले विचारों वाली युवती थी, इस कारण वह बगैर किसी भी संकोच के सरेआम मानव से मिलने चली जाती थी। वह सबके सामने बेधड़क बातें करती, मुस्कराती और बिना किसी भी भय संकोच के मानव के साथ घूमती भी रहती। शायद इसका कारण यही था कि, उसके भी मन में मानव के प्रति कोई भी चोर जैसी भावना नहीं थी। उसके परिवार की तरफ से भी उसके प्रति कोई भी संकीर्ण विचार धारा जैसी वह पाबंदी नहीं थी जैसी कि, प्रकृति के साथ थी। ये तो सच है कि, जहां एक बार मनुष्य के मन में प्यार का चोर आ जाता है, वहीं वह अपने समाज और आस­पास के माहौल से छुपना और शर्माना सीख जाता है। धरती ने भी अपने जीवन में स्वतंत्र रूप से सदैव हंसना और मुस्कराना सीखा था, इसलिये प्रकृति जब भी उसके इस रवैये को देखती तो चोट खाई हुई नागिन के समान जैसे डसने के लिये अवसर ढूंढ़ती रहती। मगर जब उसका कोई भी वश नहीं चलता तो हार मान कर सब्र भी कर लेती। परन्तु ऐसे कब तक चलता?  सब्र और संतोष की भी तो सीमा होती है। हरेक बात की कोई तो अंतिम रेखा होती है। प्रकृति कब तक अपने दिल को संभाले रहती?  पिंजड़े में बंद पक्षी मौका मिलते ही कभी न कभी आज़ाद हो ही जाता है।

           ईस्टर का दिन था। दिन भर मसीहियों के इस महान पर्ब्ब पर सारे चर्च कम्पाऊंड में मुस्कराहटों और खिलखिलाहटों के रेले बिखरते रहे। कई प्रकार के कार्यक्रम भी हुये। बच्चों ने एक छोटा सा मसीही बाज़ार भी लगाया था। सारे दिन चर्च कम्पाऊंड के वातावरण में सभी मसीही विश्वासी लोग अपने सृजनहार यीशु ख्रीष्ट के इस महान पर्ब्ब की खुशी में गीत गाते रहे।

           फिर जैसे ही संध्या ने अपने बदन को समेटा तो सूर्य की किरणों ने निराश होकर क्षितिज के एक कोने में अपनी अंतिम लालिमा का भी गला घोंट दिया। तब शाम का धुंधलका आहिस्ता­आहिस्ता अपने पग बढ़ाने लगा। और फिर जैसे ही रात पड़ना आरंभ हुई तो सारे कम्पाऊंड के परिवारों के घरों पर मोमबत्तियों का मद्धिम प्रकाश मुस्कराने लगा। दीवाली की रात्रि के समान, चर्च कम्पाऊंड की हरेक दीवार पर अपने मसीहा की स्तुति और स्मृति में ज्योति के दीप मुस्करा उठे। मगर भावनाओं के ज्वार­भाटे को अपने मन में दबाये हुये प्रकृति आज अवसर की तलाश में थी। दिन भर वह इसी उधेड़बुन में बनी रही। उसको अब हर कीमत पर मानव से भेंट करनी आवश्यक थी। वह शायद मानव को कोई चेतावनी देने के पक्ष में थी या फिर दो टूक बात करके प्यार की इस  दहकती लंका में रावण का वध करके रामलीला को समाप्त करने की? उससे उसे दो टूक स्पष्ट बात तो करनी ही थी। इसी कारण वह आज किसी भी कार्यक्रम में रूचि नहीं ले सकी थी। सारा दिन उसने ख्यालों और सोचों की दुनियां सजाने में ही व्यतीत कर दिया था। मानव के बारे में वह रह­रह कर हर पल सोचती रही थी।

          फिर जब प्रकृति को जैसे ही अवसर मिला वह खिसियानी हुई शेरनी के समान मानव के घर जा टपकी। संयोग से मानव अपने घर पर ही था। उसके पिता कम्पाऊंड में ही कहीं किसी के घर बैठे हुये थे और धरती शाम को अपनी अन्य सहेलियों के साथ शिकोहाबाद बस स्टैंड की तरफ ऐसे ही घूमने के उद्देश्य से निकल गई थी।

          प्रकृति को यूं अचानक से अपने घर आया देख कर मानव सहसा ही चौंक गया। तुरन्त ही उसके मुख से निकल पड़ा,

'तुम?'

'हां मैं ! लेकिन मुझे यूं देख कर घबरा क्यों गये?'  प्रकृति ने गंभीर, पर एक संशय के भाव से कहा।

'नहीं प्रकृति, ये बात नहीं है। तुमको तो मुझसे बात तक करने के लिये मना किया गया है, इसीलिये मैं नहीं चाहता हूं कि मेरी वजह से तुम्हें कोई परेशानी का सामना करना पड़े। अब आई हो तो बैठोगी नहीं?'

'और तुम भी मेरी कैद और पाबंदियों का भरपूर लाभ उठाने से नहीं चूक सके। सोचा होगा कि, ऐसा अवसर अब कब हाथ आयेगा? ' प्रकृति ने मानव की बात का अपने बिगड़े हुये मिजाज़ के साथ एक कड़वा सा उत्तर दिया तो मानव भी उसके इस बदले हुये व्यवहार को देख कर चौंक गया। उसने तुरंत ही उससे पूछा। वह बोला कि,

'तुम्हारा मतलब?'

'वही, जो तुम समझ रहे हो और जो मैं अपनी आंखों से हर रोज़ देख रही हूं।'

'साफ­साफ क्यों नहीं कहती हो?'  मानव ने कहा तो प्रकृति ने उससे स्पष्ट पूछा। वह बोली कि,

'धरती से तुम्हारे ऐसे क्या सम्बंध हो गये हैं, जो अपनी उजड़ती हुई प्रकृति की तरफ अब एक आंख उठा कर भी नहीं देख सकते हो?'

' 'प्रकृति'  की बहारों को तो सारी दुनियां देखा करती है, मगर एक 'धरती'  ही ऐसी है जो अपने सीने पर हर आदमी का बोझ सहन करती है और कभी भी उफ़ तक नहीं करती है।'

'अच्छा अब तो बहुत तारीफें भी निकलने लगी हैं तुम्हारे मुख से उस धरती के लिये?'  प्रकृति ने दूसरा तीर छोड़ा तो मानव ने कहा कि,

'तुम मुझ से लड़ने आई हो क्या?'

'लड़ने नहीं, शिकायतें करने।'

'शिकायतें ?  मेरी या धरती की?'

'शिकायतें सदा अपनों की जाती हैं।'

          तब प्रकृति की इस बात पर मानव उसके पास आया और इसकी आंखों में झांकता हुआ बड़ी ही गंभीरता से वह बोला,

'देखो प्रकृति, हम दोनों बचपन से एक दूसरे को खूब अच्छी तरह जानते हैं। मुझे गलत मत समझना। बहुत सी बातें मनुष्य के अधिकार में नहीं होती हैं। मैं नहीं चाहता हूं कि, जिन लोगों ने तुम्हें और मुझे अपनी गोद में खिलाया है वही अब हमें एक बदचलन की दृष्टि से देखें। जोड़े परमेश्वर/ईश्वर के घर से बन कर आते हैं। जबरन प्यार के डोरे डालने से कोई भी किसी का साजन नहीं छीन लेता है। मैं यदि तुम से कतराकर निकलने लगा हूं तो उसकी भी कोई वजह है। तुम्हारे जीवन-पथ पर एक से बढ़ कर एक 'मानव'  बिछे होंगे, मगर मुझे अपने जीवन के सूने रास्ते के सिवाय और कुछ भी नज़र नहीं आता है।'

'तुम्हारा आशय क्या है? मैं तुम्हारे मार्ग से हट जाऊं, ताकि धरती का रास्ता साफ हो जाये।'  प्रकृति ने बिफर कर कहा तो मानव उससे बोला,

'जब इस कम्पाऊंड का चप्पा­चप्पा हम दोनों को अलग करने की ज़िद कर बैठा है, तो तुम कोशिश क्यों करती हो?'

'?'- खामोशी।

        तब प्रकृति मानव की इस बात पर काफी देर के लिये गंभीर ही नहीं बल्कि देर तक वह सोचती भी रही। कभी वह मानव को देखती तो कभी अपनी ओर। फिर वह जैसे अपने आप से निर्णय लेते हुये मानव से बोली,

'ठीक है,  तुमने अपने मन की बात मुझ से कह दी है और अब मुझे तुम से कुछ भी कहना और सुनना नहीं है। मैं जाती हूं।'  कहते हुये वह जैसे ही चलने को हुई तो मानव ने उससे अनुरोध किया। वह बोला,

'बाहर जा ही रही हो, तो धरती को भेज देना।'

'क्या . . . ?'  आश्चर्य से प्रकृति का मुंह खुला ही रह गया। वह एक बड़े ही आश्चर्य की प्रतिमूर्ति बनी हुई मानव को घूरने लगी। एक भेदभरे ढंग से। काफी देर तक वह मानव की आंखों को पहचानने का प्रयत्न करती रही। उन आंखों को जिन्हें वह बचपन से देखती आई थी और आज अचानक से पराई कैसे नज़र आने लगी थी? उसने मानव को देखा। खूब देखा। हर दृष्टिकोण से उसको एक बार फिर परखने का प्रयत्न किया। फिर सोचा कि, ये मानव? क्या कभी उसका अपना भी था? क्या कहीं ये धरती की प्यार भरी बाहों का स्पर्श पाकर अपनी प्रकृति की ओर देखना भूल तो नहीं गया है? शायद ये सच ही तो है? इसका प्रमाण वह खुद ही उसको दिखा देना चाहता है। वह स्वंय उससे धरती को बुला लाने का आग्रह कर रहा है, ताकि वह धरती के सामने ही उसकी अवहेलना कर सके। उसके प्यार का अपमान हो सके। वह भी इसलिये कि फिर कभी वह प्रकृति के कारण हस्तक्षेपित न हो सके। ताकि प्रकृति उसके मार्ग से स्वत:  ही हट जाये।

          सोचते­सोचते प्रकृति को अपने दिल के प्यार मानव के छिन जाने का एहसास हुआ तो उसके दिल का दर्द पलकों में आंसुओं की लुटी हुई बारात बन कर छलक पड़ा। उसकी बड़ी­बड़ी इतने दिनों की तरसती हुई आंखों में आंसू डब-डबा आये। गला भर आया। बहुत कुछ कहना चाह कर भी वह उससे कुछ कह नहीं सकी। केवल यही सोचती रही कि क्यों उसने मानव से इसकदर प्यार किया था?  क्यों वह उसके इतना अधिक करीब आई कि अब दूरियां देख कर वह सहन भी नहीं कर सके?  क्यों उसने मानव के प्यार को सजा कर अपने भविष्य का सपना देखा था?  क्यों उसने इस लड़के पर इतना अधिक विश्वास किया?  ये मानव?  ये युवक?  वह क्यों इसके इतना पास तक चली आई?  क्यों वह इसके प्यार के फंदे में अपने आप फंस गई?  प्यार भी किया था तो क्यों वह इस पर विश्वास कर बैठी?  यदि विश्वास भी कर लिया था तो क्यों उसके विश्वास पर इस तरह से ठोकर लगा बैठी?  क्यों?  क्यों? आखिर क्यों?  क्यों ऐसा हुआ?  उसे तो अब यहां पर ठहरना भी नहीं चाहिये। ठहर कर अब वह करेगी भी क्या? ठहरने का अधिकार तो वह खो बैठी है। 'मानव' तो पराया है। वह तो 'धरती'  का है। वह तो शायद यह भूल ही गई थी कि,  'प्रकृति'  की सुंदरता तो 'मानव'  के कार्य और 'धरती'  के मिजाज़ पर ही स्थिर रहती है। आज जब अवसर आया तो 'मानव'  ने अपना काम दिखा दिया और 'धरती'  का मिजाज़ भी पता चल गया। उसने तो व्यर्थ  ही मानव से अपने प्यार की आशा बांध रखी थी। उसके लिये तो सब कुछ ही बेकार साबित हुआ। वह यहां क्यों खड़ी है? उसे तो यहां से चल देना चाहिये। इसी समय। ऐसा सोचते हुये भावनाओं के बहाव में प्रकृति ने मानव को निहारा वह भी इतनी देर से उसी को निहार रहा था। तब प्रकृति ने मानव की आंखों में झांकते हुये उससे कहा कि,

'जा रही हूं। अभी भेजती हूं, तुम्हारी प्यारी धरती को, तुम्हारी बाहों में।'

             ये कह कर प्रकृति तुरन्त ही बाहर निकल गई। मानव ने उसे एक बार रोकना भी चाहा, परन्तु रोक नहीं सका। प्रकृति तीव्रता के साथ उसके घर का दरवाजा भड़ाक से बंद करती हुई बाहर निकल कर चर्च कम्पाऊंड के मैदान में आ गई।

             मानव के घर के बाहर आ कर प्रकृति ने मैदान की हरी­हरी घास पर धरती और उसकी सहेलियों को चुहलबाजियां करते हुये देखा तो दूर से ही किसी चोट खाये हुये पक्षी के समान जैसे अपने पंख फड़फड़ा कर वह धरती से बोली,

' 'धरती'  जी,  आपके 'मानव' आपकी प्रतीक्षा में अपनी अंखियां बिछाये हुये आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। जायेंगी नहीं आप? आज तो ईस्टर का 'डिनर' भी  उनके साथ ही होना चाहिये?'

'?'- ओह! उसने मुझसे बस-स्टेंड से अगरबत्तियाँ मंगाईं थी, अपनी मम्मी की ग्रेव पर जलाने के लिए? मैं ले तो आई हूँ, देना ही भूल गई?' कहते हुए धरती तुरंत ही उसे देने के लिए भागी.  इसीलिए मानव ने प्रकृति से कहा था कि, बाहर जाते समय वह धरती को उसके पास भेज दे, परन्तु प्रकृति ने उसकी बात का अर्थ कोई दूसरा ही निकाला था. सो जब प्रकृति ने धरती से अपने बिगड़े हुए मिजाज़ में बात की तो वह भी प्रकृति के इस खराब मूंड को देखकर दंग रह गई.

          धरती ने जब अचानक से प्रकृति का इस प्रकार का बदला हुआ व्यवहार देखा तो वह भी एक बार आश्चर्य से गड़ कर रह तो गई, पर किसी निर्णय पर नहीं पहुंच सकी। वह प्रकृति से कुछ कहती भी मगर तब तक प्रकृति भाग कर अपने घर के कमरे में आई और शीघ्र ही अपने बिस्तर पर किसी बेजान टूटे हुये फूल के समान निढाल होकर गिर पड़ी। गिर पड़ी और फूट­फूट कर रो पड़ी। रो पड़ी- अपने बिगड़े हुये हाल पर। अपनी किस्मत की बिगड़ती हुई लकीरों की तकदीर देख कर। वर्षों से संभाल कर रखे हुये अपने प्यार के छिन जाने के वियोग में वह अपने दर्द को संभाल भी नहीं पा रही थी। आंसू थे कि थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। बार­बार उसकी आंखें अपने प्यार का ऐसा बुरा हश्र देख कर छलक पड़ती थीं। तड़प उठी थी वह। परन्तु वह कर भी क्या सकती थी? किसी के दिल पर, किसी का भी अधिकार सदा कभी भी नहीं रहा है। ये जमाने का चलन है। प्यार बर्बाद अवश्य हो सकता है, मगर खरीदा कभी भी नहीं जा सकता है। जो कुछ उसके साथ हुआ, वह शायद उसके भाग्य की बिगड़ी हुई लकीरों का ही दोष हो सकता था। यही सोच कर प्रकृति अपने टूटे हुये दिल को समझाने का प्रयत्न करने लगी। परन्तु दर्द था कि, बार­बार उसकी पलकों का बंद तोड़ कर बहते हुये आंसुओं के रूप में अपनी कहानी दोहराने लगता था।

             फिर जब प्रकृति पर नहीं रहा गया तो भावनाओं में बह कर उसने मानव की सारी तस्वीरें फाड़ कर फेंक दीं। वे तस्वीरें जिनमें उसके अतीत के ढंग से संभाले वे प्यारे मधुर सपनों के महल थे, जिन्हें उसने कभी अपने मानव का विश्वास और प्यार देख कर सजाया था। मगर आज हकीकत का एक हल्का सा स्पर्श पाते ही झूठे विश्वास की नींव पर खड़े किये गये महल ढहते देर भी नहीं लगी थी। आज से उसका प्यार मर गया था। मानव मर गया था और शायद वह खुद भी अपने प्यार के सपनों के कब्रिस्थान में कहीं इतनी गहराईयों तक जाकर दफ़न हो चुकी थी कि अब शायद परमेश्वर के न्याय के दिन भी वह कभी भी जीवित नहीं हो सकेगी?

           संसार का ये कठोर चलन है कि, भावुकता कभी भी प्यार का स्थान नहीं ले सकती है। मगर फिर भी न जाने क्यों लोग कल्पनाओं के धरातल पर भावुकता की स्याही से अपने प्यार के घरौंदे बना लेते हैं। ये जानते हुये भी कि वास्तविकता का एहसास पाते ही ज़िंदगी के सारे प्यार भरे सपने खंडर होते देर भी नहीं लगती है। जब भी ऐसा होता है तो दिल तो टूटता ही है,  इंसान भी टूटता है। साथ ही जीने की आस भी टूट जाये तो कोई भी आश्चर्य की बात नहीं है। प्यार के घरौंदे बनाना कोई भी पाप नहीं है, मगर ऐसे प्यार के घरौंदों में समय से पहले ही बसने की ज़िद को ज़िंदगी की सबसे बड़ी भूल की संज्ञा ही दी जा सकती है।

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                   प्रकृति की अपनी सोच में उसका घर उजड़ गया। उसके प्यार के संसार का नक्शा अचानक ही पलट गया तो उसको सारा जमाना ही बेवफा नज़र आने लगा। स्वत:  ही उसको सब-अपने पराये दिखने लगे। चर्च कम्पाऊंड के सारे के सारे लोग उसको अजनबियों की तरह घूरते हुये प्रतीत होने लगे। ना तो अब उसको अपने घर में ही चैन था  और ना ही बाहर कहीं शातिं मिल पा रही थी। फलस्वरूप वह उजड़ने लगी। दिल टूटा तो उम्मीदें भी समाप्त हो गईं। दिल की सारी जमा की हुई हसरतों पर ऐसा कठोर कुठाराघात हुआ था कि, जिसके बारे में वह किसी से कह भी नहीं सकती थी। एक ले दे कर तारा ही थी, जिसको उसने अपने दिल के दुखड़े की दर्द भरी कहानी रो­रोकर सुना दी थी। तारा ने जब ये सब सुना तो वह भी सुन कर गंभीर हो गई। मगर कहा कुछ भी नहीं। फिर कह भी क्या सकती थी। मानव की हरकतों पर उसे क्रोध तो अवश्य ही आता था, पर वह उससे भी क्या कहती। प्यार की बाज़ी कभी भी पलट सकती है, ऐसा तो वह रोज ही सुनती आई है और किताबों में पढ़ा भी है। मानव पर उसका कोई व्यक्तिगत अधिकार तो था नहीं, जो वह उस पर जोर भी डालती। केवल प्रकृति को समझा ही सकती थी। एक आद बार तो क्या, वह तो उसे ना जाने कब से समझाती आई थी, मगर सारी कठिनाई तो यही थी कि, कोई समझे तब न? प्यार की डगर पर चलते हुये अंधे प्रेमियों को तो यूं भी कुछ दिखाई नहीं देता है।

       सो जब प्रकृति का घर में मन नहीं लगता तो वह बाहर निकल आती थी। मगर जब बाहर आकर धरती और मानव को एक साथ देख लेती तो उसके दिल के छुपे हुये तूफान में एक बवंडर सा आ जाता। वह परेशान होने लगती। उसकी सारी तमन्नायें अपनी मनहूसियत का रोना छुपा कर चुपचाप अंदर ही अंदर सुलगने लगतीं। अरमानों की आग जल तो नहीं पाती, मगर उसमें से गीली लकड़ियों जैसा जलता हुआ धुआं उठने लगता। लेकिन वह कर भी क्या सकती थी? किसी के दिल की भावनाओं पर किसी का कोई भी अधिकार कभी भी नहीं रह सका है। चाहतों की न कभी कोई वसीयत ही कर सका है। ये तो एक ऐसा सौदा है कि जिस का खरीदार और बेचने वाला केवल एक ही जन होता है। इसलिये जो कुछ भी प्रकृति के साथ हुआ और जो हो रहा था, उसमें उसने केवल स्वंय को ही दोषी ठहराया। किसी भी तरह से वह अपने टूटे हुये दिल को समझाने का प्रयत्न करने लगी। परन्तु वह क्या जाने कि दुखे और ज़ख्मी मन के घाव कोई आसानी से यूं भर तो नहीं जाया करते हैं। ऐसे दुख को भुलाने के लिये समय लगता है। स्थान बदलने पड़ते हैं, तब कहीं बड़ी कठिनाई से प्यार के आघातों से घायल, टूटा हुआ दिल  बहल पाता है।

            प्रकृति का प्यार छिन गया तो उसके साथ ही उसकी सारी आकांक्षायें भी चली गईं। भूख­प्यास सभी कुछ समाप्त हो गई। दिल की सारी उमंगों ने निराशा का कफ़न ओढ़ लिया। कमसिन और सुंदर चेहरे ने अपने ऊपर उदासीनता का आंचल डाल लिया। उसकी झील सी सुंदर आंखों ने बगैर कोई भी विरोध किये हुये ज़िंदगी के सूनेपन को निमंत्रण दे दिया तो उसके होठों पर खुद  ही दुनियां­जहान की सूखी आहें अपना डेरा डाल कर बैठ गईं। तब ऐसे में उसके निराश दिल ने अपने बेवफ़ा प्यार का दर्द बटोर कर अपने चारों तरफ अपने प्यार का ब्यान लिखना आरंभ कर दिया। तब प्रकृति अपने दिल के अंदर अपने बे-मुरब्बत प्यार का रोना संभाले हुये अपने घर, समाज और अपने मित्रों से दूर भी होने लगी। क्योंकि वह ये जान गई थी कि, अब उसे हर हाल में मानव और उसके प्यार को भुला देना होगा। मानव उसका था या नहीं? ये और बात थी, मगर वह अब पराया अवश्य ही हो रहा था। उस पर अब धरती का राज था। प्रकृति पर अब उसका कोई भी अधिकार नहीं रहा था। ये बात और इस तथ्य को वह अपनी आंखों से हर रोज़ ही देख रही थी। इस सच्चाई का उसे अपनी आंखों के सामने ही प्रमाण मिल चुका था। सो वह किसी न किसी प्रकार से मानव की छवि को अपने हृदय से हटाने का प्रयत्न करने लगी। हांलाकि ये कार्य कोई सरल तो नहीं था, परन्तु उसे करना भी था। इसके अतिरिक्त कोई दूसरा विकल्प भी तो नहीं रहा था उसके पास।

           प्रकृति जब भी ख्यालों में होती और अपने प्यार के छिन जाने के विषय में सोचा करती, तो सोचों से बाहर निकलने का फिर कोई भी समय नहीं होता। वह सारे­ सारे दिन अपने इसी विषय को लेकर सोचती रहती। वह समय­असमय खाना खाती। अपना समस्त बनाव श्रृंगार भी वह भूल गई। लम्बे घने उसके सुंदर बाल अपने आप ही बिखरे रहने लगे। वस्त्रों को पहनने में भी उसका कोई आकर्षण और रूचि न रही। उदास और निराश कामनाओं के दौर में उलझी हुई 'प्रकृति' के समान उसकी सारी बहारें फीकी पड़ गईं। इठलाती हुई हवायें, हवाओं के झोंके, सब ही जैसे बिना पतझड़ के मौसम समान अपना दम तोड़ बैठे। ठीक ही तो बात थी, जब चमन का माली ही उसे लावारिस बना कर छोड़ गया तो वहां पर उजाड़ कामनाओं का बसेरा तो होना ही था। जब प्रेम का पुजारी ही अपना डेरा उखाड़ कर चलता बना तो फिर वह अपना रूप सिंगार किसके लिये करती?

          तब ऐसे में प्रकृति, मानव को जितना भी भुलाने का प्रयत्न करती उतना ही अधिक मानव उसके और भी करीब आ जाता। जितना भी अधिक वह मानव से दूर भागने की कोशिश करती तो उसको महसूस होता कि वह मानव के और भी अधिक पास आती जा रही है। ये थी उसके दिल की दशा और उसके प्यार का दर्द और ऐसा बयान कि जिसके बारे में उसके होंठ तो बंद थे ही, मगर शरीर की बे-दुरुस्त दशा अपने आप उसके दिल की हरेक बात का बयान करने लगी थी। मानव को वह बहुत चाहते हुये भी नहीं भुला पा रही थी। ऐसा था मानव कि जो उसको कदम­कदम पर परेशान करने लगा था।

        प्रकृति जब भी रात में अपने बिस्तर पर होती तो मानव बहुत खामोशी से उसकी पलकों की खिड़की खोल कर उसमें समा जाता और फिर इसके साथ ही वह धीरे­धीरे उसके दिल के किसी कोने में चुपचाप बैठ जाता। बैठ जाता तो प्रकृति फिर से परेशान हो जाती। करवटें बदलने लगती। फिर सारी­सारी रात उसको नींद ही नहीं आती। तब ऐसी स्थिति में प्रकृति चुपचाप अपने कमरे का द्वार खोल कर घर के दरवाज़े के बाहर आकर खड़ी हो जाती। खड़े­खड़े वह ऊपर आकाश को ही निहारने लगती। कभी तारों की सजी हुई बारात से अपनी कहानी दोहराने लगती, तो कभी चन्द्रमा से ही चुपचाप अपने दिल का दुखी हाल बताने के लिये वह तड़पने लगती। दिल उसका तरस­तरस जाता। कभी बेमन से वह 'धरती' पर छाई हुई सारी वनस्पति को ही निहारने लगती। ख्यालों और सोचों की दुनियां में भटकी हुई प्रकृति को तब इतनी अधिक देर हो जाती कि उसको किसी बात का होश ही नहीं रहता। रात इतनी अधिक बढ़ जाती कि रात्रि का दूसरा थका हुआ पहर भी समाप्त होने को आ जाता। चन्द्रमा भी कभी का छिप चुका होता। फिर ऐसी शांत और निराश रात में कुछेक तारे ही आकाश में जैसे जबरन लटके हुये अपने बेवफा पहले से ही छिप गये अन्य सितारों की शिकायतें करने लगते। तब कहीं सुबह की सूचना में कम्पाऊंड के मुर्गे बांग देने लगते तो प्रकृति को महसूस होता कि वह तो सारी रात ही खड़ी रही थी। तब अपने को होश में लाने के पश्चात वह शीघ्र ही अपने कमरे में चली जाती। मानव की याद भर से ही उसकी आंखों में आंसू भर आते, तो वह अपने कमरे में ही चुपचाप रो लेती। देर तक वह रोती ही रहती। फिर रोते हुये उसको कब नींद आ जाती, उसे कुछ ज्ञात ही नहीं रहता।

           फिर इसी प्रकार कई एक दिन गुज़र गये। मानव, धरती में लगातार रूचि लेता रहा तथा प्रकृति अपनी दम तोड़ती हुई निराश कामनाओं की आग में खुद ही जलती रही। उसके दिल का हाल किसी ने पूछा नहीं तो उसने भी किसी को बताया नहीं। अपने मन का दर्द उसने केवल अपने तक ही सीमित रखा। केवल तारा ही एक ऐसी थी, जो उसका दर्द समझ लेती थी। कहते हैं कि समय हरेक दुख का सबसे बड़ा हथियार है। एक समय आता है कि इंसान को अपने आंचल में इतने आघात और दुख भरने पड़ जाते हैं कि जिनका बोझ वह सहन भी नहीं कर पाता है, तथा समय के बढ़ने पर ही उसके ये सारे दुख स्वत:  ही सामान्य होने लगते हैं। प्रकृति के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। उसकी आंखों के बहते हुये वे आंसू जो मानव ने भर दिये थे, कोई अन्य पोंछ नहीं सका था, मगर समय की हर समय बहने वाली हवायें सुखाने अवश्य ही लगी थीं। वक्त आने पर उसके दिल का घाव स्वत:  ही भरने लगा। वह सामान्य होने लगी। मन का दर्द यादों की एक छाप बन कर अपने आप ही लुप्त होने लगा। अब वह मानव की याद में रोती नहीं थी। इतना परेशान भी नहीं होती थी। पर हां, जब कभी वह मानव को एक नज़र देख लेती थी, तो उसके दिल में एक हूक सी अवश्य ही उठ कर रह जाती थी। मगर वह अपने इस दर्द को सहन भी कर लेती थी। सहन करने का सबसे बड़ा कारण यही था कि, अब उसने मानव के प्रति लगी हुई सारी आशायें तोड़ी नही थीं, तो उनकी कोई आस भी नहीं रखी थी। उसने अपने दिल को समझा लिया था। कुछ खुद ही, तो कुछ अपनी सहेली तारा के सहयोग से। वह मानव के लिये जानबूझ कर अनजान सी बन कर ऐसे रहने लगी थी, कि जैसे उसे जानती ही नहीं है। बिल्कुल अजनबी सी, वह उसको देख कर भी अनदेखा करने लगी थी। वह जब भी कभी मानव को देखा करती थी तो केवल अनजान, अजनबी बन कर ही। कभी भी वह ये जाहिर नहीं होने देती थी  कि, ये वही मानव है जो कभी उसका अपना बन कर रहा था। यह वही उसका वह प्रेमी है, वह इंसान है और उसके दिल का वह राजकुमार है कि, जिसे देखते ही वह भागती हुई आकर उसके जिस्म से बे-ताहाशा लिपट जाती थी? इसलिए वह अब कभी भी मानव की यादों में रोती नहीं थी। मगर जब भी उसको एकान्त का सहारा मिल जाता था, तो वह मन ही मन घुटने अवश्य ही लगती थी।

          अकेले­अकेले में, उसे जब भी अवसर मिल जाता था तो वह अपने अतीत की यादों को दोहरा अवश्य ही लेती थी। तब ऐसे में वह जब भी अपने पिछले प्यार भरे अतीत के दिनों की छांव में पहुंच जाती थी तो उसका दुखी दिल ये स्वीकार नहीं कर पाता था कि, उसने सचमुच ही मानव को भुला दिया है। वह उसके लिये अपरिचित बन चुकी है। या फिर उसके दिल में सुरक्षित मानव का स्थान रिक्त हो चुका है। व्यवहारिक तौर पर वह मानव के लिये मर चुकी थी। मानव उसके दिल से सदा के लिये निकल चुका था, मगर दिल के चोर जज़बातों की गुप्त खानों में बसी हुई अपनी लालसाओं को वह किस प्रकार से धोखा दे सकती थी? लाख कोशिश करने के उपरान्त भी वह मानव के प्रति अपने दिल में दूरियां और अलगाव की स्थिति को नहीं ला सकी थी। ये सही था कि उसने मानव की तरफ से अपनी सारी आशाओं को तोड़ दिया था, परन्तु फिर भी दिल के किसी कोने में बसी हुई अतीत की यादों को वह बहुत चाह कर भी धूमिल नहीं कर पाई थी। वह मानव के लिये मर चुकी थी। मानव उसके लिये अब जीवित न रहा था। मानव खो चुका था। स्वंय उसके ही हाथों के द्वारा। यदि कभी भी मानव ने उसको जिलाने का प्रयत्न किया भी तो वह उससे अब स्पष्ट मना भी कर देगी। डोर टूट जाती है तो फिर उसका बंधना अत्यंत कठिन भी हो जाता है और यदि किसी प्रकार से बंध भी गई तो गांठ तो पड़ ही जाती है। और वह अच्छी तरह से जानती है कि उसके प्यार की इस डोर में गांठ तो पड़ ही चुकी है।

       एक दिन कॉलेज में,

दिन साफ़ था. आकाश पर बादलों के लिहाफ तैर रहे थे. होली का पावन पर्ब्ब करीब ही था. कॉलेज की बाउंड्री से ही लगे हुए गेहूं के खेतों की पकी बालें विधाता की दी हुई आशीष और किसानों के परिश्रम का बखान कर रही थीं. कॉलेज के वातावरण में छात्र और छात्राएं स्थान-स्थान पर बैठे थे और हल्की-हल्की मदमस्त वायु की लहरें हरेक विद्यार्थियों के मन को जैसे पुलकित किये हुए थीं. प्रकृति कॉलेज नहीं आई थी परन्तु तारा चुपचाप अपनी बगल में पुस्तकें दबाए हुए अपनी इंटर की कक्षा की तरफ बढ़ी जाती थी कि, तभी उसने मानव को दूर फ़ील्ड में पड़ी एक बेंच पर धरती के साथ बैठे देख लिया तो उसे देखते ही उसके तन-बदन में जैसे आग लग गई. फिर जब उससे रहा नहीं गया तो वह अपनी कक्षा की तरफ जाना भूलकर सीधी मानव की तरफ चल दी. फिर उसके पास जाकर खड़ी हो गई तो मानव उसे देखते ही आश्चर्य से बोला,

'अरे तारा?'

'हां मैं.'

' 'हाव' 'कम' ?'

'इधर आओ. तुमसे ज़रा बात करनी है.' तारा धरती की तरफ देखते हुए बोली.

'?'- तब मानव, धरती को सौरी बोलता हुआ तारा के साथ एक कंकड़ फेंकने भर की दूरी तक आया और तारा की तरफ एक संशय से देखने लगा. तब तारा उससे रूख़े स्वर में बोली,

'तुम्हें ज़रा भी शर्म नहीं आती?'

'शर्म ! मतलब?' मानव तारा की इस अप्रत्याशित बात पर अचानक ही चौंक गया.

'इतना मत बनो कि, जैसे मेरी बात का मतलब नहीं समझ रहे हो?' तारा का स्वर और भी कड़क हो गया.

'खुलकर बात करो. पहेलियाँ मत बुझाओ?' मानव भी गम्भीर हो गया तो तारा बोली,

'यह सब क्या तमाशा बना रखा है तुमने?'

'कैसा तमाशा?'

'प्यार किसी से किया? वादा भी किया और रंगरेलिया किसी और के साथ?'

'ओह ! अब समझा.'

'शुक्र है कि तुम्हारी समझ में कुछ तो आया?' तारा ने कहा तो मानव उसका मुंह ताकने लगा.

'मेरा मुंह मत देखो अब. अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है. जाकर मना लो उसको, नहीं तो रोओगे, पश्चताओगे और सारी उम्र खुद को मॉफ नहीं कर पाओगे, अगर उस दुखियारी, बे-वकूफ ने अपने को कुछ कर लिया तो ?'

'?'- मानव सुनकर अवाक रह गया.

'मैं, बस यही सब कुछ कहने के लिए तुम्हारे पास आकर रुक गई थी.'

कहकर तारा चली गई तो मानव चुपचाप उसको जाते हुए देखता ही रह गया. उससे कुछ भी कहते नहीं बना था.                                           

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FORTH PART

              कालेज की परीक्षायें करीब आईं तो विद्यार्थियों के सारे सैर­सपाटे और आवारागर्दी स्वतन्त्र ही बंद हो गई। सारे छात्र और छात्रायें परीक्षाओं के पास आने के कारण अपने­अपने अध्ययन में जुट गये। कालेज के प्रधानाचार्य ने उचित समय आने पर अपने कालेज से निलम्बित की गई छात्रायें प्रकृति और नीरू दोनों ही को फिर से कालेज में ले लिया। सालाना परीक्षाओं के करीब तीन माह पूर्व ही उन दोनों को कालेज आने का आदेश प्राप्त हो गया। फलस्वरूप दोनों ही कालेज जाने लगीं। प्रकृति के लिये एक ओर मानव का द्वार बंद हो गया था तो दूसरी तरफ विधाता ने उसके भविष्य को सामने रखते हुये उसके लिये कालेज का दरवाजा भी खोल दिया था। अब वह सारी दुनियांदारी को छोड़ कर अपने पढ़ने की ओर ध्यान  लगा सकती थी। शायद ईश्वर ने भी प्रकृति के इतने दिन के दुख और दर्द को भली­भांति महसूस कर लिया होगा या फिर उसके लिये अपने किसी नये ‘मानव’ की तलाश के मार्ग भी ढूं.ढ़ने का सुनहरा अवसर सामने आ गया था। कुछ भी हो, पर इतना तो अवश्य था कि, अब प्रकृति को अपने कदम किसी भी मार्ग पर आगे बढ़ाने के लिये एक अच्छा सबक जरूर से मिल गया था।

              तब अनुमति मिलने के पश्चात प्रकृति कालेज गई तो उसको नया मौसम मिला। नया वातावरण। नई­नई बहारों और ताज़ी खुली हवाओं के झोंकों में उसके चेहरे की खोई हुई सारी मुस्कान फिर से वापस आ गई। एक लम्बे अरसे से उसके रूठे हुये उदास चेहरे पर नई आभा ने जन्म ले लिया। परन्तु प्रकृति ये अच्छी प्रकार से जानती थी कि, उसके चेहरे पर आई हुई ये नई बहार और महकती हवाओं का वातावरण अब किसी भी ‘मानव’ विशेष के लिये न होकर स्वंय उसके अपने लिये ही था। इसको अब चाहे उसका अपना स्वार्थ कह लो या फिर ठोकर लगने के पश्चात संभल­संभल कर चलने का कोई नया तरीका। प्यार की डगर पर अपनी दोनों आखें बंद करके चलने का अंजाम वह अच्छी तरह से भुगत चुकी थी। फिर पिछले दिनों में उसने ‘मानव’ के हर तरह के रंग भी देख लिये थे। एक प्रकार से उसने मानव जीवन को बहुत करीब से देख-परख लिया था। दिल की पसंदों को अपना बनाने और कहने के अपराध में कितने ही आघात वह सहन कर चुकी थी। कल तक मानव के लिये वह हंसती­मुस्कराती रही थी। उसी की खातिर वह जीती आई थी, परन्तु समय की मार ने आज कम से कम उसको अपने लिये और अपना भविष्य भी संवारने के लिए जीना सिखा दिया था।

             इस प्रकार तब प्रकृति ने मानव की ओर से मुख फेर कर अपनी नई उमंगों के साथ किसी नये भविष्य की चाह में, फिर से दुबारा जीना आरंभ किया तो उसके अंदर एक आत्म सम्मान के साथ एक मजबूत आत्मनिर्भरता भी आती गई। सारे मन से वह अपने छूटे हुये अध्ययन में वह फिर से लग गई। परीक्षाओं से मिले पूर्व तीन महीनों के अंदर वह अपना अधूरा अध्ययन पूरा करके पास हो जाना चाहती थी। पढ़­लिख कर वह अब अपने पैरों पर खड़ी हो जाना चाहती थी। किसी भी मानव के लिये न होकर, पर स्वंय अपने लिये, अपना भविष्य संभाल लेने का उसका इरादा था। उसने सोच लिया था कि, अब वह जो कुछ भी करेगी, वह केवल उसके अपने लिये होगा। किसी के लिये भी वह अपना बहुमूल्य समय और ध्यान बरबाद नहीं होने देगी। मानव ने उसका दिल अवश्य ही तोड़ा था, पर उसको सिर उठा कर जीने का एक नया अंदाज़ भी सिखा दिया था।

       फिर एक दिन।

सोमवार का दिन था। कालेज का समय था। प्रकृति अपनी पुस्तकें संभाले हुये अपनी कक्षा से निकल कर जैसे ही बाहर आई तो सामने उसको डिग्री कालेज में से मानव आता हुआ दिखाई दिया। वह अपने मित्र आकाश के साथ  ही चला आ रहा था। मानव के साथ धरती के स्थान पर आकाश को देख कर एक बार तो प्रकृति भी हैरान हो गई। मानव अपनी पुरानी आदत के समान ही प्रकृति की ओर देख कर मुस्कराता हुआ आगे बढ़ा, परन्तु जब प्रकृति ने बड़ी बेरूखी से अपना मुंह फेर लिया तो मानव उसके इस प्रकार के अप्रत्याशित व्यवहार को देख कर आश्चर्य किये बिना न रह सका। वह प्रकृति के इस व्यवहार पर चौंक गया। तुरन्त ही वह प्रकृति के नज़दीक आकर उससे बोला कि,

'प्रकृति?'

'?'- खामोशी.

प्रकृति चुपचाप उसकी तरफ एक बार देखते हुये अपना मुंह फेर कर दूसरी ओर खड़ी हो गई, तो मानव फिर से उससे सम्बोधित हुआ. फिर एक बार उसने प्रकृति का नाम दोहराया,

'प्रकृति?'

'क्या है?'

प्रकृति ने जैसे झुंझलाते हुये कहा।

'कहां चलीं?'  मानव ने पूछा।

' जहन्नुम में। चलोगे मेरे साथ ?'

खिसियाने स्वर में प्रकृति ने व्यंग में उससे कहा।

'चलो।'  मानव ने अपनी हॉमी भरी तो प्रकृति ने उसकी ओर निर्लिप्त भाव से देखा. फिर उससे इतना ही बोली,

'हूं?'  कहते हुये एक व्यंग भरी हंसी हंसते हुये वह फिर से आगे बढ़ गई।

तब मानव उसके इस प्रकार के ओछे और रूखे व्यवहार को देख कर, आश्चर्य से उससे बोला,

'ऐसे क्यों हंसती हो, मुझ पर?'

'हंसू नही तो और क्या करूं? तुम्हें तुन देख कर नाचती फिरूं?'   

'तुम्हारा मतलब ?'

'स्वर्ग के हंसते-मुस्कराते हुए रास्तों पर चलने के लिये जिसने अपना मुंह फेर लिया हो, वह नरक में जाने के लिये मेरा हमसफ़र बनेगा? कैसे विश्वास कर लूं? इसीलिये हंसी आती है।'

        प्रकृति ने कहा तो मानव को लगा कि जैसे उसने उसके बदन पर अचानक ही ब्लेड चला दिया हो। वह तुरन्त ही गंभीर हो गया। फिर कुछेक क्षणों के पश्चात वह उससे आगे बोला,

' प्रकृति मुझे तुमसे कुछ कहना है।'

'अब कहने को बचा ही क्या है, तुम्हारे पास ?'

