Wo Maya he - 82 in Hindi Adventure Stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | वो माया है.... - 82

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वो माया है.... - 82



(82)

बद्रीनाथ ने घर से निकलना लगभग बंद ही कर दिया था। बाहर निकलते थे तो लोग बेवजह की हमदर्दी दिखाते थे। जिसमें उनके दुख को लेकर अफसोस तो प्रकट करते थे पर साथ ही ऐसा कुछ बोल देते थे जो उनकी परवरिश पर सवाल खड़े कर देता था। वह बहुत दुखी रहते थे। उन्होंने अब सबकुछ किस्मत पर छोड़ दिया था। किशोरी ने एक दो बार उनसे बाबा कालूराम के पास जाने के लिए कहा भी तो उन्होंने टाल दिया।
आज जगदीश नारायण से उनकी बात हुई थी। उन्होंने कहा था कि विशाल का केस अब आसान नहीं रह गया है। पुलिस के पास इस बात का कुबूलनामा है कि उसने ही अपनी पत्नी कुसुम और बेटे मोहित को ज़हर दिया था। यह बात अलग है कि उसने यह बात अपने ही अंदर बसे एक रूप के तौर पर कही थी। अब कोर्ट यह तय करेगा कि उसने यह सब अपनी बीमारी के कारण किया था या बस एक बहाना बना रहा है। हो सकता है कि कोर्ट विशाल को किसी मनोचिकित्सक के पास भेजकर सच पता करे। अगर कोर्ट को लगता है कि विशाल ने अपनी पत्नी और बच्चे की हत्या अपनी बीमारी डिसोसिएटिव पर्सनालिटी डिसऑर्डर के कारण किया है तो उसे इस केस से बरी करके उसका इलाज करवाए। लेकिन पुष्कर की हत्या की सुपारी देने वाली बात तय है। उसके लिए उसे सज़ा ज़रूर मिलेगी। जगदीश नारायण ने जो कुछ कहा था वह निराश करने वाला था। उनके पास से लौटने के बाद से बद्रीनाथ और अधिक दुखी हो गए थे।
नीलम अपने घर चली गई थी। उमा पहले की तरह सारे घर का काम खुद करती थीं। लेकिन मुंह से कुछ भी नहीं बोलती थीं। इस सबमें किशोरी अजीब सी स्थिति में थीं। जो हालात थे उनसे परेशान भी होती थीं पर कर कुछ नहीं सकती थीं। किसी से बातें करके मन हल्का कर लें ऐसा भी नहीं हो पा रहा था। अपनी विवशता में वह लेटे हुए भजन गाती रहती थीं। जिससे कुछ वक्त कटे। लेकिन वह भी कब तक गातीं। जब उससे भी मन शांत ना होता तो भगवान के सामने बैठकर रोती थीं।
शाम का समय था। बद्रीनाथ बैठक में थे। उमा अपने कमरे में लेटी हुई थीं। किशोरी कमरे में बैठे हुए ऊब गई थीं इसलिए आंगन में आकर चारपाई पर लेट गई थीं। वह सोच रही थीं कि कैसा समय आ गया है। घर में इतने दुख पड़े पर कभी माहौल में ऐसी उदासी नहीं रही। पुष्कर की मौत इतना बड़ा धक्का थी। लेकिन उसके बावजूद भी बद्रीनाथ और उमा इतने निराश नहीं हुए थे। लेकिन विशाल का सच सामने आने के बाद दोनों ही बुरी तरह टूट गए हैं। अब तो जैसे दोनों ने सबकुछ नियति पर छोड़ दिया है। दोनों अपने भीतर खोए हुए किसी चलते फिरते बुत की तरह जी रहे हैं। विशाल का सच तो उनके लिए भी सहना कठिन था।