'बहुत कुछ. वह सब जिसे तुमने कभी सुना ही नहीं।'

'और मैं अब कुछ सुनना भी नहीं चाहती हूं।'

प्रकृति ने कहा तो मानव उससे बोला कि,

'प्रकृति, मैं गंभीर हूं।'

'प्रकृति मर चुकी है।'

'लेकिन, मानव अभी जीवित है।'

'धरती के लिये।'

          प्रकृति ने फिर से तीर छोड़ दिया तो मानव उसको आश्चर्य के साथ, अपना मुंह फाड़कर देखता ही रह गया। आगे उसने फिर कुछ भी नहीं कहा। सड़क का किनारा था। इस कारण राह चलते लोगों की दृष्टि उन दोनों की तरफ देख कर पल भर को थम जाती थी। तब मानव ने प्रकृति का बदला हुआ मिजाज़ देखते हुये उससे आगे कुछ भी कहना उचित नहीं समझा। वह मौन खड़ा रहा। सो उसको चुप देख कर प्रकृति ने अपनी अंतिम बात कही। वह फिर उससे व्यंग से बोली,

'मैं चलती हूं। धरती तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही होगी। 'वेस्ट ऑफ ऑल।' ये कहते हुये वह अपनी कटु मुस्कान के साथ अपने कालेज की तरफ आगे बढ़ गई। और मानव उसको जैसे लुटा­लुटा सा जाते हुये देखता रहा। प्रकृति ने उससे तीखी बातें कह कर उसकी सारी कोमल भावनाओं को कुचल डाला था। मानव को उसकी तरफ से इस प्रकार के व्यवहार की बिल्कुल भी आशा नहीं थी। वह निराश हो गया था। बहुत चाहते हुये भी वह प्रकृति से वह सब नहीं कह सकता था जो वह कहना चाहता था। अब तक प्रकृति उसके दिल में जैसे कोई चिंगारी लगा कर चली भी गई थी और वह अभी तक अपने विचारों में जैसे गुम होकर ही रह गया था।

          इस प्रकार से प्रकृति ने जब मानव की बेरूखी देख कर उसकी ओर से अपना मुंह ही नहीं फेरा था, बल्कि अपना सारा रवैया ही बदल लिया तो वह उसके लिये एक अनजान बन गई। अब उसने मानव की ओर देखना भी बंद कर दिया था। मानव के प्रति वह इस प्रकार इतना अधिक उदासीन हो चुकी थी कि, मानो उससे पूर्व वह उसको जानती ही नहीं थी। कोई भी जैसे भूला-बिसरा सम्बंध नहीं रखना चाहती थी। प्रकृति जानती थी कि, वह ये सब मानव को दिखाने के लिये कर रही थी, क्योंकि मानव का धरती की तरफ बढ़ता हुआ रूझान देख कर उसकी भावनाओं को काफी ठेस लग चुकी थी। सचमुच मानव ने अपने इस व्यवहार से उसका दिल बहुत दुखाया था। मानव के प्रति बसी हुई उसकी समस्त उन सारी आस्थाओं पर प्रहार हुआ था, जो उसने मानवीय और परमेश्वरीय दोनों ही तरह से उसके प्रति लगा रखी थीं। इस कारण जैसा मानव ने उसके साथ अपना रूझान किया था, बिल्कुल ठीक वैसा ही व्यवहार वह भी अब करने लगी थी। वह उसकी छाया से ही दूर भागती थी। उसके प्रति अपनी आंखों में अनजान और अलगाव की भावना को जबरन कैद किये रहती, मगर वास्तविक रूप में वह अभी तक मानव को भुला नहीं सकी थी। भीतरी मन में उसके अभी भी अपने मानव के लिये वही पहले वाला प्यार सुरक्षित बसा हुआ था। उसकी वही पहले वाली इच्छायें और तमन्नाएं थीं। वही आस्थायें थीं, जिनकी स्मृतियों को  अपने मन की डोर से बाँध कर वह उनके सपने बुनते हुए रातों में तारों को गिना करती थी। ये और बात थी कि, मानव का धरती की तरफ बढ़ता हुआ रुख देख कर वह उसकी ओर से कुंठित तो अवश्य हुई थी, परन्तु दूरियां बढ़ती देख कर उसके दिल की ये चाहत पहले से और भी अधिक बढ़ चुकी थी। मगर अपने मन के इस छिपे हुये भेद को उसने किसी पर भी नहीं जाहिर होने दिया था। वह अपने मन कीधा धारणायें केवल अपने तक ही सीमित रखे हुये थी। वह जानती थी कि, आखिरकार मानव उसके जीवन के प्रेम का पहला अंकुर था। नई­नई उठती हुई लालसाओं का वह प्रथम टकराव था, जो उसके बचपन के अनजाने कदमों की राहों पर स्वत: ही उत्पन्न हो गया था। वह किस प्रकार इसे भुला सकती थी? केवल समय की पाबंदियों और मार ने उसके जज़बातों को जबरन दबा जरुर रखा था। बहुत चाहते हुये भी वह अब अपने प्यार का प्रदर्शन नहीं कर सकती थी। एक ओर उसके मुकाबले में धरती थी तो दूसरी तरफ उसके मुहल्ले और कम्पाऊंड की प्रश्वसूचक निगाहें? इस कारण चाहते हुये भी वह मानव के प्रति अपनी चाहत अपने प्यार का अफ़साना वह किसी से भी नहीं कह सकती थी।

            इसलिये जब प्रकृति दिन भर की थकी­थकाई कालेज से अपने घर के कमरे के एकान्त में होती, या फिर अपने बिस्तर पर लेटी हुई होती तो मानव उसकी पलकों का द्वार खोल कर चुपके से उसके दिल में आकर उसको परेशान करने लगता। करने लगता तो वह कोई भी हस्तक्षेप नहीं कर पाती। मानव अचानक ही उसके ख्यालों की बरसात लेकर आता और अपने प्यार के तूफ़ान में सराबोर करके उसको फिर से भटका देता। वह उसके विचारों में समा जाता। तब  ऐसे में वह अपने मानव के प्यार की वर्षा में खूब ही भीगती रहती। भीगती रहती- सारी रात तक। बहुत देर तक। यहां तक कि रात भी ढलने लग जाती। आकाश के सितारे भी नीचे सरकते हुये चले जाते। चन्द्रमा भी प्रकृति के प्यार की दीवानगी देख कर, उसको समझाते­समझाते थक जाता। ऐसा था- प्रकृति का प्यार। उसके प्यार की गहराई कि, बेवफाई की चोट लगने के पश्चात भी उसको इसकी तड़प में एक आनन्द की अनुभूति होती थी। दिल के अंदर भरे हुए उसके प्यार की रुसवाइयों के ज़ख्म ही उसकी खुशियों के अंकुर बन गये थे। ये कैसा मानव जीवन का मानव के प्रति प्यार है कि, जहां प्यार का पौधा लगने के पश्चात बेवफाई के बेमुरब्बत कांटे भी उग आते हैं? इंसान को कभी­कभी अपने प्रेम की चालबाज़ मंडी में धोखे और फ़रेब का दामन भी थामना पड़ जाता है। इस बात की सच्चाई से अनजान बनते हुये कि, परमेश्वर का मनुष्य जाति के प्रति प्रेम एक ऐसा अनूठा प्रेम है कि, जिसमें उसने मनुष्य के लिये अपने पवित्र रक्त का बलिदान किया है. मगर फिर भी मनुष्य परमेश्वर की ओर अपने प्रेम के पग बढ़ाने की कोशिश नहीं कर पाता है? बचपन में ईसाई आस्थाओं की सिखाई हुई शिक्षा को याद करके प्रकृति अक्सर ही ऐसा सोचा करती थी. सोचती थी और खुद से ही पूछा भी करती थी कि, मनुष्य सचमुच में क्या उपरोक्त कहा गया प्यार ही करता है अथवा अपनी जी बहलाने के लिए केवल प्रेम का खेल ही खेला करता है? 

         इस बीच मानव ने बहुत चाहा, बहुत प्रयत्न किया कि, वह प्रकृति से बात करे। उसके मन में बसी गलत धारणाओं को वह सदा के लिये दूर कर दे, परन्तु जितने भी अवसर उसको मिले उनको प्रकृति की कठोरता ने एक ही बार में नष्ट कर दिया था। जब भी उसने प्रकृति से बात करनी चाही, तो वह पल भर के लिये भी नहीं रूकी। जब भी मानव ने प्रकृति को मार्ग में रोक कर उससे कुछ कहना चाहा तो वह हर बार बड़ी ही कठोरता के साथ  उसके सामने से चली गई और मानव हर बार अपना मुंह ही ताकता रह गया। प्रकृति का तो जैसे ये दृष्टिकोण बन चुका था कि वह अब मानव की कोई बात सुनना ही नहीं चाहती थी। और यह कुछ हद तक बहुत स्वभाविक भी था. 'प्रकृति' पर बिन मौसम जब उसकी खिलती हुई बहारों पर आकाश से ओलों की बरसात हो जाए तो 'धरती' भी आसमान का साथ देते हुए उसकी बहारों को छीनने में अपनी कोई भी क्सर नहीं छोड़ा करती है.

       फिर ऐसा होते­होते इस प्रकार कई एक दिन बीत गये। समय अपने पंख लगा कर उड़ता रहा। और मानव प्रकृति के चोट खाये हुये दिल को समझाने के प्रयत्नों में स्वंय ही चोटें खाने लगा। साथ में दुखी भी। फिर ऐसा जब लगातार चलने लगा तो फिर उसने बाद में प्रकृति की ओर से अपनी समस्त आशायें भी तोड़ दीं। वह प्रकृति की ओर से पूरी तरह से मौन हो गया। शांत और गम्भीर भी.

                  * * *

 

       समय का चक्र चलता रहा। तारीखें बदलती गईं। दिन लगातार भागते रहे। समय की गति भागते­भागते एक लम्बा अरसा पार कर गई। दिन हफ्तों में, हफ्ते महीनों में और महीने वर्षों में बदल गये। लगभग तीन वर्ष यूं ही देखते­देखते व्यतीत हो गये और प्रकृति तथा मानव का वही पुराना कार्यक्रम चलता रहा। वही बातें थीं। वही दोनों के अरमान थे। वही प्यार था, वही राहें थीं, मगर अब दोनों की राहों के मध्य एक दूसरे के प्रति शिकायतों का सिलसिला अवश्य ही आरंभ हो चुका था। अपने­अपने गिले और शिकवे थे, परन्तु जैसे सब कुछ वक्त की पर्तों के बीच दब कर मौन हो चुका था। इच्छायें उदासीनता का दामन ओढ़ कर निराश पड़ चुकी थीं। मानव ने अपनी स्नातक की परीक्षा पास करके उत्तर प्रदेश राज्य के एक सरकारी कर विभाग में नौकरी प्राप्त कर ली थी और प्रकृति नरायन इण्टर कालेज की सड़क पार करके अब डिग्री कालेज की छात्रा हो गई थी। दोनों अभी भी चर्च कम्पाऊंड में ही रह रहे थे। इतने वर्ष गुज़रने के पश्चात भी दोनों के दिलों में अभी तक वही पहले वाली शिकायतें थीं। वही हसरतें भीं पर उन सारी हसरतों पर अब नाकामी की चादर भी पड़ चुकी थी। दोनों एक दूसरे को देखते थे, फिर जैसे अजनबी बन कर टाल भी जाते थे। आमने­सामने से गुज़रते थे तो फिर सिर झुका कर एक दूसरे को देख कर भी न देखने की उपेक्षा करते थे। मानो, दोनों किसी को जानते ही नहीं थे।             

           इसी बीच धरती भी अपनी बी. ए. की परीक्षा पूर्ण करके फिर से आगरा चली गई। प्रकृति कालेज जा रही थी, परन्तु मानव उसकी कठोरता को देख­देख कर अब परेशान हो चला था। किसी भटके हुये राही के समान वह अपनी मंज़िल को ढूंढ़ रहा था और यह उसकी बिडम्वना ही थी कि, उसके जीवन की मंज़िल उसके सामने ही जैसे अपने ठिकाने बदलती जा रही थी। उसकी आंखों के सामने ही उसका प्यार लुट रहा था और वह चाहते हुये भी कुछ नहीं कर पा रहा था। प्रकृति का रवैया उसके प्रति इस कदर कठोर और कड़ा हो गया था कि, उसने मानव की सारी कोमल भावनाओं की अब परवा भी करना छोड़ दिया था। जब कभी उन दोनों का आमना­सामना हो भी जाता था तो प्रकृति मानव की तरफ एक व्यंग भरी मुस्कान को बिखेरते हुये चुपचाप निकल जाती थी। वह मानव के सामने ही अन्य लोगों से तो खूब ही खिल­खिलाकर बात किया करती थी, परन्तु मानव की ओर चाहते हुये भी न देखने का बहाना करने लगती थी। मानव उसका ऐसा व्यवहार देखता था तो अपना दिल मसोस कर ही रह जाता था। उसका दिल टूट कर ही रह जाता था। वह सोचता था- 'ओफ इतनी नफरत?  ऐसा अलगाव? ऐसा कौन सा पाप वह कर बैठा है कि, जिसके कारण उसको ऐसी सजा प्रकृति के घोर अलगाव की मिल रही है। उसकी तो ऐसी वह  दशा हो चुकी थी कि अब न तो प्रकृति का आंचल ही उसके लिये सुरक्षित बचा था और ना ही धरती पर उसके लिये कोई शरणस्थान ही बाकी बचा था। समय और परिस्थितियों का शिकार बन कर उसने अपना वास्तविक ठिकाना भी खो दिया था। प्रकृति की बेरूखी उससे सहन नहीं हो पा रही थी और एक वह थी कि, जिस पर अब कोई भी प्रभाव मानव का हो नहीं पा रहा था। वह बिल्कुल वैसी ही थी। अलग­थलग-सी, जैसे अपने अतिरिक्त उसे अन्य किसी से कोई सरोकार रहा भी नहीं था। प्यार का चलन है कि, स्त्री जब किसी को दिल से चाहती है तो उस पर समर्पित अपना सब कुछ लुटा देती है, मगर जब नफरत, नाराजगी और खिसियाट की ज्वाला उसे जीने नहीं देती है तो वह अपनी इस आग में सब कुछ बर्बाद भी कर देती है.

            मगर प्रकृति का जो भी रवैया अब इस समय मानव के लिये था, वह मात्र उसे उस बात की सजा देने के लिये ही था जिसमें मानव ने धरती का हाथ पकड़कर उसे रह-रहकर रुलाया था. अपनी तरफ से प्रकृति ऐसा ही कुछ सोचा करती थी। वह शायद मानव को ये बता देना चाहती थी कि, उसने भी उसका कभी दिल बहुत दुखाया था। वह भी उसके वियोग में कभी खूब रोई थी। उसने भी कभी अपनी रातें सितारों से बात करके व्यतीत की थीं। वह भी अब ये समझ ले कि प्यार का दर्द किस कदर असहनीय होता है। सो इन बातों के पश्चात भी, अपने दिल में मानव के प्रति प्यार के सैकड़ों चिराग जलाते हुए, प्रकृति जब भी दिन भर के पश्चात रात को अपने बिस्तर पर होती थी तो मानव का ख्याल स्वत: ही उसके दिल में आ जाता था। आ जाता,  तो वह एक बार फिर से विचलित होने लगती थी। तब फिर एक ओर से वह सारी बातें सोचना आरंभ कर देती। ना चाहते हुये भी वह मानव का प्रतिबिम्ब अपनी आंखों में बनाने लगती। फिर ऐसा वह करती भी क्यों नहीं? आखिर मानव उसका अपना प्यार था। उसके दिल की हसरतों का पहला­पहला टकराव था। जीवन का प्यार भरा सबसे प्रथम स्पर्श-  कैसे वह भूल सकती थी ये सब?  मनुष्य अपने जीवन में सदैव ही अपने पहले-पहले प्रेम के स्पर्शों की स्मृतियों को सदैव ताजा रखता है। ये स्वभाविक ही है। इस प्रकार मानव भी प्रकृति का पहला प्यार था। उसके जीवन का पहला सपना। उसके प्रेम की अनुभूति की पहली पुकार थी वह। वक्त ने चाहे उनके बीच तत्कालीन दूरियां बना दी थीं, फिर भी उनके प्यार के तकाजे, अभी भी वही थे। उनके दिलों में अभी तक वही पिछले प्यार के वायदों की यादें थीं। आपस की खाई हुई कसमों के बीच झलकते हुये आंसू थे। अभी भी दिलों में वही दर्द था। मगर प्रकृति करती भी क्या? जहां वह अपने मानव को दुख में डूबा नहीं देख सकती थी, वहीं वह उसे दूसरों की बाहों में किस प्रकार देख कर सहन कर सकती थी। उसने अपनी आंखों से मानव को धरती में रूचि लेते हुये देखा है। उससे घंटों बातें करते हुये वह देख चुकी है। दोनों को, एक-दूसरे का हाथ थामें हुए घंटों डूबती हुई शाम में, सड़कों पर घूमते-टहलते हुए देख चुकी है वह? वह किस प्रकार अपने दिल को तसल्ली दे ले ? कैसे खुद को समझाये? मानव ने धरती के सौंदर्य के समक्ष प्रकृति की बहारों को जैसे लताड़ दिया था।

          कभी प्रकृति सोचा करती कि, वह खुद ही मानव से मिल ले। फिर से वह उससे बातें करे। उसको वह क्षमा कर दे। ना मालूम कि मानव उससे क्या कहना चाहता है?  क्या कहेगा वह उससे?  उसके स्वभाव से तो लगता है कि वह आज भी अपनी प्रकृति को उतना ही प्यार करता है, जितना कि पहले करता था। कहीं ऐसा तो नहीं है कि, वह स्वंय ही भूल में हो? उसने शायद व्यर्थ में ही मानव पर संदेह कर लिया है। मानव ने क्या पता धरती से क्या बातें की हैं? केवल बातें करने भर से ही तो वह सब नहीं हो जाता है जैसा कि वह सोच बैठी है।  औपचारिकता तो सब ही निभाते हैं। यदि धरती से मानव प्यार करता होता तो आज भी वह क्यों अपनी प्रकृति के लिये परेशान रहता है? क्यों उतना ही अधिक प्यार उसकी आंखों में दिखाई देता है, जितना कि पहले कभी था?। बल्कि अब तो उसकी दीवानगी पहले से कहीं अधिक ही बढ़ी हुई दिखाई देती है।

          इस प्रकार प्रकृति ऊपरी मन और व्यवहारिक तौर पर मानव से अरूचि ज़ाहिर करती थी, जब कि  वास्तव में वह उसकी समीपता पाने के लिये दिल ही दिल में तड़पती रहती थी। रात के एकान्त में भी वह मानव के लिये ही सोचा करती थी। लेकिन इसका कारण क्या था? शायद प्रकृति भी इसके वास्तविक तथ्य को नहीं समझ सकी थी। ये उसके मानवीय अभिलाषाओं के तहत पनपता हुआ प्यार ही था। दिल की खामोश अनुभूतियों के खामोश इशारों का दर्द- कालेज जीवन की अनजान राहों में जन्मा हुआ उसके प्यार का अंकुर। शायद एक दीवानगी। शायद इसी कारण सच्चा और पवित्र प्रेम कभी भी नहीं मरता है। मर कर भी वह अमर हो जाया करता है।

          मानव प्रकृति की रूसवाइयां देख­देख कर बेहद ही परेशान हो चुका था। वह प्रकृति से मिलना चाहता था। उससे ढेरों-ढेर बातें करके वह अपना जी हल्का कर लेना चाहता था और प्रकृति के मन में उसके प्रति ठहरी हुई तमाम भ्रांतियां भी दूर कर देना चाहता था। इसके लिये उसने कई एक बार प्रकृति के पास अपना संदेश भी भिजवाया, परन्तु कठोर दिल की प्रकृति ने कभी भी उसकी बात नहीं मानी। उसने हर बार मानव के संदेश को फाड़ कर बगैर पढ़े ही वापस कर दिया। तब प्रकृति के इस प्रकार के व्यवहार को देख कर मानव का दिल और भी टूट गया। वह परेशान ही नहीं हुआ, बल्कि प्रकृति की तरफ से उसकी रही­बची आशायें भी जाती रहीं। वह टूट गया। हर समय वह उदास और चुप रहने लगा। लोगों से अधिक बात करना ही वह भूल गया। प्रकृति दूर से ही जब कभी मानव की इस तड़प-से भरी दशा को निहार लेती तो वह स्वंय भी तड़प जाती थी। मानव के चेहरे का सूनापन देखते ही स्वंय उसकी भी आंखें नम हो जाती थीं। मगर फिर भी उसने कई बार चाहते हुये भी मानव से मिलने का प्रयत्न नहीं किया। जब भी उसने ऐसा सोचा तो हर बार वह मानव और धरती के उस दृश्य को नहीं भूल सकी जब की वह उसके संग घूमा करता था। वह और भी कठोरता की स्थिति में बनी रही। मानव के सच्चे प्रेम को उसने कभी भी गहराई से देखने की कोशिश नहीं की। मानव ने प्रकृति के द्वारा अपने प्रति जब इस रूखेपन को महसूस किया तो वह और भी अधिक टूट तो गया ही, साथ में निराश भी हो गया। उसका दिल दुखने लगा। वह अपने में ही निराश और उखड़ा­उखड़ा रहने लगा। मगर फिर भी उसके दिल में अपनी प्रकृति के लिये कभी भी उसकी रूसवाई और अलगाव की स्थिति देख कर मन में ग्लानि की उत्पत्ति नहीं हो सकी। उसने कभी भी प्रकृति से अपने मुख से कटु शब्द भी नहीं कहे थे और चुपचाप अपने आप को आई हुई परिस्थितियों के हवाले करके प्रकृति की खुशियों के लिये जीना सीख लिया। स्वंय को अपने ही हाल पर छोड़ दिया।

           इस बीच मानव जब कई एक बार कालेज में प्रकृति से मिलने गया तो सदा की भांति उसका मित्र आकाश भी उसके साथ ही था। मगर प्रकृति के मन में बसे हुये मानव के प्रति चोट खाये हुये यादों के प्रतिबिम्ब के कारण प्रकृति चाह कर भी मानव में कोई आकर्षण नहीं दिखा सकी। बजाय इसके कि, वह मानव से बात करती, वह आकाश से ही बातें करती रही। इतना ही नहीं वह मानव को जलाने की खातिर मानव के सामने ही आकाश से मिला करती और उससे खूब हंस­हंस कर बातें किया करती। तब मानव जब भी प्रकृति के इस बदले हुये व्यवहार को देखता तो उसके दिल की सारी अभिलाषाओं पर तुरन्त ही जैसे आग के गोले फूटने लगते। उसकी आंखों के सामने ही उसके दिल की लालसाओं की मज़ार पर प्रकृति अपने नये प्यार के पुष्प उगाने लगती। वह कैसे सहन कर सकता था।  फलस्वरूप मानव ने प्रकृति से कालेज में मिलने की अपनी इच्छा को भी कफ़न ओढ़ा कर सदा के लिये सुला दिया। वह फिर कभी भी प्रकृति से कालेज में मिलने नहीं गया। वह प्रकृति के इस बदले हुये रवैये को देख-देख कर बिल्कुल ही उदास तो क्या निराश ही हो गया।

            समय बराबर कलाबाजियां लेता हुआ अपनी गति से बराबर भाग रहा था। रोजाना सूर्य निकलता और नये दिन का चिराग जला कर सारी मानव जाति को अपने उस प्रकाश के बारे में अवगत करा देता जिसका उदगम परमेश्वर के हाथों हुआ था। इस तरह से फिर सूर्य का गोला दिन भर चन्द्रमा के पीछे भागता­भागता थक हार कर चूर होकर लाल होते हुये क्षितिज के एक कोने में अपना मुंह छिपा लेता। यही विधाता का नियम था, जो सदियों से लगातार यूं ही चलता आ रहा था। ऐसा ही कुछ नियम ‘मानव’ और ‘प्रकृति’ का भी था. मानव भी हर नये दिन के प्रकाश में प्रकृति से मिलने और उससे बातें करने की कोई योजना को तैयार करता, परन्तु संध्या को वह भी निराश और निढाल होकर अपने घर के घुटते हुये कमरे की खामोशियों में कैद हो जाता। इस सच्चाई से पूर्णत: अनभिज्ञ होते हुये कि, ईश्वर की प्रकृति का जो नियम है वह कभी भी टूटता नहीं है, मगर मनुष्य एक ऐसा जीव है जो अपने मार्ग खुद बनाता है, उन पर चलता है और फिर अपने पथ से विचलित होकर अपने ही बनाये हुये नियमों को बड़ी निर्दयता से तोड़ भी देता है।

            प्रेम के बंधन में बंध जाना और बात है, तथा प्रेम करना और बात। प्रेम के गीत गाने की कला अलग है, और प्रेम के गीत सुनने की अलग। मनुष्य यदि इस यथार्थ को समझने लगे कि, प्रेम केवल दूसरों के भले के लिये ही किया जाता है, ना कि अपने स्वार्थ के लिये तो शायद वह कभी भी इस क्षेत्र में असफलता, निराशा, हताशपन और टूटन जैसी परिस्थितियों का सामना करने की स्थिति में नहीं आ सकेगा। बाइबल कहती है कि, प्रेम इसमें नहीं है कि, मनुष्य ने ईश्वर से प्रेम किया है, बल्कि प्रेम इसमें है कि, ईश्वर ने सारी मानव जाति से प्रेम किया है। इसी प्रेम की खातिर उसने दुख उठाया, मृत्यु सही और अपने पवित्र रक्त का बलिदान भी किया। अब यदि मनुष्य परमेश्वर के इस महान प्रेम का कोई मूल्य न समझे तो इसे उसकी मूर्खता नहीं बल्कि स्वार्थता ही कही जायेगी।

           'मानव' ! मानव एक मनुष्य है। 'प्रकृति' ! प्रकृति मानव की आवश्यकताओं को पूरा करने वाली परमेश्वर की एक ऐसी निधि है जो मनुष्य को विरासत में मिली है। 'आकाश' या आसमान को परमेश्वर ने मनुष्य की छत के रूप में ताना हुआ है, ताकि प्रकृति का कोई प्रकोप हो तो वह उससे अपनी किसी भी हानि की रक्षा कर सके। 'धरती' या पृथ्वी मानव को अपना आश्रय देने वाली धरती। 'तारा' आकाश में टिमटिमाते हुये किसी तारे के समान ही, अपनी हल्की रोशनी की प्रतीक- तारा. मगर आवश्यकता पड़ने पर मानव को राह दिखाने वाली भी। 'वर्षा', मानव, प्रकृति तथा धरती के आंसुओं को धोने वाली वर्षा। 'क्लाईमेट'-  मानव और प्रकृति के मध्य बना हुआ एक ऐसा वातावरण,  जिसने अपने दूषित माहौल से किसी को भी एक नहीं होने दिया।

           उपरोक्त विधाता के बनाये हुये नियमों के समान ही कुछ ऐसी ही परिस्थितियां इस कहानी में काम करने वाले कलाकारों की भी हैं। ऐसा ही वातावरण जो सृष्टि के आरंभ से ही मानव जाति के मध्य स्थिर किया हुआ है, मनुष्य अपने जीवन में कभी­कभी स्वंय भी बना लेता है। ऐसा ही माहौल इस कहानी में भी बन चुका था।

           'प्रकृति' ने 'मानव' का साथ छोड़ कर 'आकाश' की ओर ताकना आरंभ कर दिया था। अब वह मानव की ओर नीचे न देख कर ऊपर आकाश की तरफ नज़रें बिछाया करती थी। मगर ये कोई नहीं जानता था कि आकाश की ओर देखने से उसका कौन सा उद्देश्य पूरा होता था। इस बात को मानव भी नहीं समझ सका था। प्रकृति के बदले हुये समस्त व्यवहार को देख कर मानव ने अपनी ओर से कोई भी विरोध नहीं किया। उसने खुद को भाग्य के हवाले कर दिया। प्रकृति पर भी वह कोई दोष नहीं लगा सका। वह केवल चुप ही बना रहा। प्रकृति उसके जीवन में आई, उसने अपने प्यार का दीप जलाया, अब उसके जलाये हुये इस प्यार के दीप की रश्मियां मानव के जीवन में कब तक सुरक्षित रहती हैं, ये एक अलग बात थी। परन्तु प्रकृति-  उसको आकाश की बाहों का सहारा मिला तो वह मानव के प्रति बिल्कुल ही उदासीन हो गई। उसने मानव की ओर देखना भी बंद कर दिया। उसके साथ के उन सारे रिश्ते-नाते और कसमों को भी भूल गई, जिसकी शुरूआत कभी खुद उसने ही की थी। तब मानव ने अपने इस प्यार की हारी हुई बाज़ी का सारा दोष अपने ही ऊपर ले लिया। स्वंय को दोषी मान कर वह फिर भी प्रकृति को निर्दोष कहता रहा। फिर कहता भी क्यों नहीं? परिस्थितियों के वश वह खुद एक ऐसे मोड़ पर आ चुका था कि, जहां पर आकर वह अपने निर्दोष होने का कोई भी सबूत जमा नहीं कर सकता था। उसकी ज़िंदगी के बनाये हुये सारे कार्यक्रम उसके बिगड़े हुये हालातों से समझौता करके अब उसके ही ऊपर हॉवी हो चुके थे।

                                     * * *

                समय के बढ़ते हुये चक्रों के बीच परीक्षाओं के दिन समाप्त होकर कॉलेज बंद हो गये। नरायन कॉलेज के समस्त दरवाजे ग्रीष्मकालीन छुट्टियों के प्रभाव के कारण अब बंद हो चुके थे। विद्द्यार्थियों में केवल अब परिणाम घोषित हो जाने भर की ही एक जिज्ञासा और चिंता व्याप्त रह गई थी।

                फिर जब अचानक से परीक्षाओं का परिणाम घोषित हुआ तो प्रकृति के साथ­साथ तारा और मानव भी पास हो गये। मगर उसके साथ पढ़ने वाला आकाश फेल हो गया। मानव ने स्नातक की परीक्षा पास करके अपने परिवार की आर्थिक स्थिति को देखते हुये नौकरी की तलाश की तो उसको ऊत्तर-प्रदेश के कर विभाग में एक लिपिक की नौकरी प्राप्त हो गई। तब इस प्रकार अपने प्यार का मारा मानव अपने दिल पर सैकड़ों पहाड़ों का बोझ उठाये मन मार कर शिकोहाबाद छोड़ कर दूसरे शहर में चला गया। उधर, दूसरी तरफ प्रकृति भी अपनी इंटर की कक्षा पास करके डिग्री कॉलेज में पहुंच गई और इस प्रकार मानव प्रकृति के बेवफ़ा प्यार का ग़म अपने सीने में दबाये शिकोहाबाद से चला तो गया, मगर फिर भी वहां की एक­एक याद को वह भुला नहीं सका। फिर भुला भी कैसे पाता? शिकोहाबाद में उसका अपना घर था। सारा बचपन बीता था, उसका यहां। इसी स्थान पर तो उसके दिल के सारे अरमानों ने अपनी हसरतों को जमा करके कभी अपने प्रथम प्रेम के पौधे को रोपा था। कैसे भूल सकता था? वह ये सब। सब कुछ तो उसका यहीं पर था। ये और बात थी कि समय की नाजुक परिस्थितियों की आग ने उसके प्यार को जलाना आरंभ कर दिया था। यहां वह छला नहीं गया था। किसी ने उसका कुछ छीना भी नहीं था। सब कुछ उसका अपना था, मगर ये उसकी विडंबना ही थी कि आज वह अपना अधिकार, अपना प्यार तथा अपनी वस्तु मांगने के लिये एक शब्द भी नहीं कह सकता था। जब कभी उसे अवकाश मिलता या उसका मन नहीं मानता तो वह फिर भी कभी­कभार शिकोहाबाद आ कर एक झलक अवश्य देख लेता था। प्रकृति के प्रति उसने अपनी सारी जमा की हुई लालसाओं की अर्थी धुंआ­धुंआ करके जला दी थी। उसकी तमन्नाओं ने अपना दम तोड़ दिया था। अपने प्यार का गला वह स्वंय ही दबाने का प्रयत्न कर रहा था- दुख-दर्द तो होना ही था।

       जुलाई में फिर से कॉलेज खुले तो प्रकृति डिग्री कॉलेज की छात्रा बनने की प्रसन्नता में किसी तितली के समान मुस्कराने लगी। उधर, धरती भी फिर से कॉलेज खुलने के कारण शिकोहाबाद आ गई और वहीं चर्च कम्पाऊंड में आकर रहने लगी। प्रकृति को ये जान कर आश्चर्य तो हुआ कि इस बार धरती शिकोहाबाद में स्थाई रूप से रहने को आई थी, मगर फिर भी वह उसकी उपस्थिति पर अपनी कोई भी चिन्ता व्यक्त नहीं कर सकी। चिन्ता न व्यक्त करने का मुख्य कारण एक प्रकार से मानव ही था, जो एक तो अब यहां पर था ही नहीं. और यदि होता भी तो अब उसका उससे वैसा सम्बंध भी तो नहीं रहा था, जैसा कि पहले कभी रहा था. अब केवल मानव की यादों की कुछेक वह पर्तें ही उसके मानसपटल की धुंधली स्मृतियों के कबाड़ में छितरी और बिखरी पड़ी थीं, जिन्हें प्रकृति ने कभी भी न समेटने की जैसे कोई कसम ले रखी थी।

         इस प्रकार से मानव की अनुपस्थिति और कॉलेज की पढ़ाई की व्यस्तता में दिन बीतते­बीतते पूरे तीन वर्ष व्यतीत हो गये। जीवन-पथ की इस सफ़र की बेला में एक ओर 'प्रकृति' को 'आकाश' से बरसती शबनम का प्रेम मिलता था तो दूसरी ओर 'मानव' को ग़म­ए­आशिकी के सदमें। ये जीवन का कटु सत्य है कि समय की बढ़ोतरी किसी भी स्मृति या दर्द को भूलने के लिये काफी सहायक होती है। फिर यहां तो तीन वर्ष बीत चुके थे। इन तीन वषों का अरसा किसी को भी भुलाने के लिये बहुत काफ़ी होता है। यही बात प्रकृति के साथ भी हुई। हांलाकि वह मानव को अपने दिल से निकाल तो नहीं सकी थी, मगर अब उसके बारे में सोचती भी नहीं थी। न सोचने का सबसे बड़ा कारण 'आकाश' का उसके जीवन में कदम रखना ही था। आकाश भी उसके साथ ही पढ़ रहा था। एक ही कक्षा और एक ही कॉलेज में। दोनों रोज़ ही एक साथ मिलते थे। घूमते थे। बातें करते थे और जब भी समय मिलता था तो एक साथ ही किसी रेस्तरां में बैठ कर चाय की चुस्कियां भी ले लेते थे।

         लेकिन जब कभी प्रकृति अपने एकान्त में होती तो उसके बहुत न चाहते हुये भी, उसके मन-मस्तिष्क की धूमिल परतों को कुरेदकर मानव उसके ख्यालों का पट खोलकर उसके दिल में आ जाता था। आ जाता था तो उसके काफी न चाहने पर भी, वह ये विश्वास कभी भी नहीं कर पाती थी कि, मानव उसको यूँ सहज भूल भी सकता है? वह उसके साथ बेवफाई भी कर सकता है? वह उसके बिना एक पल को रह भी सकता है? वह जानती थी कि, मानव उसको अपने सारे मन और आत्मा की गहराइयों से उसको प्यार ही नहीं वरन एक प्रकार से उसकी पूजा करता है। एक बार को वह उसे छोड़ सकती है, मगर वह उसे कभी भी नहीं छोड़ सकेगा। वह तो उसके लिये कुछ भी करने को तैयार हो जायेगा। वह तो हर समय केवल उसके लिये ही सोचा करता है। सोचता रहता है, चाहे दिन हो अथवा रात। बारिश हो अहृावा ह्याूप। सर्दी हो या गर्मी। हरेक मौसम में उसने प्रकृति की बहारों की ही कल्पना की है। जब तक वह यहां चर्च कम्पाऊंड के कैम्पस में रहा है,  उसने सदा ही उसको उसके दरवाजे की तरफ टकटकी लगाये हुये ही देखा था। प्रकृति का दिल ये बात अच्छी तरह से जानता था कि, मानव वास्तव में उसको बेहद प्यार तो करता है, मगर वह कभी भी अपने प्यार का प्रदर्शन नहीं कर सका है। इसकदर वह उसको प्यार करता है कि, जिसकी कोई सीमा भी नहीं है। कोई हिसाब भी नहीं है। और एक वह ऐसी है कि जो उसके इस अथाह प्रेम की कद्र भी नहीं कर सकी है। उसने उसकी एक छोटी सी भूल की उसको वह सज़ा दी है कि, जिसके कारण उसका जीवन तो सूना हुआ ही है, साथ ही वह शिकोहाबाद भी छोड़ कर चला गया है। उसने तो उसकी इस भूल को इतना अधिक महत्व दिया है कि, उसको धोखेबाज़, फ़रेबी, बेवफ़ा न जाने क्या­क्या कह चुकी है। न मालुम  मानव अपने स्थान पर बिल्कुल ही खरा हो और वही भूल में रही हो?  कितना दुखी और अपना टूटा दिल लेकर वह यहां से गया होगा? चला गया है- वह भी पता नहीं, न जाने कहां पर? प्रकृति जब कभी भी ऐसा सोचती थी, तो उसका दिल स्वत: ही दुखने लगता था। बहुत ही अधिक उदास हो जाती थी वह, अक्सर यही सोच-सोचकर। अपने मानव के दुख के कारण उसका भी मन जैसे भीग-भीग जाता था।

        मानव से अपने प्रेम की डोर काट कर वह आकाश की छतरी में आ गई थी। वह ये भी जानती थी कि आकाश उसका पहले भी दीवाना था और आज भी वह उसको चाहता है या नहीं? इस बारे में वह कुछ भी नहीं कह सकती है। प्रकृति जब कभी भी ऐसा सोचती थी तो वह हर बार अपने आप को एक मंझधार में फंसा हुआ महसूस करने लगती थी। अपने प्यार की दो राहों पर खड़ी हुई तब कोई भी निर्णय वह नहीं ले पाती थी। एक ओर उसके मानव के सच्चे प्यार और उसके तन्हा जीवन का प्रश्न अपना तकाज़ा लिये खड़ा था तो दूसरी तरफ आकाश की बाहें उसको अपने सीने में समेटने के लिये आवाज़ देती थीं। वह किधर जाती? क्या करती? दो किश्ती में पैर रखने से पहले उसने कम से कम सोच तो लिया होता कि, जब भी वह अपने जीवन की नाव का किनारा पाने की लालसा से किसी भी एक को नकारेगी तो दूसरी नैया को सूने पथ पर छोड़ कर किस मुंह से उसका सामना कर सकेगी? जब भी मानव के प्यार को ठोकर मार कर वह आकाश की बनेगी तो वह मानव को क्या उत्तर देगी? वह अपने प्यार का तकाज़ा करेगा तो वह उसे क्या हिसाब देगी? उसके उजड़े हुये दिल को बहलाने के लिये वह कहां से बहारों की भीख मांगती फिरेगी? प्रकृति ऐसा सोचती तो उसका दिल एक असमंजस में फंस कर ही रह जाता था। वह परेशान हो जाती थी। परेशान हो जाती थी, ये सोच कर कि जब मानव यहां चर्च कम्पाऊंड में था तो वह कम से कम उसकी आंखों के सामने तो था, परन्तु अब तो वह न जाने कहां चला गया है?  न जाने किधर? किस शहर में?

            फिर एक बार प्रकृति चर्च कम्पााऊंड की बाहरी दीवार से अपना मुंह टिकाये हुये दूर ईंट के भट्टे की चिमनियों को ताक रही थी। चिमनियों से निकलता हुआ कोयले का धुआं उसके जलते हुये दिल के दर्द की मानो गवाही दे रहा था। उसके सामने ही दूर­दूर तक प्रकृति की भरपूर छटा में हरे­भरे खेतों का सौन्दर्य था। इस प्रकार कि, हल्की हवाओं के एक झोंके के प्रभाव ही से खेतों में लगे हुये सारे पौधे नीचे झुक कर धरती के आंचल को चूम लेते थे। उसकी आंखों के सामने परमेश्वर की दी हुई निधि की प्रकृतिक सुन्दरता थी- ‘प्रकृति’ और उसके नज़ारे थे और एक वह स्वंय प्रकृति थी, परन्तु दोनों के दिलों की गहराइयों में ज़मीन और आसमान जैसा अंतर था। ईश्वर की निधि के रूप में खेतों की 'प्रकृति',  'आकाश'  और वातावरण की हवाओं के सहारे झूम­झूम कर नीचे 'धरती' को प्यार कर रही थी तो दीवार के सहारे अपना मुंह टिकाये चुपचाप खड़ी हुई प्रकृति, धरती और आकाश तथा   'क्लाइमेट'  के बनाये हुये दुर्लभ वातावरण के कारण अपने मानव के प्यार के ग़म में अपनी बिगड़ी हुई किस्मत की लकीरों को पढ़ने का एक असफल प्रयास कर रही थी। कितना विलोम संयोग था- दोनों ही की राहों में- दोनों के विचारों में और दोनों के जीवनों में भी। एक खुशियों में नाच रही थी तो दूसरी अपने टूटे हुये प्यार की बिखरी हुई कड़ियों को देख­देख कर सिसकती थी।

'प्रकृति।'

'?'- अचानक ही प्रकृति के कानों से कोई जाना­पहिचाना स्वर टकराया तो उसके सोचते हुये विचारों का सिलसिला सहसा ही टूट गया। तुरन्त ही उसने पीछे घूमकर देखा तो धरती उसकी तरफ देखकर मुस्करा रही थी। प्रकृति समझ गई कि धरती ही ने उसे पुकारा था। तब प्रत्योत्तर में प्रकृति न चाहते हुये भी मुस्कराई। उसने तब एक भेदभरी नज़र से धरती को देखा तो धरती बोली,

'क्या कर रही हो यहां अकेले खड़ी­खड़ी?

' ऐसे ही खड़ी थी। अच्छा नहीं लग रहा था.'  प्रकृति ने एक छोटा सा उत्तर दिया तो धरती ने उसे पहिले तो संशय की दृष्टि से निहारा, फिर थोड़ा जैसे कुछ सोचकर वह उससे बोली कि,

'दिल बहलाने वाला मानव कहां है तुम्हारा?'

'मेरा नहीं, तुम्हारा।'  प्रकृति को जब अवसर मिला तो फिर उसने खेद भरे स्वर से कह ही दिया. तब तो धरती को  भी लगा कि उसको अचानक ही किसी लाल चींटी ने काट खाया है. वह उससे छूटते ही अपने चिढ़ते स्वर में बोली,

'मेरा होता तो वह मुझे छोड़कर कभी भी नहीं जाता।'

'और मेरा होता तो वह तुम्हारे पास भी नहीं भटकता।'

'शायद तुमने उसे समझा ही नहीं?'

'धरती . . .?'  प्रकृति कहते­कहते अचानक ही रूक गई तो धरती ने उससे आगे कहा कि,

'ठीक कह रही हूं मैं। मानव के मन में आज भी तुम्हारा ही चित्र बना हुआ है। वह आज भी तुम्हारे ही ख्यालों में गुमसुम रहता है। ये ठीक है कि, वह मुझसे हंस­खुलकर बातें किया करता था। पर इसका मतलब यह नहीं है कि,  वह मेरा ही हो गया था? मुझे ही प्यार करने लगा है? और फिर, मैंने उसको कभी भी एक मित्र के अलावा दूसरी किसी भी नज़र से नहीं देखा है।'  कहते हुये धरती गंभीर हो गई। फिर कुछ पलों की देर के लिये चुप होकर उसने बात को आगे बढ़ाया। वह बोली कि,

'प्रकृति ! यह ठीक है कि मानव मुझे अच्छा लगता है। मैं भी उसे पसंद करने लगी थी और आज भी वह मुझे बेहद अच्छा लगता है लेकिन वह बहुत ही अधिक सोचने वाला व्यक्ति है। तुम तो जानती हो कि, प्यार के सिलसिले तभी आगे बढ़ते हैं जब कि दोनों ही एक विचारों के हों। ज़रा सोचो कि, जब उसके मन और विचारों में केवल तुम्हारे ही जज़बात हों, वह केवल तुम्हारे ही बारे में सोचता हो, तो ऐसी दशा में, मैं किस अधिकार से उसके प्यार के सौदे में इतनी बड़ी बे­ईमानी कर सकती हूँ?'

'नहीं !' कह दो कि तुमने झूठ कहा है? उसने मुझे बहुत सताया है?'  प्रकृति धरती की बात सुनकर तड़प गई। रुआंसी-सी हो गई. धरती की बात पर उसकी आँखें भर आईं थीं.  

'ये सच है। मेरी बात पर विश्वास करो.'  धरती ने जब ज़ोर देकर कहा तो प्रकृति जैसे बिफ़र गई। वह और भी पहले से अधिक परेशान और तड़पते हुये बोली,

'धरती, मत कहो आगे। मत कहो ऐसे। मुझमें सुनने का साहस नहीं है?'

'सुन लेना ही तुम्हारे लिए बेहतर है. तुमने अपने अंदर मेरे प्रति अविश्वास की दीवार खड़ी करके, मानव को हमेशा ही शक के दायरे में रखा है. आखिर, वह 'प्रकृति' के साए में रहते हुए कैसे 'धरती' से दूर रह सकता है? 'धरती' की बाहें 'प्रकृति' की हवाओं के सहारे ज़रा-सा झुक कर 'धरती' को छू क्या लेती हैं, तुमने तो बखेड़ा ही खड़ा करके रख दिया है? इतना अधिक कि, तुम्हारे इस रवैये ने तो उसे बिल्कुल ही तोड़कर रख दिया है। बहुत ही निराश कर डाला है उसे। जलाकर ख़ाक कर दिया है तुमने उसे? जानती हो कि, कितना अधिक निराश और दिशाहीन होकर वह  यहां से गया है?'

'?'- प्रकृति को लगा कि जैसे किसी ने उसके मुख पर झन्नाटेदार तमाचे जड़ दिए हों. क्षण भर में उसके दिल में सैकड़ों प्रश्न आये और तुरंत चले भी गये.

       धरती की बातों को सुनकर प्रकृति क्षण भर को सोचती ही रह गई। वह कुछ भी नहीं कह सकी तो धरती ने आगे फिर कहा कि,

'अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। सब कुछ वैसा ही है। वही 'मानव' है। वही 'प्रकृति' है। यदि बीच में कोई आ भी गया था तो वह केवल 'धरती’ ही थी। फिर 'धरती' का तो काम ही है, दूसरों का बोझ अपने शरीर पर सहते रहना। अभी भी समय है। जाकर समझा लो अपने उस 'मानव' को जिसका रूप परमेश्वर ने अपने ही स्वरूप में बनाया है। यदि तुमने ऐसा नहीं किया तो सारी ज़िन्दगी बैठकर रोओगी, आंसू बहाओगी, पछताओगी। मैं यही सब कुछ तुम्हें समझाने आई आई थी. जाती हूँ मैं अब.'

                यह कह कर धरती चली गई तो प्रकृति के विचारों में फिर एक बार अपने उस मानव के ख्यालों का तांता आकर टकराने लगा, जिसके बारे में उसने कभी सदा के लिए बात ही करना बंद कर दी थी।

                                                        

 

                और इस प्रकार धरती की बातों को सुनकर प्रकृति के दिल से मानव के प्रति बसी हुई सारी गलत धारणायें इस प्रकार से साफ हो गईं जैसे कि आकाश के बदन से टपकती हुई शबनम की बूंदें वनस्पति की कोमल पत्तियों का मुख चूम­चूमकर साफ कर देती हैं। स्वत: ही उसके दिल में ठहरी हुई मानव के प्रति गलतफहमी और अलगाव की स्थिति बदल कर प्यार के उफ़ानों में परिणित हो गई। उसके दिल में पिछले चार वर्ष वाला रूठा हुआ प्यार का पौधा फिर से पनपने को लालायित होने लगा। दिल के किसी छुपे हुये सुरक्षित स्थान में अपने आप ही मानव की प्यारी सी तस्वीर बन गई। उसकी इतने अरसे से सूनी आंखों में किसी की प्रतीक्षा की घड़ियां टिक­टिक करने लगीं। वह मानव का सामीप्य पाने के लिये फिर एक बार तड़पने लगी। ये जीवन की वास्तविकता है कि, प्यार की चिंगारी को यदि भड़का दिया जाये तो वह शोलों के समान अतिशीघ्र ही दहकने लगती है। यही हाल प्रकृति के साथ भी हुआ। इतने दिनों की इंतज़ारी के पश्चात उसके दिल में मानव के प्रति जो दर्द समाया हुआ था, वह समय की नाजुकता पाकर अपने आप ही बढ़ने लगा। वह मानव के लिये परेशान होने लगी। बैचेन हो गई वह। दिन­रात उसकी आंखें अपने खोये हुये मानव का प्यार तलाशने लगीं। उसके दिल ने फिर एक बार अपने मानव की तस्वीर बनाई तो आकाश का जैसे जबरन ठहरा हुआ अक्श स्वत: ही धूमिल पड़ने लगा। वह मानव को रह­रहकर याद करने लगी। पिछले अतीत के प्यार का दर्द उसके दुखते हुये ज़ख्मों की वास्तविक चाहतें बनकर उसके रूठे हुये प्यार की पगडंडी का मार्गदर्शन करने लगा। मानव उसको याद आता तो वह उसकी एक­एक बात को कहीं भी एकान्त में बैठकर घंटों दोहराती रहती। पिछले प्यार भरे दिनों की यादों में वह फिर से खोने लगी।

                जब भी उसके साथ ऐसा होने लगता तो फिर ऐसे में उसे अपना प्यार याद आता। वे दिन और वे पल याद आते, जिनमें उसने कभी फुरसत से मानव के साथ बैठकर अपने सुंदर भविष्य के सपने सजाये थे। परन्तु वह ये भी जानती थी कि, अब मानव यहां पर, उसके पास नहीं था। अब तो मात्र उसकी भूली­बिसरी यादों के अवशेष ही शेष थे। उसे मालूम है कि जब से मानव शिकोहाबाद छोड़ कर चला गया था, तब से वह केवल एक बार ही आया था और वह भी तब उससे मिल कर भी नहीं गया था। मगर अब तो प्रकृति को उसके लौटने का इंतज़ार होने लगा  था। साथ ही एक विश्वास भी था कि, मानव कहीं भी चला जाये, वह एक बार शिकोहाबाद अवश्य ही वापस आयेगा। जब भी वह यहां आयेगा तो वह एक बार फिर से उसको मना लेगी। उसका दिल जीत लेगी। उसके दिल में ठहरे हुये प्यार की धारा को फिर एक बार शुरू कर देगी। वह तो उसकी एक­एक बात को जानती है। जितना अधिक वह यहां से अपने टूटे दिल पर निराश कामनाओं का बोझ बांध कर गया है, उसके आते ही वह शीघ्र ही उसकी समस्त आशाओं के फूल महका भी देगी।

         इस तरह से जब प्रकृति के दिल में अपने मानव के प्रति उगे हुये प्यार के पौधे ने फिर से अंगड़ाई ली तो वह खुद ही मानव की वापसी की प्रतीक्षा करने लगी। हरेक रविवार या फिर अन्य छुट्टी के आने पर उसकी प्रतीक्षा की घड़ियां और भी अधिक बढ़ जाती थीं। दिल उसका बेचैन होने लगता। वह सुबह से लेकर शाम तक एक ही स्थान में बैठी हुई मानव के लौट आने के इंतज़ार में आंखें बिछाये रहती। यहां तक कि पूरा दिन ढल जाता। शाम की लालिमा सुहागिन बन कर अपना दम भी तोड़ देती और वह मानव के आने की प्रतीक्षा में बेचैन ही बनी रहती। उदास हो जाती। परन्तु आनेवाला नहीं आता। वह आया भी नहीं। शायद, उसको अब आना भी नहीं था? प्रतीक्षा करनेवाली प्रतीक्षा की घड़ियां गिनती रही और मानव एक बार भी वापस नहीं लौटा। पहिले तो वह फिर भी एक बार अपनी झलक दिखा गया था। मगर, इस बार वह ऐसा गया था कि, उसने लौटने का नाम ही नहीं लिया था। एक बार भी उसने शिकोहाबाद को मुड़कर नहीं देखा। दशहरे की छुट्टियां आईं और अपने राम­लक्ष्मण की लीलायें दिखाकर चलीं भी गईं। दीपावली के दीप भी जलकर बुझ गये। बड़े दिन की रात की मोम बत्तियां भी सिसक­सिसककर जलकर ख़ाक हो गईं। परीक्षायें समाप्त हो गईं। कॉलेज एक बार फिर से ग्रीष्मकालीन के अवकाश के कारण बंद हो गये, मगर मानव नहीं लौटा। नहीं लौटा तो प्रकृति के दिल का दुख भी बढ़ने लगा। मन के अंदर बसा हुआ उसके अधूरे प्यार की कामनाओं का दर्द उसके जीवन की तन्हाई भरी परछाईं बनकर उसका दम घोंटने लगा। वह फिर से मन ही मन घुटने लगी। तड़प उठी। उसकी बाहें अपने मानव के गले का हार बनने के लिये तरसने लगीं। होठ मानव के प्यार के दुख में फिर से सूख़ने लगे। आंखों में भविष्य का आनेवाला अनकहा अंधकार छाने लगा। प्रकृति निराश होने लगी। उसके दिल का प्यार अपने आप ही सारी बिगड़ी हुई परिस्थितियों का हाल देख कर भावी जीवन के संजोये हुये सपनों को खंडर बन जाने का सन्देश देने लगा।

                इस प्रकार होते­होते कई दिन बीत गये। महिने हुये और कई एक साल भी यूं ही गुज़र गये। लगभग पांच साल होने को आये। प्रकृति की प्रतीक्षा में बिछी हुई आंखें मानव के वापस आने की राहें देख­देखकर पथरा गईं। वह थकी ही नहीं, बल्कि निराश भी हो गई। तब एक दिन उसने मानव की ओर से उसके वापस आने की रही­सही उम्मीद भी तोड़ दी। वह समझ गई कि अब मानव यहां चर्च कम्पाऊंड तो क्या शिकोहाबाद में चाहकर भी नहीं आयेगा। मगर फिर भी न जाने क्यों उसके दिल में ये ख्याल भी आता था कि, मानव एक बार अवश्य ही आयेगा। चाहे अपनी बरबाद मुहब्बतों की बची हुई राख़ बन कर ही क्यों न। सो प्रकृति को उसी दिन का इंतज़ार भी था। उसने सोच लिया था कि, मानव कभी न कभी, एक दिन अपने अतीत में फिर एक बार लौटेगा। लौटेगा तो वह अपने प्यार का तकाज़ा उससे कर लेगी। उसे अपना बना लेगी। यही सोचकर उसने अपने भावी जीवन की सारी आकांक्षाएं मानव की वापसी पर केन्द्रित कर रखी थीं.

                इधर इन पिछले पांच सालों में लगभग सभी का कॉलेज जीवन की यात्रा का सफ़र समाप्त हो गया था। बहुतों का विद्यार्थी जीवन बदलकर अब अध्यापक का जीवन बन चुका था। धरती अपनी शिक्षा समाप्त करके किसी कॉलेज में पढ़ाने लगी थी। साथ ही प्रकृति भी व्यापारिक प्रबंध का कोर्स ले रही थी। तारा बी. एस. सी. करने के पश्चात नर्सिंग के प्रशिक्षण में चली गई थी। परन्तु मानव का अब कुछ भी अता­पता नहीं था। उसने एक बार भी चर्च कम्पाऊंड में अपनी शक्ल दिखाने की आवश्यकता नहीं समझी थी।

                तब दिन बीतते­बीतते एक दिन धरती के विवाह की तैयारियां होने लगीं। वह सुहागिन बनने के सपने सजाने लगी। उसकी दुल्हन बनने की कल्पना के सपने साकार हो उठे। प्रकृति जब कभी भी धरती के  विवाह के बारे में सुनती तो उसके दिल में एक टीस सी उठकर रह जाती। दिल में कहीं अनकहा सा दर्द उठने लगता। दिल का ग़म उसके बिगड़े हुये हालातों का बोझ बनकर उसको बेदर्दी से दबाने लगता। वह तड़प­तड़प जाती। आंखों में कहीं भी, कभी भी, बगैर कुछ भी कहे, ढेरों­ढेर आंसू छलक जाते। गला भर आता। यही सोचकर कि, एक दिन उसने भी तो अपने विवाह के सपने देखे थे। किसी से अपने प्यार की कसमें खाईं थीं। वायदे किये थे, परन्तु सब ही जैसे वक्त की भीषण मार के कारण आग बरसाती ज्वालामुखी के लावा की सरकती धार के समान कहीं बरबादी के नालों में बह भी गये थे। अब न तो उसका प्यार था और ना ही प्यार के सपने। उसके सामने ही उसकी सारी तमन्नाओं के कफ़न ऐसे सजे थे कि,  अब कोई भी हसरतों की अर्थी तक उठाने वाला नहीं बचा था। वह रो उठी। रो उठी,  अपने भाग्य की बिगड़ी हुई दशा को देखकर। अपनी किस्मत पर। अपने उजड़े हुये प्यार की बरबादी का तमाशा देखकर। अपने बेवफ़ा हमसफ़र के यूं ही अचानक से गुमनाम हो जाने के दुख में,  वह बिल्कुल ही टूटी­टूटी रहने लगी। उसके कोमल और सुंदर चेहरे पर उदासी की पर्तें स्वत: ही किसी जाल के समान बिछने लगीं। उसके अपने बचपन के प्यार की हसरतों का वह हश्र हुआ था कि, उनकी धूल भी वह अब नहीं बटोरना चाहती थी।

                फिर जब उसको इसी प्रकार अपने दुखों के संसार में भटकते हुये जब एक दिन धरती के विवाह का निमंत्रण कार्ड मिला तो उसकी आंखें फटी की फटी रह गईं। उसका दिल टूटा ही नहीं, बल्कि बुरी तरह से फट भी गया। तुरन्त ही उसकी आंखों के समक्ष एक ऐसा काला अंधकार-सा छा गया कि जिसके अंधेरे में उसे अपना रहा­बचा जीवन भी काला नज़र आने लगा। धरती के विवाह के कार्ड को देखकर एक बार उसे विश्वास करना भी कठिन हो गया। कठिन हो गया, इसलिये कि, विवाह के कार्ड पर सुनहरे­चमकीले मुस्कराते हुये अंग्रेजी के तिरछे अक्षरों में लिखा हुआ था- 'धरती वैड्स मानव'.  तब ऐसा सब कुछ पढ़ और देखकर धरती की खुशियों भरे शब्दों के सितारे प्रकृति के दिल में अंगारों समान दहकने लगे थे। वह फूट­फूटकर रो पड़ी थी। तब उसके जी में आया था  कि, वह धरती का जाकर मुंह ही नोच ले। उसको खा डाले। उसके साथ इतना बड़ा और कट्टर धोखा?  ऐसा छल? धरती ने तो उससे कुछ और ही कहा था? लेकिन, अब वह तो उसके ही मानव से विवाह करने जा रही है? इस सच्चाई का प्रमाण वह देख ही चुकी थी। विवाह का छपा हुआ कार्ड उसके सामने ही जैसे उसकी बेबसी पर मुंह चिढ़ा रहा था। उसने एक बार धरती से मिलने के लिये सोचा भी, परन्तु फिर बाद में अपने मन के इरादे को बदल डाला। बदल डाला, इसलिये भी कि, अब हो भी क्या सकता था। तीर हाथ से छूट चुका था। उसका मानव सदा के लिये पराया हो चुका था। वह तो अब केवल ह्यारती ही के लिये बारात लेकर आयेगा। कितना बेवफ़ा निकला वह ह्याूत्र्त और ह्योख़ेबाज़ इसकदर फरेबी कि ्र अपने प्यार के वादों की किसी एक कतरन का भी वह लिहाज़ तक नहीं कर सका?

                जब तक विवाह का दिन करीब आया, उससे पूर्व ही प्रकृति दिन­रात घुटती चली गई। हर पल वह रह­रहकर तड़पती ही रही। एक ओर धरती के विवाह की तैयारियां हो रही थी तो दूसरी तरफ प्रकृति जैसे अपनी उजाड़ कामनाओं की गठरी तैयार कर रही थी। धरती सुहागिन होने जा रही थी तो प्रकृति के सारे सपने मरी हुई खिज़ाओं के तूफानों से हर पल संघर्ष कर रहे थे। ऐसे समय में जब भी उसके दिल का दर्द अधिक बढ़ने लगता तो वह अपने कमरे में बेबस होकर फूट­फूटकर रो पड़ती। उसके लिये हर दिन का नया सवेरा आंसुओं का भंडार लेकर आता और उसको रूलाता हुआ उसके हालात पर अपनी खिल्लियों का लिहाफ डालकर चला भी जाता। रात आती तो वह भी उसको सुबह होने तक सिसकाती रहती। तब ऐसे में प्रकृति ने खाना­पीना भी छोड़ दिया। हंसना और मुस्कराना तो वह कभी का भूल चुकी थी। इस दशा में प्रकृति प्राय: रात के घने एकान्तमय अंधेरों में बैठ कर सोचती कि अब उसके जीवन में बचा भी क्या था? शायद कुछ भी तो नहीं? सारा कुछ तो उजाड़ हो गया था। बिल्कुल रेगिस्तान जैसा। जब इच्छायें ही अपना दम तोड़ चुकी हों, तो जीने की लालसा हो भी क्यों सकती है?

                धरती के विवाह से चार दिन पहिले उसकी जन्म­जन्म की अंतरंग सहेली तारा भी शिकोहाबाद आ गई। तब तारा को देखकर प्रकृति उसकी बाहों में बुरी तरह से फूट­फूटकर रो पड़ी। परन्तु तारा भी क्या करती। उसे स्वंय भी अपनी सहेली के दुख के कारण अफ़सोस था। उसने उसे तसल्ली ही दी। जीवन से संघर्ष करने और जीने की सलाह दी। वह जानती थी कि, मानव जब से यहां से गया था तो प्रकृति की समस्त अभिलाषाओं पर ठोकर भी मार गया था- और अब, जब वह आया भी, तो आने से पूर्व ही उसने प्रकृति के सारे अरमानों का गला भी घोंटकर रख दिया था . . .'

       '. . .और जब आज धरती की बारात की शहनाइंयों की आवाज़ों ने उसके दिल में चीख़ों समान घुसना आरंभ किया तो वह अपने दर्द को संभाल भी नहीं सकी थी। उसके प्यार का अतीत, आज उसके लिये जैसे तूफान लेकर आया था। यदि तारा उसके साथ नहीं होती तो वह अब तक तो न जाने क्या से क्या कर लेती। जब से उसने बारात के आने की धूम-धाम सुनी थी, तब ही से उसके दिल का दर्द ग़मों का लबादा बन कर सिसक उठा था। उसे किसी भी तरह से चैन नहीं मिल पा रहा था। किसी भी दशा में अब कोई उसे समझाने वाला नहीं था। उसके सामने ही जैसे उसके दिल के टुकड़े एक­एक करके कोई बड़ी बेदर्दी से फेंकता जा रहा था। प्रकृति के होठों पर आहें थीं। दिल में गलते हुये अरमानों की अर्थी सुलग रही थी। लेकिन मजबूरी भी इसकदर थी कि, वह अब चाहते हुये भी कुछ नहीं कर सकती थी। आंखों में ज़मी हुई ईर्ष्या और नफ़रत, अब बेबसी के आंसू बहाने पर मजबूर थी। 

                प्रकृति ने बैठ­बैठे सोचा। बार­बार अपने दिल के किये हुये निर्णय को दोहराया। अपने सामने के चारों ओर के छाये हुये माहौल को निहारा। चर्च कम्पाऊंड में मुस्कराती हुई विद्युत बत्तियों को एक बार फिर से देखा। देखा तो उसको महसूस हुआ कि उसके अरमानों की चिता आज किसी के जीवन की ज्योति बन चुकी है। कभी मानव ने उसको कोई ऐसा ही सपना दिखाया था। आकाश में चन्द्रमा अपनी तारिकाओं की बारात के साथ मन्द­मन्द मुस्करा रहा होगा। हर तरफ खुशियां ही खुशियां छाई होंगी। पूरा चर्च कम्पाऊंड विद्युत की झालरों और रोशनाइयों के प्रकाश में जगमग कर रहा होगा और वह दुल्हन बन कर अपने मन के मीत की बारात आने की प्रतीक्षा कर रही होगी। उसके दिल का राजकुमार उसके विवाह की बारात सजा कर आ रहा होगा। बैंड­बाजों के शोर के साथ। शहनाईयों के मधुर संगीत को लिये हुये . . .'

       '. . . सोचते-सोचते अचानक ही प्रकृति को ऐसा महसूस हुआ कि मानों कहीं शहनाईयां बज उठी हों। सचमुच ही कहीं बारात का शोर हो गया हो। वह यादों के विचारों से निकल कर वर्तमान के धरातल पर आ गई। एक बार उसने अपने आस­पास निहारा। इधर­उधर देखा। कब्रिस्थान में रात का अंधकार सन्नाटे का सहारा लेकर भांय­भांय कर रहा था। कीड़े-मकोड़ों की भयावह झंकारें उसके कानों में जैसे विष भरे दे रही थीं। सामने चर्च कम्पाऊंड में सचमुच ही विद्युत की रोशनी के उजालों में बारात के आने और विवाह की धूम-धाम मची हुई थी। बैंड­बाजों के शोर के साथ मधुर लय की शहनाईयों का संगीत धरती के बारात के आ जाने की गवाही दे रहा था। ये सब दूर से देख कर ही प्रकृति की उदास आंखों में आंसू किसी दम तोड़ती हुई माला की कड़ियों के समान स्वत: ही टूट­टूट कर गिरने लगे। उसका गला भर आया। आंसू छलकने लगे। होंठ जैसे अपने उजड़े हुये प्यार की भीख मांगने के लिये तड़पने लगे। उसके दिल में दर्द होने लगा। बड़े ही जोरों का। ये दर्द जब अधिक बढ़ा तो उसने अपना सिर बड़े ही निराश होकर कुयें की ईंट की दीवार के खंभे से टिका दिया और धीरे­धीरे सिसकियां लेने लगी। एक दिन था जब कि मानव ने इसी स्थान पर बारात लाने का उसे कोई सपना दिखाया था। परन्तु आज वह स्वप्न टूटा नहीं था। उसने झूठ भी नहीं बोला होगा। मानव के उस कथन में कितना अधिक सत्य था। किसकदर सच्चाई थी। वह आज सचमुच ही बारात लेकर आया था। उसके दर्द और आंसुओं से भरी बारात- प्रकृति के प्यार की अर्थी की बारात  उसके अरमानों का जनाज़ा।

         एक ओर बारात का हुजूम धीरे­धीरे चर्च कंपाऊंड की ओर बढ़ता जा रहा था तो दूसरी ओर प्रकृति अपनी बरबाद मुहब्बत की राख़ उड़ाने पर विवश थी। अपने प्यार के उन दीपों का कफ़न ढूंढ़ती फिर रही थी, जिन्हें एक दिन उसने अपने दिल के बड़े अरमानों से किसी की मुहब्बत पर विश्वास करके अग्नि दी थी। कम्पाऊंड के हरेक स्थान पर खुशियां ही खुशियां थीं। हर तरफ उजालों की भरमार थी। सारा कम्पाऊंड जैसे बिजली के प्रकाश में नहा रहा था। कम्पाऊंड के सारे के सारे लोग किसी के विवाह की प्रसन्नता में मिलने वाले भोज की खुशी में जैसे झूमते फिर रहे थे। मगर अपने दुख की मारी, किसी सतायी हुई दुखिया के समान अभागिन प्रकृति यहां कब्रिस्थान के सन्नाटों से भरे अंधकार में रो­रोकर अपने पिछले अतीत के हरेक भाग को फिर एक बार दोहरा गई थी। उसके पिछले जिये हुये प्यार के दिन एक­एक करके उसकी तड़पती हुई यादों के समान आये थे और आंखों में बेबसी का दर्द देकर वापस चले भी गये थे।

          अब तक बारात सज कर फिर एक बार खड़ी हो गई थी। चर्च की तरफ लोग आने भी लगे थे। दुल्हन के आने की सब ही राह देख रहे हृो और इसके पश्चात ही धरती और मानव सदा­सदा के लिये अपने विवाह के बंधन में बंध जायेंगे। फिर समाप्त हो जायेगी प्रकृति और मानव के प्यार की कहानी। उसके प्यार का वह पृष्ठ जिसे एक दिन इसी चर्च कम्पाऊंड के लोगों ने अपनी दबती ज़ुबानों का सहारा लेकर सारे ज़माने के लिये अफ़साना बना कर रख दिया था। प्रकृति के चलन पर तो कीचड़ पड़ी ही थी, साथ ही मानव को भी बदनाम किया गया था।

          बारात के लोगों ने धीरे­धीरे चर्च की तरफ आना आरंभ कर दिया था। कार में दूल्हा भी सज­सजा कर चर्च के अंदर जा चुका था। प्रकृति अभी तक बैठी हुई थी। कब्रिस्थान के मनहूस अंधकार में। कुयें की मनि पर। अब उसके जीवन में बचा भी क्या था। कुछ भी तो नहीं। सब कुछ ही तो उसका लुट गया था। सब ही छिन चुका था। अब उसको जीने से लाभ भी क्या था? फिर अब वह जियेगी भी तो किसके लिये और फिर किस आस पर? जब दिल की सारी हसरतें ही अपना दम तोड़ दें, तो फिर जीने की आस भी समाप्त हो जाती है। उसे सहसा ही याद आया कि एक दिन उसने इसी कुयें की जगत के सहारे मानव के गले से लग कर कहा था कि,

'मानव।'

'हां।'

'एक बात कहूं?'

'कहो ! तुम्हारे लिये तो हर तरह की छूट है?'

'तुमने जिस दिन मुझे छोड़ दिया तो मालुम है कि मैं क्या करूंगी।'

'क्या करोगी?'

'कब्रिस्थान के इसी कुयें में डूब कर अपना जीवन समाप्त कर लूंगी।'

'पागल मत बना करो। ऐसी मनहूस बातें जुबां पर भी नहीं लानी चाहिए?'

         तब मानव ने उसको ऐसी बात कहने से टोक दिया था। अपने प्यार का विश्वास दिला कर उस क्षण उसके मन-मस्तिष्क से तब ये बात निकाल दी थी। परन्तु आज? आज तो वह सचमुच ही पागल हुई जा रही है। बार­बार अपने उजड़े हुये प्यार की दशा का हाल देख कर। आज उसको कौन रोकेगा? ये ठीक है कि, मानव अपना किया हुआ वादा नहीं निभा सका, पर वह तो निभा रही है। निभा देगी। केवल इसी आस पर कि जब भी मानव अपने अतीत में उसकी यादों की पतों पर बनी हुई तस्वीरों को पहचानने का प्रयत्न करेगा तो कभी भी वह उसको बेवफ़ा नहीं कह सकेगा। अब उसको जीने से लाभ भी क्या है। विवाह की रस्में चर्च के पवित्र स्थान में पूरी हों, उससे पहले ही वह अपना जीवन समाप्त कर लेगी। हर दशा में- अभी।

        सोचते­सोचते प्रकृति ने कुयें की मनि पर बैठ कर अपने पैर नीचे कुयें के गहरे जल की ओर लटका दिये। लटका दिये तो तभी कहीं अचानक ही बिजली तड़प गई। इतनी ज़ोर से कि उसके प्रकाश की गहरी मोटी लकीर बादलों के कलेजे की चीख बन कर शान्त हो गई। यादों के झरोखों में प्रकृति को मालुम भी नहीं पड़ सका था कि, इतनी सी देर में न जाने कहां से आकाश में बादलों के काफ़िले आकर ठहर चुके थे। हवाओं में ठंडक आ चुकी थी। वातावरण का बिगड़ा हुआ रूप देख कर ही लगता था कि जैसे वर्षा ऐ कहीं अधिक, बिगड़ी हुई हवाओं के साथ किसी भंयकर तूफ़ान के आने की तैयारी हो चुकी है। वातावरण अचानक ही बुरी तरह से बिगड़ गया था और पता नहीं इस बिगड़े हुये वातावरण का क्या इरादा था?  न जाने किसके जीवन के चिराग बुझाने थे? किसके घर उजाड़ने थे और किसके नहीं ? किसको तबाह कर देना था और किसको नहीं?

* * *

                                अगली किश्त में पढ़िये, इस कहानी का बे-हद मार्मिक भाग;

 

 

 

 

 

 

द्वितीय परिच्छेद

         अपने प्यार का कफ़न सिर से बांधकर मानव नैनीताल आ गया था।

               नैनीताल। पहाड़ी पथरीला देश- पहाड़ी जलवायु। अपनी ही भीगी हवाओं में सुकड़ता हुआ ठंडा देश। सुन्दर झूमती हुई झील की शांत लहरें। तल्ली ताल से मल्ली ताल तक का छोटा सा नैया का ऐसा सफ़र कि जो भी करे, तो दिल की भूली­बिसरी हुई यादों की सोई हुई अनुभूतियों में जैसे कहीं परेशान कर देने वाली हूक सी उठने लगे। मनमोहक वातावरण। चारों तरफ़ पत्थर ही पत्थर- चीड़ और चिनार के गगनचुम्बी वृक्ष मानों हरेक आने वाले का स्वागत कर रहे हों। आकाश की नीली गोद से उतरा हुआ एक­एक बादल का टुकड़ा तक जैसे हरेक दुख के मारे हुये का दर्द यहां अवश्य ही पूछता है। . . .'

                     पांचवी किश्त

        नैनीताल आकर मानव वहीं एक कमरा किराये पर लेकर रहने भी लगा। प्रात:  दस बजे से लेकर संध्या  तक वह अपने कार्यालय की नौकरी करता, फिर काम समाप्त होते ही शाम को झील के पास आकर दिन भर के थके­थकाये किनारों के पास आकर कहीं भी बैठ जाता था। बैठ जाता था- बड़े ही उदास मन से। सारे जमाने से बेखबर वह झील के सिसकते हुये पानी पर अपनी उदास निगाहें बिछा देता था। फिर धीरे­धीरे यहां पहाड़ का सारा वातावरण भी जैसे उसके दुख में शामिल हो जाता। तब ऐसे में मानव अपनी यादों के लिहाफ़ में छुप कर अपने अतीत की स्मृति को क्रम से दोहराने लगता था। उसकी स्मृतियों का वह पृष्ठ जिसे एक दिन प्रकृति ने अपनी मर्जी से उससे पूछे बगैर खोल दिया था। फिर जब कहानी का सिलसिला आरंभ हुआ और कोई निर्णय लेने का समय आया तो उसने अचानक से बंद भी कर दिया था। हकीकत क्या थी?  बगैर इसकी तह तक जाये हुये दोनों ही एक दूसरे को दोषी ठहराते थे। अपनी किस्मत में ख़ामियां निकालते और फिर अपने जीवन के उस अंधेरे की कल्पना करने लगते थे, जिसके लिये परमेश्वर ने कभी भी इंसान को बना कर लानत की दुआ नहीं दी है। ये मनुष्य का अपना नज़रिया हुआ करता है कि वह सदैव अपनी मर्जी से अपने सपनों के तारों से अपने जीवन का गीत गाने लगता है। फिर जब अचानक से कोई वीणा का तार टूटता है तो स्वंय के स्थान पर दोष दूसरों को देने लगता है। बिना इस सच्चाई को जाने हुये कि परमेश्वर की बनाई हुई इस 'धरती' का आंचल सदा से ही 'मानव' के उस सुख के लिये फैला रहा है, जिस पर 'प्रकृति'  निस्वार्थ भाव से सदा ही अपना साया फैलाये रही है। मानव जब कभी भी झील के किनारे आकर अपनी स्मृतियों में डूब जाता था, तो हरेक याद पर उसकी आंखें नम हो जाती थीं। उसे एक ओर उसके अपने मित्र आकाश की मित्रता पर उसे आपत्ति थी,  तो दूसरी तरफ प्रकृति के बदले हुये रवैये पर भी अब बेवफ़ाई की गंध आने लगी थी। दोस्ती का फ़रेब और प्रकृति की ओर से मिला हुआ कठोरता का तमाचा; दोनों ही ने अब उसको बुरी तरह से तोड़ दिया था। एक ने मित्रता के दामन में अग्नि दी थी, तो दूसरे ने उसके ही प्यार की मैयत पर अपनी नफ़रतों के दीप जलाने की कोशिश की थी। दोनों ही ने उसके लिये अंतिम संस्कार का प्रबंध किया था-  ये और बात थी कि, एक ने दफ़नाकर तो दूसरे ने जला कर।  

                फिर एक दिन।

         रविवार की सुंदर और मोहक सुबह थी । मानव हर दिन के समान उस दिन भी एक पत्थर पर बैठा हुआ सामने झील के पानी की अठखेलियों को चुपचाप निहार रहा था। आकाश में कभी बादल आकर अपना पड़ाव डाल लेते तो कभी न जाने किधर चुपचाप भाग कर खिसक भी जाते थे। इस समय हल्की­हल्की कमजोर नाजुक किरणें सामने झील के जल में शीशे के समान चमक रहीं थीं। मांझियों ने अपनी नावें खोल दी थीं और धीरे­धीरे झील के आस­पास आये हुए सौंदर्य के पुजारी पर्यटकों का आवागमन बढ़ता जा रहा था।

          मानव अकेला था। उसका दिल उदास था। वह उदास और अकेला था। आंखों में उसके दुनियां­जहांन के सूनेपन की धुंध छा गई थी। चेहरे पर बढ़ी हुई हफ्तों की दाढ़ी भी जैसे अपने नसीब का रोना लिये हुये बैठी थी। मानों जीवन की किसी भी उम्मीदों की कोई कामना और लालसा ही बाकी नहीं बची थी उसके लिये। ये किसी तरह से बहुत स्वभाविक भी था। वैसी स्थिति में जब कि जीवन की वास्तविक प्यार भरी अभिलाषायें अपनी किस्मत का रोना ले बैठें। फिर ऐसे में जीवन का कोई उद्देश्य ही क्या बाकी रह जाता है। शायद कुछ भी तो नहीं बचता है तब? ज़िंदगी की गाड़ी को चलाने के लिये कोई तो बहाना और कोई सहारा चाहिये ही होता है। मानव के लिये प्रकृति ने अपना मुख क्या फेर लिया था कि, उसके लिये तो जैसे सारे जमाने ने ही उसके गाल पर तमाचे जड़ दिये थे। संसार की हरेक लड़की ही उसे फरेबी दिखने लगी थी- मानव इस बात को स्वंय जानता था और मन ही मन महसूस भी करता था। साथ में धरती भी जानती थी कि, मानव और प्रकृति के मध्य बनी हुई खाई के लिये दोनों में से कोई भी दोषी नहीं था। मानव ने भी प्रकृति पर कोई दोष नहीं लगाया था। कुछ कहा भी नहीं था उससे। ये बात सही थी कि, प्रकृति की उस समय अवहेलना करके उसने जो पग उठाया था, वह भी कुछ सीमा तक सही ही था। उसने अपने आप को प्रकृति की दृष्टि में गिराया था तो वह भी केवल उसके ही भले के लिये ही। क्यों उसने ऐसा किया था?  इसमें भी एक भेद है। ऐसा भेद कि जिसके बारे में उसने आज तक किसी को भी अवगत नहीं होने दिया था। वह तो इसका कारण केवल इतना ही जानता है कि उस समय ऐसा करने के अतिरिक्त उसके पास तब कोई और दूसरा विकल्प ही नहीं था। वह तो अब केवल इतना भर ही जानता है कि प्रकृति के प्रति उसका स्नेह, प्रेम और लगाव सच्चा था और सदा सच्चा ही रहेगा भी।

           मानव इतना भी जानता है कि वह अब प्रकृति की निगाहों में एक बेवफ़ा प्रेमी की हैसियत रखने लगा है। उस पर धरती के प्रति आवश्यकता से अधिक रूचि लेने का इल्ज़ाम है। मगर ये तो उसका दिल ही जानता है कि वास्तविकता क्या है?  जिस समय प्रकृति उसके प्रेम में अपने भावी भविष्य के सपने देख रही थी- एक  तपस्वनी समान हरेक पल उसके ही आरती के दिये जलाती फिर रही थी-  ऐसे नाज़ुक दौर में वह उसके प्यार की भरपूर अवहेलना करके उसके मार्ग से किनारा कर गया था। ये जानते हुये भी कि जिस प्यार की देवी की तपस्या में वह अपनी कुंठित भावनाओं के बीज बोकर उसके जीवन में खुशियों के फूल उगाने की कोशिश कर रहा है, उनका अंजाम उन नागफ़नी के कांटों के रूप में भी हो सकता है कि, जिनकी चुभन से वह अपने सारे जीवन भर छलनी होता रहेगा। सब कुछ जानते और समझते हुये भी तब उसने अपने ऊपर बेवफ़ा होने का दोष लगा लिया था। धरती को प्यार करने का इल्ज़ाम। एक ऐसे दोष का गहरा दाग उसके बदन पर लग गया कि उसके पश्चात वह कहीं का भी नहीं रहा था। फलस्वरूप उसकी प्रकृति छिन गई। उसका प्यार लुट गया। प्रकृति चली गई। एक प्रकार से उसके लिये पराई हो गई। उसने उसकी ओर से घृणा ओर नफ़रत का दामन ओढ़ कर अपना मुंह फेर कर उसके ही मित्र आकाश का दामन थाम लिया। इस प्रकार वह कहीं का भी नहीं रह सका था। अपने ही ख्यालों और मस्तिष्क का सहारा लेकर उसने जो भी त्याग किया था, उसका भरपूर परिणाम अब उसको मिल चुका था। वह जानता था कि, ऐसा करने के पश्चात उसने एक प्रकार से प्रकृति की तो आने वाली ख़िज़ाओं से तो रक्षा कर ली थी, मगर वह अपने इस बलिदान के फलस्वरूप प्रकृति की दृष्टि में इस कदर गिर चुका था कि, अपने लाख प्रयत्नों के पश्चात भी वह आज तक खुद को उसकी दृष्टि में निर्दोष साबित नहीं कर सका था। इतना ही नहीं, बल्कि प्रकृति के साथ­साथ वह उसके समस्त परिवार तथा भाई 'क्लाईमेट' तक की दृष्टि में नीचे तक आ गया था। इतना सब कुछ होने के उपरान्त भी उसने किसी से कुछ नहीं कहा था। बड़ी सहजता से उसने समय को देखते हुये अपने गिर्द छाई हुई सारी परिस्थितियों से समझौता कर लिया था और चुपचाप मन ही मन एक प्रकार से सबसे नाता तोड़ कर, अपने टूटे और उदास दिल से अपने प्यार की उजड़ी हुई तमन्नाओं की लाश बांध कर यहां नैनीताल के पहाड़ों में जैसे अपनी किस्मत फोड़ने के लिये आ गया था।

         अचानक ही रोमन कैथोलिक चर्च की मधुर घंटियों ने वातावरण में अपने स्वर बिखेरने आरंभ किये तो सोचों के भंवर जाल में भटका हुआ उसका मन वास्तविक धरातल पर आ गया। वह अतीत के विचारों से अलग होकर वर्तमान में आ गया। चर्च की आराधना आरंभ होने वाली थी। आकाश में एक दूसरे से लिपटते हुये बादलों के काफ़िले न जाने कहां चले जाना चाहते थे। झील के गर्भ पर युवा प्रेमी जोड़ों की नावें नैनीताल की ठंडी हवाओं में जैसे मदमस्त हुई झील के नीले जल में ही डूब जाना चाहती थीं। कुछेक मन चले बादल के टुकड़े अपने काफ़िले का साथ छोड़ कर नीचे झील के जल को चूमने चले आते थे। चर्च की घंटियों की झंकारें अभी भी निकल­निकल कर पहाड़ों की घाटियों में डूब रही थीं। एक बार फिर से परमेश्वर के अनुयायी प्रभु यीशु मसीह के महान बलिदानी प्रेम का संदेश सुनाने के लिये सब ही को निमंत्रण दे रहे थे- झुके-झुके सिर, हाथों में बाइबल और एक ही उद्देश्य, एक ही मार्ग; चर्च की आराधना में शामिल होना। इसके साथ ही, चर्च से थोड़ी ही दूर पर बने हिन्दू सनातन के भव्य मन्दिर में भी सुबह की आरती के घंटों के शोर से तल्ली ताल से लेकर, मल्ली ताल तक, झील के जल की हरेक बूँद तक झंकृत होने लगी थी.  

          मानव ने उदास और भटकती हुई निगाहों से चर्च की ओर एक निर्लिप्त भाव से देखा- परमेश्वर, अपने 'गॉड' के प्रेमी, मसीही लोग उसकी आराधना की इच्छा से चर्च की ओर चले जाते थे। मानव उस दृश्य को चुपचाप देखता रहा। बड़ी ही गहराई के साथ- लगातार। देखते­देखते उसकी आंखों में स्वत: ही आंसू किसी उदास चांदनी में रोते हुये सितारों के समान झलक उठे। उसको अपने अतीत के बीते हुये पल फिर से याद आ गये। उसके अतीत के भूले­भटके प्यार के अवशेषों ने उसके दिल के तारों को फिर एक बार छेड़ दिया। सहसा ही उसे याद आया कि शिकोहाबाद में रहते हुये कभी ऐसी ही चर्च की घंटियों को वह सुना करता था, जिनका स्वर नीम के वृक्ष से बंधे  हुये घंटे से निकल कर आता था। तब वह अकेला नहीं था। तब उसके साथ­साथ उसका अपना प्यार भी उन चर्च की घंटियों में अपने भविष्य के सपनों के चित्र बिखेर देता था। उसका जीवन तब उसके साथ था- प्रकृति।  सीधे­साधे और साधारण रूप की मलिका। एक दीप समान। सौन्दर्य की रानी। उसका प्यार। उसका जीवन। जीवन की राहें। राहों की मंजिल और मंजिल का वह सुनहरा प्यार भरा सपना, जो आज दर्द की एक टीस बन कर ही रह गया है। उसके प्यार की एक ऐसी कहानी जो समाप्त तो हो चुकी है, मगर अधूरी भी रह गई है।

           उस दिन से, जबकि वह प्रकृति से दूर­दूर रहने का प्रयास करने लगा था, तब वह कितना अधिक परेशान था। कितना अधिक चिन्तित था। तब एक ऐसा ही दिन था। डूबते हुये सूर्य की किरणें अपना दम तोड़ रही थीं। दिन छिपता जा रहा था और वह शिकोहाबाद के बाई पास पर अकेला खड़ा हुआ अपने भविष्य के लिये सोच रहा था। अकेला खड़ा­खड़ा, दीवानों समान। तब अचानक ही उसके सीने में एक दर्द होने लगा था। जान लेवा दर्द। इतना कष्ट कर कि उसको सांस लेना भी कठिन हो गया था। फिर वह डाक्टर के पास गया। डाक्टर ने उसका निरीक्षण किया और दवा दे दी थी, बगैर उसको कुछ भी बताये हुये। तब वह अपने इस दर्द को कोई क्षणिक बीमारी का आकस्मिक प्रकोप जान कर अपने घर आ गया था।

          मगर लगातार पन्द्रह दिनों के इलाज के पश्चात भी उसकी दशा में कोई सुधार नहीं आ सका था। नहीं आ सका, तो वह और भी परेशान हो गया। परन्तु फिर भी उसने अपने इस शारीरिक कष्ट के बारे में किसी को भी अवगत नहीं होने दिया। वह चुप ही रहा। प्रकृति को भी उसने इस बारे में कोई भी बात नहीं बताई। वह सब कुछ मन ही मन सहता रहा। साथ ही वह इन दिनों प्रकृति से एक बार भी नहीं मिला। चाह कर भी वह नहीं मिल सका। इसका परिणाम ये हुआ कि अपने प्यार की दीवानी प्रकृति स्वंय भी अपने मानव की उदासी और चुप्पी देख कर परेशान रहने लगी। इन्हीं दिनों एक दिन अचानक से प्रकृति का भाई क्लाईमेट भी छुट्टियों में अपने घर आ गया।

        फिर एक दिन, मानव अपने को डाक्टर से दिखाने के पश्चात दवाई लेकर अपने घर लौट रहा था। अमावस की काली घनेरी रात थी. उसके जीवन के बढ़ते हुये अंधेरों के समान ही। आकाश में केवल छोटी-छोटी   मासूम तारिकायें ही सारे आलम पर छाया हुआ अंधकार मिटाने का एक असफल प्रयास कर रही थीं। इस समय सड़क की विद्युत बत्तियां भी नहीं जल रही थीं। नरायन कॉलेज से गंगेश्वर संस्कृति पाठशाला तक की सारी सड़क पर भयानक अंध.कार रात्रि की चिपकी हुई अबाबीलों के समान चिपका हुआ था। हाथ को हाथ नहीं सुझाई देता था। बाई-पास के मोड़ की चढ़ाई के पास आकर मानव ने रिक्शा चालक को पैसे दिये, फिर वहीं से वह पैदल अपने घर की तरफ चलने लगा। पर अभी वह अपने दो कदम ही चल सका होगा कि अचानक ही अंधेरे में किसी खड़ी हुई परछांई ने अपनी कड़कती हुई तेज आवाज़ में उससे कहा कि,

'ठहरो।'

'?' - मानव के पैर अचानक ही जहां के तहां अचानक ही ठिठक गये। वह आश्चर्य और हैरानी के समन्वय में कहने वाले की ओर निहारने लगा। तभी कोई मानव आकृति अंधेरे में सड़क के किनारे से ऊपर आकर उसके सामने आकर खड़ी हो गई। मानव ने अंधकार में भी उस मानव आकृति को पहचानने का प्रयत्न किया। उसके लिये कुछ­कुछ जानी­पहचानी सी यह शारीरिक आकृति लगी। परन्तु उसको सड़क पर इस तरह से रोकने का यूं अशिष्टनिय तरीका देखकर भी मानव ने उसको अंधेरे में भी पहचान लिया। वह छूटते ही उससे बोला कि,

'कौन क्लाईमेट?'

'हां। देखकर घबरा गये क्या?'

'घबराया तो नहीं, मगर यूं इस प्रकार से मुझको सड़क पर रोकने का मकसद क्या है तुम्हारा?'

'मुझे तुमसे कुछ कहना है।'  क्लाईमेट बोला.

'कहने­सुनने के लिये क्या दिन का उजाला काफी नहीं था तुम्हारे लिये?'

'जब छुप­छुपकर मेरी बहन प्रकृति के साथ प्यार के गीत गा सकते हो, तो क्या बात करने के लिये रात का अंधियारा काटता है तुमको?  क्लाईमेट ने धमकी भरी आवाज़ में कहा तो मानव सारी परिस्थिति को भांपता हुआ उससे बोला कि,

'कहना क्या चाहते हो? मतलब क्या है?'

'प्रकृति से प्यार करते हो?'

'तुम क्या उससे नफ़रत करते हो?'

'ये मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं है।'

'प्रश्न तो है।'

'मानव . ?'

'क्लाईमेट . ?'

'प्रकृति मेरी बहन है। तुम्हें अच्छी तरह से याद तो है न?'

'लेकिन तुम्हारे पास एक भाई का दिल नहीं है। तुम शायद भूल गये हो?'

'ज़िन्दगी का कोई भी सुनहरा सपना यदि तुमने मेरी बहन के साथ देखा हो तो उसे तोड़ देना। तुम्हारे भले के लिये मेरी राय यही है।'

'अपनी बहन के प्यार के अरमानों की मज़ार पर यदि तुमने अपने गर्व के फूल उपजाने की कोशिश की है तो कब्रिस्तान की तन्हाइंयों में मैं अकेला ही नहीं, तुम्हारी बहन भी मेरा साथ देगी। इतना सोच लेना।'

'तुम्हारा कहने का मतलब क्या है?  मानव की इस बात पर क्लाईमेट उससे घूर कर बोला।

'यही कि लुटने से पहिले आदमी बेईमानी की दौलत जमा करने लगता है।'

'मानव, आंख उठाकर देख ले कि लुटनेवाला कौन है?'

क्लाईमेट जैसे ही चीख़कर बोला तो मानव ने एक नज़र अपने चारों ओर देखा। वह क्लाईमेट के द्वारा जमा किये हुये ख़तरनाक वातावरण में घिर चुका था। तब उसने एक नफ़रत से क्लाईमेट को घूरा, फिर बोला,

'अच्छा तो किराए की औलाद भी अपने साथ लेकर आये हो? भला होता कि, अपनी बहन की तुमने खुशियों की परवा की होती?'

'हां. तुझे सबक देने के लिये अभी इतने ही काफी हैं।'

                ये कहता हुआ क्लाईमेट जैसे ही पीछे हटा तो वैसे ही कॉलेज के सात­आठ लड़कों ने एक साथ मानव की तरफ आगे बढ़ना आरंभ कर दिया। सब ही के हाथों में हॉकियां थीं। मानव की समझ में नहीं आया कि वह ऐसे कठिन समय में क्या करे और क्या नहीं। क्लाईमेट के नीच और अभद्र व्यवहार का आशय वह भली­भांति समझ चुका था। एक ही पल में उसके जीवन का अंतिम निर्णय उसके सामने अपना हिसाब करने को खड़ा था। पलक झपकने भर की देर थी कि, उस पर कुछ भी घटित हो सकता था। क्लाईमेट अपनी पूरी तैयारी के साथा आया था।

                फिर, इतने में जब कई एक लड़कों ने मानव को मारने के लिये अपने हाथ फैलाये तभी अचानक से सन्नाटे भरे वातवरण में कहीं एक धमाका हो गया- धायं। इस प्रकार कि उसकी आवाज़ के कारण कम्पाऊंड के कुत्ते तक ज़ोरों से भोंकने लगे। बंदूक की गोली की आवाज़ सुनकर मानव को मारने के लिये आये हुये गुंडे लड़के अपने ही स्थान पर ठिठक कर रह गये। किसी देशी पिस्तौल की आवाज़ थी। वे ये तो समझ गये थे। पर यह गोली किसने चलाई थी, इसका अनुमान वे नहीं लगा सके थे। वे सब अभी इसी सशोपंज में थे कि तभी अंधेरे को चीरती हुई एक लंबी मानव छाया उनके सामने कुछेक पल के लिये आकर सड़क के किनारे लगे हुये यूक्लैप्टिस के वृक्ष के सहारे खड़ी हो गई। गुंडे लड़कों ने जब उस छाया को देखा तो वे मानव को छोड़कर उसी की तरफ बढ़ने लगे। तभी वृक्ष की ओट में खड़ी छाया की एक धमकी भरी आवाज़ वातावरण में कौंध गई।

'मरने का इरादा है, क्या तुम सबका?  यदि किसी ने भी अपने स्थान से हिलने की कोशिश की तो खोपड़ी तोड़ दूंगा।'

'?'-  पल भर में समस्त गुन्डे लड़कों के हौसले पस्त हो गये। फिर भी उन में से एक ने थोड़ा साहस करके पूछा और वह अपनी गंवारी भाषा में चिल्लाया,

'अबे ! कौन है वे तू?'

'तेरा बाप।' उसी के लहजे में उस छाया ने कहा.

'?'- आवाज़ फिर कौंध कर वातावरण के अंधकार में जाकर विलीन हो गई।

'?'-  खामोशी। गहरी खामोशी। कुछेक पलों को सारे वातावरण में सन्नाटा छा गया। तब थोड़ी देर के पश्चात उस छाया ने जैसे आदेश दिया। उसने जैसे आदेश कि,

'क्लाईमेट ! अपने इन साथियों से कह दो कि वे अपनी­अपनी स्टिकें यहीं भूमि पर छोड़ कर चुपचाप चलें जायें, नहीं तो मैं तुम्हारा भेजा बाहर निकाल दूंगा। नहीं मानोगे तो पुलिस को भी बुला लूंगा.'

'?'- तब यह सब सुनकर, ओट में खड़े हुये क्लाईमेट का भी दिल एक बार को दहल गया। उसे इस अनहोनी की अपेक्षा नहीं थी। वह तो अपनी पूरी खुफिया तैयारी के साथ मानव को पीटने के लिए आया था, क्योंकि वह नहीं चाहता था कि, मानव और उसकी बहन एक-दूसरे को प्यार करें. जब उसकी समझ में कुछ नहीं आया तो उसने  हिम्मत बटोर कर उस अनजानी छाया से पूछा कि,

'आखिरकार ! तुम हो कौन ?'

'कहा न कि, तेरा बाप हूँ। क्या ऊंचा सुनने की आदत है तेरी ?'

'फेंक दो सारी स्टिकें। बाद में देख लूंगा मैं सबको।' क्लाइमेट का जब बस नहीं चला तो उसने अपने साथियों

को आदेश दिया तो वह छाया फिर बोली,

'जब अभी नहीं देख सका तो फिर बाद में क्या देखेगा?'

इसी बीच क्लाईमेट के सारे साथियों ने अपनी­अपनी स्टिकें फेंकनी आरंभ कर दीं तो वह छाया थोड़ी देर के लिये शांत बनी रही। फिर जब सबने अपनी स्टिकें भूमि पर डाल दीं तो उस छाया ने फिर से आदेश दिया,

'अब, इसी बाई पास पर दूर तक, एटा चुंगी तक लगातार भागना आरंभ कर दो।'

'?'- क्लाईमेट और उसके साथी सकपका कर एक दूसरे का चेहरा ताकने लगे।

'भागो- बरना ?'  वह छाया फिर से चिल्लाई तो सारे लड़के पलक झपकते बाई पास की तरफ ऐसे भागे कि जैसे उन पर कोई तूफान टूटने वाला हो। मानव भी खड़ा हुआ आश्चर्य से उनको भागते हुये आश्चर्य से देखता ही रह गया। प्यार की बाजी अपनी मर्जी से खेलने में कभी ऐसा भी समय आ सकता है, मानव ने तो सपने में भी नहीं सोचा था। वह खड़ा हुआ सोचता ही रह गया।

'भागने वाले तो भाग गये। अब बता आखिर माज़रा क्या था ? क्यों आया था ये क्लाइमेट तुझे मारने के लिए?'

'?'- अचानक ही मानव के कंधे पर एक जाना­पहचाना सा स्पर्श महसूस हुआ तो उसने चकित होकर पीछे मुड़ कर देखा। रात के अंधेरे में उसका सहपाठी आकाश उसकी ओर देख कर मुस्करा दिया।

'तुम ?'

' हां मैं। मैं बस स्टैंड पर बैठा हुआ था। करने को कुछ था नहीं, तो सोचा कि चलो मैं तुम से ही मिल लूं। तुमको आता हुआ मैंने पहले ही देख लिया था। तुमको मैंने एक आवाज़ भी दी थी, पर रिक्शेवाला कुछ तीव्रता में था, सो तुम भी सुन नहीं सके थे। तब मैं पैदल ही तुम्हारे घर की तरफ चल दिया था। यहां आकर देखा तो सारा नक्शा ही बदला हुआ था।'

आकाश ने बताया तो मानव उससे बोला कि,

'वह सब तो ठीक है, लेकिन ये देशी कट्टा आदि. .?'

'अरे भई ! रखना पड़ता है. तुम तो जानते ही हो.' आकाश ने कहा.

'तुम ठीक समय पर आ गये थे,  वरना मेरी तो चटनी ही बन गई थी।'

“तेरी चटनी बना कर वे सब शिकोहाबाद में रह लेते क्या? लेकिन, चक्कर क्या था?  क्यों उन सब ने तुझ पर हाथ  उठाना चाहा था?' आकाश ने पूछा तो मानव बोला कि,

'चक्कर नहीं, घनचक्कर कहो।'

'क्या मतलब ?'

'चल, घर चल पहले। तब सारी बात बताऊंगा।'

'चल ! लेकिन ये स्टिकें तो उठा ही लो। कभी काम आ जायेंगी। उनको तो मैं सुबह देख लूंगा। एक-दो को तो मैं पहचान ही गया हूं।'

       फिर दोनों मित्र जैसे ही चर्च कम्पाऊंड में प्रविष्ट हुये तो कम्पाऊंड के कुत्तों ने उन पर भौंकना आरंभ कर दिया। थोड़ी ही देर में वे दोनों घर आ गये। मानव ने आकाश को पहले तो अपने घर में बैठाया। फिर जाकर चाय बनाई। फिर जब दोनों मित्र बैठ कर पीने लगे तो मानव ने अपनी पूरी कहानी आकाश को बता दी। आकाश ने जब ये सब सुना तो सुन कर दंग रह गया। मानव को कष्ट देने और उसे मारने में प्रकृति के भाई क्लाईमेट की पूरी योजना का हाथ है, ये सोच कर वह एक गहरे असमंजस में पड़ गया। अब ऐसी जटिल परिस्थिति में उसे क्या करना चाहिये और क्या नहीं। सोचता हुआ वह एक मंझधार में बुरी तरह से फंसा हुआ खुद को महसूस करने लगा। यदि वह क्लाईमेट पर हाथ उठाता है तो प्रकृति सामने आ जाती है और यदि वह क्लाईमेट को सबक नहीं देगा तो अवसर मिलने पर वह मानव का कोई भी नुक्सान कर सकता है। आज तो मानव का भाग्य ही अच्छा था, सो वह बच गया। वह तो बुरी तरह से पिट जाता। उसकी जान पर भी आ सकती थी। ऐसे में उसे क्या करना चाहिये और क्या नहीं। एक ओर स्वंय प्रकृति और उसका भाई क्लाईमेट. 'क्लाईमेट'— एक दूषित वातावरण और दूसरी तरफ उसका परम मित्र 'मानव'। एक इंसान। एक तरफ दोस्ती का फ़र्ज़ और दूसरी ओर प्रकृति के भाई की अमानवीय कूटनीति ?  जब दोनों ने मिल कर ऐसा सोचा तो वे जैसे किसी फुफकारती हुई नदी की विशाल लहरों में फंस गये। क्लाईमेट को सबक देना तो हर हालत में उचित था, वरना वह तो कभी भी मानव की हानि कर सकता है और क्लाईमेट पर हाथ उठाने का मतलब था कि, प्रकृति की भावनाओं पर कुठाराघात करना। उसके भाई पर हाथ उठाना?

'खैर ! देखा जायेगा।'  ये कह कर आकाश ने फिलहाल इस समस्या को टाल दिया। वह मानव से बातचीत के इस विषय को बदलता हुआ बोला कि,

'और तेरी बीमारी। अब क्या हाल हैं तेरे ?'

'अभी तो दवा लेकर आया हूं।'

'कोई लाभ भी है ?'

'कतई नहीं।'

'तो फिर कोई दूसरा डॉक्टर क्यों नहीं देखता है तू। आगरा में कितने ही एक से एक डॉक्टर हैं, वहां दिखा दे?'

'अभी तो इसी डॉक्टर का इलाज देख रहा हूं।'

'डॉक्टर कौन हैं।'

'डॉक्टर कपूर।'

'वह तो बहुत ही अच्छे डॉक्टर हैं।'

'हां, हैं तो . . . मगर . .?'

'मगर क्या ?'

'जब उन्हें दवा के पैसे अदा करो तो ब्लडप्रैशर अपने ही आप हाई हो जाता है। पैसे बहुत लेते हैं ?'

'इलाज तो करते ही हैं।'

'हां ! ये तो है।'

'और वह तेरे सीने में जो दर्द उठता था, उसका क्या हाल है?  आकाश ने बात बदली तो मानव बोला कि,

'वह तो अभी भी होता है।'

'कोई बात नहीं, बंद हो जायेगा। प्यार का दर्द है।' ये कह कर आकाश उठ खड़ा हुआ।

'प्यार का दर्द कभी भी बंद हुआ है किसी का?'  मानव बोला तो आकाश ने उत्तर दिया,

'हो जाता है- प्यार मिल जाने पर या फिर ऊपर जाने के पश्चात।'

'मेरा नहीं होगा, कभी भी।'  मानव ने कह कर गहरी सांस ली तो आकाश घूम कर बोला कि,

'इतनी गहरी सांस मत ले। ये तो वक्त ही बतायेगा। अच्छा अब मुझे आज्ञा दे। मैं चलता हूं।'

'कैसे कह दूं?'

'अपने दिल से।'

'अपने दिल से तो कभी भी नहीं कह पाऊंगा।'

'मानव, मैंने आज तक किसी से भी इतनी गहरी दोस्ती नहीं की है, परन्तु तुझसे !  न मालुम क्या बात है कि, मैं कुछ कह नहीं सकता हूं। जिस दिन भी दोस्ती का तकाज़ा हो तो मुझसे निसंकोच कह देना। तेरे लिये तो जान भी हाज़िर है। तेरी खातिर तो अपना ये सिर भी झुका दूंगा।'

                आकाश की ये बात सुन कर मानव उससे बोला,

'आकाश।'

'हां।'

'मैं एक बात कहूं ?'

'ये भी कोई पूछने की बात है। बता क्या बात है, बता ?'

आकाश ने कहा तो मानव ने बात आगे बढ़ाई। वह बोला कि,

'आकाश ने सदियों से अपना सिर उठाना सीखा है, कभी भी झुकाना तो नहीं ?'

'?'- मानव की इस बात को सुन कर आकाश किसी गहरे सोच में पड़ गया। मानव ने जब उसको इस मुद्रा में देखा तो सहज ही पूछ लिया। वह बोला,

'क्या सोचने लगा ?'

'सोचने क्या लगा। बड़ी ही अजीब बात है।'

'कैसी बात ?'

'यही कि, तुम्हारी प्रकृति भी ऐसा ही कहती है, जो तुमने अभी­अभी कहा है।'

'ओह !'  कह कर मानव जैसे किसी गहरे दर्द में डूब गया। फिर उदासियों के बीच डूब कर वह अपने दर्द भरे स्वर में बोला कि,

'अब वह मेरी नहीं रही।'

'तेरी नहीं है तो फिर वह किसकी है?'

आकाश ने पूछा तो मानव उससे बोला कि,

'ये भी बता दूंगा फिर कभी तुझे।'

'अच्छा छोड़ अब इन बातों को। तू तो निरा ही गंभीर हो गया। प्रकृति के नाम पर तेरा चेहरा बुझ क्यों जाता है ?'

'दिल के ग़म में सोये हुये तारों को जब कोई छेड़ देता है तो दर्दभरे स्वर तो उठेंगे ही।'

       ये कह कर मानव जैसे दूर ख्यालों में डूब गया। जब आकाश ने उसकी इस मुद्रा को देखा तो वह बोला,

'मैं अब समझ गया। तुझे प्रकृति चाहिये और कुछ भी नहीं।'

'ऐसी वस्तुयें कभी भी मांगने से नहीं मिलती हैं। ना ही इन्हें खरीदा जा सकता है। मिलती हैं तो केवल अपने भाग्य से ही।'

'जब ऐसा ख्याल है तेरा, तो फिर क्यों निराश होता है अभी से। अभी तो संघर्ष करने के लिये पूरा जीवन ही पड़ा है, फिर ये आकाश भी तो तेरे साथ है।'

'हां, आकाश तो साथ है पर . . .?'

'पर, क्या . . .?'

'ये भी तो सच है कि, निराशा के 'बादल',  'आकाश' से ही उड़ कर आते हैं।'

'मानव ?'

'हां ।'

'तूने तो बहुत ही गहरी बात कह दी है ?'

'सच्ची बात के घाव गहरे ही तो होते हैं, यार मेरे।'

'अच्छा, छोड़ इस विषय को अभी। हम क्यों अपना समय खराब करें। जब समय आयेगा तब देख लिया जायेगा। मैं चलता हूं और उस क्लाईमेट से भी मिल लूं।'

'नहीं, अभी रहने दो। मुझे ठीक हो जाने दे, फिर तो मैं खुद ही बात कर लूंगा उससे।'

'ठीक है। अब जैसी भी है, तेरी मर्जी।' 

                ये कह कर आकाश घर से बाहर निकल गया। इस समय कम्पाऊंड में रात्रि का अन्धियारा बीहड़ के समान अपनी टांगें फैलाये पड़ा था। अमावस की काली रात थी और उस पर भी सर्दी के दिन ? लोग यूं भी जल्दी ही अपने घरों में बंद हो जाते हैं। वे दोनों जैसे ही घर से बाहर आकर मैदान में निकलकर आये तो चर्च कम्पाऊंड के कुत्तों ने फिर एक बार उनको देख कर भौंकना आरंभ कर दिया। तब मानव, आकाश को बाई पास तक छोड़ कर अपने घर लौट आया।

                घर के अंदर कदम रखते ही, एकान्त का भरपूर लाभ पाकर उसके सीने का दर्द फिर से करवटें लेने लगा और फिर यूं भी आज डॉक्टर कपूर ने उसका दिल तो तोड़ ही दिया था। उसके बारे में अवगत करा कर उसे एक मानसिक चिन्ता के बोझ से फिर दबा दिया था। एक ऐसी चिन्ता-  चिन्ता का ऐसा बुखार कि जो शायद अब कभी भी उसके बदन से उतर नहीं सकेगा?

       उसने तो शायद सपने में भी नहीं विचारा होगा कि कभी उसके साथ भी ऐसा हो जायेगा। एक ऐसी बीमारी कि जिसकी उपज के साथ ही बीमार की आयु भी निर्धारित हो जाती है। समय से पहिले ही मनुष्य का जीवन समाप्त हो जाता है। यह सब कुछ कैसे हो गया?  क्या उसकी दिवंगत् मां ने ही उसको संसार में अकेला फिरता देखकर ईश्वर से उसे अपने पास बुलाने की याचना कर दी है?

                उसे याद है कि आज डाक्टर कपूर ने उसका बहुत ही अच्छी तरह से निरीक्षण किया था। तब ही से उसको सब कुछ ज्ञात हो गया था। वह जानता था कि, उसे अब जो बीमारी हो चुकी है वह ना तो पैसों से ठीक हो सकेगी और ना ही किसी भी इलाज से। (जिस समय यह कहानी लिखी गई थी, उन दिनों इस बीमारी का कोई भी इलाज नहीं था। उपन्यास सम्राट प्रेमचंद इसी बीमारी में बहुत ही कम उम्र में परलोक सिधार गये थे। इस बीमारी के मरीज़ केवल पहाड़ी क्षेत्रों में चले जाया करते थे और वहां के शीतयुक्त वातावरण से कभी कोई मरीज़ स्वस्थ हो जाता था और कभी नहीं भी होता था।) उसके इस संसार में जीने के दिन पूरी तरह से निर्धारित कर दिये गये हैं। ये और बात है कि कुछेक दवाओं के बल पर उसकी उम्र के थोड़े­बहुत दिन बढ़ा दिये जायें। यदि वह स्वस्थ होगा तो केवल परमेश्वर के अनुग्रह और दुआओं के बल पर ही। उसे ज्ञात है कि अपनी आयु से पहिले ही वह भी अपनी मां के पास चला जायेगा। इस दुनियां को छोड़कर। मगर प्रकृति का क्या होगा?  वह कैसे सहन कर सकेगी यह सब? किस प्रकार वह अपने उस दिल को समझा पायेगी जिसमें उसने अपने जीवन के न जाने कितने सपनों के घरौंदे सजाकर रखे हुये हैं। न जाने किस तरह से वह अपने कोमल दिल को समझा सकेगी?  रो­रोकर वह तो अपना सिर ही फोड़ लेगी। अपने 'मानव'  की मृत्यु की खबर सुन कर ही 'प्रकृति' की बहारों पर कोई भी तूफान न आये, यह तो हो ही नहीं सकता है। ऐसे में वह किस तरह से अपने टूटे हुये दिल की कतरनों को संभाल सकेगी। वह मानव को कितना अधिक प्यार करती है?  किसकदर चाहती है?  जाने कितने ढेर सारे अपने भविष्य के सपने उसने सजा रखे होंगे। न जाने कितने तिनके­तिनके करके उसने भावी जीवन के बसेरे को तैयार किया होगा?  फिर ऐसे में जब वह बसेरा उसको उजड़ता प्रतीत होगा तो वह तो फिर कहीं की भी नहीं रहेगी। अपने सब के सब सजे हुये सपनों को टूटते देखकर उस पर क्या प्रभाव होगा?  जीते­जी ही मर नहीं जायेगी वह?  रोते­रोते कहीं पागल ही न हो जाये वह?

                अपनी बिगड़ती हुई तकदीर के कारण वह तो खुद डूब ही रहा है, तो वह प्रकृति को क्यों डूबने दे। क्यों उसके जीवन को एक आस और उम्मीदों के सहारे उस झूठे आधार पर टिकाये रखे, जिसकी उम्र के दिन गिन­गिन कर दिये गये हैं। क्यों उसके जीवन से वह खिलवाड़ करे। उस बेचारी का क्या दोष?  जब वह उसे जीवन का कोई सुख ही नहीं दे सकता है, तो फिर क्यों न वह उसके जीवन से चुपचाप निकल जाये। क्यों न वह कुछ ऐसा करे कि स्वंय प्रकृति ही उसके मार्ग से हटने पर विवश हो जाये। ऐसा करने पर उस पर दोष तो लगेगा ही, परन्तु साथ में प्रकृति का भला भी हो जायेगा। कम से कम एक बार दुख का झटका झेलकर वह अपने बाकी जीवन में तो खुश रह सकेगी। ऐसा करने में ही प्रकृति का कोई भला हो सकेगा। उसे प्रकृति के मार्ग से हटना होगा. . . प्रकृति के मार्ग और जीवन से . . . सदा के लिये। प्रकृति के मन में वह अपने प्रति ऐसी नफ़रत पैदा कर दे कि वह खुद ही उसकी ओर देखना बंद कर दे। यदि वह खुद उसको छोड़ेगा तो प्रकृति का दिल तो टूटेगा ही और वह इस सदमें को सहन भी नहीं कर पायेगी। इतना अधिक कि वह अपने प्यार के इस दुख के सदमें के कारण कहीं कुछ और अन्यथा न कर डाले। ये सब कभी भी घटित हो, इससे तो बेहतर होगा कि वह खुद ही उसके मार्ग से धीरे­धीरे हटने लगे। किसी अन्य को चाहने का कोई झूठा नाटक करके ही वह ऐसा कर सकता है। जब प्रकृति उसको किसी अन्य की बाहों में देखेगी तो वह स्वंय ही उससे नफ़रत करने लगेगी। फिर अपनी इस नफ़रत में वह एक दिन उसको चाहना भी भूल जायेगी। भूल जायेगी तो वह भी शांति के साथ इस संसार को छोड़कर जा सकेगा। उसके परमेश्वर या उसकी किस्मत के फलस्वरूप जो कुछ भी उसके साथ हुआ है, वह सब ठीक ही हुआ है। सब धन्य ही है। इसमें किसी का कोई भी दोष नहीं है। अब तो उसे मरना ही है। ये संसार और इसका ठिकाना छोड़ने का समय तो सबके लिये कभी न कभी आता ही है. यदि उसका समय अभी आ भी गया है तो वह इसमें किसे दोष दे? जीवन से नाता तोड़ कर जाने के दो ही समय हुआ करते हैं . . . समय से पहिले या फिर समय पूरा होने पर। क्या हुआ जो वह अपनी आयु से पहिले ही इस संसार से चला जायेगा। प्रकृति को अब चाहे कोई भी सदमा क्यों न झेलना पड़े, वह उससे अब प्यार के गीत कभी भी नहीं गायेगा। उसे धोख़े में नहीं रखेगा। किसी भी दशा में वह ऐसा नहीं करेगा। चाहे वह उसे बाद में बेवफ़ा, धोख़ेबाज़ और छली ही क्यों न कहती फिरे। अपनी मृत्यु के सदमें में वह प्रकृति को भागीदार नहीं बनायेगा। सो इससे पूर्व कि वह इस संसार से ज़ुदा होये,  वह ऐसी कोई युक्ति करेगा कि जिसके कारण 'प्रकृति' अपने 'मानव' से इतनी सख्त नफ़रत करने लगे कि वह यह भी भूल जाये कि कभी उसने उससे प्यार भी किया था। कभी उसने किसी मानव की छवि को अपने दिल की हसरतों में बसाने की गुज़ारिश भी की थी। कभी किसी को दिल की सारी आस्थाओं के साथ चाहा भी था। अपने जीवन की पसंदों में प्यार के रंग भरने की कोशिश में कभी­कभी रंग फैल भी जाया करते हैं, जमाने की इस कठोरता के आभास को भुलाया नहीं जा सकता है। ज़िन्दगी की इस कड़वी सच्चाई को स्वीकार तो करना ही पड़ेगा।

                सोचते­सोचते, मानव ने अपने आप से उपरोक्त ऐसा दृढ़ संकल्प किया तो स्वत: ही उसकी आंखों के आंसू नीचे धरती की गोद में उसके उजड़े हुये मुकद्दर का दर्द बन कर टूट पड़े। उसके दिल में एक टीस उठ कर ही रह गई। ऐसा तो होना बहुत स्वभाविक था। अपने प्यार की एक जीती हुई बाज़ी को वह जान­बूझकर हारने जा रहा था,  आंसू तो छलकने ही थे। ऐसा था, उसका भाग्य और किस्मत की लकीरों का हश्र कि, अपनी तकदीर की लिखी हुई इबारत के सामने वह अपना सारा कुछ हार गया था। विधाता के द्वारा हाथ में खींची हुई किस्मत की लकीरों के कारण वह आज अपने प्यार की चिंता में कर्तव्य और फर्ज़ की अग्नि दे रहा था। स्वंय ही अपने हाथों से अपना बसा­बसाया नीड़ उजाड़ रहा था। दर्द तो होना ही था। दुख के इस प्याले को केवल उसी को ही पीना था। ये सोचे बगैर कि, जब जीवन के सारे रास्ते बंद हो जायें तो उस मार्ग पर भी चल लेना चाहिये जिसे परमेश्वर ने बनाया है। जब मनुष्य खुद कोई फैसला न कर पाये तो उसे ईश्वर के हाथों में दे देना चाहिये।     

                                          * * *

 

            'पल्मोनरी टयूबरक्लोसिस'- आवश्यकता से अधिक सोचने और दिन­रात एक ही सदमें को अपने जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा बनाने का परिणाम— क्षय का रोग। फेफड़ों की एक भयंकर बीमारी। मानव जीवन का एक खतरनाक मोड़। एक ऐसा रोग कि जो मनुष्य को धीरे­धीरे जीवित ही जला डालता है। जिसको भी ये रोग होता है, यदि समुचित इलाज न किया जाये तो मनुष्य इसमें हर रोज़ थोड़ा­थोड़ा करके प्रति­दिन ही मरता जाता है। मानव का शरीर भी इसी रोग का शिकार हो चुका था। अपने दिल के प्यार, प्रकृति के बारे में दिन­रात आवश्यकता से अधिक सोचने एंव भविष्य के कभी भी न पूरे होने वाले सपने सजाने की कल्पना करते­ करते एक प्रकार से वह अपना वास्तविक प्यार भी उजाड़ बैठा था। प्रकृति के लिये हर समय बार­बार सोचने के कारण शायद उसकी किस्मत ने भी उसको, उसके प्यार का ये हसीन नज़राना भेंट में दे दिया था। मानव अपने इस रोग के जाल में बुरी तरह से ग्रस्त हो चुका था।

                उसको जिस दिन अपने इस शारीरिक रोग का आभास हुआ था, उस दिन से ही वह तो आधा मर ही चुका था। शेष वह घुट­घुट कर मरने लगा। जीते­जी ही वह जल उठा। बहुत शीघ्र ही उसके शारीरिक रोग की वृद्धि के लिये उसकी मानसिक कमजोरी भी साथ देने लगी। इस प्रकार से जब मानव के मस्तिष्क में उसकी ज़िन्दगी के आने वाले काले कठोर तूफानों ने चीखना और चिल्लाना आरंभ किया तो वह और भी अधिक घुटने लगा। हर समय उसका शरीर तो क्या, मन और मन की सारी हसरतें तक गलने लगीं। अकेले-अकेले, दिन-रात अपनी प्रकृति के प्यार और सामीप्य से बहुत दूर हटने तथा अपनी बढ़ती हुई बीमारी की तकरारों ने उसको जल्र्दी-जल्दी गलाना आरंभ कर दिया। सिवा इसके कि वह अपनी अर्थी के सजने के दिन ही गिनता, उसके पास और कोई अन्य चारा भी नहीं था। ऐसे में वह करता भी क्या? कुछ भी तो उसके वश में नहीं था। परमेश्वर से तो वह दूर पहले ही से था और अब अपनों से भी किनारा करने को विवश हो चुका था। प्रकृति को वह जीते­जी अपनी आंखों के सामने जलते और परेशान होते हुये देख नहीं सकता था और अपनी बीमारी से इतना शीघ्र ही पीछा छुड़ा लेने का उसके पास अभी कोई प्रबन्ध भी नहीं था। क्षय के रोग से पूरी तरह से मुक्त होने में लगभग चार पांच वर्षों का समय था। और ये समय कोई थोड़ा नहीं था। इतने अरसे में तो युग ही बदल जाया करते हैं। इन सब परिस्थितियों का परिणाम ये हुआ कि वह समय से पहले ही कम होने लगा। दिन­रात एक ही सदमें को अपने जीवन का हमसफ़र बनाने के कारण उसका चेहरा ही ढलने लगा। शीघ्र ही उसकी आंखों में गड्ढे पड़ना आरंभ हो गये। गाल पिचक गये। शरीर से वह हर रोज़ ही कमजोर होता गया। इतना अधिक कि उसने फिर अपने जीवन की परवा ही करना छोड़ दिया। सोच लिया कि शायद उसके जीवन की डगर का ये आखिरी पड़ाव है। यहां से अब दूर­दूर तक उसके कारवां का कोई भी रास्ता नहीं दिखाई देता था। मानव चोले को छोड़ कर ईश्वर के घर जाने और अपने किये का हिसाब­किताब देने का समय आ चुका है। शायद परमेश्वर की बनाई हुई इस सारी कायनात का उसूल भी यही है कि, ये 'धरती',  'मानव'  को जन्म देती है। 'प्रकृति' अपने इस 'मानव'  का जंहा तक उससे हो सकता है, उसका हर तरह से ख्याल रखती है। उससे जी भर के प्यार करती है। फिर जब समय समाप्त होता है तो यही 'मानव'  अपने जीवन की केवल एक आधी­अधूरी दास्तां को छोड़ कर चलता बनता है। कोई मतलब नहीं कि उसकी कहानी अधूरी रही है या फिर पूरी हो गई है? जमाना उसको याद करे या भूल जाये? 'मानव,  जिसका उद्गम 'धरती'  की कोख़ से हुआ करता है, एक दिन समय पूरा हो जाने पर फिर से उसी के बदन में मिल जाया करता है। यदि बचती है तो केवल वह आत्मा जिसका अंश परमेश्वर की सांसो से प्राप्त हुआ करता है। केवल मनुष्य की आत्मा ही वापस परमेश्वर के पास लौटा करती है, क्योंकि वही देने वाला है औैर वही वापस लेने वाला भी है। ये परमेश्वर का नियम है। उस दिन से,  जब से उसने इसकी सृष्टि की थी।

                मानव को जब अधिक परेशानी होने लगी तो वह अपने आपको छुपाने के लिये सिगरेट के धुयें का सहारा लेने लगा। इसका परिणाम ये हुआ कि उसका रोग पहले से और भी अधिक बिगड़ता गया। क्रमशः वह दिन­दूना और रात­चौगुना के हिसाब से शरीर से कमजोर होता गया। उसका चेहरा पीला पड़ने लगा। उसके बदन के सारे वस्त्र ढीले पड़ने लगे। कुछ ही दिनों के अंतर में उसका शरीर नर-कंकाल जैसा दिखने लगा। मगर फिर भी उसने अपने दिल के इस भेद को किसी से भी नहीं कहा। घर में अपने बूढ़े पिता को भी नहीं बताया। इस बीच उसने प्रकृति से एक बार भी मिलने की कोशिश नहीं की। मानव जब कभी भी अपने घर से बाहर निकलता तो प्रकृति उसकी प्रतीक्षा में अपने घर के बाहर दरवाजे पर अपनी आंखें बिछाये खड़ी होती। परन्तु वह कर भी क्या सकता था? वह भी मात्र तड़प कर ही रह जाता था।

                फिर जब उसकी दशा अधिक खराब होने लगी तो उसने चारपाई पकड़ ली। ऐसे में उसके बूढ़े पिता ने उसकी देखभाल आरंभ कर दी। फिर वह करते भी क्यों नहीं। उनका एक ही तो बेटा था। वह भी आंख का तारा। वे जानते थे कि उनके पुत्र का उनके सिवा इस भरे संसार में और था भी कौन? वे अपनी आर्थिक परिस्थिति को सामने रखते हुये मानव का होमियोपैथिक का इलाज कराने लगे। इसी बीच धरती आगरा से वापस आ चुकी थी। इस बार उसने सदा के लिये आगरा छोड़ दिया था। धरती ने जब मानव का ये हाल देखा तो देखते ही वह भी बुरी तरह से तड़प गई। मानव का शरीर जैसे मृत्यु­शैय्या पर पड़ा हुआ था। जो देर थी, वह केवल उसे कब्रिस्तान तक ले जाने भर की ही थी। वह देख रही थी कि, कुछ ही दिनों के अंतर में मानव में कितना अधिक परिवर्तन आ गया था। कितना अधिक शरीर से वह दुबला हो गया था। तब ऐसे में मानव का ये हाल देखते ही धरती ने अपने प्यार का वास्ता देखते हुये मन ही मन उसके जीवन की भीख परमेश्वर से मांगना आरंभ कर दी। उसने तुरन्त ही सब कुछ भूल कर मानव की देखभाल करनी आरंभ कर दी। शीघ्र ही वह मानव को दिखाने डाक्टर कपूर के पास ले गई और उसकी पूरी जांच, अच्छी तरह से करवाई। डाक्टर कपूर ने भी अपनी जांच के बाद बता दिया कि मानव को क्षय का रोग है, मगर समुचित इलाज होने पर परिस्थिति को भली-भाँति संभाला भी जा सकता है। साथ ही उसके इलाज के लिये लगभग 5 रूपये रोज़ का खर्चा आयेगा। एक इन्जेक्शन उसके रोज़ ही लगेगा। साथ-साथ अच्छा और पौष्टिक भोजन भी उसको देना पड़ेगा।

                धरती ने सुना तो वह भी एक चिन्ता में पड़ गई। कारण था कि, मानव के इलाज के लिये इतने पैसे न तो उसके पास थे और ना ही मानव के पास। मगर फिर भी मानव का इलाज तो कराना ही था। उसके जीवन को किसी भी तरह से बचाना था। उसने बगैर कुछ भी सोचे­बिचारे अपने गले की सोने की जंजीर ले जाकर बाजार में बेच दी और उससे जो पैसे मिले उनसे उसने मानव का इलाज करवाना आरंभ करवा दिया।

                इस प्रकार जब मानव का इलाज होना शुरू हुआ और साथ ही धरती के प्यार का साया उसके ऊपर अपनी छाया करने लगा तो उसके स्वास्थ में एक चमत्कारिक सुधार दिखाई देन लगा। उसके चेहरे की बेजान रंगत में जीवन के चिन्ह नज़र आने लगे। उसकी भंयकर बीमारी स्वतः ही कमजोर पड़ने लगी। हर दिन एक नई रौनक के साथ उसका चेहरा भरने लगा। आँखों में चमक आई और गालों पर लाली दिखाई देने लगी.

                तब मानव के दिन इसी प्रकार से गुज़रते चले गये। मानव की दशा में हर रोज़ ही सुधार आता गया। साथ  ही धरती भी अपने सारे मन और आत्मा से मानव को प्यार करने लगी। मानव भी केवल न चाहते हुये धरती की इस प्रेम डगर में महज चल ही रहा था। साथ वह भी नहीं दे पा रहा था। हांलाकि वह जानता था कि, धरती के मन में क्या है? परन्तु फिर भी वह उसे कुरेदने का अवसर नही देता था। मगर धरती भी जैसे कोई हार नहीं मानने वाली थी। वह भी जी-जान से मानव का दिल जीतने का यत्न करने लगी। एक अजीब ही संयोग था। अजीब ही इस कहानी के दायरे थे। एक ओर 'प्रकृति' अपने 'मानव' की बेवफाई में आंधियों समान तड़प­तड़प कर चीखे जा रही थी  तो दूसरी ओर धरती मानव को अपने अंक में समा लेने के लिये क्या कुछ नहीं कर रही थी? दूसरी तरफ 'आकाश' 'प्रकृति' को अपने सीने से लगाने के लिये तरसा हुआ था और मानव,  प्रकृति की बहुमूल्य बहारों से दूर भागने का एक असफल प्रयास किये जा रहा था। साथ ही तारा अपनी सखी प्रकृति का दुख बांटे हुये थी और आकाश अपने मित्र मानव से अपनी दोस्ती और फर्ज़ का केवल एक दम ही भर रहा था।

                          * * *       

 

 

                जाड़े की किटकिटाती सर्दी में यीशु ख्रीष्ट के पावन त्यौहार बड़े दिन की बहारें मचलती हुई आईं तो शिकोहाबाद के सारे चर्च कम्पाऊंड में खुशियों की लहरें बिखर गईं। पच्चीस दिसम्बर के दिन चर्च कम्पाऊंड के सारे मसीही लोग अपने उद्धारकर्ता के जन्म दिन की खुशी में जैसे झूमते फिरे।

                फिर जब शाम का धुंधलका करीब आया और रात्रि के पग बढ़ना आरंभ हुये तो हरेक घर की छतों पर रोशनी के दीप भी जगमगाने लगे। ऐसे में मानव किसी प्रकार से अपने बदन का बोझ उठाये हुये घर के दरवाजे पर आकर खड़ा हो गया। आते ही वह स्वतः ही अपनी ज़िन्दगी के टिमटिमाते हुये दिये के विषय में सोचने लगा। तभी अचानक से उसकी थकी­हारी दृष्टि प्रकृति के घर की तरफ उठ गई। उसने सामने देखा तो फिर अपनी नज़रें वहां से हटा नहीं सका। प्रकृति अपनी बहन वर्षा तथा सखी तारा के साथ बड़े दिन की फुलझड़ियां छुड़ाने में व्यस्त थी। मानव चुपचाप खुद को एक खोटे सिक्के के समान प्रकृति की गति-विधियों को निहारने लगा। वह अभी ये सब देख ही रहा था कि, तभी किसी ने अचानक से उसके कंधे पर अपने कोमल और पतले हाथ रख दिये। उसने तुरन्त ही पीछे मुड़ कर देखा तो धरती उसकी तरफ देख कर मुस्करा दी। वह एक दम से मानव के सामने आकर मुस्कराते हुये बोली कि,

'ऐसे खोये­खोये से क्या देख रहे थे ?'

'वह फुलझड़ियों का जगमगाता हुआ प्रकाश।' मानव ने दूर कहीं देखते हुये कहा।

'तुम्हें ये फुलझड़ियां बहुत अच्छी लग रही हैं क्या ?' धरती ने पूछा।

'हां।' मानव का उत्तर बहुत छोटा था।

'तो ज़रा-सा ठहरो, मैं अभी लेकर आई।'

                ये कह कर धरती चली गई तो मानव फिर से ख्यालों में खो गया। फिर मुश्किल से दस मिनट भी नहीं बीते होंगे कि अचानक ही उसके पीछे फुलझड़ियों का प्रकाश जगमगाने लगा। मानव ने आश्चर्य से पीछे मुड़ते हुये देखा। धरती ने एक साथ दो फुलझड़ियां जलाईं थीं। उनमें से एक वह मानव को देते हुये बोली कि,

'लो ! देखो तो कितनी प्यारी रोशनी है इनकी।'

तब मानव ने फुलझड़ी हाथ में लेते हुये उससे पूछा कि,

'कहां से ले आई हो इतना शीघ्र ही ?'

'प्रकृति से। तुम्हारा नाम लेकर मांगी तो उसने सारी की सारी ही दे दीं।'

'?'-  मानव के गले में प्यार की कसक की एक ठंडी आह अपना दम तोड़ कर ही रह गई। वह तुरन्त ही उदास होकर एक ओर बैठ गया। फुलझड़ी उसने एक ओर फेंक दी।

'क्यों ? क्या हो गया यूं अचानक से तुम्हें?'

धरती ने मानव को जब इस मुद्रा में देखा तो पूछ बैठी।

'?'-  खामोशी।

मानव खामोश ही बना रहा। उसने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। नहीं दिया तो धरती ने उससे फिर पूछा। वह बोली,

'कहो न, कि क्या बात है? क्या इन फुलझड़ियों का ये झिलमिल करता हुआ प्रकाश तुम्हें अच्छा नहीं लगता है?'

'हां।'

'क्यों ?'

'जिनके दिलों में रोशनी के साये अपने कदम बढ़ाते हुये भयभीत होते हैं, उन्हें कैसा भी प्रकाश भला नहीं लगता।'

'?'-  धरती मानव के मुख से ऐसी अप्रत्याशित बात को सुन कर आश्चर्य से गढ़ गई। वह एक संशय से बोली कि,

' आज हम सबके लिए कितनी बड़ी खुशियों का दिन है. ये कैसी बकबास करते हो मानव ?' कहते हुये वह मन में तड़पने से अधिक जैसे बाहर ही अधिक सुलग-सी गई। भावुकता में उसने मानव के दोनों हाथ पकड़ लिये। फिर जैसे बहुत परेशान होते हुये उससे बोली कि,

'मैं नहीं जानती कि तुम्हारे दिल में न जाने कौन सा दर्द है। तुम्हारी ऐसी कौन सी हसरत है जो पूरी नहीं हो पा रही है?  मगर फिर भी तुम्हें सदा खुश देखने के लिये मैं क्या कुछ नहीं करती हूं? कभी तुमने मेरे बारे में भी कुछ सोचा है?'

                ये सब कहते-कहते धरती की आंखें गीली हो गईं। आंखों में आंसू भरे हुये ही उसने अपना सिर मानव के हाथों में रख दिया। तब मानव ने उसकी दशा को गौर से देखा। तुरंत ही वह धरती से बोला कि,

'धरती।' उसका मुखड़ा अपने दोनों हाथों से ऊपर उठाते हुये वह आश्चर्य के साथ फिर से बोला कि,

'ये क्या देख रहा हूं मैं? तुम्हारी आंखों में आंसू कैसे ?'

'यही सब देखना चाहते थे, तुम न ?' धरती के शब्द प्यार की अथाह गहराइयों तक डूब चुके थे।

'जानता हूं मैं सब धरती। लेकिन, तुम अपने प्यार के अंधे बहाव में डूब कर मेरे जीवन के काले अंधेरों में गुम हो जाने का प्रयास करो, इससे पहले मैं चाहूंगा कि तुम मेरे बारे में भी सब कुछ जान और सुन लो।'

'मैं कुछ भी नहीं सुनना चाहती। सच में, मैं कुछ भी नहीं सुनना चाहती हूं। पर, हां क्या मैं तुमको अच्छी लगती हूं?' धरती ने उसकी बात को बीच में ही काटते हुये जब अपनी बात कही तो मानव के मुख से सहसा ही निकल गया और वह बोला कि,

'हां।'

'मैं, तुम्हारे मुख से बस यही सुनना चाहती थी।' ये कह कर धरती ने जैसे गहरी सांस ली। मगर मानव ने अपनी बात फिर से आरंभ की। वह बोला कि,

'धरती,  जमाने के बाजार का दस्तूर है कि एक बार बिका हुआ इंसान कभी भी खरीदार नहीं बन सका है।'

'मुझे मालुम है। लेकिन मैं तुम्हारे पास बिकने के लिये नहीं आई हूं। खरीदार बनना चाहती हूं तुम्हारी।'

'?'-  खामोशी।

मानव के मुख में से शब्द निकलने से पहले ही अटक गये.

                धरती के मुख से उसके दिल की बात को सुन कर मानव चुप हो गया। आश्चर्य तो उसे हुआ नहीं, क्योंकि धरती की ओर से वह इन सारी बातों की अपेक्षा पहले ही से कर रहा था। पिछले की महीनों से, धरती का जो अपनत्व, सामीप्य और बदला हुआ रवैया वह अपने प्रति देखता आ रहा था, उन सबका अंजाम कुछ ऐसा ही होना भी था.

                धरती के साथ उसके इस प्यार के खेल में मानव सफल हुआ या असफल मगर प्रकृति को अवश्य ही उसकी भावनाओं के प्रति शंका हो गई थी। धरती भी हजार कोशिशें करने के बाद भी, बहुत चाह कर भी मानव को अपना नहीं बना पाई। एक बार भी वह मानव के मुख से अपने लिये प्यार के दो शब्द नहीं सुन सकी। परन्तु फिर भी वह उसके प्यार में गहराइयों तक डूबती चली गई। मानव को जब धरती के प्यार का सहारा मिला तो प्रकृति का वास्तविक प्यार उससे स्वतः ही छिनता चला गया। वह प्रकृति से दूर हटता गया और प्रकृति भी उसको सदैव धरती के समीप में देख कर अपनी बरबाद मुहब्बतों की सूख़ी राख़ उड़ाती रही। मानव को देख­देख कर तड़पती रही। आहें भरती रही। अकेले­अकेले में प्रायः ही रोने भी लगी। मगर इतना सब कुछ होने पर भी वह कभी भी दिल से मानव को नहीं निकाल पाई। उस पर चाहते हुये भी कोई भी दोषारोपण नहीं कर सकी। सब कुछ जानते और समझते हुये उसने अपने प्यार का निर्णय किस्मत के हाथों में सौंप दिया। एक प्रकार से मानव को उसकी इच्छाओं के आधार पर जीने के लिये स्वतन्त्र कर दिया। यही सोच कर वह मौन हो गई कि अपनी चाहतों के प्यार भरे फूल बड़ी आसानी से अपने आंचल में भर लेना किसी के भी अपने वश की बात नहीं है। ये तो मात्र दिल का सौदा होता है। प्रेम का आरजुओं में डूबा दिल होता है। किसी का किसी पर भी निछावर हो जाये। प्यार खरीदा नहीं जाता। जबरन छीना भी नहीं जाता। मांगे से भी कभी नहीं मिलता। ये तो स्वंय ही तब प्राप्त होता है, जब कि दिल के जज़बाती पन्नों पर ईश्वर की भी इच्छानुकूल उसकी वसीयत लिखी जाती है।

                सो, इस प्रकार से, एक ओर प्रकृति के उजड़े हुये प्यार की आंधियां चल रहीं थीं, तो दूसरी तरफ धरती मानव का दिल जीत लेने का भरसक प्रयास किये जा रही थी। और इन दोनों के प्यार की मिली­जुली हवाओं के थपेड़ों में मानव दिन व दिन टूटता जा रहा था। बार­बार वह गिरता जा रहा था। चाहे वह प्रकृति के प्यार की पुकार होती, या फिर धरती का आरजुओं से भरा सूना आंचल; वह किसी एक का भी बन सकने की स्थिति में अब  बिल्कुल भी तैयार नहीं था।

                दिन इसी प्रकार से व्यतीत होते जा रहे थे। समय का पहिया लगातार बगैर एक पल को भी थमे हुये घूमता जा रहा था। रोज़ ही तारीखें बदल रही थीं। हरेक दिन नये दिन का उजाला देता। नया­नया संगीत लेकर आता। हर रात काली होती। तारे चमकते, फिर डूबते थे। कोई टूटता तो कोई अपनी आदत के अनुसार एक ही स्थान पर टिके रह कर हर रात का सफ़र पूरा करता। मगर इतना सब कुछ होने पर भी विधाता के इस 'प्रकृति माहौल' में किसी­किसी के लिये दिन का चमकता हुआ उजाला भी किसी बीहड़ वन का मनहूस अंधेरा बन जाता, तो किसी के लिये दिन का नया­नया मनभावना संगीत बन कर हर बार जीने की एक नई लालसा को जन्म दे देता।

                मानव व्यवहारिक रूप से तो प्रकृति से अलग हो चुका था, मगर दिल की भावनाओं से वह उससे और भी अधिक जुड़ता जा रहा था। उसकी ज़िन्दगी के हरेक लम्हे पर टकराने वाली मौसमी हवाओं की प्रत्येक लहर पर प्रकृति उसके दिल के दरवाजे पर बार­बार दस्तक देती। उससे अपने भूले­बिसरे प्यार का तकाज़ा करने लगती। मानव प्रकृति को जितना भी अपने से दूर करने की कोशिश करता, उतना ही अधिक वह उसके दिल की प्यार भरी अनुभूतियों के इर्द­गिर्द मंड़राने लगती। जब दिन होता तो धरती उसकी उदासियों को बांटे रहती। उसका दिल बहलाये रखती। मगर जैसे ही शाम आती और दूर क्षितिज में सूर्य की अंतिम लालिमा रो­रो कर सिसकती हुई अपनी आहों के सहारे अपनी आख़िरी सांस भी तोड़ देती तो फिर मानव की भी दम तोड़ती हुई उदास कामनायें अपना कफ़न सजाने लगतीं। यदि रात होती तो वह इसके अंधकार में ही घुटने लगता। कहीं भी एकान्त में बैठ कर अपनी बरबादी की ओर बढ़ते हुये जीवन की मृत्यु का दिन करीब आने की सोचने लगता। सारी­सारी रात उसको नींद ही नहीं आती। ऐसे में फिर जब वह अपने कमरे के घुटते हुये एकान्त में जाता तो प्रकृति बहुत चुपके से उसकी आंखों की खिड़की खोल कर उसके दिल के द्वार में प्रवेश कर जाती। तब बिस्तर पर लेटते ही प्रकृति का जुनून उसके सिर पर सवार हो जाता। प्रकृति के सामीप्य में गुज़ारे हुये प्यार भरे अतीत के दिनों में वह फिर एक बार लौट आता। लौट आता तो पिछले एक­एक दिनों को वह सिल-सिलेबार दोहराने लगता। जिये हुये दिनों के उन कीमती पलों की याद में अपनी बरबाद और ख़ाक हुई जा रही मुहब्बत का तमाशा देख कर तब उसकी पलकों में आंसू अटक कर ही रह जाते। होठों पर सिसकियां अपने खोये हुये प्यार की भीख मांगने के लिये तड़प उठतीं। दिल में कहीं दर्द होने लगता। आंखों में कभी भी न समाप्त होने वाला ग़म अपनी अधूरी कहानी की तस्वीरें लेकर बैठ जाता। तब ऐसे में उसके पास अपनी विवशताओं के आंसू बहाने के अतिरिक्त कोई दूसरा चारा भी नहीं रहता।

                वह सोचा करता कि, कितने प्यारे थे, वे दिन। किसकदर सुहाने। कितने अधिक बहुमूल्य, जो उसको शायद अनजाने में ही प्राप्त हो गये थे? परन्तु आज ये कैसी बिडम्बना थी? तकदीर का ये कैसा तकाज़ा था, कि उसकी किस्मत ही स्वंय उसके लिये एक अभिशाप बन कर उसे कोसने लगी थी। प्रकृति को यूं सहज ही भूल जाना उसके वश की बात नहीं थी और उससे स्पष्ट कह देना भी किसी पत्थर से जबरन पानी निकालने वाली बात थी। अपनी बरबादियों में प्रकृति की हसीन बहारों का पतझड़ देखने की वह कभी कल्पना भी नहीं कर सकता था। प्रकृति की अरमानों से भरी पाक मुहब्बत पर वह अपनी बेवफाई की छाप देकर, उसकी खुशियों को सुरक्षित रखने का प्रयास कर रहा था। अपने प्यार का गला दबा कर प्रकृति की सुन्दरता को बनाये रखना चाह रहा था। कष्ट तो होना ही था। अपने जीवन के ऐसे दोराहे पर वह आकर खड़ा हो गया था, कि जहां पर एक ओर प्रकृति की आरज़ू थी तो दूसरी तरफ उसके प्यार का कर्तव्य भी। क्योंकि वह ये अच्छी तरह से जान गया था, कि वह क्षय का रोगी है। शायद एक प्रकार से उसकी आयु भी निश्चित है। बहुत छोटी सी उम्र में वह कभी भी इस संसार से कूच भी कर सकता है। तब ऐसी दशा में वह प्रकृति को क्यों धोख़े में रखता फिरे? क्यों उसके साथ छल करे? वह तो स्वंय ही डूब रहा है, तो फिर प्रकृति को क्यों साथ में ले डूबे? उसका जीवन तो वहुत छोटा है और प्रकृति को जब अपना पूरा ही जीवन खुशियों के साथ गुज़ारने का पूरा अधिकार है, तो वह क्यों उसके मार्ग में आकर बाधायें खड़ी करता फिरे? अभी वह जो कुछ भी कर रहा है, एक प्रकार से बिल्कुल ठीक ही है। उचित भी है। हरेक समझदार व्यक्ति ऐसी परिस्थिति में शायद ऐसा ही करेगा। स्वंय प्रकृति भी यही सब करती, यदि वह उसके स्थान पर होती। प्रकृति भी आज नहीं तो क्या, समय आने पर उसकी विवशता को समझ ही जायेगी। यदि नहीं भी समझेगी तो उसके इस संसार से चले जाने के पश्चात ये तो महसूस करेगी ही कि, उसका प्यार एक फरेब न होकर कितना अधिक सच्चा और निस्वार्थ था। किसी ने एक जीवन बचाने के लिये अपना जीवन ही बलिदान कर दिया। यही वह कहेगी। कभी न कभी। जब वह सारी वास्तविकता से वाकिफ हो जायेगी। तब न?

                मनुष्य के अपने बनाये हुये रास्ते, दिलों के इरादे और सपनों के घरौंदे उस समय सब ही रेत के बनाये हुये महलों के समान बिखर कर पल भर में ही बह जाते हैं, जब हकीकत की केवल थर-थराती हुई किसी एक लहर से उसका वास्ता पड़ता है। जीवन का वह सपना भी तब किसी कांच के टूटे हुये टुकड़ों के समान चूर­चूर हो जाता है, जिसे उसने कभी दिल की सारी हसरतों से बना कर तैयार किया हुआ होता है। कौन जानता था, कि प्रकृति और मानव- जिन्होंने कभी एक साथ, एक ही घरौंदे में बस कर अपनी छोटी सी दुनियां बसा कर अपना जीवन बसर करने के इरादे किये थे, आज समय की प्रतिकूल परिस्थिति के आते ही एक ही मार्ग पर साथ-साथ चलते हुये भी दूर होने पर विवश हो गये थे। इसीलिये तो कहा गया है कि, होता वही है, जिसे परमेश्वर चाहता है। यदि ऐसा नहीं होता तो मनुष्य का तो स्वभाव ही ऐसा है कि वह किसी भी बात में अपनी मनमानी करने से कभी भी बाज नहीं आता है।    

                         * * *

                दिन और गुज़रे तो जाड़े की ऋतु, गर्मी का साया आते देख कर भाग गई। फिर शरद की हवायें भी गुन-गुनाकर चली गई। वसंत की बहारें आईं तो वे भी अपना क्षणिक प्रभाव दिखा कर चलते बनीं। गर्मी फिर से आ गई। आकाश में सूर्य का गोला अंगारे बरसा उठा। गर्म हवायें चल उठीं। खेत नंगे हो गये। कालेज में परीक्षायें होने लगीं। ईस्टर करीब आ गया और इसके साथ ही मानव की बीमारी भी अपना असर दिखाने लगी। उसका स्वास्थ  फिर से गिरने लगा। फिर उसके मन में शांति भी नहीं थी। यूं भी जब मन की दशा ठीक न हो तो स्वास्थ गिरते देर भी नहीं लगती है। उसके गालों में फिर से गड्ढे पड़ने लगे। गाल पिचकने लगे। आंखों में एक बार फिर से सूनापन भरने लगा। अबकी बार मानव के पिता ने अपने पुत्र के स्वास्थ में इतनी तीव्रता से परिवर्तन देखा तो उनको दाल में कुछ काला नज़र आने लगा। बेटा या तो बुरी सोहबत में पड़ गया है, या फिर कोई और ध्यान करने वाली गंभीर बात जरूर है। फिर उन्होंने तुरन्त ही उसको अपने एक जाने-पहचाने और माने हुये डाक्टर को दिखा कर जांच करवाई। तब डाक्टर ने मानव का परीक्षण करके उसके पिता को सारी परिस्थिति से अवगत कराया। तब मानव के पिता ने जब अपने पुत्र को इतनी भंयकर बीमारी की जकड़ में पाया तो ये सब जान कर उनके भी पैरों से जमीन खिसक गई। वे सुन कर सन्न से रह गये। मगर फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। साहस और संयम से काम लेकर मानव का पूरा इलाज कराने का जैसे बीड़ा उठा लिया। आखिर उनका एक ही तो लड़का था। मानव उनकी एक ही अकेली संतान थी- लाडला अकेला बेटा था। आंखों की ज्योति। मात्र बुढापे का सहारा। कहीं इसको भी कुछ हो गया तो वे किस के सहारे इस भरे संसार में जी सकेंगे? परमेश्वर न करे कि उनके इस लड़के को भी कुछ हो। उन्होंने सोच लिया कि कैसे भी कुछ क्यों न हो, वे अपने बेटे का भरपूर इलाज करायेंगे। चाहे इसमें उनके जीवन की सारी कमाई ही क्यों न चली जाये। तब उन्होंने मानव का बाकायदा इलाज करवाना आरंभ करवा दिया। साथ ही उन्होंने अपने परमेश्वर से भी दिन­रात दुआयें मांगनी आरंभ कर दीं। मानव की मां और पत्नि के रखे हुये तमाम जेवर उन्होंने बेच डाले और पुत्र का इलाज़ करवाना आरंभ करवा दिया।

                तब मानव के इस बीमारी के इलाज में लगभग छः माह और बीत गये। अच्छा इलाज और बाकायदा पौष्टिक भोजन मिला। साथ ही धरती ने भी उसकी सेवा में कोई कमी नहीं रख छोड़ी थी। वह हरेक पल उसका ख्याल रखती रही। उसके प्यार का जुनून ही ऐसा था, कि बगैर इस बात की चिंता किये हुये कि मानव की क्षय की बीमारी उसको भी लग सकती है, वह अपने 'मानव' को बचाने के लिये 'प्रकृति' के किसी भी प्रकोप की परवाह नहीं कर सकी। उसके मन और मस्तिष्क में केवल एक ही ख्याल था, कि किसी भी तरह से 'मानव' को जीवन मिले। सो ये था,  अपने अपने प्रेम के आसरों पर स्वाह होने और उनके मार्गों पर चलने का दृढ़ संकल्प कि एक 'मानव' था, जो अपनी 'प्रकृति' को बचाने की खातिर उसके रास्तों से न चाहते हुये भी अलग हो गया था। दूसरी तरफ 'धरती' भी अपने 'मानव' को नया जीवन देने के लिये 'प्रकृति' के किसी भी प्रकोप की परवाह नहीं कर रही थी।

                ये सब चल ही रहा था कि, मसीहियों का सबसे बड़ा और महान त्यौहार ईस्टर आ गया। शिकोहाबाद के चर्च कम्पाऊंड में फिर एक बार बहारों की बारात सज गई। चारों तरफ खुशियों के फूल मुस्करा उठे। सारे दिन कम्पाऊंड के सारे मसीही लोग अपने परमेश्वर यीशु ख्रीष्ट के पुनः जी उठने की प्रसन्नता में हंसते-खेलते और  मुस्कराते रहे। छोटे­छोटे बच्चों ने कम्पाऊंड में एक छोटा सा बाजार भी लगाया। बहुत सारे कार्यक्रम होते रहे। इतनी सारी खुशी थी लोगों में कि, सारे कम्पाऊंड के हर घर में रहने वाली कम से कम एक मुर्गे या मुर्गी की आहुति भी हो गई थी। त्यौहार हो, किसी का जन्म दिन हो, किसी को नई अच्छी नौकरी मिली हो, किसी का बच्चा या बच्ची अच्छे नम्बरों से पास हो गया हो अथवा शादी-ब्याह हो- ईसाइयों में, मुर्गों-मुर्गियों और बकरों को हलाल न किया जाए ? सवाल ही नहीं पैदा होता है. यह इस संसार का कैसा चलन है? कौन-सा दस्तूर, किस किताब में है कि, 'मानव' अपनी खुशियों की खातिर, बलि किये हुए बे-जुबान पशुओं का गर्म गोश्त खाये?

                धरती भी मानव के साथ एक साये के समान लगी रही। हर समय जैसे उसके बदन की छाया बन कर उसका हर तरह से ख्याल रखती थी। हरेक कार्यक्रम में उसे लिये­लिये फिरती रही। यही सोच कर कि किसी भी तरह से मानव का दिल प्रसन्न बना रहे। वह उसका दुख दर्द बांटे रही। उसके साथ खाया­पिया और उसके सफ़र की हमसफ़र बन कर जैसे उससे ही चिपकी रही। मगर इतना सब कुछ होने के पश्चात भी मानव फिर भी उदास और टूटा­टूटा ही सा बना रहा। अपनी चोर नज़रों से वह जब कभी भी अवसर मिलता तो प्रकृति को देख अवश्य ही लेता था। चाह कर भी वह उसके करीब नहीं जा सका। बात करना चाही, मगर होठ खुल नहीं सके। धरती भी मानव के साथ कहीं भी जाती या उसके पास ही बैठी होती तो हर समय प्रकृति की भी तरसी और प्यासी आंखें मानो उससे कोई तकाज़ा कर लेना चाहती हों। उसकी भी डूबी और सूनी­सूनी आंखों में एक अनकही शिकायत और शिकवों की भरमार थी। लगता था कि, जैसे अवसर मिला तो वह भी मानव पर बरस पड़ेगी। ये तकाज़ा किसका था? किससे उसको शिकायत थी? ऐसा क्यों था? इस बात को मानव जानता था। प्रकृति भी जानती थी। साथ ही कुछ सीमा तक प्रकृति की जन्म­जन्म की सहेली तारा को भी आभास होता था कि, इन दोनों के इस प्यार की कहानी में ये अनहोना मोड़ क्योंकर आ गया है?

                फिर एक दिन, डूबती हुई संध्या को जब 'आकाश' के एक किनारे सूर्य का गोला दिन भर का भागता­भागता 'प्रकृति' के अरमानों का अंगार बन कर दहक उठा तो 'धरती' का आंचल उसकी लालिमा से प्रभावित हो गया। धरती मानव को छोड़ कर अपनी सहेलियों के साथ शिकोहाबाद के बस स्टैन्ड की तरफ घूमने के उद्देश्य से चली गई थी। सो दुख और परिस्थितियों का मारा मानव फिर एक बार अपने घर में अकेला रह गया था। इसी अवसर की ताक में बैठी प्रकृति को जब मौका मिला तो वह चोट खाई हुई नागिन के समान किसी की भी परवा किये बगैर मानव के घर जा धमकी। उसने सोच रखा था कि आज हर कीमत पर मानव से साफ­साफ बात करके इस कहानी को अंतिम अंजाम दे देना होगा। वह यदि ऐसा नहीं करेगी तो वह ऐसे कब तक अपनी लालसाओं का धुंआ उड़ाती रहेगी? अपने प्यार को अपने ही सामने लुटते देख वह कब तक अपनी बरबादी के मनहूस आंसू बहाती रहेगी?

                तब प्रकृति को यूं अचानक से अपने घर आया देख मानव जैसे चौंक गया। वह आश्चर्य से उससे बोला कि,

' तुम ?'

'हां ! लेकिन मुझे देख कर घबरा क्यों गये ?'  प्रकृति बोली।

'नहीं, प्रकृति ऐसी बात नहीं है। तुम तो पहरों में बंद हो ना। इसीलिये मुझे आश्चर्य हुआ था?' मानव ने कहा तो प्रकृति जैसे और भी अधिक भभक गई। वह तर्क करते हुये आगे बोली कि,

'बहुत ही अच्छी बात बोली है तुमने। मैं मामा-पापा की कैद में थी। इसीलिये इस मौके का लाभ उठाने से तुम चूक नहीं सके। कितना आंचल फैलाकर ढांक रखा है धरती ने तुमको छिपाने के लिए कि, प्रकृति को अब एक नज़र भी नहीं देख पा रहे हो ?'

'क्या मतलब? मानव अचानक ही चौंक गया।

'ऐसे मत बनो कि, जैसे मेरी बात का मतलब नहीं समझ पा रहे हो? प्रकृति ने अपने उसी तेवर में पूछा तो मानव गंभीर हो गया। वह उससे बोला,

'तुम्हारा कहने का मतलब क्या है?'                       

'ये सब क्या हो रहा है?'

'?'- मानव आश्चर्य से चुप हो गया.  वह जब प्रकृति की बात का कोई उत्तर नहीं दे सका तो उसने अपनी बात आगे बढ़ाई। वह बोली कि,

'तुम कहां से चले थे और कहां जा रहे हो? कुछ याद भी है कि नहीं ?' प्रकृति ने पूछा तो मानव जैसे गंभीर हो गया। फिर कुछेक क्षणों के बाद वह बोला,

'कहां से चला था, ये तो याद है, पर कहां जा रहा हूं? ये मालुम नहीं। शायद अपने आपसे कहीं दूर भागने की कोशिश कर रहा हूं?'

'अपने आपसे दूर भाग रहे हो या मुझसे खुद को छुपाने की कोशिश कर रहे हो ?'

'?'-  मानव प्रकृति की इस अप्रत्याशित बात पर एका-एक दंग रह गया। तभी प्रकृति ने आगे कहा कि,

'ये क्यों नहीं कह देते हो कि ज़रा 'धरती' का आंचल क्या लहराया तुम पर कि 'प्रकृति' की हवायें भी अब तुम्हें काटने लगीं हैं?'

                तब मानव ने प्रकृति को जैसे समझाना चाह। वह बड़े ही गंभीर स्वर में उससे बोला कि,

'देखो प्रकृति मुझको गलत मत समझना। परिस्थितियां इंसान को बहुत कुछ, वह सब करने को विवश कर देतीं हैं, जिनको कि वह कभी सपने में भी नहीं कर सकता है। जिस मानव को तुम अपने जीवन का सूर्य बना कर अपनी  दुनिया में रखना चाहती हो वह किसी और दुनियां की यात्रा का प्रबंध करने पर मजबूर हो चुका है.'

'घुमा­ फिरा कर बात मत करो। सीधा-सा क्यों नहीं कह देते हो कि, तुम्हारे दिल में प्रकृति की जगह अब धरती ने ले रखी है। इसलिये मेरा संसार, मेरा वातावरण अब तुमको रास नहीं आता है. लेकिन याद रखना कि, जब यही धरती एक दिन तुमसे कुंठित होकर, तुहारे फूलों की सेज़ पर ऊँट-कटारे उगायेगी, तब तुमको 'प्रकृति' की बहारें याद आयेंगी ?'

'यही ठीक है. अब जैसा तुम मेरे बारे में समझने लगी हो। मैं अब तुमसे कोई भी बहस नहीं करूंगा। संदेह करने की भी कोई हद हुआ करती है। मैं जानता हूं कि तुम्हारी दृष्टि में मेरा बजूद विश्वास की सीमाओं से इतनी दूर तक पहुंच चुका है कि अब उसे नज़दीक लाने में, मैं अब उसमें तुम्हारी कोई भी मदद नहीं कर सकूंगा।'

'तुम मेरी मदद अब क्या कर सकोगे, जब कि दूसरों की मदद करने का भार तुमने अपने सिर पर ले रखा है? मैं अब तुमसे कोई भी शिकवा या शिकायत नहीं करूंगी। जा रही हूं यहां से। लेकिन जाने से पहले इतना अवश्य ही कहूंगी कि किसी के प्यार भरे विश्वास को ठेस देने को पाप कहा जाता है। एक बार को मनुष्य फिर भी इस पाप को क्षमा कर देता है, मगर खुदा के कहर से तुम बच नहीं सकोगे। यदि धरती से तुम मुहब्बत करने लगे हो तो जल्दी ही उससे शादी कर लेना। मैं खुदा से दुआ करूंगी कि वह तुम्हें उसके साथ हमेशा खुश रखे।'

                                                                                                                                      ये कह कर प्रकृति बड़ी ही शीघ्रता से दरवाजा खोल कर बाहर निकल गई और मानव बहुत चाह कर भी उसको रोक नहीं सका। प्रकृति के कहे हुये शब्दों को सुन कर वह केवल अपना सिर पकड़ कर बैठ गया। समझ में नहीं आया कि वह अब क्या करे और क्या नहीं। ज़रा सी देर में ही सारा वातावरण जैसे बोझिल हो चुका था। मानव ने जब अपनी सामने आई हुई परिस्थिति के बारे में सोचा तो उसे महसूस हुआ कि प्यार और मुहब्बतों के खेल में, वक्त ने उसको एक ऐसे घेरे में लाकर खड़ा कर दिया है कि जिसमें से वह अपनी इच्छानुसार कभी भी नहीं निकल सकता है। वह क्या बनना चाहता था और क्या वह हो चुका है? शरीर से वह मजबूत और स्वस्थ नहीं है। दिलों के हिसाब­किताब को सामाजिक मान्यता नहीं मिलती है। 'प्रकृति' अपना स्थान छोड़ना नहीं चाहेगी और 'धरती' उस पर अपना अधिकार जमा लेना चाहती है। साथ  ही अपने दिल का फैसला भी वह करने लायक नहीं रहा है। फिर ऐसे में उसे क्या करना चाहिये? क्या पलायनता ही इसका इलाज हो सकती है। पलायनता-  जिसका दूसरा नाम आंखें बंद कर लेना है। बेहतर होगा कि वह यहां से कहीं चला जाये। न वह ये सब देखेगा और ना ही उसको बुरा लगेगा। यदि वह स्वस्थ हो गया और समय ने चाहा तो वह आकर सब कुछ ठीक कर लेगा। अभी तो कुछ भी उसके हाथ में नहीं रहा है।

                मानव अभी ये सब सोच ही रहा था कि तभी अचानक से धरती उसके पास आ गई। आते ही वह आश्चर्य से मानव से बोली कि,

'मानव। ये प्रकृति को क्या हो गया है? वह यहां तुहारे पास से रोते हुये क्यों गई हैं ?'

'तुम्हें कैसे मालुम हुआ? मानव ने पूछा।

'मैंने खुद उसको यहां से निकल कर जाते हुये देखा है। उसे रोक कर पूछना भी चाहा था मैंने, मगर वह रूकी तो क्या ही, उसने मेरी तरफ देखा भी नहीं?'

'?'-  तब मानव चुप हो गया।

'बताओ न, क्यों उसके आंसू बह रहे थे? क्या तुमने उससे कुछ कहा­सुनी की है ?'

'मैं उससे क्या कह सकता हूं ?'

'तो फिर वह इस तरह क्यों रो रही थी?'

'क्यों, रोना भी क्या तरह­तरह का हुआ करता है ?  मानव बोला।

'हां। उसका रोना वह नहीं है कि, जैसे किसी ने उसे मारा है। उसका रोने का मतलब है कि मानो किसी ने उसका दिल दुखाया है?'

'?'- धरती की इस बात पर मानव अपना सिर झुका कर नीचे फर्श पर देखने लगा तो उसने उसे एक संशय से देखा। फिर कुछ देर सोचने के पश्चात एक भेदभरी दृष्टि से निहारते हुये वह उससे बोली कि,

'मैं तुमसे एक बात पूछूं तो तुम मुझे बताओगे ?'

'क्या पूछना चाहती हो ?'

'क्या प्रकृति तुमको प्यार करती है ?'

'मुझसे क्या पूछती हो? सारे कैम्पस को ही मालुम है.'

मानव के इस उत्तर में, धरती ने तुरन्त ही उससे आगे पूछा। वह बोली,

' ठीक है वह तुमको प्यार करती है और तुम ?'

'?'- मानव ने अपनी नज़रें नीचे कर लीं और वह चुपचाप नीचे ताकने लगा।

'?'- धरती ने एक भेदभरी दृष्टि से मानव को देखा. वह समझ गई. उसे काटो तो खून नहीं जैसी स्थिति हो गई। अचानक ही उसे लगा कि मानव ने जैसे उसके बदन पर कोई भारी सा पत्थर रख दिया है। मन ही मन वह अपने दिल को मसोसते हुये केवल तड़प कर ही रह गई। बड़ी देर तक वह खामोश ही बनी रही। फिर काफी देर तक सोचने के पश्चात धरती ने बात बात आगे बढ़ाई। वह मानव से बोली कि,

'यदि यही कठोर सच्चाई थी तो तुमने अब तक मुझसे क्यों छुपा रखा था?  क्यों नहीं बता दिया था मुझे पहले ही से? अगर बता दिया होता तो कम से कम मैं तो तुम दोनों के बीच में नहीं आती? पता नहीं क्या सोच रही होगी प्रकृति मेरे बारे में ?'

'मैंने बताना चाहा था। लेकिन यूं समझ लो कि बस अवसर ही नहीं मिल सका।'

                मानव ने कहा तो धरती ने उसे उत्तर दिया। वह बोली,

'ठीक है, मुझसे कहने के लिये तुम्हारे पास अवसर नहीं था। मगर प्रकृति से कहने के लिये तो अवसर ही अवसर  है। जाकर समझा लो उसे। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। नहीं तो सारी ज़िन्दगी रोओगे। पछताओगे और कभी भी खुद को मॉफ तक नहीं कर सकोगे ?'

'कैसे कह सकता हूं। बगैर देखभाल के, आँखे बंद किये हुए मैं जिस मार्ग पर दौड़ा चला जा रहा था, उसका अंजाम तो कुछ ऐसा ही होना था।' मानव ने कहा तो धरती आश्चर्य से बोली,

'मैं समझी नहीं ?'

'मैं प्रकृति को चाह कर भी नहीं अपना सकता हूं।'

'क्यों ?'

'हमारे प्रेम सम्बन्धों को इस समाज की दकियानूसी प्रर्थायें मान्यता नहीं देती हैं। नहीं पसंद करते हैं लोग यह सब, भले ही हम मसीही हैं, एक ही कैम्पस में रहते हैं. अभी भी इस समाज में जाति-प्रथा का विष भरा हुआ है. आज भी इस समाज में विवाह की बात आने से पहले सोचा जाता है कि, 'मैं ठाकुर हूँ, वह कुर्मी है, फलाना हरिजन से ईसाई बना है, सुअर खाता है, मटन खाता है. उसको यह बीमारी है. . .तमाम तरह की भावनाओं के साथ लोग रहते तो एक साथ ही हैं. लेकिन हैं अलग-अलग. एकता में विभिन्नता.'

'कैसी बात करते हो मानव? ऐसी कोई भी डोर नहीं बनी है कि जिसका कोई सिरा न हो। और ना ही कोई ऐसी लहर उठी है कि जिसमें कोई हलचल न हुई हो। समाज और रूढ़ियां कुछ भी नहीं कर सकती हैं, यदि तुममें हिम्मत हो ?'

'धरती तुम सारी परिस्थिति को नहीं समझ सकती हो। मैं इस महल्ले का सबसे बिगड़ा हुआ इंसान समझा जाता हूं। हम दोनों के परिवारों में पारिवारिक शत्रुता के बीज हर रोज़ ही बोये जाते हैं। लोग प्रकृति के मार्ग को नहीं रोक सकते हैं, इसलिये मुझे उसके मार्ग से हटाने के लिये धमकी भी दी गई। मैंने सब लोगों को न जाने कितनी ही बार मिलाने की चेष्टा की, मगर कभी भी सफल नहीं हो सका।'

'सफल नहीं हो सके तो क्या हुआ? संघर्ष करने से पीछे क्यों भाग रहे हो? अभी भी बहुत समय है।' धरती बोली।

'हां, समय तो है। मगर मेरी ज़िन्दगी किसी कॉफिन की मोहताज़ होने लगी है। अपनी मौत के बिगुल की आवाजें सुनाई देती हैं मुझे?' 

'क्या बातें करते हो तुम सब लोग यहाँ पर ?  लोग दुनियां में बीमार नहीं पड़ते क्या?  फिर ये कौन सा तरीका है तुम्हारा प्रकृति के मार्ग से प्यार के वादे करके दूर भागने का ?'

'मैं चाहता हूं कि प्रकृति स्वंय ही मुझको एक अविश्वासी मनुष्य समझ कर मुझसे दूर हो जाये। मुझे बेवफा व्यक्ति समझने लगे। वह मुझे भूल जाये।'

'तुम शायद ये भूल रहे हो कि इंसान के लिये जो बेवफा बन जाते हैं, उन्हीं को मनुष्य कभी भी नहीं भूल पाता है।'

'जानता हूं, लेकिन फिर भी ऐसों से कोई उम्मीद भी नहीं रख पाता है। तुम मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो।' मानव ने कहा तो धरती भी जैसे बिफ़र गई। वह परेशान सी मानव से बोली कि,

'छोड़ दूं? इतने पास आकर भी तुमको उस हालत में छोड़ दूं, जब कि इस समय तुम्हें मानसिक, शारीरिक और मित्रता- हर तरह के सहारे की आवश्यकता है ? क्या समझ रखा है, तुमने अपने आपको? तिल-तिल करके रोजाना मरती आ रही हूँ तुम्हारे लिए? तुम कहते हो कि, तुम्हें तुम्हारे हाल पर छोड़ दूँ?'

'?'- मानव कुछ भी नहीं कह सका। वह केवल मूक ही बना रहा। धरती भी चुप हो गई। इस बीच दोनों के मध्य  चुप्पी एक तीसरे बजूद के समान अपना अधिकार बनाये रही। इतने दिनों तक प्यार की जो हकीकत धरती के लिये अनजान बनी हुई थी, उसकी सच्चाई सामने आते ही वह आज एक ऐसे दोराहा पर आकर ठहर गई थी कि जहां से कोई भी रास्ता अब मानव की तरफ नहीं जाता था। इस स्थान पर आकर अपने जीवन साथी का चाहे फैसला वह एक बार को न कर सके, मगर उसको अपने प्यार का मार्ग अवश्य ही बदल लेना था। अपने प्यार की पसंद में वह हारी या जीती? बगैर इस बात का मलाल किये हुये उसे चुपचाप मानव के उस मार्ग से हट जाना था, जहां पर चलने के लिये पहले ही से प्रकृति अपने लिये रास्ता सुरक्षित कर चुकी थी।

                धरती ने आगे फिर कुछ भी कहना उचित नहीं समझा। वह खामोश हो गई। चुपचाप उसने अपने दिल के दर्द को पीना चाहा, परन्तु ऐसा नहीं कर सकी। उसकी आंखों में स्वतः ही आंसू उसकी एक जीती हुई बाज़ी की हार देख कर चमक उठे। इस प्रकार से कि, मानो सुबह-सुबह की 'धरती' की वनस्पति पर ओस की मायूस बूंदें आकर बैठ गई हों। फिर ऐसा होता भी क्यों नहीं?  आख़िर मानव उसका भी तो प्यार था। उसके मन मंदिर में सजाया हुआ कोई सपना था। उसने भी तो अनजाने में अपने भविष्य के प्यारे­प्यारे सपनों के महल खड़े करने की कोई आशा की थी?

                धरती ने चोर नज़रों से मानव को निहारा। उसकी भी तो आंखों में आंसू निराश कामनाओं की किसी टूटी हुई माला के समान झलक उठे थे। ये कैसी परिस्थिति थी? कैसी बिडम्वना थी कि, एक ही मंजिल की खोज में दो राही, दो प्रेम के पथिक, दो प्यार की आस्थाओं से भरे हुये दिल, आज अचानक से वास्तविकता का ज़रा सा स्पर्श पाते ही टूट कर चकनाचूर हो चुके थे। आज दोनों ही को अपने­अपने प्यार के आरमान कर्तव्य और फर्ज़ की बलिवेदी पर स्वाह कर देने थे। 'मानव' ने 'प्रकृति' की खुशियों की खातिर परिस्थितियों के भंवरजाल में डूबा और जकड़ा हुआ प्रेम-विष का प्याला पिया था तो 'धरती' ने 'मानव' के लिये 'प्रकृति' की बहारों में अपना ठिकाना बनाने का इरादा बदल दिया था। आज जी भर के उसने सदा के लिये अपने प्यार की अर्थी को दफ़न कर दिया था।

                धरती ने मानव को एक बार फिर से निहारा। अपने ढेर सारे बुझे हुये अरमानों की राख़ को देखते हुये। शायद अंतिम बार। यही सोच कर कि अब वह आगे से इन प्यारभरी निगाहों से फिर कभी भी मानव को नहीं देख सकेगी। मानव भी दूसरी ओर ही देख रहा था। दीवार की तरफ। धरती ने सोचा। बार­बार सोचा। मानव- हां, ये मानव ही। क्या दोष है 'मानव' में? और क्या कमी है उसकी 'धरती' में? शायद कुछ भी तो नहीं? 'धरती' और 'मानव' का साथ तो ईश्वर ने आदिकाल से ही बनाया था। 'मानव' को ये अधिकार दिया था कि, वह 'धरती' पर राज्य करे। मगर फिर भी 'धरती',  'मानव' की नहीं कहला सकती है। वह 'मानव को शरण तो दे सकती है, मगर उस पर अपना कोई भी अधिकार नहीं जमा सकती है, क्योंकि 'धरती' को 'मानव' पर ये अधिकार देने का हक स्वंय 'मानव' ने अपने हाथ में ले रखा है। 'मानव' जिसको चाहेगा, उसका ही अधिकार 'मानव' पर होगा।

                आज वह कैसी परिस्थिति में आ चुकी है कि, कल तक वह बड़ी ही शान के साथ मानव का हाथ थाम कर चला करती थी, परन्तु अब वह उसको छूने का भी हक नहीं रखती है। यदि ये सच है तो आज की नारी क्यों इतनी आसानी से किसी 'मानव' से अपने प्यार की आशा बांध लेती है? क्यों उस पर विश्वास करने लगती है? इतना अधिक क्यों चाहने लगती है? जब कि ये सच है कि प्रेम के जोड़े परमेश्वर की तरफ से बनाये जाते हैं। मगर फिर भी मनुष्य सारी वास्तविकता को नज़रअंदाज करते हुये इन प्रेम के मामलों में अपनी दख़लअंदाजी जरूर ही कर देता है।

                इतिहास इस बात की साक्षी देता है कि मनुष्य के द्वारा बनाई हुई प्रेम की कहानी में निस्वार्थ और सच्चाई तो रही है, मगर परमेश्वर की अनुमति न रहने पर उनकी कहानी मात्र एक अधूरा अफ़साना ही बन कर समाप्त हो गई है। वह खुद भी तो ऐसो ही में से एक है। उसने क्यों मानव से इतना प्यार किया था?  कैसे वह उस पर विश्वास कर बैठी?  विश्वास भी किया था, तो क्यों वह उस पर अपने भविष्य के महल खड़े करने लगी थी? क्या यही उसके सच्चे और निस्वार्थ प्रेम का प्रतिफल है?  क्या हर किसी के साथ ही ऐसा हुआ करता है? लोग अपने मन और आत्मा को प्रेम की आत्मा से भरने का एक सपना सजाते हैं, मगर वास्तविकता का टकराव होते ही ये सपना टूटते देर भी नहीं लगती है। वह खाली हाथ 'मानव' के पास आई थी और आज एक रिक्तता और सूने मन को लेकर ही वापस जायेगी भी। आने से पूर्व उसका आंचल खाली था और आज भी उसमें टूटी और निराश आस्थाओं के सिवा और कुछ भी नहीं बचा है। सब कुछ जैसे हाथों में आने से पहले ही छिन गया था।

                कितना अधिक उसने एक 'धरती' ही के समान अपने 'मानव' से प्यार किया है। किसकदर उसको चाहा है। कितना अधिक हर समय वह 'मानव' के लिये सोचती रही है। और 'मानव' से प्यार करने का अंजाम?  कुछ भी तो नहीं। केवल एक निराशा। मायूसी। शायद जीवन भर की एक दर्दभरी बिडम्वना से युक्त एक ऐसी कहानी कि जिसको वह अब केवल जीवन भर दोहराती ही रहेगी। शायद इसके अतिरिक्त और कुछ भी तो नहीं है?  कितना ही अच्छा होता यदि इतना अधिक प्यार उसने अपने बनाने वाले सृष्टिकर्ता परमेश्वर से किया होता? अपने प्यारे जीवन बचाने वाले ख्रीष्ट से कर लिया होता। कर लिया होता तो निश्चय ही आज न केवल उसका उद्धार ही हो चुका होता, बल्कि जीवन की कठिनाइयों से उसको मुक्ति भी मिल गई होती। अब वह क्या करे? किधर भाग कर जाये? ऐसी परिस्थिति में जब कि उसका वह 'मानव' जो उसका ख्याल रखता, वही पराया हो चुका है, तो वह अब कहां जाकर आश्रय ले? क्या यही मानव प्रेम की इतिश्री है? यही अंजाम है उसकी प्रेम से भरी आस्थाओं का?  अनदेखे और बगैर सोचे हुये प्रेम-पथ के मार्गों पर आंखें बन्द करके भागने का परिणाम क्या ऐसा ही कुछ होता है?  प्यार की  नैया में भटक कर आज वह बिना पतवार और मांझी के न जाने कहां चली जाना चाहती है? अपनी इच्छा से बनाये हुये प्रेम के मार्गों पर भटक कर मनुष्य चन्द खुशियों के सहारे, अपने जीवन की उन तमाम सपनों से भरी कल्पनाओं को साकार कर लेना चाहता है कि, जो वास्तविकता के धरातल पर एक पल भी टिकने का साहस नहीं कर सकती हैं। सपने टूटते हैं तो मनुष्य भी अंदर ही अंदर टूट जाता है। यही जीवन का कड़वा सच है कि जिसका एहसास भी उसे अब हो चुका है।

                धरती ने सोचा कि काशः उसने ऐसा नहीं किया होता? मानव के वह इतना करीब नहीं आई होती? नहीं आई होती तो शायद आज दूर हटते हुये उसे ये दर्द और कष्ट तो नहीं झेलना पड़ता। सोचते­सोचते धरती की आंखें फिर छलक गईं। गला भी भर आया। होठों पर सिसकियां आ गर्इं। उन सूख़े होठों पर आहें भी तड़प गईं जो एक लम्बे अरसे से अपने मानव से प्रेम की दास्तॉन कहने का आसरा कर रहे थे। मोहताज़ हो गये वे होठ, कुछ भी कहने से जो सदा से ही मानव से अपने प्यार का मात्र सिला मांगते रहे थे। आज तो कुछ भी नहीं बचा था। प्यार के सपने, सपनों के खेल, झूठी आस्थाओं पर बिकी हुई किसी चीज़ का प्रतिबिम्ब देख कर स्वतः ही गायब हो गये थे। उसे क्या पता था कि, जिस प्रेम के विश्वास पर वह अपनी जिन्दगी के घर की नींव डाल बैठी थी, वह तो झूठे आडम्बरों का मात्र एक नाटक ही है। 'मानव' का प्यार तो केवल एक नाटक ही था। वह तो आरंभ से ही 'प्रकृति' का दीवाना रहा है। 'धरती' को तो वह केवल अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति तक ही सीमित रखे हुये है। कितना बुरा हश्र हुआ है उसके मन में बसी हुई प्रेमभरी लालसाओं का? कितनी बेदर्दी से उसके सपनों को चटकाया गया है? उसके प्यार की कहानी का अंत ठीक बिल्कुल उपन्यासकार शरोवन के दर्दभरे उपन्यासों के समान ही हो गया है- प्यार की एक आधी-अधूरी दर्दभरी कहानी का अंजाम- अन्तहीन अंत और कुछ भी नहीं।

                सोचते­सोचते धरती की आंखें फिर से छलक गईं। अपने प्यार की नाजुक लालसाओं को इस प्रकार तबाह होते देख उसकी आंख से आंसू स्वतः ही टपक­टपक कर नीचे गिरने लगे। होठ सिसक उठे। मानव ने जब सहसा ही धरती को रोते देखा तो एक बार को उसका भी दिल पसीज़ गया। तुरन्त ही उसने धरती को उसके दोनों कंधों से पकड़ कर कहा कि,

'धरती . . . धरती ?'

'क्यों मैं तुम्हारे इतने करीब आ गई थी?  क्यों तुम्हें चाहने लगी थी? आखिर क्यों?

धरती ने सिसकते हुये कहा तो मानव बोला कि,

'पागल हो गई हो क्या ?'

'हां, पागल ही तो हो गई थी मैं।'

कहते हुये धरती ने अपनी आंसुओं भरी आंखों से मानव को देखा।

'धरती, मैं जब अपनी लालसाओं को हर रोज़ तड़पते हुये देख रहा हूं तो क्या तुम ये छोटा सा सदमा भी नहीं बर्दाश्त कर सकती हो। हार या जीत, मिलना या खोना, केवल दो ही रूप हुआ करते हैं हरेक बात के। तुम क्या एक बीमार लड़के से शादी करके अपना घर बसाना पसंद करोगी? सोच लो कि तुम्हारे जीवन में जो तुम्हें मिलना चाहिये था, वह हमेशा के लिये खो चुका है। तुम अपनी लड़ाई लड़ो और मुझे अपनी लड़ाई लड़ने दो।                                                                                     कोई भी समझदार लड़की मुझ जैसे क्षय के रोगी को अपने गले से बांधना पसंद नहीं करेगी।'

                इस पर धरती ने मानव को निहारा। उसे बहुत गौर से देखा। देखा तो उसे मानव बहुत ही परेशान सा दिखा। तब बाद में वह मानव से बोली कि,

'मेरी इस भूल या दीवानगी को, हो सके तो मेरा एक पागलपन समझ कर क्षमा कर देना। मैं बहुत ही अधिक भावुक हो गई थी। ठीक है, तुम मुझे चाहो या न चाहो, मगर मेरे दिल में तुम्हारी जो छवि बन चुकी है, उसे तो तुम नहीं निकाल सकोगे। मैं फिर भी तुम्हारा इलाज कराऊंगी, ताकि तुम बिल्कुल ठीक होकर अपना एक सामान्य जीवन जी सको। मैंने सुना है कि अभी हाल में ही क्षय का एक बहुत ही अच्छा इलाज निकला है। साथ ही, मैं जिस प्रकार से तुम्हारे और प्रकृति के मध्य में आ गई थी, उसी तरह से चुपचाप निकल कर तुम दोनों को फिर से मिलाने की भरपूर कोशिश करूंगी। मैंने तुमको चाहा है। प्यार किया है, इसलिये मैं तुमसे कोई भी शिकायत नहीं करूंगी। मैं हमेशा तुम्हारे और प्रकृति के मिलन की कामना करती रहूंगी। मेरी शुभकामनायें तुम्हारे साथ हैं। तुम्हें शायद नहीं मालुम है कि नारी अपने जीवन में सच्चा और निस्वार्थ प्रेम केवल एक बार ही कर पाती है। ये और बात है कि उसका प्रेम सफल हो या फिर एक अधूरी कहानी बन कर समाप्त हो जाये। तुम्हारा नाम 'मानव' है। मैंने आज तक ये अनोखा नाम किसी का भी नहीं सुना है। मेरा जीवन में अब शायद ही कोई विवाह का कार्यक्रम बने। फिर भी यदि कभी मैंने विवाह किया भी तो उसी लड़के से करूंगी जिसका नाम 'मानव' ही होगा।'

'धरती,  तुमने एक ही बार में मानवता और प्रेम की सारी सीढ़ियां लांघ ली हैं।'

                ये कह कर मानव सोचने लगा कि, सचमुच धरती उसको कितना अधिक प्यार करने लगी है। इतना अधिक कि जिसकी कोई भी सीमा नहीं है। सोचकर ही मानव का मन भी गद्गद् हो गया।

                शाम डूब चुकी थी। रात पड़ रही थी। ईस्टर की खुशियों में कुछ देर पहले जलाई हुईं मोमबत्तियां सिसक­सिसक कर अपना दम तोड़ रहीं थीं। आकाश में चन्द्रमा भी उग आया था। कमसिन सितारों की जैसे बारात सजी हुई थी। शिकोहाबाद के मसीही चर्च कम्पाऊंड में अधजली मोमबत्तियां अब भी जैसे रात्रि के अंधकार को दूर भगाने की एक असफल चेष्टा कर रहीं थीं। बहुत सारी तो बुझ ही चुकी थीं। बाकी भी कुछ देर बाद अपना अस्तित्व समाप्त कर देंगीं। यही विधाता का नियम है। कायदे हैं। जो भी आरंभ होता है उसका अंत एक दिन अवश्य ही होता है। इसी प्रकार धरती और मानव के मन के प्रकाश का दिया भी बुझ चुका था। एक ने 'प्रकृति' के जीवन को आने वाली आंधियों से बचाने के कारण साथ छोड़ा था तो दूसरे ने अपने 'मानव' के मन की मुराद को पूरा करने की ख़ातिर अपनी राहों का काफ़िला एक दूसरे मार्ग पर मोड़ लिया था। सच्चे और निस्वार्थ प्रेम का वास्तविक सिला भी यही होता है कि, प्रेम करने वाला अपने 'प्रेम' को जीवन देने के लिये केवल बलिदान करता है। ठीक उसी तरह से, जैसे कि उद्धारकर्ता प्रभु यीशु मसीह ने हम पापियों से प्रेम की खातिर अपने पवित्र खून का बलिदान किया था। यदि ये सच नहीं होता तो कलवरी की खूनी सलीब के इतिहास की आज कोई मान्यता भी नहीं होती।

                धरती मानव के घर से बाहर निकली। बड़ी ही उदास और मायूस होकर। शायद अंतिम बार। यही सोच कर कि अब उसको इस घर में नहीं आना होगा। नीम के वृक्ष की ओट में आकर वह रूक गई। फिर मानव का हाथ  पकड़ कर वह उससे बोली कि,

'अब मुझे इजाज़त दो। शायद मैं कल ही आगरा चली जाऊं। मैं तो केवल तुम्हारी ही खातिर यहां आई थी। वैसे मैंने यहां नौकरी के लिये अर्जी दी है। यदि मुझे नौकरी मिल गई तो फिर मैं सदा के लिये शिकोहाबाद में आकर रहने लगूंगी। अपना ध्यान रखना। अपनी दवाएं समय से खाते रहना. मैंने जो तुमसे पूछे बगैर दिल लगा लिया था, उसके लिये हो सके तो मुझे क्षमा कर देना। मेरी शुभकामनायें सदा ही तुम्हारे साथ रहेंगीं। प्रकृति को समझाने की कोशिश करना।'

'धरती।' मानव मन ही मन कह कर रह गया।

                तब धरती ने एक बार फिर से मानव को देखा। जी भर के। फिर उसके हाथ को अपने होठों तक लाई और लाकर चूम लिया। पवित्र प्रेम की पहली और अंतिम निशानी के रूप में। फिर धीरे से उसका हाथ छोड़ दिया और  मानव को उसकी आँखों में अपनी आँखों को डुबोते हुए देख कर बोली,

' हैप्पी ईस्टर एंड गुडनाईट।'

                ये कह कर वह अपने घर की तरफ जाते हुये अंधकार में जैसे विलीन हो गई। मानव बड़ी देर तक जैसे बुत बना हुआ सा धरती को उस ओर जाते हुये देखता रहा, जहां पर एक सफेद मानवी जैसी छाया जैसे रात्रि के अंधेरों को चीरती हुई सी चली जा रही थी। शायद अपने जीवन में आये हुये अंधकार को किसी नये मानवीय दीप से रोशन करने की लालसा को रखे हुये। एक नई राह पर। एक नई मंजिल की खोज में।

                      * * *

       प्रकृति का दिल तोड़ कर और धरती की असीम चाहतों को ठोकर मार कर मानव फिर एक बार अकेला रह गया। उससे प्रकृति की बहारें तो छीन ही ली गई थीं, साथ ही धरती के आंचल को भी वह स्वीकार नहीं कर सका था। इस दशा में मानव के लिये प्रकृति का प्यार ही बाकी रहा और न ही धरती का कोई आश्रय ही। वह अब अकेला था। संसार में एक बिल्कुल नितान्त अकेला मनुष्य। दुखी, परेशान और उदास। टूटी और थकी हुई इंसानी ज़िंदगी का मात्र एक सुलगता हुआ उदाहरण। परिस्थितियों के बोझ से दबा हुआ, एक भटके हुये राही की तरह वह अपना जीवन सूनसान और उजाड़ कब्रिस्थान के प्राचीर के समान व्यतीत करने लगा। इतना होने पर भी एक प्रकार से उसके मन में संतोष था कि परिस्थितियों वश उसे प्रकृति के साथ जो भी करना पड़ा वह एक कर्तव्य था और धरती के प्यार को ठुकरा कर उसने जो भी कदम उठाया था, वह भी उसकी मानवता का एक नमूना ही था। यदि वह प्रकृति से इस तरह का व्यवहार नहीं करता तो हो सकता था कि जो मुसीबत वह झेल रहा है, उसमें वह उसे भी ले डूबता। अपने मार्ग से उसे हटाने का उसके पास इससे अच्छा अन्य चारा भी नहीं था। वह सोचता है कि अब प्रकृति उससे दूर हो जायेगी। वह उसे पसन्द भी नहीं करेगी। शायद उससे वह नफ़रत ही करने लगे। जिन प्रकृति की आंखों में कभी उसके लिये प्यार, हमदर्दी और दर्द के अफ़साने सजे हुये थे, वहां अब अलगाव की दूरियां पनपेंगी तो एक दिन प्रकृति उसको अवश्य ही भुला देगी। वह यही सोच कर तसल्ली कर लेगी कि उसके मानव का प्यार खोख़ला और अधूरा था। उसके वादे झूठे और दिखावटी थे। उसका विश्वास एक छल था। तब एक दिन इसी प्रकार अविश्वास की अग्नि में जल­जल कर जब उसके दिल में नफ़रत और घृणा की चिंगारियां फूटने लगेंगी तो मानव का नाम उसके दिल के पर्दे पर से सदा के लिये मिट भी जायेगा।

             मानव अपने बारे में इस कठोर सच को जान गया था कि, वह एक ऐसी बीमारी की जकड़ में आ चुका है कि जिसके कारण उसके जीवन में प्यार और मुहब्बत जैसे विषयों का अब कोई भी मतलब बाकी नहीं रहा है। उसके जीवन का ये ऐसा पड़ाव था कि जहां से जीवन यात्रा तो भले ही समाप्त नहीं होती थी, मगर अब आगे बढ़ने का कोई रास्ता भी नज़र नहीं आता था। वह एक ऐसी जगह पर आकर थम चुका कि, जहां से ज़िंदगी का सफ़र, सफ़र नहीं कहलाता है, बल्कि एक ऐसी ठहरी हुई मंज़िल बन चुका होता है कि अब वहां से कोई भी मार्ग किसी भी तरफ को नहीं जाता है। यहां से उसका जीवन समाप्त नहीं होता था, मगर आयु में एक प्रश्नचिन्ह तो लग ही चुका है। यदि वह प्रकृति की आस्थाओं में जबरन एक विश्वास दिलाने की झूठी कोशिश किये रहता, तो हो सकता था कि, कभी वह उसको उस स्थान पर लाकर अकेला भी छोड़ने पर मजबूर हो जाता, जहां पर कभी नारी को ‘मानव’ की बहुत आवश्यकता महसूस होने लगती है। अचानक ही भरी जवानी में वह उसके जीवन-पथ से विलीन हो जाता तो चाहे एक बार को प्रकृति उसे दोष नहीं देती, मगर जमाने की ज़ुबान उसको फ़रेबी, धोखेबाज़ और विश्वासघाती कहने से कभी भी बाज़ नहीं आती।

             अब दुनियां चाहे उसे कोई भी दोष क्यों न दे। कुछ भी क्यों न कहती रहे ्र मगर उसने तो सदा ही प्रकृति का भला चाहा है। हमेशा से वह उसके सुखी जीवन के लिये ही सोचता रहा है। अब वह जहां भी रहे खुश रहे। वह तो सदा उसको दुआयें ही देता रहेगा। प्रकृति के जीवन में कभी भी पतझड़ों की बारिश न हो, वह हमेशा लहलहाती रहे। यही वह चाहता है। इसी में उसके निस्वार्थ प्रेम का प्रतिफल है कि उसकी प्रकृति का चमन, उसका जीवन सदैव फूलों के समान मुस्कराता रहे। किसी नदी के समान सदा खुशियों की उछालें मारता रहे। सितारों के समान आकाश में चमकता रहे। उसकी खुद की क्या, जो भी थोड़ा बहुत जीवन उसका रह गया है, वह भी इसी प्रकार रिसते हुये कट जायेगा। किसी न किसी तरह। घुट­घुट कर। रो­रोकर। फिर एक दिन इसी प्रकार तड़पते हुये वह अपने जीवन के अस्तित्व को भी समाप्त कर लेगा

 

प्रकृति, मानव और धरती

छटवीं किश्त

 

 

           अप्रैल का माह समाप्त होते ही कॉलेज की अंतिम परीक्षायें आरंभ हो गईं तो प्रकृति भी व्यस्त हो गई। वह अपनी परीक्षाओं की तैयारी में जुट गई। इस बीच मानव के पिता ने बाकायदा उसका इलाज करवाना आरंभ करवा दिया था। प्रति दिन ही उसके इंजेक्शन लगते थे। रक्त का परीक्षण भी नियमानुसार होता था। सो इस प्रकार उसका इलाज होना आरंभ हुआ तो एक बार फिर से उसका बुझा हुआ चेहरा खिलने लगा। स्वत: ही उसके बिगड़े हुये स्वास्थ में कहीं से नये जीवन के अंकुर फूटने लगे। शरीर के अंदर जैसे नये रक्त ने अपना उबाल मारना आरंभ कर दिया। तब मानव ने जब अपने अंदर इस प्रकार के एक नये जीवन के परिवर्तन को महसूस किया तो वह फिर एक बार जीने की लालसा करने लगा। उसकी दम तोड़ती हुई इच्छायें फिर से पनपने लगीं। दिल के अंदर वर्षों से सोई मृत अभिलाषायें अपना कफ़न फेंक कर भाग गईं। अचानक ही मानव को जब जीवन जीने का नया संकेत मिला तो उसके अतीत के सोये हुये सभी ही तार फिर से झनझना उठे। उसके दिल में नई आशाओं ने अपने दीप जलाये तो इन दीपों के प्रकाश में उसके अतीत का बिछुड़ा हुआ प्यार एक बार फिर से तड़प उठा। उसको प्रकृति का वह सामीप्य याद हो आया जब की किसी दिन उसने उसके साथ एक ही राह पर चलने की कसमें खाई थीं।

           मगर इसी आस और उम्मीदों की चाहत में दिन गुज़रते हुये एक लम्बा अरसा बीत गया। अप्रैल माह के अंतिम सप्ताह के आने तक परीक्षायें समाप्त हो गईं। कालेज बंद हो गये। गर्मी के दिन आ गये। ग्रीष्म कालीन छुट्टियां भी आरंभ हो चुकी थीं। दिन में गर्म हवायें चल उठीं। सूर्य का गोला अग्नि का दहकता हुआ अंगार बन कर चलते राह चलते हुए पथिकों का पसीना चूसने लगा। खेतों के गर्भ से फ़सलें कट कर खलिहानों में पहुंच कर जमा हो गईं। रातें भी ओस की मोहताज न होकर चांदनी रातों की ठंडक बन कर दिन भर के थके लोगों को राहत पहुंचाने लगीं। आकाश में चन्द्रमा इठलाते हुये उदित होता और सारी रात नादान तारिकाओं के साथ आंख­मिचौली खेलता हुआ दिन की पौ फटने से पूर्व ही लुप्त हो जाता था। इसी बीच जब कॉलेज की परीक्षाओं का परिणाम घोषित हुआ तो प्रकृति अपनी कक्षा पास करके डिग्री कॉलेज की एक हसीन छात्रा बन गई और आकाश किसी उड़ते हुये बादल के समान लापरवा होने के कारण फेल हो गया। इसके साथ ही प्रकृति की मित्र तारा ने भी किसी प्रकार अपनी परीक्षायें पास कर लीं। फिर जब जुलाई में कॉलेज के द्वार खुले तो प्रकृति ने नई उमंगों के साथ डिग्री कॉलेज में प्रवेश लिया। इंटर कक्षा से डिग्री में पहुंचते ही उसके जीवन में भी जैसे एक नई चहचहाट-सी आ गई थी। उसके रूप में भी पहले से कहीं अधिक निख़ार दिखने लगा। वह सचमुच ही अब प्रकृति सौन्दर्य का एक खूबसूरत टुकड़ा बन कर कॉलेज के हरेक छात्र के लिये आकर्षण का कारण बन चुकी थी। मगर मानव ने अपने घर की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखते हुये अपनी आगे की पढाई को बंद कर दिया और किसी प्रकार से नौकरी ढूंढ़ कर वह अब उत्तर प्रदेश के विद्युत वितरण विभाग में साधारण लिपिक का काम करने लगा था। इस प्रकार से नौकरी का आसरा और सहारा मिला तो वह अपना इलाज पहले से भी अच्छे ढंग से करवाने लगा। प्रकृति एक प्रकार से मानव की राहों से हट कर अब डिग्री कॉलेज की छात्रा बन कर जैसे पहले से भी अधिक व्यस्त हो गई थी। चूंकि आकाश फेल हो गया था, सो वह भी अपनी पहले वाली कक्षा में ही पढ़ने जाया करता था। तारा प्रकृति के साथ ही पढ़ रही थी।

            इस प्रकार से मानव को उसके इलाज ने जब नया जीवन दिया तो उसके दिल के मुरझाये हुये पुष्प फिर एक बार खिलने लगे। उसके शरीर में नये रक्त ने संचार किया तो उसका व्यक्तित्व फिर से अपने में और रंग भरने लगा। उसके चेहरे पर रौनक आ गई। दवाओं का प्रभाव ऐसा हुआ कि उसके चेहरे की आभा बदलते फिर देर भी नहीं लगी। उसके पिचके हुये गाल भरने लगे। आंखों में नई उमंगों के नये सपने फिर से अपना स्थान बनाने लगे। इस तरह से जब उसे नया जीवन मिला तो उसने अपने इस नये जीवन का भरपूर स्वागत किया और वह फिर से नये उत्साह के साथ अपने नये­ नये सपने सजाने लगा। नई­नई भविष्य की कल्पनायें करने लगा। नई लालसाओं के साथ वह एक नई राह पर अपना जीवन गुज़ारने का सपना सजा बैठा। तब ऐसे में जब उसके जीवन में नये रक्त के साथ नई­नवीन लालसाओं के नये अंकुर फूटे तो उसे अपना खोया हुआ प्यार फिर से याद आने लगा। उसे प्रकृति फिर से याद आने लगी। उसके साथ के कभी बिताये हुये लम्हों की याद में वह फिर से परेशान होने लगा। वह जानता था कि, यूं भी वह प्रकृति के मार्ग से बहुत विवशता से हटा था। सब ही लोगों का भला देखते हुये वह उसके मार्ग से अलग हो गया था। वह ये भी जानता था कि, एक दिन वह प्रकृति के भले के लिये उससे झूठ बोल कर अलग हो गया था। उसका दिल तोड़ा था उसने, मगर आज जब वह उसे सारी वास्तविकता को बता देगा तो वह फिर से उसको मना भी लेगा। वह तो आज भी उसको उतना ही अपने मन में बसाये होगी, जितना की कभी पहले बसाये हुये थी। ऐसा सोचते­ सोचते मानव के दिल में कहीं फिर से जैसे खुशियों की बरसात होने लगी। जीवन की खोई हुई आस्थाओं के वापस आने की खुशी में उसको एहसास हुआ कि उसका दिल फिर एक बार नई­नई उमंगों की नई कोपलों से भर चुका है। तब उसने दूसरे दिन ही प्रकृति से कॉलेज में मिलने का निश्चय कर लिया।

          फिर दूसरे दिन प्रकृति से मिलने की आशा में जब मानव ने अपनी आंखें खोलीं तो पूरा दिन चढ़ आया था। उसके दरवाजे की चौखट पर सुबह की नई­नई कोमल धूप उसके घर का आंगन चूमने की चेष्टा कर रही थी। दिन के लगभग नौ बजने वाले थे। रात बड़ी देर तक प्रकृति के ख्यालों में वह सोचता रहा था और देर में सो सका था।

           फिर उसने शीघ्र ही उठ कर स्नान किया। सुबह का नाश्ता तैयार किया। अपने पिता को खाने को दिया और खुद खाने के पश्चात दिन के लगभग ग्यारह बजे तक वह कॉलेज जा पहुंचा। वहां पहुंच कर सबसे पहले उसने आकाश से मिलना चाहा, मगर वह उसको अपनी कक्षा में कहीं भी नहीं दिखाई दिया। लाइब्रेरी में जाकर देखा तो वह वहां से भी निराश हो गया। जब निराश हो गया तो वह वहीं बेमन से अखबार के पन्ने पलटने लगा। तभी उसे ध्यान आया कि वही कॉलेज था। कॉलेज की वही दीवारें थीं। वही माहौल भी था। वही जगह थी, मगर आज वह कॉलेज का विद्यार्थी नहीं था। आज उसके साथा अपना कोई मित्र भी नहीं था। बैठा­बैठा वह कॉलेज का पीरियड समाप्त होने का घंटा बजने की प्रतीक्षा करने लगा।

             फिर जैसे ही कॉलेज के घंटे ने पीरियड समाप्त होने की घोषणा की तो मानव तुरन्त ही बी.एस.सी. की कक्षा के बाहर जाकर खड़ा हो गया। यहां से वह प्रकृति को बाहर निकलते हुये आसानी से देख सकता था। पीरियड समाप्त होने के कारण विद्यार्थी और प्रोफेसर आदि बाहर आने-जाने लगे थे। कॉलेज की लम्बी गैलरी में चहल­पहल सी हो गई थी। मानव खड़ा-खड़ा कक्षा में से बाहर आने वाले हरेक विद्यार्थी को एक नज़र देखता रहा, मगर उसकी व्याकुल आंखें प्रकृति को नहीं ढूंढ़ सकीं। प्रकृति नहीं मिली तो मानव एक सशोपंज में पड़ गया। उसने सोचा कि, प्रकृति कहां गई होगी? उसे तो यहीं कॉलेज में होना चाहिये था। अपने घर से तो वह सीधी कॉलेज ही आती है। जब उसने तारा को अकेले निकलते देखा तो उसका दिल स्वयं  ही एक शंका से भर गया। वह उसकी और प्रतीक्षा करे इससे तो अच्छा होगा वह तारा से ही पूछ ले। यही सोचता हुआ वह अभी दो पग ही आगे बढ़ा होगा कि किसी ने अचानक ही पीछे से उसके कंधे पर अपना हाथ रख दिया। फिर जब उसने पीछे मुड़ कर देखा तो उसका भूतपूर्व सहपाठी बादल उसको देख कर मुस्करा रहा था।

'अरे, मानव ! तुम यहां ?'  मानव को यूं अचानक कॉलेज में पाकर बादल आश्चर्य से बोला।

उत्तर में मानव केवल उससे हाथ मिलाकर मुस्करा पड़ा तो बादल ने आगे पूछा कि,

'कहो, कैसे आना हो गया ? कोई मार्कशीट, जरूरी पेपर आदि की तो आवश्यकता आ पड़ी है क्या ?'

'नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है. ड्यूटी जाने का मन नहीं हुआ सो, यूं ही पिछले दिन याद आ गये थे। इसीलिये कॉलेज की 22 तरफ चला आया था.'  मानव जैसे एक गहरी सांस लेते हुये बोला।

'चलो ! इस प्रकार से हमारी मुलाकात तो हो गई, वरना तुमने तो बिल्कुल ही भुला दिया था हमको। कहो, वैसे आज कल कर क्या रहे हो तुम ?'  बादल ने पूछा तो मानव बोला कि.

'सर्विस मिल गई है, सो वही क्र रहा हूँ।'

;वैरी गुड ! लेकिन कहां पर और किस डिपार्टमेंट में ?'

'विद्युत वितरण विभाग में असिस्टैंट हूं मैं।'

'बहुत ही अच्छे रहे तुम। बड़ा लम्बा तीर मारा है? किस्मत वाले हो तुम, नहीं तो आज कल नौकरी और वह भी सरकारी, किसे मिल पाती है आसानी से।'

'ये सब तो ऊपर वाले की देन है।'  कह कर मानव मुस्कराया।

'सब ठीक तो है? क्या कुछ बीमार आदि रहे थे क्या?  बादल ने उसका मुखड़ा गौर से निहारते हुये पूछा।

'हां ! यूं समझ लो कि जब से कॉलेज से नाता छूटा है, तब ही से बीमारी से रिश्ता जुड़ गया है।'

'क्या खूब कही है यार। तुम तो लगता है कि जैसे शायर हो गये हो ?'

'?-  इस पर मानव चुप हो गया तो बादल ने बात आगे बढ़ाई। वह बोला कि,

'कॉलेज क्या कुछ काम से आये थे ?'

'कहा न, नहीं, बस यूं ही यहां की याद आ गई थी।'

'मगर तुम कुछ आवश्यकता से अधिक ही गंभीर दिखने लगे हो। क्या  कोई विशेष बात हो गई है तुम्हारे साथ ?' 'तुम्हारा मतलब ?'  बादल की इस बात पर मानव ने चौंक कर कहा तो बादल उसका चेहरा पढ़ते हुये एक संशय से बोला कि,

'मेरा मतलब कि, किसी प्रकार की कोई ट्रेजिड़ी वगैरह­वगैरह ?'

'ट्रेजिड़ी ? ऐसी किस्मत कहां है मेरी।'  मानव ने जैसे एक गहरी सांस लेते हुये कहा तो बादल ने तुरंत विषय को बदल दिया। उसने आगे कहा कि,

'अब तो नौकरी भी करने लगे हो तुम। फिर शादी­वादी कब करने जा रहे हो ?'

'ऐसा कोई भी इरादा नहीं है मेरा।'

'क्यों ? क्या किसी से मधुर-प्रेममय सम्बंधनों की कोई भी कहानी आदि कुछ भी नहीं रचि है तुमने अब तक ? जब कॉलेज में थे, तब तो बहुत सारी लड़कियों से तुम्हारा नाम जुड़ने की खबरें आम हो गईं थीं ?'

'?'- बादल की इस बात पर मानव अचानक ही ख़ामोश हो गया तो बादल उसका मुख देखते हुये बोला कि,

'अब क्या सोचने लगे?'

'वे दिन दूसरे थे तब बादल।'  मानव जैसे उदास हो गया।

'खैर छोड़ो। सीधी­सीधी-सी बात कर लेते हैं। ये बताओ कि कहीं किसी से कोई प्यार की चोट तो नहीं खा बैठे। मेरा मतलब कि दिल्लगी का जुआ खेला हो और सब कुछ हार गये हो?'

'ऐसा क्यों पूछ रहे हो तुम मुझसे?'

'तुम्हारी खोई­खोई आंखें और चेहरे की उदासी देख कर, मैंने तो अनुमान से ही ये बात कही है तुमसे।'

'ठीक है, तुमने पूछा तो मैं बताये देता हूं। हां था, कोई बहुत प्यारा पुष्प, मगर अब वह मेरी ज़िंदगी का कांटा बन कर चला भी गया है।'  मानव ने कहा तो बादल के मुख से सहसा ही निकल पड़ा,

'ओह ! वैरी सौरी। मुझे वाकई बहुत अफ़सोस हुआ है, ये सब सुन कर।'

'तुम्हें दुख और अफ़सोस नहीं करना चाहिये। ये तो मेरे किये का सिला है। जैसा बोया था, वैसा ही मुझे फल भी मिला है।'

'हां, मगर फिर भी मन तो खराब हो ही जाता है- उस दशा में जब ऐसी बात अपनों के साथ घटित हो जाती है।' 'मगर है कौन वह, जो तुम्हें नहीं समझ सकी। तुम्हारा नाम तो कॉलेज में अच्छे लड़कों में गिना जाता था।'

'?'- बादल की इस बात पर मानव जब फिर से चुप और गंभीर हो गया तो बादल ने बात बदल दी। वह उससे बोला,

'मैं भी तुम्हें कहां कुरेदने लगा हूं। बहुत दिनों के पश्चात तो हम मिले हैं। चलो एक-एक प्याला चाय पीते हैं, चल कर।'

                 ये कहता हुआ बादल उसे कॉलेज की कैन्टीन में ले जाने लगा। रास्ते भर बादल ही उससे बातें करता रहा। कॉलेज की पुरानी बातों को याद करके दोहराता रहा। कुछेक अपनी भी नई बातें कह डालीं, मगर मानव केवल उसको हां-हूं ही में उत्तर देता रहा। मानव की बेचैन आंखें केवल बादल की बातों से कहीं अधिक प्रकृति को ही तलाशती रहीं। मन ही मन वह उसको एक नज़र देख लेने के लिये जैसे व्याकुल बना रहा। पर ये उसकी किस्मत ही थी कि, यहां कॉलेज में आने के पश्चात भी वह प्रकृति को नहीं देख पाया था। कैन्टीन के अंदर जाने के पश्चात बादल तो चाय का ऑडर देने के लिये चला गया, परन्तु मानव वहीं एक ओर खड़ा रहा। कुछेक पलों के अंतर में ही उसने कैन्टीन के अंदर बैठे हुये लोगों पर दृष्टि डाली तो उसकी आंखें फटी की फटी रह गईं। तुरन्त ही उसे ऐसा लगा कि जैसे उसके पैरों से कहीं ज़मीन ही खिसक गई है। उसकी आंखों में, उसे लगा कि जैसे किसी ने अचानक से, जैसे किसी ने ढेर-सारी बालू भर दी थी । ये वह क्या देख रहा था? उसके सामने ही एक कोने वाली सीट पर प्रकृति बैठी हुई थी। बैठी थी, परन्तु अकेली नहीं। उसके साथ में आकाश भी बैठा हुआ था। आकाश की पीठ मानव की तरफ थी, सो वह उसे देख नहीं पाया था। परन्तु प्रकृति उसके तो सामने ही थी। जब उसकी दृष्टि मानव से मिली तो वह भी ऐसे चौंक गई कि जैसे किसी ने उसे कोई गलत काम करते हुये पकड़ लिया हो। प्रकृति को शायद मानव की यूं कॉलेज में मिलने की आशा कतई नहीं थी। मानव तो प्रकृति को देख कर परेशान हो ही चुका था। उसके दिल के सारे सजे हुये अरमानों पर जैसे आग बरस पड़ी थी। इस प्रकार की एक ही पल में उसका सारा प्यार धूं­धूं करके जल उठा था। वह सोचता था कि, तकदीर के सबब से कैसा भी चाहे क्यों न कुछ हो गया था, मगर फिर भी उसे प्रकृति से ऐसी उम्मीद कतई नहीं थी। उसकी आंखों के समक्ष ही प्रकृति ये क्या कर रही थी? सब ही जानते हैं कि प्रकृति एक मसीही, ईसाई लड़की है और आकाश एक गैर-मसीही। प्रकृति को उसके साथ मित्रता रखने से क्या लाभ होने वाला था? उसके जी में आया कि वह यहां से इसी समय बाहर चला जाये। क्यों आया था वह यहां पर?  क्यों यहां आने की उसने भूल कर दी?  उसे तो यहां से तुरन्त चला जाना चाहिये। यही सोच कर वह पीछे दरवाज़े की तरफ वापस हुआ ही था कि, तभी उसको बादल ने आकर रोक लिया। आश्चर्य से वह उसे ताकते हुए बोला कि,

'कहां चल दिये थे?  मैंने कहा था कि, मैं चाय का ऑर्डर देने जाता हूं?'  

बादल ने आश्चर्य से कहा तो मानव फिर से ख़ामोश हो गया। तब मानव की ख़ामोशी देखते हुये बादल ने उसे फिर से कुरेदना चाहा। वह बोला कि,

'लगता है कि तेरे मन में किसी बड़े भेद का दर्द छुपा हुआ है, तभी तू बात करते­करते अचानक ही कहीं गुम हो जाता है। जब तू कॉलेज में पढ़ा करता था, तब तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं था? अब क्या रोग लग गया है तुझको? मानव, मनुष्य को ये मानवीय जीवन बड़ी ही कठिनाईयों के बाद मिला करता है। हंस­खेल कर अपना जीवन व्यतीत करना सीख। आखिर बात क्या है। अगर बतायेगा तो हो सकता है कि मैं तेरी कुछ सहायता कर सकूं?'

         बादल ने मानव की गंभीरता और बुझे हुये चेहरे को देख कर जब उसे पूरा भाषण ही दे दिया तो माव ने उससे कहा कि,

'सोच ले कि यदि ऐसी ही कोई बात है तो मैं यदि यहां कैन्टीन में चाय न पीकर बस स्टैंड पर पीना चाहूं तो तुझे कुछ परेशानी तो नहीं होगी?'

'क्या मतलब है, अब तेरा? मैंने तो चाय का ऑर्डर भी दे दिया है। फिर तूने क्या कभी भी इस कैन्टीन में चाय नहीं पी है? अब क्या परेशानी है?'  बादल ने चौंक कर कहा तो मानव ने उससे जैसे आग्रह किया। वह उससे बोला कि,

'यार, समझा तो कर। कुछेक बातें एक दम से नहीं बता दी जाती हैं। चल बस स्टैंड पर चलते हैं, वहीं बैठ कर बातें भी कर लेगें।'

'ठीक है। जैसी तेरी इच्छा। बहुत दिनों के पश्चात तो मिला है. मैं कुछ कह भी तो नहीं सकता हूं।'  ये कहते हुये बादल ने जैसे हथियार डाल दिये। लेकिन तभी प्रकृति आकाश के साथ कैन्टीन के बाहर निकली तो मानव उसे बड़ी देर तक जाते हुये देखता रहा। फिर देखते हुये जैसे कहीं विचारों और ख्यालों में ही गुम सा हो गया।

      तब बादल ने परिस्थिति को भांपते हुये और मानव का चेहरा पढ़ते हुये, प्रकृति की तरफ देखते हये उससे एक संशय के साथ पूछा कि,

'क्या यही तेरी परेशानी थी? अब बोल कि, क्या तू अब भी बस स्टैंड पर ही चाय पीना पसन्द करेगा?'

'?'- इस पर मानव बादल से कुछ कह नहीं सका। वह चुपचाप उसका चेहरा भर देख कर रह गया। तब बादल ने उसका हाथ पकड़ा और आग्रह करते हुये बोला,

'अब चल, पहले चाय तो पी लेते हैं। तेरा ये रोना-धोना तो सदा चलता ही रहेगा। फिलहाल, खतरा तो टल ही चुका है.'

         तब मानव बगैर कुछ भी कहे सुने किसी पंख कटे हुये पक्षी के समान चुपचाप उसके साथ उस खाली मेज़ पर जाकर बैठ गया जहां पर बैरा पहले ही से चाय रख कर चला गया था।

        फिर जब दोनों मित्र बैठ गये तो बादल ने चाय पीना आरंभ कर दिया। चाय का एक घूंट लेते ही बादल बोला ने अपनी बात फिर से शुरू कर दी. वह बोला कि,

'तेरे चक्कर में तो चाय भी ठंडी हो गई है।'

        इस पर मानव ने कुछ भी नहीं कहा। वह चुपचाप बादल के साथ चाय के घूंट भरता रहा। फिर वह कहता भी क्या। प्रकृति को आकाश के साथ देख कर उसका दिल तो पहले ही टूट चुका था। मन ही मन वह प्रकृति के प्रति खिन्न भी हो गया था।  प्रकृति अपने मार्ग से हटकर कभी ऐसा भी कर सकती है, उसने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था। उसके तो ख्यालों में भी कभी झूठे से भी नहीं आया था कि, वह कभी प्रकृति को इस रूप में भी देख लेगा। उस पर जान देने वाली प्रकृति किसी गैर-मसीही युवक के साथ अपने प्यार के दीपों को जला रही होगी? आज वह कितने लम्बे अरसे के बाद अपने जीवन की खोई हुई तमन्नाओं को दिल की सारी गहराइयों से फिर एक बार नई ज्याति देने के ख्याल से यहां आया था, परन्तु उसे क्या मालुम था कि, बदमिजाज़ 'प्रकृति' के एक ही रूठे हुये झोंके के प्रभाव से उसके दिल में बसी हुई सारी हसरतें वापस अपने अतीत में जाकर बेजान पड़ जायेंगी। वह कभी सोचता भी नहीं था कि, यूं अचानक से उसके सारे अरमानों पर पत्थर भी बरस पड़ेंगे। उसकी प्रकृति—प्रकृति का अपूर्व सौन्दर्य- आज बगैर कोई भी संकेत किये हुये आकाश की बाहों में पहुंच चुका था, ये सोच कर ही मानव अपने आप में एक बार फिर टूट चुका था।

'मानव?'

      बड़ी देर की खामोशी के पश्चात बादल ने बातों का सिलसिला फिर से आरंभ करना चाहा तो मानव चुप होकर उसकी ओर देखने लगा। तभी बादल ने अपनी बात शुरू की। वह बोला कि,

'जो फूल तुम्हारे दिल को दुख देने वाला कांटा बन गया है, उसके बारे में अब तुम चाहे न भी बताओ, मगर मैं बहुत कुछ समझ जरूर गया हूं।'

'?'-  बादल की इस बात पर मानव ने तब भी कुछ नहीं कहा। वह केवल बादल को एक नज़र देख कर ही रह गया।

'अभी-अभी जो लड़की आकाश के साथ, कैन्टीन से बाहर निकल कर गई है, उसको देखा था तुमने?'  बादल ने मानव से पूछा।

'हां।'

'तुम्हारे ही मुहल्ले की रहने वाली है?'

'हां, उसका नाम प्रकृति है।' मानव बोला।

'जितनी सुंदर है, उतनी ही चंचल भी है। जब से उसने इस कॉलेज में प्रवेश लिया है, तब से सारे छात्रों की ज़ुबान पर उसका ही नाम रहता है। क्या रूप है उसका। कुछ भी, क्रिश्चियन लड़कियां भले ही साधारण-सी क्यों न हों, पर उनके रहन-सहन का ढंग, आकर्षित अवश्य ही करता है.' '

'बादल?  मानव ने उसे टोका तो बादल आगे बोला,

'जैसा नाम है, वैसा ही उसका काम भी है। जानते हो कि आज कल कॉलेज के सबसे नामी दादा लड़के से उसका रोमांस चल रहा है।'

'कौन है वह?'

'अरे, वही आकाश,जो हमारा-तुम्हारा भी दोस्त है.'

'नामी और दादा होगा, तो वह दूसरों के लिये। मेरा तो वह अच्छा मित्र भी है।'

'लेकिन, यही बात तो अभी मैंने भी खी है तुमसे. तो, यही प्रकृति तुम्हारे दिल की परेशानी नहीं बन चुकी है अब?'

'?'- खामोशी। मानव बादल की बात पर फिर से चुप हो गया तो बादल ने आगे कहा। वह बोला कि,

'है न, यही बात?'

'अरे छोड़ भी इन बातों को।'

'देख, बताने और कह देने से मन हल्का हो जाता है। वैसे तेरी मर्जी है। मैं तुझे फ़ोर्स नहीं करूंगा.'  बादल ने कहा तो मानव ने आगे कुछ भी नहीं कहा। इस बीच चाय समाप्त हो चुकी थी। बादल ने काउन्टर पर जाकर चाय के पैसे दे दिये, फिर वह मानव के साथ कैन्टीन के बाहर आ गया। कॉलेज के मनमोहक प्रांगण में, जहां पर हर स्थान पर छात्र और छात्रायें बागों में तितली और भौंरों के समान प्रतीत होते थे। दोनों मित्र चुपचाप चले जा रहे थे। बिल्कुल चुप। एक के विचारों में अपनी तकदीर की मार के कारण प्यार की ठोकर का असर था, तो दूसरे के दिल में इस ठोकर के दर्द की अनभिज्ञता के प्रति गहरी हमदर्दी।

'यार, तूने ये रोग लगा कैसे लिया?'  चलते­चलते बादल ने फिर से वही विषय आरंभ करना चाहा तो मानव ने उसे सचेत करना चाहा। वह बोला,

'तुझे इसके अलावा कोई अन्य बात नहीं करनी है, क्या?'

'यही तो दिन हैं, इन बातों के लिये। जब उम्र बढ़ जायेगी तब कौन करेगा ऐसी बातों को। तब तो ऊपर वाले का भजन ही हो जाये, यही बहुत समझ लेना।'  बादल ने कहा तो मानव ने आगे फिर कुछ भी नहीं कहा।

       उसके बाद दोनों चलते हुये बॉटनी गार्डन में पहुंच गये। बाग में पहुंचते ही जब वहां की बहारों ने उनके पैरों को चूमना आरंभ किया तो पल भर में ही जैसे दोनों के मध्य छाई हुई गंभीरता गायब हो गई। तरह­तरह के पेड़­पौधों, आपस में गुंथी हुई झाड़ियां व वृक्षों के गले से लटकती हुई बेलें, सारे बाग का सौंदर्य बन कर ईश्वर की बनाई हुई इस खूबसूरत सृष्टि के द्वारा उसकी उपस्थिति की गवाही दे रहीं थीं। हर तरफ सुन्दर से सुन्दर फूल—फूलों के चारों तरफ लापरवाही से मंडराती हुई नाजुक तितलियां सारे आलम की हर वस्तु को जैसे बार­बार चूमती जा रही थीं। बाग में पुष्पों की खुशबू अब भी हवाओं में अपनी महक बन कर हर आने वाले का स्वागत करती प्रतीत होती थीं।

बादल मानव के साथ हरी­हरी घास पर आकर बैठ गया था। बैठ कर उसने तो अपनी किताबों का तकिया बना कर अपने सिर से रखा और फिर वहीं भूमि पर अधलेटा सा हो गया। मानव भी वहीं उसके पास बैठा हुआ था। दोनों मित्र अभी तक मौन ही थे। बादल बड़ी शान्ति से अपने ऊपर तने हुये आकाश की नीलिमा को निहार रहा था,  परन्तु मानव की आंखें जैसे ज़िंदगी से थकी हुई निराश कामनाओं के साथ फिर भी किसी को जबरन तलाश करने की एक असफल कोशिश कर रही थीं। इस के साथ ही कहीं­कहीं पर बाग के छिपे हुये एकान्तों में कुछेक विद्यार्थियों के प्रेमी-युगल अपने­अपने प्यार की सच्ची­झूठी कसमें खाने में लीन थे।

'बादल।'

'हूं।'  मानव की बात का जब बादल ने उत्तर दिया तो वह बोला कि,

'मेरे लिये एक काम कर सकोगे?'

'बता न। ये भी कोई पूछने की बात है क्या? हुक्म कर?' बादल बोला तो मानव ने कहा कि,

'मैं जब यहां से चला जाऊं तो आकाश से कहना कि वह मुझ से मेरे घर पर ही मिल ले।'

'हां, जरुर ही कह दूंगा। मगर क्या कोई ख़ास बात है?'

'नहीं, ऐसी विशेष भी नहीं. बस कुछेक बातें करनी हैं उससे।'

'ठीक है, लेकिन उससे कुछ उल्टा­सीधा मत कह बैठना। तू तो जानता ही है कि वह किस प्रकार का लड़का है।'  बादल बोला तो मानव ने फिर उससे चलने के लिये कहा। वह बोला कि,

'अच्छा ! अब मैं चलना चाहूंगा। फिर कभी अवसर मिला तो जरूर आऊंगा।'  ये कहता हुआ मानव उठ खड़ा हुआ। साथ में बादल भी उठ कर खड़ा हो गया। फिर बाग के बाहर आ कर मानव जैसे ही सड़क की ओर चलने को हुआ तो बादल ने उसका हाथ पकड़ते हुये उससे कहा कि,

'मानव, मैं नहीं जानता हूं कि तुझे किस बात का दुख है। तेरा क्या कुछ खो गया है, या तेरी ऐसी कौन सी इच्छा है जो पूरी नहीं हो पा रही है। मगर मैं एक बात तो समझ ही गया हूं। तू आजकल खुश नहीं रहता है। इसलिये मैं जो कुछ भी महसूस कर रहा हूं, उसके आधार पर यही कह सकता हूं कि, यदि जीवन में मेरी कोई भी जरूरत आ पड़े तो कहने से संकोच मत करना। मैं इस लायक तो नहीं हूं कि तेरा सारा दर्द बटोर कर अपने अंक में भर लूं, मगर फिर भी कोशिश अवश्य ही कर सकता हूं। हो सकता है कि ये आवारा 'बादल' का टुकड़ा कभी तेरा थोड़ा सा भी दर्द बांटने में सफल हो जाये।'

'बादल'-  मानव होठों में ही बुबदाते हुये उसका मुख देख कर कह गया। तब मानव ने बादल से हाथ मिलाया और फिर चुपचाप सड़क की ओर निकल गया। सड़क पर आकर वह सीधा अपने घर की तरफ जाने लगा। बादल बड़ी देर तक कॉलेज के मैदान में खड़ा­ खड़ा उसको जाते हुये देखता रहा। प्यार की बाजी जीतने के प्रयास में खोटी चालों ने किस कदर मानव के जीवन का चैन और चेहरे की आभा छीन ली थी, वह इस हकीकत को बखूबी समझने लगा था। एक थके­हारे पथिक के समान मानव के कदम चुपचाप मसीहियों की बस्ती, चर्च कम्पाऊंड की तरफ बढ़ते जा रहे थे। बादल अभी भी मानव को निहार रहा था। तभी मानव को निहारती हुई दृष्टि अचानक ही दूर कोने में बने हुये चर्च की चोटी पर खड़ी सलीब पर आ टिकी। चर्च की इमारत पर बड़े-बड़े अक्षरों में ये शब्द लिखे हुये थे- 'जीवन और मार्ग मैं ही हूं।'

       बादल जानता था कि, ये शब्द मसीहियों के उद्धारकर्ता प्रभु यीशु मसीह के थे, जो कभी उन्होंने उस समय इस्राएल की भूमि पर कहे थे, जब कि वे इस संसार में मुक्ति का संदेश देने के लिये हरेक 'मानव' के लिये अपना पवित्र रक्त बहाने के उद्देश्य से आये थे। उसने प्रभु यीशु मसीह के इन शब्दों को पढ़ते हुये मन ही मन मानव के स्वास्थ तथा उसके सुखी जीवन की कामना की तथा यही विचारा कि शायद मानव के जीवन में ऐसा कुछ हो जाये कि प्रभु यीशु मसीह ही उसको जीने का सच्चा मार्ग दिखा दें। दिखा दें, तो कितना भला हो— किस कदर सुखदायक और शान्ति से भरा हुआ। इस जहांन के भटकते हुये 'मानव' का जीवन सफल हो जाये।

         मानव चला जा रहा था। चला जा रहा था। सोचता हुआ। वह सोच रहा था- प्रकृति के लिये। बादल के लिये। आकाश के लिये और अपने लिये भी। एक मित्र बादल है। एक मित्र उसका आकाश भी है। अब ये उसे ठीक से नहीं मालूम है कि आकाश ने उसके प्रेम को छीना है या फिर उसने खुद ही अपने इस प्रेम की कद्र नहीं की है। दूसरा एक बादल भी है, जिसकी मित्रता केवल एक भूतपूर्व सहपाठी तक ही सीमित रही थी। आकाश और बादल, दोनों एक ही परमेश्वर के द्वारा रचे हुये आसमानी देश के वासी हैं। दोनों का कार्य भी एक समान है। मगर ये कैसा संयोग है कि, एक के कारण उसकी परेशानी बढ़ गई है, तो दूसरे ने उसके दर्द को अपना समझ कर बांटने का वादा किया है। एक प्रकार से उसके साथ­साथ उसका दुख उठाने के लिये अपनी मित्रता से भरे प्रेम का हाथ  बढ़ाया है।

                                          

 

* * *

 

              संध्या के छ: बजे होंगे। दूर क्षितिज में सूर्य की अंतिम रश्मियों की लालिमा का रंग बिखर चुका था। शाम डूबी जा रही थी। दिन थक चुका था। दिन भर का भागता हुआ सूर्य का गोला भी जैसे बहुत ही थक कर आकाश के एक कोने में बैठ कर जैसे सुस्ताने लगा था । इस प्रकार कि उसकी अंतिम किरणों की लाली कभी भी अपना रहा-बचा जीवन समाप्त कर सकती थी। मानव, प्रकृति की ओर से निराशा का बुत बना हुआ चर्च कम्पाऊंड की बाहरी दीवार से अपना मुंह टिकाये हुये चुपचाप ढलते हुये सूर्य की शव यात्रा को देख रहा था। बहुत ही उदास, चटके हुये कांच के समान टूटा­टूटा, थका-सा, खड़ा­खड़ा, मायूस-सा। वह न जाने कितनी ही देर से यहां आ गया था, उसे तो ये भी नहीं याद था।

             फिर कुछ ही क्षणों के पश्चात जैसे ही सूर्य की अंतिम लालिमा ने बेबस और बेदम होकर अपनी अंतिम सांस तोड़ दी तो इसके साथ ही वातावरण का शव भी अंधकार की चादर को समेटने के लिये अपने हाथ  बढ़ाने लगा। क्रमश:  सारे माहौल में धीरे­धीरे रात्रि ने अपने पग बढ़ाने आरंभ कर दिये। रात के काले सायों को करीब आते देख मानव का दिल फिर एक बार उसकी ज़िंदगी के ऐसे ही काले अंधेरों में डूब गया। उसका जीवन भी तो किसी काली मनहूस रात के अंधेरों से कम नहीं है। ऐसा उसने सोचा, तो उसके दिल के किसी कोने में बसा हुआ दर्द का गुबार स्वत: ही फैलते हुए उसके मुख की सारी आभा को काला करने लगा। मन में बसी हुई उसके भविष्य की प्यार भरी आस्थायें तो पहले ही अपना दम तोड़ चुकी थीं। अब दिल के घावों पर जैसे आरे भी चलने लगे थे। प्रकृति का ऐसा बदला हुआ मिजाज़ और रूप देख कर वह एक बार को विश्वास भी नहीं कर सका था। परन्तु अब तो सच्चाई उसके सामने ही थी। आज वह अपने सजे हुये सारे अरमानों की लाश खुद अपनी आँखों से देख कर  आया था। अपने दिल की हसरतों को किसी गैर की बाहों में मदहोश देख कर उसके दिल और दिमाग का सारा बचा­बचाया चैन फिर से जाता रहा था। वह परेशान हो चुका था। ऐसा कब तक चलता और कब तक वह अपने आप को सुलगाता रहता। इसी कारण उसने आज खुद ही प्रकृति से एक बार मिलने का फैसला कर लिया था। किसी भी दशा में उसे आज प्रकृति से मिल कर इस प्रेम के नाटक का परदा बंद कर देना था। आज उससे मिलने के पश्चात फिर वह कभी भी उसके जीवन की राहों में अपने अतीत के प्यार का तकाज़ा करने नहीं जायेगा। इसी कारण मानव चर्च कम्पाऊंड की बाहरी दीवार से मुंह टिकाये हुये खड़ा­खड़ा ऐसा ही कुछ सोचे जा रहा था। वह सोचे बैठा था कि जब भी प्रकृति अपनी हर रोज़ की आदत के अनुसार बाहर कम्पाऊंड के मैदान में टहलने को निकलेगी, तभी वह उससे मिल लेगा। मिल लेगा। एक बार। शायद अंतिम बार को ही?

            फिर जैसे ही रात के प्रथम पहर और पूरी तरह से डूबी हुई शाम के अंधकार ने चर्च कम्पाऊंड के माहौल को अपने धुंधलके में समेट लिया तो प्रकृति वर्षा के साथ टहलने को बाहर निकली। लाल छींटदार मैक्सी पहने हुये। सौंदर्य की मलिका बनी हुई। अपने लम्बे बालों को उसने बड़ी ही लापरवाही से ढीली बंधी हुई चोटी के रूप में संवार रखा था। शाम की ठंडक में हल्की-हल्की वायु की लहरें आते­जाते मनुष्य के शरीर को जैसे चुपके से नोच कर भाग जाती थीं। मौसम बड़ा ही शांत और तकदीर भरा प्रतीत होता था। इसी भले और शांत मौसम की हल्की वायु की लहरों में प्रकृति अपनी बहन वर्षा का मासूम हाथ पकड़े हुये चर्च कम्पाऊंड के मैदान में चुपचाप घूम रही थी। तब उसी के इंतज़ार में खड़ा हुआ, अपने टूटे हुये दिल को संभाले हुये मानव ने जब उसे देखा तो वह किसी की भी परवा किये बगैर मैदान में आ गया। फिर अवसर पाते ही वह प्रकृति के सामने आकर खड़ा हो गया। लेकिन प्रकृति ने जब मानव को इस रूप में अचानक ही अपने सामने पाया तो वह उससे बचती हुई कतरा कर निकली और अपने घर की तरफ जाने लगी। वह उसके आने का मतलब शायद समझ चुकी थी और बात भी नहीं करना चाहती थी।

                मानव ने जब उसको इस प्रकार से जाते हुये देखा तो जैसे तड़प कर बोला कि,

'प्रकृति?'

          मगर प्रकृति ने उसकी तरफ घूम कर भी नहीं देखा। वह सीधी-सी अपने घर की तरफ चली गई। चली गई और मानव को अपने मौन व्यवहार से ये भी बताती गई कि, एक बार भी वह मानव की तरफ देखना भी नहीं चाहती है। एक बार भी नहीं। मानव का दिल टूटा तो टूट कर ही रह गया। उसके दिल की समस्त आशायें रक्त के आंसू बहाने लगीं। उसने सोचा ओफ़ ! इतनी घृणा? ऐसी नफ़रत कि, एक दिन उसके जीवन के लिये अपना जीवन कुर्बान करने वाली आज उसकी शक्ल भी नहीं देखना चाहती है? बड़ी बेदर्दी से वह अपना मुंह फेर कर चली भी गई। एक दिन था कि, जब यही प्रकृति उसकी आँखों में अपनी शक्ल का प्रतिबिम्ब बनाते हुये कभी भी नहीं थकती थी। परन्तु आज वही कितनी हिकारत से मुंह घुमा कर चलती बनी है? एक समय था, जब यही प्रकृति उसके प्रति बनाये हुये अरमानों में डूब कर उसके दिल की धड़कनों से लग जाती थी, पर आज, वह उसकी शक्ल से ही नफ़रत तो क्या ही, जैसे घृणा करने लगी है। मानव ने खड़े­खड़े सोचा तो उसका दिल पहले से भी अधिक दुखने लगा। दुखने लगा, तो वह ये नहीं समझ पाया कि ऐसी दशा में उसे अब क्या करना चाहिये और क्या नहीं। प्रकृति से अपने जीवन की अंतिम दो बातें करने के लिये उसका मन छटपटा रहा था। मगर प्रकृति को शायद ये भी गवारा नहीं था। वह तो जैसे सब कुछ भूल चुकी थी। पिछले अतीत के प्यार भरे दिन, जो कि उसने मानव के साथ­साथ  गुज़ारे थे, आज सब के सब उसके मन के पर्दे से साफ हो चुके थे। उसके जीवन के वे कीमती प्यार भरे वायदों के पल जो कभी महज हवा की एक ही तरंग से महक उठते थे, मानव के दिल की चादर पर काले दर्द के टुकड़े बन कर चिपक भी गये थे।

         मानव अभी भी कम्पाऊंड के मैदान में खड़ा­खड़ा किसी पत्थर के बुत समान ये सब सोचता ही रह गया। प्रकृति उसके दिल की आरज़ू में अपनी लात मार कर जा चुकी थी। कम्पाऊंड के मैदान में अब कोई भी नज़र नहीं आता था। सब ही जैसे उसकी उपस्थिति को वहां देख कर कोई भी नहीं आना चाहता था। केवल रात के अंधकार को कम करने के लिये आकाश में उगा हुआ चन्द्रमा किसी नीम की घनी पत्तियों के पीछे से झांकने लगा था। उसकी पतली­पतली सींक सी रश्मियां घनी पत्तियों की बनी हुई जाली से छन­छन कर बाहर आने का एक असफल प्रयास कर रही थीं।

           मानव के दिल को जब चैन नहीं आया तो वह परेशान होकर शिकोहाबाद के बाई पास की बनी सड़क पर उदास होकर आ गया। उदास होकर वह विद्युत विभाग के एक लावारा पड़े हुये सीमेंट के पोल पर निराश और खामोश आकर बैठ गया। बैठते ही वह अपने उदास और तन्हा जीवन के बारे में सोचने लगा। प्रकृति ने आज अपनी भरपूर बेरूखी दिखा कर उसके दिल के घावों पर नमक छिड़कने में कोई भी कमी नहीं छोड़ी थी। उसके दिल के अरमानों में आग लगाते हुये जैसे उसके मुख पर एक जोरदार तमाचा जड़ दिया था, उसने। ऐसा तमाचा कि, अब वह जीवन में किसी के पास भी अपने प्यार का फ़साना नहीं सुना सकेगा। प्यार के रास्तों पर बेतहाशा और अनदेखे भागने की वह सीख उसे मिली थी कि, अब वह कोई अन्य प्रेम की इबारत नहीं पढ़ सकेगा। अब वह क्या करे?  कहां जाये?  किस प्रकार वह प्रकृति के दिल को समझाये?  कैसे उसे अपनी मजबूरियों से अवगत कराये?  वह तो उसकी तरफ देखना भी नहीं चाहती है। ये कैसा उसका जीवन है?  कैसी उसके अधूरे और असफल प्यार की कहानी है कि आज अपनी ही बनाई हुई राहों में वह भटक गया था। आज वह अपने प्यार की बनाई हुई कहानी को ना तो धरती'  की गोद में दफ़न कर सकता है और ना ही 'प्रकृति'  के वातावरण में कोई शरण दे सकता है। कैसे अपने को तसल्ली दे, और कैसे रूठी हुई प्रकृति को मनाये?  जब कि वह ये अच्छी तरह से जानता है कि, 'मानव' का जीवन 'प्रकृति'  के बगैर सदैव ही अधूरा रहा है। प्रकृति उसके दिल की सम्पूर्ण धड़कनें बन चुकी है। उसके बगैर तो वह एक पल भी नहीं चल सकता है। विधाता का भी ये कैसा रिवाज़ है कि, वह मनुष्य को एक वस्तु देता है तो जैसे उसकी कीमत भी वसूल कर लेता है। पहले उसको प्रकृति का सहारा दिया था तो साथ ही उसका खुद का जीवन भी दांव पर लगा दिया था और आज जब उसको फिर से नया जीवन दिया है तो प्रकृति को भी जैसे छीन लिया है। उसका प्यार वापस ले लिया है। अब वह शायद फिर कभी भी प्रकृति के दिल में वही पहले वाली भावनायें नहीं भर सकेगा। प्रकृति का दिल, दिमाग और मन की भावनायें सारा ही कुछ तो परिवर्तित हो चुका है। उसके दिल में से 'मानव'  के स्थान पर किसी अन्य की तस्वीर बन चुकी है। वह किसी गैर के प्रति अपने जीवन के सपने सजाने लगी है। सोचते­सोचते मानव की आंखों में स्वत: ही आंसू छलक आये। दिल में दर्द का प्रभाव बढ़ गया। एक टीस सी उठने लगी।

         सोचते­सोचते मानव जब अधिक परेशान हो गया तो वह निराश होकर कुछ नहीं तो दूर क्षितिज को ही निहारने लगा। दूर आकाश में चन्द्रमा इठलाकर अपनी तारिकाओं के साथ बैठा हुआ उसके दुखी जीवन को जैसे बहुत निराश होकर ताके जा रहा था। तारिकायें भी उदास थीं। हर वस्तु खामोश थी। हर तरफ मौन था। रात के लगभग आठ बज रहे होंगे और सड़क अपने पथिकों की बेवफाई पर रो उठी थी। एक भी पथिक कहीं भी नज़र नहीं आता था। कभी­कभार कोई लारी या ट्रक ख़ामोशी के इस माहोल को पल भर के लिये भंग करता हुआ वहां से गुज़र जाता था। दूर किसी भट्टे की चिमनियों से धुआं उठ रहा था, जो उठते हुये इस रात के अंधकार को और भी अधिक काला किये जा रहा था। ऐसा ही एक धुआं मानव के दिल से भी उठने लगा था। प्यार की जलती हुई सारी हसरतों का ऐसा धुआं कि, जहां पर अब प्रेम की बची हुई राख भी बचने की कोई आशा नहीं रही थी। रात प्रत्येक पल गहराती जा रही थी। साथ ही अब भीगने भी लगी थी। आकाश भी रात में टपकने वाली शबनम के आंसू बहाने की तैयारी करने लगा था और मानव यहां विद्युत के किसी लावारिस सीमेंट के पड़े हुये पोल पर बैठा हुआ अपनी ज़िंदगी के उस प्यार का तमाशा बना हुआ था जो उसको अपनी किस्मत से प्राप्त हुआ था अथवा खुद अपने चुने हुये किसी गलत पथ की राह पर चलने के कारण? तकदीर के इस जालिम भेद को वह अभी तक नहीं जान सका था। प्यार की राहों पर चलने का सबक या वह हसीन तोहफ़ा जो उसके विद्यार्थी जीवन का ऐसा पाठ था कि, जिसे वह अब कभी भी ना तो भुला ही सकेगा और ना ही फिर कभी पढ़ने की कोशिश भी करेगा।

       मानव का दिल जब प्रकृति की बे-रुखी की तरफ से बहुत उदास हो गया. जब उसे आगे कोई भी उम्मीद दिखना बंद हो गई और चर्च कम्पाऊंड की तरफ से वहां का हरेक माहोल ही उसे काटने लगा तो उसने उस स्थान से दूर चले जाने का मन बना लिया. फिर अब वह उस स्थान पर ठहरकर करता भी क्या? जिस शहर, कस्बे और मुहल्ले में उसका प्यार धूं-धूं करके जला था, जिस स्थान पर उसे रुसवा किया गया था, जहां ठहरे हुए उस पर अंगुलियाँ उठती थीं- ऐसी जगह पर वह दो पल को भी नहीं रहना चाहता था. इसलिए उसने अपने विभाग में अपने स्थानान्तर्ण की अर्जी दी और इस तरह से उसका तबादला हुआ और वह नैनीताल आ गया था. 

 

                                                                  * * *

 

                                   

प्रकृति, मानव और धरती

सातवाँ भाग

तृतीय परिच्छेद

शिकोहाबाद।

          शिकोहाबाद का रेलवे स्टेशन। मानव के अतीत का एक दर्दभरा, स्मृतियों के अम्बार में डूबा हुआ, उसकी ज़िन्दगी की कहानी का एक विशेष पृष्ठ।

                      मानव जैसे ही गाड़ी से नीचे प्लेटफार्म पर उतरा, वैसे ही गाड़ी ने सीटी दी और वह तुरन्त ही अपने स्थान से खिसकने लगी। प्लेटफार्म पर उतरते ही मानव ने कुछेक पलों तक सारे माहौल को देखा। सारा स्टेशन यात्रियों से खचाखच भरा हुआ था। कुली अपने रोज़गार के कारण इधर­उधर दौड़ रहे थे। साथ ही सारे वातावरण में धुंए और कोयले के जलने की गंध भरी हुई थी। पास ही में ऐशिया की सुप्रसिद्ध बल्ब फैक्टरी की कुछेक चिमनियों से हल्का­हल्का उठता धुंआ बादलों के साथ मिल कर न जाने कौन से देश की यात्रा को चला जाता था।

                      मानव बड़ी देर तक पूरे शिकोहाबाद के रेलवे जंक्शन को देखता रहा। सब कुछ वही था, जैसा कि वह कुछ महीनों पूर्व छोड़ कर गया था। वही शिकोहाबाद था। वही पुरानी वस्तुयें और दुकानें थीं। कुछ भी तो नहीं बदला था। सारी की सारी चीज़ें यथा-स्थान पर अभी तक जैसे ठहर गई थीं। प्लेटफार्म पर वही पुराने फिल्मों के पोस्टर चिपके हुये थे। फिल्मकार व अभिनेता गुरूदत्त की पुरानी फिल्म 'प्यासा' का वर्षों पुराना पोस्टर अभी तक जीर्ण­शीर्ण अवस्था में लगा हुआ था। इसके साथ ही बाहर सड़क की दीवारों पर 'परिवार नियोजन' आदि की वही सूचनायें थीं, जिनको कि वह कुछ महीनों पूर्व छोड़ कर गया था। बाहर के वातावरण में वही जानी­पहचानी आवाजें, वही पुरानी दुकानें, यहां तक की अपनी खिड़की से जैसे बगैर किसी भी बात के बाहर झांकता हुआ वही स्टेशन मास्टर भी था। लेकिन फिर भी न जाने क्यों मानव को बहुत कुछ बदला-बदला और परिवर्तित सा दिखाई देता था। उसके लिये तो जैसे सारा कुछ ही बदल चुका था। क्या बदला था? ये तो वह नहीं जान सका था। उसने चुपचाप अपना सामान उठाया और अटैची को हाथ में लटकाये हुये वह जैसे ही स्टेशन के पुल से नीचे उतरा कि उसे तुरन्त ही कई एक रिक्शाचालकों ने घेर लिया। तब एक रिक्शा चालक ने उसके हाथ से अटैची ले ली और तब मानव उसके रिक्शे में बैठ गया। चलते हुये ही उसने रिक्शा चालक से चर्च कम्पाउंड में चलने को कहा। फिर थोड़ी ही देर बाद रिक्शा तारकोल की गंदी और भीगी सड़क पर दौड़ रहा था।

                      स्टेशन का बाजार और पालीवाल गिलास फैक्टरी के पास से निकलते ही जैसे ही रिक्शे ने नहर का पुल पार किया तो बाहर के भीगे और कीचड़ भरे माहौल को देख कर मानव चौंक गया। गर्मी के दिन थे और सड़क के किनारे लगे हुये खेतों में पानी भरा हुआ था। हर वस्तु भीगी और सीलन से जकड़ी हुई सी प्रतीत होती थी। ऐसा लगता था कि जैसे वृक्षों के शरीर तक सर्दी के कारण सिमट गये थे। कुछेक जड़ से उखड़ कर नीचे गिरे पड़े थे, तथा कुछ तो झुक कर ही रह गये थे। पेड़ों के बदन से जैसे नोची हुई पत्तियां व टहनियां सड़क पर बिछी हुई अपने साथ हुये किसी निर्मम अत्याचार की कहानी कह रही थीं। देखते ही ऐसा प्रतीत होता था, जैसे सारा वातावरण पिछली सारी रात किसी भंयकर तूफान से संघर्ष करता रहा था। पक्षियों के नीड़ उजड़े पड़े थे। वृक्षों के नीचे और आस­पास उनके टूटे हुये पंख और बेजान शरीर पिछली रात की किसी खतरनाक हुई दुर्घटना की गवाही देना चाहते थे। तब मानव ने काफी कुछ सोचने के पश्चात रिक्शा चालक से पूछा कि,

'क्यों भई, क्या रात में बारिश होती रही थी?'

'बारिश कहां मालिक, तूफान आया था, तूफान। बड़ा ही ख़तरनाक।'

'अच्छा ।'

                      रिक्शा चालक की बात पर मानव ने कहा तो रिक्शा चालक आगे बोला कि,

'हां साहब। कल रात यहां वह ओले गिरे थे . . .वह ओले गिरे थे,  कि मैं बता नहीं सकता हूं। मैंने आज तक ऐसे ओले नहीं देखे थे।'

                      तब मानव आगे कुछ भी नहीं बोला। वह चुपचाप खेतों में भरे हुये वर्षा के तूफानी जल को निहारने लगा। तब बैठे­बैठे उसने सोचा कि कल तो धरती का विवाह था,  मगर इस अचानक से आये हुये भंयकर तूफान में उसका किस प्रकार से विवाह सम्पन्न हुआ होगा? सारा इंतजाम ही बिगड़ गया होगा? ऐसा लगता था कि, जैसे 'प्रकृति'  किसी रणचंडी के समान खिसियाकर पूरी 'मानव' जाति की 'धरती'  को बरबाद करने की कोशिश कर चुकी है। 'प्रकृति' का पूरा माहौल ही उजड़ा पड़ा था।

                      'प्रकृति-  ?  अचानक ही सोचते­सोचते मानव के मन­मस्तिष्क में ये नाम कौंध-सा गया। दिल एक बार उसका धड़क कर ही रह गया। धड़क गया, इसलिये कि, जिस स्थान पर वह जा रहा था, वहीं से तो उसके प्यार की वह कहानी आरंभ हुई थी, जो अपने अंतिम पृष्ठों की पूर्ति के लिये अभी तक अधूरी पड़ी हुई है। प्रकृति की याद आई तो मानव के दिल की धड़कनें अपने आप ही, और भी अधिक तेज हो गईं। उसने मन में सोचा कि, प्रकृति भी तो अभी यहीं पर होगी। यहीं चर्च कम्पाउंड में। पता नहीं वह उससे मिलेगी भी कि नहीं? शायद मिलना पसंद भी न करे?  हो सकता है कि अभी तक आकाश के साथ उसके प्यार के किस्से आकाश की ऊंचाइयों में तैर रहे हों? चलो, एक बार वह फिर से अपने उस बेवफा प्यार के दर्शन तो कर ही लेगा कि जिसने उसे कभी अपनी बाहों के घेरे में बंद कर लेने की कसमें खाईं थीं। अब ये और बात थी कि, समय के विचित्र खेल में कसमें तो पूरी हुई थीं, परन्तु प्यार के नाटक के पात्र अवश्य बदल चुके थे- प्रकृति की बाहों में मानव न होकर आकाश तो था ही। इस बहाने वह उसे उसकी बदली हुई प्यार की पसंद तथा उसे दिये गये प्यार के सिले की याद तो दिला ही देगा। वह तो उसको अब तक बिल्कुल भूल ही गई होगी। फिर भूलेगी भी क्यों नहीं, जब उसको आकाश का प्यार मिला होगा। वह जब अपने प्यार के साथ 'आकाश' में उड़ेगी तो धरती पर रहने वाले मानव की अहमियत तो वैसे भी कम हो जाया करती है।

'बाबू साहब . . .?  उतरेंगे नहीं? आपका घर आ गया है?'

                      अचानक ही रिक्शेवाले ने मानव से कहा तो उसे होश आया कि विचारों और ख्यालों में भटकते हुये उसे ये भी पता नहीं चल सका था, कि वह कब का अपने घर आ चुका है और रिक्शा वाला ऊंची चढ़ाई के कारण चर्च कम्पाउंड के बाहरी गेट पर ही रूक गया था। रिक्शावाला शायद अन्दर नहीं जाना चाहता था।

                      तब मानव रिक्शे से नीचे उतरा। उसने रिक्शाचालक को पैसे देकर विदा किया और फिर एक बार पूरे ही चर्च कम्पाउंड पर अपनी निगाहें बिछाईं तो उसकी दुर्दशा देखते ही उसकी आंखों में आंसू आ गये। पिछली रात के आये हुये बरबाद तूफान के कारण सारे कम्पाउंड की दशा ही बदल चुकी थी। घने­घने विशाल वृक्ष तक तूफान की चपेट में आकर धराशायी हो चुके थे। कम्पाउंड की चारदीवारी के रूप में बनाई हुई बाहरी दीवार नीचे बिछी पड़ी थी। अधिकांश वृक्ष और पेड़ तक अपनी हरी पत्तियों से नग्न दिखाई देते थे। तूफान ने केवल एक रात का सहारा लेकर सारे हरे­भरे कम्पाउंड को तबाह और उजाड़ कर डाला था। धरती के विवाह के उपलक्ष्य में लगी हुई विद्युत बत्तियां टूट­फूट कर नीचे सारे मैदान में बिखरी पड़ी थीं। टेन्ट भी उल्टे­सीधे पड़े हुये थे। मानव अभी तक मूर्खों समान खड़ा हुआ चर्च कम्पाउंड की बदली हुई दशा को देख रहा था। कितना अजीब और अप्रत्याशित परिवर्तन हो चुका था। पिछली रात आये हुए भीषण तूफ़ान ने, एक रात में ही सारे कैम्पस का नक्शा ही बदल डाला था.

'मानव ?'

                      अचानक ही उसको अपने नाम का संबोधन सुनाई पड़ा तो वह एकाएक चौंक गया। उसने चौंकते हुए  सामने देखा तो तारा को देख कर उसके मुख से सहसा ही निकल पड़ा,

'ओह !  तारा तुम ?  कैसी हो . . ?'

                      तारा को देख कर मानव मुस्करा दिया, मगर वह ख़ामोश ही खड़ी रही। तब तारा को यूं अकेले और बेहद चुप खड़े देख मानव ने आश्चर्य से कहा कि,

'अकेली हो? वह कहां है ?'

'वह कौन ?'

'तुम्हारी अंतरंग सहेली . . . .प्रकृति ?'

'पिछली रात से सब ही उसको ढूंढ़ने में लगे हुये हैं। न जाने कहां चली गई है ?'

                      तारा ने उदास और दुखी स्वर में कहा तो मानव के मुख से सहसा ही निकल गया,

'ये क्या कहती हो ?'

मानव के गले में एक ठंडी आह सी जैसे अटक कर रह गई थी। 

'तुम कब आये ?'

'बस अभी­अभी ही धरती के विवाह का कार्ड मुझे कल ही मिला था, सो आज ही आ सका हूं। लेकिन वह कहां है ?'

मानव ने धड़कते दिल से कहा तो तारा भी भरे गले से बोली,

'न मालुम . . . ? बेचारी बहुत उदास थी ?'

'क्यों ? उदास क्यों थी? उसे अब तो खुश रहना चाहिये था ?'

'धरती की बारात को आते हुये देख वह खुद को संभाल नहीं सकी थी। बेचारी बहुत ही फूट­फूट कर रो रही थी। मेरा ख्याल है कि उसने शायद गलत समझा होगा ?'

'कैसा गलत? क्या गलत समझा होगा ?  मानव संशय से बोला।

'उसने सोचा होगा कि तुम ही धरती की बारात लेकर आ रहे होगे, क्योंकि उसके विवाह के कार्ड पर तुम्हारा ही नाम 'मानव लिखा हुआ था। तुम तो जानते हो कि धरती और प्रकृति तुम्हारे ही कारण आपस में बात तो करती थीं नहीं, इसलिये मैं समझती हूं कि इस गलतफहमी को भी दूर करने का अवसर किसी को भी नहीं मिल सका होगा ?'

तारा ने बताया तो मानव दुख-भरे स्वर में बोला कि,

'उसको तो मुझ पर कभी विश्वास ही नहीं रहा था। धरती का मानव कोई दूसरा लड़का है. वह लड़का 'मिशन बेबी फोल्ड' पला, बढ़ा और पढ़ा है, इसलिए उसके नाम के आगे उसके पिता का नाम भी नहीं लगता है. मैं वही मानव  हूं। तुम लोगों का मानव. आज तक चाहते हुये भी ना तो अपने आपको बदल सका हूं और ना ही अपनी पसंद को?'

'लेकिन, यहां कौन जानता था, ये सब। कम्पाउंड का बच्चा­बच्चा तक यही सोच रहा था कि धरती से तुम ही शादी करने जा रहे हो। मगर सच्चाई तो अब मालुम हो सकी है।'

'और आकाश कहां है?' अचानक ही मानव ने विषय बदल कर आकाश के लिये पूछा तो तारा चौंक कर बोली कि,

'कौन आकाश ?'

'वही आकाश, जो कि मेरे साथ पढ़ा करता था और जिसको प्रकृति भी प्यार करने लगी थी?'

'सब कोरी बकवास है। आकाश तो खुद ही प्रकृति के पीछे लगा हुआ था। प्रकृति मेरी दोस्त है, इसलिये जितना मैं उसके बारे में जानती हूं, उतना कोई अन्य नहीं जानता होगा। प्रकृति ने तुम्हारे अतिरिक्त कभी भी किसी अन्य को नहीं चाहा है।'

'?'- तारा ने गंभीर होकर कहा तो मानव अविश्वास के स्वरों में जोर से बोला कि,

'नहीं, ये नहीं हो सकता है।'

'यही सच है। मैं प्रकृति की रग­रग से वाकिफ हूं। तुम्हीं ने उसे गलत समझा। ये जानते हुये भी कि तुमको राजलक्ष्मा का रोग है, वह केवल तुम पर ही मरती रही। अपने परिवार वालों के विरूद्ध होकर भी उसने तुमसे विवाह करने का एक प्रकार से निर्णय कर लिया था। मगर तुम ही बजाय इसके कि उसके साथ मिल कर अपना घर बसाने के लिये संघर्ष करते, कभी धरती, तो कभी खुद के कारण उससे दूर भागने की कोशिश करते रहे ?'

'तारा ! तुम क्या जानो कि, सच्चाई क्या है? मैं कभी भी प्रकृति से दूर नहीं भागा था। हां परिस्थितियों ने हम दोनों को जरूर ही अलग कर दिया था।'

'लेकिन उस प्यार की दीवानी को कौन समझा सकता था? वह तो धरती की बारात तो क्या देख सकी थी, खुद को भी नहीं संभाल पाई थी। इसीलिये अब न जाने कहां जाकर गुम हो गई है। मुझे तो डर लग रहा है कि, उसने भावावेश में कुछ गलत न कर डाला हो?'

'?'- मानव सुनकर खामोश हो गया.

तारा की बात पर मानव जैसे गुमसुम सा होकर न जाने क्या सोचने लगा। बहुत देर तक वह जब यूं ही खड़ा रहा तो तारा आगे बोली कि,

'अब खड़े­खड़े क्या सोचने लगे? जाकर उसको ढूंढ़ो। तुम्हीं उसके राजा हो। अगर पुकारोगे तो वह अवश्य ही सुनेगी।'

'ठीक है, लेकिन मेरा ये सामान ?'

'मैं तुम्हारे घर पर पहुंचवा देती हूं।'

'अच्छा, तो मैं अभी थोड़ी देर में वापस आता हूं।'

                      ये कहता हुआ मानव जैसा आया था, वैसा ही अपने लम्बे­लम्बे डग भरता हुआ पीछे लौट पड़ा। वह पहले शीघ्र ही आकाश से मिल लेना चाहता था। उसने सोचा कि, आकाश अपने शहर और लोगों को भली-भांति जानता है. उससे बहुत कुछ जानकारी प्रकृति के बारे में मिल सकती है.

                      बस स्टैंड पर पहुंच कर उसने सीताराम की पुरानी दुकान से एक प्याला चाय ली, फिर उसे पीकर वह सीधा आकाश के ठिकाने पर पहुंच गया। संयोग था कि आकाश उस समय अपने निवास पर ही था। उसके साथ में उसके अन्य साथी भी वहीं पर थे। जब मानव उसके कमरे पर पहुंचा तो उस समय आकाश बड़े ही आराम के साथ  निश्चिन्त बैठा हुआ सिगरेट पी रहा था। मानव को यूं अचानक से आया हुआ देख कर वह चौंका नहीं, बल्कि मुस्कराते हुये बोला कि,

'आओ शहज़ादे, आओ। मुझे मालुम था कि आज के दिन तुम अवश्य ही मेरे पास आओगे।'

'प्रकृति कहां है।' मानव ने कोई भी दूसरी बात किये बगैर पूछा तो आकाश भी जैसे झुंझलाता हुआ बोला कि,

'जहन्नुम में।'

'आकाश . . .!' मानव क्रोह्या में चिल्लाया।

'शेर की मांद में आकर चिल्ला मत। भूल जा आकाश को और उसकी मित्रता को। इतने दिनों तक हर रोज़ आकाश ईष्र्या की आग में दहकता रहा है और आज तूने उसे और मौका दे दिया है। आज वह तुझ पर अवश्य ही बरस कर रहेगा।'

आकाश का बिगड़ा और बदला हुआ मिजाज देख कर मानव को भी क्रोध आ गया। सो वह भी उसी लहज़े में उससे  बोला,

'मित्रता की पीठ में वार करने वाले ये तेरी दोस्ती का कैसा सिला है?  मैं तो तुझे बड़ा ही अच्छा इंसान समझा करता था? ये अचानक से तुझे हो क्या गया है?'

'ये दोस्ती तो उसी दिन समाप्त हो गई थी, जिस दिन तूने प्रकृति को मेरे हाथ में न चाहते हुये भी सौंपा था।'

'ठीक है, दोस्ती तो तूने खत्म कर ली है, लेकिन तकाज़े तो होते रहेंगे।'

'अब कैसा तकाजा करना चाहता है तू ?'

'बता दे कि, प्रकृति कहां है?'

'जहन्नुम में। मैंने बताया नहीं है क्या तुझे? और जहन्नुम में पहुंचने का केवल एक ही रास्ता है और वह है—तडाक।'

'कमीने ! मुझ पर हाथ उठाता है?' ये कहते हुये मानव ने जो एक जोरदार वार आकाश के किया तो वह लहराता हुआ दूर कोने से जा टकराया।

तब अपने समूह के नेता को पिटते देख अचानक ही आकाश के दूसरे साथी ने देशी रिवॉल्वर की नली मानव की ओर दिखाते हुये कहा कि,

'यदि अब कोई दूसरी हरकत की तो सीधा नरक में पहुंचा दूंगा।'

इसके साथ ही उसने पास आकर रिवॉल्वर की नली मानव की कनपटी से लगा दी तो मानव सहम कर ही रह गया।

'बांध दो इस इस नालायक मजनू को।' आकाश अपने स्थान से उठता हुआ जैसे फुंकारता हुआ बोला। मानव वहीं चुपचाप खड़ा रहा। डरा और सहमा सहमा सा। तब आकाश उसके करीब आया और उसकी आंखों में घूरते हुये बोला कि,

'जानता है कि तुझे किस बात की सजा मिल रही है। मैंने तुझ पर क्यों हाथ उठाया था?'

'मैं तो नहीं जानता। तुझमें हिम्मत है बताने की? मैं भी तो जानूं?'  मानव ने कहा तो आकाश बोला कि,

'याद है कि, मैं तेरे घर से प्रकृति की सारी फोटो लेकर आया था और तूने मुझसे न जाने क्या­क्या उसके बारे में बताया था। तब उसके बाद मालुम है कि, क्या हुआ था?'

'क्या हुआ था?'

'मैं प्रकृति से मिला था। मैंने सारी बातें उसे बताई तो वह उल्टी मुझ पर ही बिगड़ गई थी। इतना बिगड़ गई थी कि, न जाने मुझको क्या­क्या बकती रही थी। भगवान की कसम न जाने क्यों मैं चुपचाप सुनता रहा था। यूं भी मुझे तुम्हारे ईसाई समाज से कौन सा रिश्ता जोड़ना था। वह तो खुद प्रकृति ने ही अपना चक्कर मुझसे इसलिये चलाया था ताकि तू उसे मेरे साथ देख­देख कर जलता रहे। इतना ही नहीं वह मुझ पर इल्जाम भी लगाने लगी है।'

'कैसा इल्जाम ?'

'मुझसे कहती थी कि, मैं ही ने उसके मानव को उससे दूर कर रखा है। ये ठीक है कि मैं उसको चाहता था, मगर तेरी बजह से वह मुझसे कभी भी प्यार नहीं कर सकी थी। वह तुझको चाहती थी और तुझ ही को चाहती भी है। लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं है कि तुम दोनों अपने­अपने प्यार के चक्करों में पड़ो और मिल कर मुझको ही उल्लू बनाते रहो? क्या सब ही ईसाई लड़कियां ऐसा ही किया करती हैं?'

' करती होंगी, लेकिन प्रकृति ऐसा नहीं कर सकती है।'

' आ गया न अपनी पर? यही सच है। उसने मेरे साथ ऐसा ही किया है?' आकाश जैसे चीख़ कर बोला।

'लेकिन मुझे किस बात की सजा दी है तूने? मेरा क्या दोष है?'

'तुम दोनों एक दूसरे को प्यार करते रहे और जरूरत पड़ने पर मुझको मूर्ख बनाते रहे। इसी बात की सजा मिली है तेरे को।'

'झूठा दोष मत लगा मुझ पर। मैंने कभी भी तुझको मूर्ख नहीं बनाया। महीनों से मैंने प्रकृति से बात तक नहीं की है?'

'तूने कहां मुझे मूर्ख बनाया? मैं ही तो उल्लू का पट्ठा था जो तुम लोगों के चक्कर में आ गया था। चन्द्र ले जा इसे और रात भर के लिये बांध के डाल दे भीतर वाले कमरे में। फिर सुबह को छोड़ देना। इतनी ही सजा बहुत है इसके लिये। आखिरकार मैंने इसका नमक भी तो खाया है।'

'देख, आकाश ऐसा मत करना। मुझे जाने दे। मुझे प्रकृति को ढूंढ़ना बहुत जरूरी है।' मानव बोला तो आकाश ने कहा कि,

'अरे ढूंढ़ लेना। वह कहीं मरी नहीं जाती है। न ही कहीं भागी जाती है, चन्द्र ले जा इसे।'

'कहीं भी ले जाने से पहले मुझसे तो पूछ लिया होता?' अचानक ही सामने के दरवाजे से एक गंभीर आवाज़ सुनाई दी तो आकाश के साथ उसके कई एक साथी भी चौंक गये। तब आकाश दरवाजे की तरफ देखता हुआ आश्चर्य से बोला कि,

'अबे ! कौन है वे ?'

'तेरा बाप हूँ. तू भूलता बहुत है।'

'अबे। बादल तू ?'

'हां. . मैं।' बादल के भी हाथ में भी देशी रिवॉल्वर झूम रहा था।'

'अच्छा ! मेरे साथ रह कर, मुझ ही से गद्दारी?'  ये कहते हुये आकाश ने आगे बढ़ना चाहा तो बादल उसको वहीं रोकता हुआ बोला,

'आगे बढ़ने की कोशिश मत करना। मैंने कोई गद्दारी नहीं की है. मैं केवल मानव को लेने आया हूं। उसे छोड़ दे, तो मेरा और तेरा कोई भी झगड़ा नहीं। वह निर्दोष है.'

'बादल, आकाश के तले रहने वाले बादल के टुकड़े कभी भी उससे बेवफाई नहीं किया करते हैं।'

'लेकिन जब आकाश ही नीच बन कर मानव पर बगैर किसी भी मतलब के बरसने लगे तो कुछेक बादल के टुकड़े ये हश्र देख नहीं पाते हैं।' आकाश की बात का जब बादल ने जबाब दिया तो आकाश बादल को घूरते हुये बोला,

'डायलॉग मत मार। जानता है कि इसका परिणाम क्या हो सकता है?'

'मानव के प्रेम में लुटने वाले कभी भी परिणाम की परवा नहीं करते हैं।'

'खैर ! देख लूंगा तुझे भी ?'

'जुबान संभाल कर बात कर। वरना भून दूंगा। देखता रहना, बाद में?'

'तेरी भी गड़गड़ाहट अगर बंद नहीं की तो मेरा नाम भी आकाश नहीं।' मैंने कहा है कि बकबास बंद कर और मानव को रिहा कर।'

तब आकाश बेबस होकर अपने हाथ की अंगुलियां तोड़ने लगा। वह सहम कर एक ओर खड़ा हो गया। खिसियाते हुये वह अपनी लाल अंगार सी आंखों से केवल बादल को घूरता रहा। उसका बस चलता तो वह बादल को जीवित ही जला देता।

          फिर बादल जैसे ही मानव को आकाश के चंगुल से छुड़ा कर एक सुरक्षित स्थान पर लाया तो मानव ने उसे गले से लगा लिया। फिर भरे गले से बोला कि,

'आज मेरी जान बचा ली है, तूने।'

'मैंने नहीं, तेरे भगवान ईसा मसीह ने और मेरे लिए, मेरे भोलेनाथ ने. मनुष्य तो मात्र कर्म ही करता है। वास्तव में रक्षा करने वाला तो इस सृष्टि का करता ही है।'

                      तब मानव बादल की बात सुन कर चुप हो गया। फिर कुछेक क्षणों के पश्चात बादल ने उससे पूछा। वह बोला कि,

'अच्छा छोड़ इस बात को। अब ये बता कि तू आकाश के अड्डे पर आया क्यों था। फिर तू तो नैनीताल चला गया था। अचानक से कैसे आ धमका?'

'मैं तो एक शादी अटेंड करने आया था। वहां पता चला कि प्रकृति अचानक ही कहीं गुम हो गई है। इसी के लिये आकाश से पूछपाछ करने आया था।'

'वह कैसे गायब हो गई है?' बादल के मस्तिष्क पर अचानक ही आश्चर्य के बल गहरे हो गये। तब काफी देर की गंभीरता के पश्चात वह आगे बोला कि,

देख, मैं आकाश की नस­नस को पहचानता हूं। वह कितना ही गुंडा और बदमाश क्यों न हो, मगर वह कमीना नहीं है। उसके इस अड्डे पर प्रकृति आई ही नहीं है। और आकाश भी खुद कभी ऐसा नहीं कर सकता है। हो सकता है कि वह कहीं अपने अन्य सम्बन्धियों आदि के यहां चली गई हो? तू बता रहा है कि शादी का माहौल तो वैसे ही है, हो सकता है कि कहीं यूं ही चली गई हो?'

                      बादल ने मानव को सांत्वना दी तो मानव बोला,

'तो फिर?'

'कब से गायब है वह?'

मानव के प्रश्न पर बादल ने जब खुद ही प्रश्न पूछा तो मानव बोला,

'तारा ने बताया था कि, वह कल शाम से ही लापता है।'

'तो मेरी मान, वह निश्चित यहां पर नहीं है। मैं कल भी यहां पर आया था।'

'तो फिर क्या करूं मैं?'  मानव जैसे निराश हो गया।

'अभी तू जा और जाकर ढूंढ़ उसे। पीछे से मैं भी आता हूं। घबरा मत, वह अवश्य ही मिल जायेगी।'

                      तब मानव बादल के कहे अनुसार चला आया। वह शीघ्र से शीघ्र प्रकृति का पता लगा लेना चाहता था। ऐसे में प्रकृति से एक बार मिल लेने के लिये उसका दिल तड़प तड़प जाता था। पता नहीं वह अब कहां पर होगी? सोचता हुआ वह वापस चर्च कम्पाउंड की तरफ चल पड़ा।

                      समय बहुत कम था। प्रकृति के बारे में वह अच्छी तरह से जानता था। बहुत ही भावुक तरह की लड़की है वह। उसे भय था कि, कहीं गलतफहमी की शिकार बन कर और खुद पर काबू न पाकर वह कहीं कुछ गलत-सलत न कर ले। फिर यूं भी प्यार के टूटे हुये दिल का क्या भरोसा। कुछ भी कर सकती है वह। पहले ही वह संखिया खाकर एक बार मरने की कोशिश तो कर ही चुकी है। और अब?  अब तो बात ही कुछ और है। सोचते ही मानव का दिल सहसा ही कांप-सा गया। इन्हीं सोचों में मानव जैसे ही सड़क पर आया तो वातावरण और भी अधिक खराब हो गया। जब वह आया था तो आकाश में बादल तो पहले ही से ठहरे हुये थे। पिछली सारी रात शोर मचाने के पश्चात भी वे जैसे अभी भी शान्त होना नहीं चाहते थे। फिर बादलों ने गड़गड़ाना आरंभ किया तो हवायें भी तेज होते ही सनसनाने लगीं। बिजली ने कौंधना आरंभ किया तो बादल भी चीख़ उठे। शायद पिछली रात के बिगड़े हुये मौसम का असर उनमें अभी भी बाकी था। क्रमशः हवायें पहले से भी अधिक तेज हो गईं। इस प्रकार कि उनमें शीत का प्रभाव भी आने लगा। जाहिर था कि कहीं दूर से वर्षा के आने की संभावना होने लगी थी।

                      मानव अभी भी अपने लम्बे­लम्बे डग भरता हुआ चला जा रहा था। शीघ्र ही वह चर्च कम्पाउंड के कैम्पस तक पहुंच जाना चाहता था। पहुंच कर वह अति शीघ्र प्रकृति के बारे में और भी अधिक जानकारी ले लेना चाहता था। जैसा वह सोच कर आकाश के पास आया था, वैसा ही उसका भ्रम दूर हो गया था। आकाश के प्रति मन में बसा सन्देह का कीड़ा भी जाता रहा था। उसकी भी समझ में नहीं आ रहा था कि, प्रकृति बगैर किसी को बताये जा कहां सकती है। वह तो यूं भी पिछले कई एक महीनों से शिकोहाबाद में था ही नहीं। कैसे अनुमान लगा सकता है। यही सोच कर वह चला जा रहा था कि हो सकता है कि तारा से मिल कर उसे कुछ और जानकारी मिल जाये। इस तरह से मानव के दिल और दिमाग में जहां प्रकृति के प्रति एक चिन्ता थी, वहीं वह उसकी पिछली स्मृतियों को भी बार­बार याद करता जाता था। याद करता था कि, कहां से उसके प्रेम की कहानी का पहला पृष्ठ खुला था  और अब कहां पर आकर सारी पुस्तक समाप्त भी हो गई थी, मगर कहानी का अन्त ही न हो सका है। कहां से वह और प्रकृति दोनों साथ­साथ चले थे और कहां आकर भटक चुके हैं?

                      सहसा ही बादल अचानक बुरी तरह से गड़गड़ाये तो उसके पश्चात ही बिजली की कौंध में सारे शिकोहाबाद का माहौल ही कांप-सा गया। मानव को जब तक रिक्शा मिला तब तक ठन्डी हवाओं की तेजी के साथ  आकाश के गर्भ से वर्षा की मोटी­मोटी बूंदें छटपटाती हुई गिरने लगीं। मानव सोचने लगा कि इस अचानक से बिगड़े हुये मौसम का न जाने कौन सा भयानक इरादा था। न जाने किसका घर उजाड़ देना था। जाने किसकी बलि ले लेने का इरादा था। बारिश और हवायें इसकदर तेज हो चुकी थीं, कि उनके प्रहार शरीरों को ज़ख्मी कर देना चाहते थे। वर्षा तो पहले ही से तेज हो चुकी थी।

                      मानव रिक्शे में बैठा हुआ चला आ रहा था। रिक्शाचालक वर्षा के जल में ऊपर से नीचे तक तर­बतर हो चुका था। वातावरण लगातार बिगड़ता ही जा रहा था। आकाश में बादल जैसे पागलों समान दौड़ते हुये जो चीख़ते थे तो उनकी आवाज में सारे शिकोहाबाद का कलेजा ही जैसे दहल जाता था। बिजली भी रह-रह कर जैसे तड़प उठती थी। पूरा तूफानी माहौल हो चुका था।

                      फिर अचानक ही जो हवा का एक तेज झोंका आया तो पानी के रेले के साथ मानव का शरीर रिक्शे में बैठे हुये भी नहा गया। वह बुरी तरह से भीग गया था। हवाओं का विपरीत प्रभाव इतना अधिक तीव्र हो गया था कि रिक्शाचालक उतर कर रिक्शे को केवल हाथों से ही अब धकेलने लगा था। वह भी पूरी तरह से थक भी चुका था। तेज हवाओं के एक ही बहाव में वर्षा की झड़ी दूर­दूर तक उड़ी चली जाती थी। बादल जब गरज़ते थे तो फिर लगातार गरज़ते ही जाते थे।

                      तब बाई-पास की चढ़ाई के पास आकर मानव बिगड़े मौसम को देखते हुये नीचे उतर गया। रिक्शे वाले को पैसे देने के पश्चात वह दीवानों समान अपने घर जाने के उददेश्य से कम्पाउंड की ओर भागा। वर्षा में भीगा हुआ ही। अब जैसे उसे किसी भी बात का होश नहीं रहा था। फिर अमरूदों के बाग और कोठी के आंगन की दीवार के मध्य बनी आने­जाने वाली कच्ची सड़क पर ही उसको अचानक से तारा फिर से मिल गई। पूरी तरह से वर्षा के जल में भीगी हुई। इतनी भीगी कि उसके वस्त्र तक उसके बदन से चिपक गये थे।

                      मानव यूं तारा को वर्षा में भीगा और हताश सा देख कर चौंक गया। वह उससे एक संशय के साथ  बोला कि,

'तारा ?'

                      मगर वह मानव की बात का कुछ उत्तर देती, उससे पहले ही उसने मानव से कहा कि,

'मानव ?'

'हां, बोलो . . . बोलो?'

'वह प्रकृति. . .'  कहते कहते तारा की आंखों में आंसू आ गये।

'तभी मानव ने धड़कते दिल से घबराते हुये पूछा कि,

'प्रकृति कहां है। क्या हुआ उसे? कुछ पता चला?'

'वह . . . वह . . . वह तो ?'

तारा से जब नहीं कहा गया तो वह फफ़क कर रो पड़ी।

'ओफ ! कुछ तो बोलो? प्लीज, तारा ?'

'वह हमको सदा के लिये छोड़ कर चली गई है। उसने कब्रिस्तान के कुयें में कूद कर आत्महत्या कर ली है।'

'नहीं . . .हीं . . .?' मानव इतनी बुरी तरह से चीख़ा कि उसकी तड़पती हुई चीख़ ने एक बार को आकाश में गरजते हुये बादलों का भी दिल जैसे हिला दिया था।

                      बादल तो गरज़ ही रहे थे। गरज़ते ही रहे। बिजली भी हरेक क्षण कौंध रही थी। वर्षा इसकदर तेज हो गई थी कि उसकी मोटी­मोटी बूंदों से चेहरे पर चोटें लग रही थीं। प्रकृति के बारे में सुन कर मानव फूट­फूट कर रो पड़ा। तारा भी रोये जा रही थी। मानव की दशा तो उससे भी अधिक खराब थी। मानव की समझ में जब कुछ नहीं आ सका तो वह अपना सिर पकड़ कर वहीं बैठ गया। ऐसी परिस्थिति में उसे क्या करना चाहिये और क्या नहीं? वह कुछ भी नहीं सोच पा रहा था। तारा खड़ी­ खड़ी रो रही थी। मानव अपने को संभाल नहीं पा रहा था। ज़िन्दगी के वे प्यार भरे रास्ते कि जिन पर कभी बचपन के दो साथियों ने एक साथ चल कर सुनहरे सपने सजाये होंगे, आज उस मोड़ पर आकर ठहर गये थे, कि जहां से अब प्यार की आरजुओं और हसरतों का कोई भी सिलसिला आरंभ नहीं हो सकता था। ये मानव जीवन का पुराना चलन है कि जो काम कभी पहले नहीं हो सका, उसकी पुनर्वृत्ति ज़िन्दगी के एक ही स्थान पर ठहर जाने के पश्चात कैसे हो सकती है। परमेश्वर ने भी सृष्टि के आरंभ से ही मनुष्य को एक जोड़े के रूप में बनाया है। जोड़े का एक भी साथी यदि राह­ए­ज़िन्दगी से अलग हो जाता है तो इंसान जीता तो है, मगर ज़िन्दगी समाप्त हो जाने के पश्चात। उम्र को निगला नहीं जा सकता है। ये एक परम्परा है, जो उम्र पूरी करने के साथ निभानी पड़ती है।  'जिसे परमेश्वर ने जोड़ा है, उसे मनुष्य कभी भी अलग न करे।' ये बाइबल का कथन है। दूसरे अन्य धार्मिक ग्रन्थ भी शायद प्रेमी जोड़ों को अलग करने की बात नहीं करते होंगे?  मगर ये सब कुछ जानते हुये भी यदि मनुष्य ही मनुष्य को अलग करे तो इससे बढ़ कर प्यार के प्रति नाफ़रमानी और क्या हो सकती है?

                      और जब वर्षा थम गई। आया हुआ तूफान अपना काम करके चला गया। आकाश में जब बादल भी अपना जोर­शोर दिखा कर भाग गये तो प्रकृति की लाश को चर्च के पीछे स्थित अंगे्रज मिशनरियों के द्वारा बनवाये हुये पुराने कुंये में से रस्सियों के सहारे से, पुलिस की निगरानी में बाहर निकाला गया। काली साड़ी पहने हुये उसने कुयें में कूद कर अपनी जान दे दी थी। क्यों उसने ऐसा किया था, ये तो शायद कोई नहीं जानता था। और जो जानता भी है, वह कुछ कह भी नहीं सकता था। मानव ने देखा तो वह फिर से फूट­फूटकर रो पड़ा। रोता रहा। लगातार। और रोता रहेगा- कब तक?  शायद कोई भी नहीं जान सकेगा?

                      प्रकृति पूरी तरह से शान्त थी। बिल्कुल ख़ामोश। मौन। ठंडी लाश के समान उसका भी चेहरा जैसे जीवन की किसी भी शिकायत और दर्द से बेखबर पूरी तरह से मौन था। काली साड़ी में उसका मुखमंडल इस प्रकार से प्रतीत होता था कि, जैसे रात्रि में कहीं चन्द्रमा बादलों के पीछे से चुपचाप झांकने लगा हो। मानव उदास था। चुप था। वही क्या, चर्च कम्पाउंड के रहने वाले सारे मसीही लोगों की आंखों में ग़म और विषाद के मजबूर आंसू थे। प्रकृति की छोटी बहन वर्षा को तारा ने संभाल लिया था। वह भी रो रही थी। प्रकृति की मां रो-रोकर बेहोश पड़ी थी.

                      फिर पुलिस की आवश्यक कार्यवाही और तमाम कानूनी कागजों की पूर्ति होने के पश्चात जब प्रकृति का अंतिम संस्कार किया गया तो उसके मृत पार्थिव शरीर को एक ताबूत में बंद करके चर्च की इमारत के पीछे बने कब्रिस्थान में लाया गया। चर्च का वह पुराना घंटा जो कि कम्पाउंड के मैदान में नीम के वृक्ष पर लटका हुआ है, एक बार फिर थम­ थम कर बजने लगा तो मानव फिर अपने को संभाल नहीं सका। वह फिर से रोने लगा था। मगर प्रकृति के अंतिम संस्कार के समय पर मानव का मित्र बादल आ गया था, सो उसने मानव को संभाल लिया था। कब्रिस्थान में चर्च कम्पाउंड के सारे के सारे लोग और कुछेक धरती के विवाह में आये हुये लोग, सभी के सभी अपना अपना मुंह लटकाये हुये खड़े थे। धरती भी अपने जीवन साथी 'मानव' के साथ एक ओर खड़ी थी। खड़ी थी। बिल्कुल चुपचाप। शान्त और जीवन की जैसे अतिरिक्त घोर उदासी को जबरन समेटे हुये। उसकी भी आंखों में आंसू छलक आये थे। मगर कौन जानताथा कि, उसकी आंखों में ठहरे हुये ये आंसू उसकी विवाह की खुशी के थे, अथवा प्रकृति के इस संसार से सदा को चले जाने के दुख के कारण?

                      प्रकृति की कब्र के चारों ओर सब ही उदास खड़े थे। उदास सिर- झुके­झुके, मुंह लटके हुये चेहरे, जैसे अपनी­अपनी मजबूरियों का रोना रो देना चाहते थे। ऐसे दुख के वातावरण में प्रकृति की वे ढेर सारी सखियां भी आ गई थीं जो उसके पढ़ती थी और जिन्होंने प्रकृति के साथ अपना एक बहुमूल्य समय व्यतीत किया था। प्रकृति की इन समस्त सखियों को उससे भरपूर प्यार था। सारे चर्च कम्पाउंड को ही प्रकृति से स्नेह और प्यार था। प्रकृति के कुयें में डूब कर आत्महत्या की खबर चर्च कम्पाउंड से बाहर निकल कर उसके आस­पास क्षेत्रों में जंगल में लगी आग के समान फैल चुकी थी। कब्र के चारों तरफ प्रकृति के माता­पिता, उसका भाई क्लाइमेट, तथा अन्य सगे­सम्बन्धी और परिचित अपनी­अपनी आंखों में दर्द, विषाद और क्षोभ के आंसू भरे हुये चुपचाप खड़े थे। मानव भी एक ओर खड़ा हुआ था। खड़ा हुआ था- शायद मात्र इसी बात को सोचे हुये कि आज के दिन उसके प्रेम की कहानी का वास्तविक अंजाम उसके सामने ही आ ही गया था। वह कहानी- वह प्रेम की गाथा कि, जिसकी शुरूआत कच्ची उम्र की भावनाओं में बगैर भविष्य की सोचे हुये अचानक से हो गई थी, और जिसको एक मसीही समाज ने भेद­भावों की रस्में पालन करने के कारण कोई भी मान्यता नहीं दी थी। यूं तो मानव जीवन के प्रेम के इतिहास में ऐसा होना कोई नई और आश्चर्यजनक बात नहीं है, मगर जिन भी परिस्थितियों में इस प्रकार की दुखद घटनायें हो जाती हैं, उनके लिये क्या वह समाज और समाज का चलन जुम्मेदार नहीं है?  ये एक सोचने की बात है। परमेश्वर ने 'धरती' की मिट्टी से 'मानव' को बनाया। सारी सृष्टि को उसने 'प्रकृति' की सुन्दरता से सजाया। केवल इस कारण ही कि 'प्रकृति, 'मानव' और 'धरती' एक-दूसरे के पूरक बन कर आपस में समन्वय रखते हुये अपना जीवन प्रसन्नता के साथ व्यतीत करें। मगर दुख की बात है कि इस त्रिकोण को तोड़ने में यदि मानव ही मानव के लिये एक मुख्य भूमिका निभाये तो जीवन में दुख और विषाद के बादल तो छायेंगे ही। खुदावंद यीशु मसीह ने तो संसार से प्रेम करते समय कोई भी भेदभाव नहीं रखा है। मगर कितनी अजीब बात है कि उसके अनुयायियों में ऐसी संकीर्णताओं की दीवारें आज भी काफी मजबूत हैं।      

                      दुख से लदे हुये लोगों के सामने ही खुदी हुई कब्र के एक किनारे ही प्रकृति के पार्थिव शरीर को बंद किये हुये उसका ताबूत सारे लोगों को मिले अपार दुख के प्रमाण के रूप में अभी भी रखा हुआ था। वह ताबूत कि जिसमें प्रकृति का मृत शरीर बंद था। जिसके अंदर 'मानव' का टूटा-बिखरा और कुचला हुआ प्यार था। वह प्यार कि, जिसमें एक प्रकार से उसका जीवन था। उसकी हसरतों का सजाया हुआ वह सपना था, जो आज अपनी बरबाद मुहब्बतों का बखान करने के बजाय चकनाचूर होकर रह गया था। प्रकृति को सब ही से प्यार था। अनुराग था। उससे एक अपनत्व था। अपने जीवन के रहते हुये उसने किसी का कोई भी बुरा नहीं किया था। 'मानव' से प्यार करने के अतिरिक्त उसने शायद कोई अन्य भूल भी नहीं की थी? इसीलिये जब वह अचानक से इस संसार से चली गई तो सबकी आंखों में शायद कभी भी न सूख़ने वाले आंसू भी भर गई थी। मनुष्यों के हुजूम में, उनकी आंखों में ठहरे हुये ये आंसू- आंसुओं के मोती- इन सब की आंखों में न जाने कब तक प्रकृति की यादों में बसे रहेगें? कब तक आते रहेगें? शायद कोई भी नहीं जानता होगा?

                      मानव की आंखों में बार­बार जन्म लेते हुये आंसुओं को कब्रिस्थान के प्राचीर में नीम के घने वृक्षों की पत्तियों से लिपट कर आती हुई हल्की­हल्की ठंडी हवाओं की धाराओं ने न जाने कितनी ही बार सुखाया होगा? मगर कमज़ोर मुहब्बतों के अस्थिर वादों के धरातल पर उसके प्रेम का बिगड़ा हुआ अंजाम हर बार उसकी आंखों को फिर से भर देता था। वह जानता था कि, अब वह इन आंसुओं को कभी भी रोक नहीं पायेगा। ये तो बहते ही रहेंगे। समय­असमय, जब कभी भी प्रकृति की स्मृतियों का एक भी जिया हुआ पल उसके दिल और दिमाग की दीवारों से टकरायेगा। उसे बार­बार याद करने को बाध्य करेगा। वह अपने जीवन की अंतिम सांसों तक प्रकृति को हर पल याद करता रहेगा। प्रकृति का प्रेम कितना सच्चा था। किसकदर महान। कितना अधिक पवित्र। ऐसा अनूठा कि उसने केवल एक ही पग में प्यार की समस्त सीमायें लांघ लीं थीं। उसने साबित कर दिया था, कि अपने अंतिम समय तक वह केवल अपने 'मानव' को ही याद करती रही थी। उसके प्यार की आस करती रही थी। फिर जब ज़रा सी देर को उसने अपने दिल की सजाई हुई आस्थाओं की अर्थी देखी तो इस सदमें को सहन भी नहीं कर सकी थी। इतनी असहनीय हो गई कि स्वंय का भी कफ़न तैयार कर लिया था। अब इसको चाहे कोई मूर्खता कहे या फिर प्यार की दीवानगी- मगर जो उसे करना था, वह उसने कर दिखाया था। इसीलिए कहा जाता है कि, प्यार अंधा होता है.

                      मानव खड़े­खड़े यही सब सोचे जा रहा था। प्रकृति के साथ बितायी हुई पिछली एक­एक बात और घटना को वह पल भर में ही दोहरा गया था। मगर फिर भी उसे याद आया कि ऐसा ही कोई समय था। यही कब्रिस्थान था। कब्रिस्थान का यही सदियों पुराना मनहूस कुंआ, कि जहां पर उसने कभी अपनी प्रकृति के साथ खड़े होकर ढेर सारी प्यार की कसमें खाई थीं। उसके साथ जीवन भर मरने­जीने के वादे किये थे। एक साथ रहने का कोई सुनहरा सपना देखा था। तब ऐसे में प्रकृति ने उसके गले से सिमटते हुये अपने प्यार की गहराइयों में डूबते हुये कहा था  कि  . . . '

'मानव ।'

' हां ।'

'एक बात कहू  ?'

' कहो ?' तुम्हारे लिये तो हर तरह की छूट है।'

' मैंने जिस दिन भी तुम्हें खो दिया, तो जानते हो कि मैं क्या करूंगी ?'

' क्या ?' मानव ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा तो वह बोली कि,

' कब्रिस्थान के इसी कुंयें में डूब कर अपना जीवन समाप्त कर लूंगीं।'

' अच्छा ! अब पागल मत बनो।  . . . ' 

तब मानव ने उसको ऐसी बात कहने से टोक दिया था। परन्तु आज?  आज वह चाहते हुये भी कुछ नहीं कह सका था। प्रकृति ने उसे कुछ कहने-रोकने के लिये कोई अवसर भी नहीं छोड़ा था। वह कोई अवसर देती, उससे पूर्व ही उसने अपना कहा हुआ पूरा करके दिखा भी दिया था। प्रकृति को क्षण भर के लिये अपने मानव के पराये होने का अंदेशा हुआ तो वह इस दुख को सहन भी नहीं कर सकी थी। कोई भी सच्चाई जानने की उसने जैसे जरूरत ही नहीं समझी थी। इतना दुख उसको हुआ था, कि बगैर किसी से कुछ भी कहे हुये, अपने कहे अनुसार वह कुंये में डूब कर अपना जीवन समाप्त कर बैठी थी।

                      प्रकृति ने वह बातें अपने प्यार की भावुकता में कहीं थीं। मगर कौन जानता था, कि उसकी कही हुई वे बातें आज किसकदर सत्य प्रमाणित हो गई थीं। आज वह सचमुच ही सबको छोड़ कर उस देश की यात्रा को कूच कर गई थी, जिसके बारे में कहते तो सब हैं- जानने का दावा भी बहुत से करते है- लेकिन सचमुच में जानता तो कोई विरला ही होगा? वहां पहुंच कर फिर कभी कोई वापस नहीं आता है। सदियों पुराने जीर्ण-शीर्ण बने हुये कब्रिस्थान में बने हुये कुंयें में डूब कर वह अपना प्राणांत कर चुकी थी। सब जानते हैं कि वह काम उसने किया था, कि जिसको समाज, कानून, धर्म और देश सभी ने एक अपराध का नाम दिया है। दिल की भावनाओं और सजाये हुये सपनों पर जब समय का कुठाराघात चलने लगता है तो यही एक अपराध मानव के सामने रह जाता है, कि जिसको कभी­कभी वह जानते और समझते हुये भी करने से नहीं चूक पाता है। लोग समझते हैं कि जीवन पर केवल जीने वाले का हक है, जब कि सत्य ये है कि जीवन देने और लेने का अधिकार, परमेश्वर ने केवल अपने हाथ में रख छोड़ा है।

                '. . . सोचते­सोचते, मानव की आंखों से स्वतः ही आंसू किसी माला की गिरती हुई बेजान कड़ियों के समान टूट­टूट कर नीचे भूमि पर बिखरने लगे। उसकी आंखों में बसे हुये वे आंसू जो उसके निस्वार्थ प्रेम की गवाही के रूप में गिरते थे, आज उसके दिल की सारी हसरतों के जख्मी ख्वाब बन कर तहस­नहस हो चुके थे। उसके प्यार के अंतिम अंश के रूप में ऐसे न जाने कितने ही आंसू वह अब हर रोज़ ही अपनी उजाड़ और तबाह मुहब्बत के दुख में बरबाद करता रहेगा। जाने कब तक रोता रहेगा? शायद अपने जीवन की आखिरी सांसों तक वह इसी प्रकार अपनी उस 'प्रकृति' के लिये रोता रहेगा, जिसको परमेश्वर ने अपनी उस सृष्टि के नाम पर खुद अपने पवित्र हाथों से रचा है, जो आज भी उसकी उपस्थिति और सुन्दरता के रूप में हरेक मौसम में एक 'प्रकृति' के द्वारा ही दिखाई देती है। परमेश्वर की बनाई हुई 'प्रकृति' की सुन्दरता पतझड़, पानी, बरसात, हिम, आंधी-तूफान और वातावरण के हर एक बिगड़े हुये मौसम तक में बिगड़ती है- बनती है और हर पल सजती भी है। शायद इसीलिये 'प्रकृति' 'मानव' के लिये मर कर भी सदा अमर रही है। अमर है, इसलिये ताकि, वह 'धरती' को उस 'मानव' के लिये सुन्दर बनाये रहे, जिसको परमेश्वर ने खुद अपने हाथों से, अपने दिल की हसरतों से रचा है। लेकिन दुख की बात है कि मानव परमेश्वर के इस महान प्रेम को समझने की चेष्टा तक नहीं करता है। परमेश्वर का मनुष्य के लिये प्रेम की साक्षी इसी में है कि उसने इंसान को खुद अपने हाथों से बनाया है, जब कि सृष्टि की अन्य वस्तुयें केवल उसके शब्दों के द्वारा पूरी हुई          लोगों को ज्ञात है कि आज के बाद सब कुछ समाप्त हो चुका है। सारा कुछ ही बदल गया है। प्रकृति के साथ ही सारी कहानी भी समाप्त हो गई है। अब न प्रकृति होगी और ना ही उसको प्राप्त करने वाले दीवाने। प्रकृति के जाने के बाद सब कुछ यादों के बीच दब चुका होगा। केवल शेष रह जायेगी वह कहानी- वह करूण गाथा  और प्रेम-कहानी का अंतहीन-अंत कि, जिसको जो कोई भी दोहरायेगा तो उसकी भी आंखें एक बार को नम हो जाया करेंगी।

                      प्रकृति का अंतिम संस्कार करके कम्पाउंड के जब सारे लोग लौटे तो सब ही की आंखें उनके बीच में उपस्थित उदास मानव को निहार रही थीं। कब्रिस्थान के प्राचीर के बाहर आते ही बादल और मानव ने सामने देखा तो सहज ही चौंक गये- उन दोनों के सामने आकाश खड़ा हुआ था- अपने दो-तीन साथियों के साथ. बहुत उदास, नम आँखें और झुकी-झुकी नज़रें. उसने मानव को देखा. बोला कुछ नहीं. वह आगे बढ़ा और उसने मानव को अपने गले से लगा लिया. ऐसा था प्रकृति का प्यार और स्नेह कि, आज उसने दो मित्रों की आपसी शत्रुता को भी सदा के लिए भुला दिया था.

          मानव के उदास दिल की दशा से सब ही को अब सहानुभूति हो चुकी थी। सब उसके दर्द से वाकिफ थे। 'प्रकृति', 'मानव' और 'धरती' के त्रिकोण प्रेम पर आधारित कहानी, चर्च कम्पाउंड के चप्पे­चप्पे तक में बसी हुई थी। किसी से भी उनके प्रेम का अधूरा इतिहास छुपा हुआ नहीं था। सब ही उनके प्रेम को जानते थे। एक ऐसी प्यार की गाथा, ऐसी चाहतों और हसरतों की संवारी हुई दुनियां, कि जो कभी भी बदनाम नहीं हुई थी। जिसमें कभी भी कोई अश्लीलता और हिकारत जैसी बात तक नहीं उपज सकी थी और जो अपनी मंजिल तक पहुंचने से पहले ही टूट कर समाप्त भी हो गई थी। समाप्त हो गई थी, केवल अपने द्वारा कुछेक लिये गये गलत निर्णयों के कारण। आवश्यकता से अधिक भावुक रूप में सोचने के कारण, तथा प्यार में दो कदम जल्दी आगे भागने के कारण ही वे अपने वास्तविक ठहराव तक पहुंचने से पहले ही भटक गये थे। शायद यही प्यार है। प्यार का जीवन है। प्रेम का वास्तविक प्रतिफल है, कि जिसमें अपनी दुनियां अपने आप बनाने की ललक में इंसान अपने मकसद को पूरा करने में असफल हो जाया करता है। ये जानते हुये भी कि मनुष्य के जीवन साथी के जोड़े परमेश्वर के घर से बनाये जाते हैं; लेकिन तौभी इंसान अपने प्यार के बल पर परमेश्वर की योजनाओं को असफल करने की कोशिश सदा से करता आया है।

                      वर्षा और तूफान के बाद अब वातावरण में शान्ति थी। प्रकृति की अकस्मात दर्दनाक मौत के कारण चर्च कम्पाउंड में जी­तोड़ ख़ामोशी बस चुकी थी। वर्षा के कारण अभी तक हर वस्तु भीगी हुई थी। धरती अपने पति के साथ अपने घर को जा चुकी थी। प्रकृति के इस संसार से अपनी भरी युवावस्था में सदा के लिये चले जाने के कारण ने चर्च कम्पाउंड के चप्पे­चप्पे तक की जुबान बंद कर रखी थी। आज हर घर में अंधेरा छाया हुआ था। दुख और सदमें के कारण किसी ने कोई चिराग़ तक अपने घर में नहीं जलाया था। प्रकृति और मानव को लेकर जो चर्चे और रूसवाइयां कभी हुआ करती थीं, आज उनकी भी खुस­फुस जैसे सदा के लिये बंद हो गई थी। वातावरण के हर क्षेत्र में भरपूर मौन और ख़ामोशी का लिबास पसर चुका था।

                      बादल मानव को उसके घर तक छोड़ने आया तो मानव के पिता की भी आंखें छलक आईं। बुढ़ापे के इस दौर में उनसे अपने इकलौते पुत्र का दुख देखा नहीं जाता था। मगर वे कर भी क्या सकते थे। ईश्वर के भेदों और इरादों पर किसी का कभी भी कोई बल नहीं चल सका है। मानव घर में आकर उदास बैठ गया था। बादल भी बैठा हुआ था। घर के इस उदासी में डूबे वातावरण में सब ही आंखों में दर्द के आंसू थे। दुख में डूबे हुये सब ही सोच रहे थे। मानव के पिता से जब अपने पुत्र का दुख देखा नहीं गया तो वे उठ कर उसके पास आये और बहुत प्यार से उसके सिर पर अपना हाथ रखे रहे। फिर उन्होंने उसे अपने सीने से लगाया। आख़िरकार वह उनका अपना ही रक्त था। उनके कलेजे का टुकड़ा। अपनी बूढ़ी आंखों में आंसू भरे हुये वे उसको समझाने का मौन प्रयत्न करते रहे। तसल्ली देते रहे। यही कि जो खो गया है, उसका दुख तो सब ही को होता है, परन्तु जो कुछ भी बच गया है, उसकी रक्षा सदा ही करनी चाहिए।

* * *

प्रकृति, मानव और धरती

अंतिम परिच्छेद

 

                कई दिन बीत जाते हैं।

कई माह। कई वर्ष। वही शिकोहाबाद है। वही चर्च कम्पाउंड। वही कम्पाउंड की मसीही बस्ती है। वही पुराने घर हैं। कम्पाउंड में अब हर समय एक अजीब ही जानलेवा ख़ामोशी छाई रहती है। कम्पाउंड के बहुत सारे लोग इस संसार से उठ कर अपने वास्तविक घर परमेश्वर के पास जा चुके हैं। इसलिये अब चर्च कम्पाउंड के इस सूने वातावरण में ना तो वह पहली जैसी चहल­पहल है और ना ही वह शोर­शराबा है, कि कभी वर्षों पूर्व बसा रहता था। सारे शिकोहाबाद पर यदि एक दृष्टि डाली जाये तो विकास के नाम पर यदि किसी वस्तु में तरक्की हुई है तो वह है लोगों की जनसंख्या। पिछले दो दशकों में आबादी इसकदर बढ़ गई है कि अब हर स्थान पर आदमी ही आदमी दिखाई देता है। एकान्त और सूनेपन नाम की तो कोई वस्तु रह ही नहीं गई है। कम्पाउंड के किनारे और बाई-पास के सहारे पूरे बाजार जैसा दृश्य दिखाई देने लगा है। चारो ओर मोटर गाड़ियों का शोर, टेम्पुओं का उड़ता हुआ धुँआ  और मनुष्य जीवन की अहमियत से बेखबर लोगों की गंवार बातों का शोर,  बात­बात पर उनके लड़ाई­झगड़ों की आवाजें ही अब वहां का मुख्य केन्द्र बन चुकी हैं। कम्पाउंड की मिशनरी कोठी,  अन्य जीर्ण होते मकानों की दीवारों पर दम तोड़ते हुये चूने के सरकते हुये अवशेष तथा चिपकी हुई काई की पर्तों को देखते ही प्रतीत होता है कि ये उस हरे­भरे चमन का उजड़ा हुआ हाल है, जिसका अब ना तो कोई माली है और ना ही कोई रखवाला। चारदीवारी के नाम पर बनवाई गई कम्पाउंड की बाहरी दीवार के अब केवल अवशेष ही दिखाई देते हैं। वह भी न जाने कब की टूट कर धराशायी हो चुकी है। मगर इतना सब कुछ होने के बावजूद भी जब कभी ढलती हुई शाम की मनमोहक ठंडी हवायें सूने कम्पाउंड के रूठे हुये वातावरण में बहने लगती हैं तो जैसे सारा माहौल फिर से सिसकने लगता है। लोग डूबती हुई संध्या के समय जब कभी भी बाहर घूमने बाई-पास की तरफ जाना चाहते हैं तो चाह कर भी नहीं जा पाते हैं, क्योंकि वहां पर अब घूमने के नाम पर लोगों की भीड़ और शोर­शराबा इस हद तक है कि कानों में जैसे पिघला हुआ सीसा भरने लगता है। लेकिन फिर भी जब लोगों की भीड़ कम होती है और रात गहराने लगती है तथा चन्द्रमा ऊपर आकाश में उठने लगता है तो कम्पाउंड का उदासियों में डूबा हुआ वातावरण जैसे फिर से एक बार मुस्कराने की कोशिश करने लगता है। माहौल में जैसे नई रौनक भरने लगती है।

                इतना अधिक बदल गया है समूचा चर्च कम्पाउंड और वहां के रहे­बचे लोग कि जिसका ब्यान इबारतों में नहीं लिखा जा सकता है। कम्पाउंड के जाने­पहचाने लोग समूचे देश में रोज़गार और नौकरियों के कारण बिखर चुके हैं। आपस में पुरानी यादें और आपसी लोगों को जैसे सब ही भूल गये हैं। इसके साथ ही लोग प्रकृति को भी भूल चुके हैं। मानव को भी अब कोई याद नहीं करता है। चर्च के पिछवाड़े स्थित कब्रिस्थान के सूने और तन्हा प्राचीर में प्रकृति की कब्र पक्की कर दी गई है। इसको पक्का और मजबूत किसने बनवाया है, ये कोई नहीं जानता है। संगमरमर की बनी प्रकृति की इस कब्र में केवल अब उसकी वह स्मृतियां भर कैद हैं,  जिनको अब कोई भी याद करने की आवश्यकता भी महसूस नहीं करता है। प्रकृति का सारा परिवार भी उसकी मृत्यु के पश्चात कहीं दूसरे शहर में जाकर बस गया है।

                कम्पाउंड के लोग अब पुरानी बातें दोहराते नहीं हैं। यदि दोहराना भी चाहते हैं तो लगता है कि जैसे उन्हें अब कुछ याद भी नहीं है। प्रकृति और मानव के छुपे प्यार की अफ़सानों और रूसवाइयों से भरी अमर कहानी अतीत की यादों की पर्तों में दब कर धूमिल पड़ चुकी है। कम्पाउंड के सामने ही बना हुआ नरायन डिग्री कालेज अब और भी अधिक सुन्दर बन चुका है। वह डिग्री कालेज कि जहां पर कभी प्रकृति, मानव, धरती और आकाश के प्यार के चर्चे वहां की मौसमी हवाओं में बहा करते थे, अब उन सबकी स्मृतियों से भी जैसे महरूम हो गया है।   

                मगर फिर भी जब कभी कोई त्यौहार आता है। बड़े दिन की बहारें कम्पाउंड में आने लगती हैं, तो उस समय पर कोई अनजान व्यक्ति रात के अंधकार में चुपके से आता है और प्रकृति की धूल भरी मज़ार पर श्रृद्धा के फूल रख कर अपने सैकड़ों आंसू बरबाद करके चुपचाप चला भी जाता है। लोगों ने उसको अक्सर ही प्रकृति की कब्र पर कभी­कभी बड़ी देर तक चुपचाप आंसू बहाते देखा है।

                चिरनिद्रा में सोई हुई प्रकृति की सूनी कब्र पर चुपके से फूल रख कर लौट जाने वाला व्यक्ति कोई अन्य नहीं, बल्कि मानव है। वही मानव जो आज तक अपने प्यार के सिले की भीख मांगते­मांगते स्वंय में एक भिख़ारी ही बन कर रह गया है। प्रकृति का ऐसा दीवाना कि जो आज तक अपने सच्चे और निस्वार्थ प्रेम की अधूरी कसमों को निभा रहा है। केवल प्रकृति की यादों के सहारे ही अपने जीवन के शेष दिन व्यतीत कर रहा है। उम्र को गुजार नहीं रहा है, बल्कि पूरी कर रहा है। घुट­घुट कर। रो रोकर। उसकी यादों के सहारे। अपनी अकेली ज़िन्दगी के साथ  अपनी बरबाद मुहब्बत की राख़ को समेटे हुये, वह अपने जीवन के रहे­बचे दिन भी यूं ही गुजार देगा। शायद यही उसका प्यार है। प्यार की अथाह गहराई है। उसके प्यार का सबूत है। उसका वह प्यार है, कि जिसकी डोर बंधने से पहले ही सदा के लिये टूट चुकी है। इंसान की चाहतों और हसरतों का ये कैसा हश्र है, कि जो अपनी जानलेवा बीमारियों और जमाने की मार से नहीं मर सका, वह जज़बातों के द्वारा दुख उठाने के लिये जीवित है और जिसे जीवित रह कर अपने सुख के दिन काटने चाहिये थे, वह संसार के सारे कष्टों से दूर मृतकों की दुनियां में भी सुख और चैन की नींद सो रही है।

                आज तक मानव की यादों में एक ही नाम है- प्रकृति। उसके दिल के पर्दे पर एक ही तस्वीर है- प्रकृति। सूनी आंखों में केवल, किसी एक का ही दर्द बसा हुआ है- प्रकृति—प्रकृति और केवल प्रकृति।

                प्रकृति और मानव के आपसी चाल­चलन, उनकी बातें करने के ढंग, एक साथ रहने और मिलने­जुलने के तरीकों को कम्पाउंड की हरेक निगाह किसी गन्दगी में पनपते हुये घिनौने प्यार का खिताब देने से कभी भी बाज नहीं आई थी। जब कि वास्तविकता ये थी, कि उनके प्यार का रिश्ता मन की कोमल और पवित्र भावनाओं से निकल कर कभी भी जुबान तक नहीं आ सका था। अपने प्रेम के पथ पर वे दोनों कदम रखते, या फिर अपने इस प्रेम के बंधन को आरंभ करते, उससे पहले ही उनका ये बंधन सदा को टूट भी गया था।

                'प्रकृति' और 'मानव' के प्रेम का वह सम्बन्ध जो कभी 'धरती' ने मध्य में आकर फिर कभी आरंभ नहीं होने दिया था,  मगर सत्यता जानते ही वह पीछे भी हट गई और फिर उसने उन्हें जोड़ना भी चाहा था। अपने महान और पवित्र प्रेम का बलिदान करके उसने उन्हें फिर से एक साथ, एक ही राह पर लाना भी चाहा था, लेकिन उससे पूर्व ही प्रकृति मानव से बहुत दूर जा चुकी थी।

                मनुष्य की जिन्दगी के वे रास्ते, जिन पर चलने की आस रखते हुये वह अपने प्यार के दीप जलाने की कामना करता है, परमेश्वर की इच्छा के बगैर रेत में बनाये हुये महलों के समान कभी फिर से रेत में ही जब मिल जाया करते हैं तो इंसान को दुख तो होता है, परन्तु उसका ये दुख भविष्य की उन यातनाओं से कहीं बहुत कम होता है,  जिसमें सृष्टि के रचयिता की इच्छा के अनुकूल उनका जोड़ा बनाया जाता है। मनुष्य यदि परमेश्वर की ऐसी योजनाओं को समझने की चेष्टा करे और उसकी इच्छा के अनुसार अपने जीवन को व्यतीत करे तो प्यार के दर्द भरे अफ़सानों से सजी हुई कहानियां लिखने के लिये मर्मस्पर्शी कहानीकार और उपन्यासकार शरोवन तो क्या ही, शायद कोई भी कलमकार ऐसी व्यथा से भरी कहानियों को नहीं लिखेगा?

                जिससे मनुष्य चाहे उससे वह कभी भी नहीं जुड़ पाता है और जिसकी कभी वह कल्पना भी नहीं करता है, वह सिलसिला आरंभ होने से पहले ही सदा के लिये टूट जाता है। अफ़सोस करने से जीवन की खोई हुई बहुमूल्य वस्तु दोबारा तो नही मिला करती है, मगर हां, दिल के कोने में बसा हुआ दर्दों का गुबार सन्तोष का मर्म रखते ही काफी सीमा तक कम अवश्य ही हो जाता है। प्रकृति और मानव के प्यार की कभी भी न जुड़ सकने वाली एक कहानी, एक व्यथा, जमाने के उसूलों में उलझी हुई प्यार की एक डोर, किशोर युवतियों और युवकों के पनपते हुये प्रेम की एक अनुपम और अनूठी गाथा- 'प्रकृति', 'मानव' और 'धरती'।

                    समाप्त

 

 

 

 

 

 

       इस उपन्यास में स्थानों के नाम तो वास्तविक हैं, पर संपूर्ण कहानी एक कल्पना पर आधारित है। यदि फिर भी किसी के जीवन से इसकी कोई घटना मिलती­जुलती या समानता में है, तो वह मात्र एक संयोग ही होगा और इस संयोग के लिये प्रकाशक, लेखक, मुद्रक और वितरक जिम्मेदार नहीं होंगे।   -लेखक

 

                  © लेखक