जो कुछ सामने आया था उसे वह पूरी तरह समझ नहीं पाई थीं। उन्होंने अपने मन में जो स्थिति बनाई थी उसके अनुसार वह अभी भी हर एक चीज़ के लिए माया को ज़िम्मेदार समझती थीं। वह सोचती थीं कि यह माया के श्राप का असर ही है कि विशाल का दिमाग फिर गया। उसने अपनी ही पत्नी और बच्चे को ज़हर दे दिया। उसके बाद सब भूल गया। माया के श्राप के प्रभाव में ही उसने पुष्कर को मारने के लिए आदमी भेजा था। किशोरी चाहती थीं कि बद्रीनाथ बाबा कालूराम से मिलें। उनसे इस स्थिति से बाहर निकलने का उपाय पूछें। पर उनके कहने के बावजूद भी बद्रीनाथ ने कोई ध्यान नहीं दिया था। वह बहुत परेशान थीं।
सूरज डूब गया था। आंगन में धीरे धीरे अंधेरा हो रहा था। पहले कभी ऐसा नहीं होता था कि शाम के समय उमा बिस्तर पर लेटी हों। बीमारी की हालत में भी शाम को उठकर बिजली जलाती थीं। किशोरी शाम की आरती करती थीं तो अक्सर आकर खड़ी हो जाती थीं। उनका मानना था कि सांझ के समय सोना ठीक नहीं होता है। पर इधर कई दिनों से वह शाम के समय अपने कमरे में ही लेटी रहती थीं। शाम की आरती से भी उन्हें कोई मतलब नहीं रह गया था। यह सब सोचते हुए किशोरी की आँखों से आंसू बहने लगे। उन्होंने रोते हुए कहा,
"भोलेनाथ ऐसी क्या गलती हो गई है कि आप इतने नाराज़ हैं। अब तो कोई उम्मीद भी दिखाई नहीं पड़ रही है। हमसे यह सब सहा नहीं जाता है। अब हमें मुक्ति दे दीजिए।"
कुछ देर तक वह बैठी रोती रहीं। उनके आसपास कोई नहीं था जो उन्हें सांत्वना देता। रोते हुए उनके मन में आया कि जो हो रहा है उसका कारण वही हैं। अपने मन में आए इस खयाल से वह चौंक गईं। पहली बार उनके मन में यह बात आई थी। इससे पहले उमा ने उन्हें और बद्रीनाथ को माया के श्राप के लिए दोषी ठहराया था। सुनंदा को भी उन्होंने यही कहते सुना था कि वह सारी मुसीबतों की जड़ हैं। आज उनके अपने मन ने भी उन पर वही इल्ज़ाम लगा दिया था।
किशोरी फूट फूटकर रोने लगीं। जो बात उनके मन में आई थी उसके कारण उनके मन में अपराधबोध आ गया था। रोते हुए वह कह रही थीं कि अगर सबकुछ उनके कारण हुआ तो भी उन्होंने जानबूझकर कुछ नहीं किया है। वह तो बस अपने भाई और उसके परिवार का भला चाहती थीं। बद्रीनाथ चाहते थे कि विशाल का रिश्ता किसी बड़े घर में हो। इसलिए उन्होंने वही किया जो बद्रीनाथ चाहते थे। लेकिन वह कभी भी अपने भाई के परिवार का बुरा नहीं चाहती थीं।
किशोरी रोते हुए बड़बड़ा रही थीं लेकिन ना तो बद्रीनाथ और ना ही उमा उनकी आवाज़ सुनकर उनके पास आए। रो लेने के बाद किशोरी ने आँचल से अपने आंसू पोंछे। वह सोच रही थीं कि अब उठकर लाइट जलाएं। हाथ पैर धोकर दिया बाती करें। पर उनका मन बहुत उदास था। इसलिए सोच कर ही रह जा रही थीं। अंधेरा अब गहरा गया था। इस अंधेरे में किशोरी का मन और घबराने लगा। वह भगवान का नाम लेने लगीं।
इधर केदारनाथ मौका निकाल कर लगभग रोज़ ही अपने भाई के हालचाल लेने आते थे। आज भी वह सुनंदा को लेकर आए थे। उन्होंने दरवाज़े पर दस्तक दी। कोई जवाब नहीं मिला। वह जानते थे कि आजकल बद्रीनाथ लोगों से मिलने जुलने से कतराते हैं। केदारनाथ ने आवाज़ लगाई,
"भइया हम हैं.... दरवाज़ा खोलिए।"
आवाज़ सुनकर किशोरी उठीं। अंधेरे में दरवाज़े की तरफ बढ़ीं।‌ उन्होंने दरवाज़ा खोला। केदारनाथ और सुनंदा अंदर आए। केदारनाथ ने किशोरी के पैर छूकर कहा,
"जिज्जी सारे घर में अंधेरा पड़ा है। बिजली तो आ रही है।"
यह सवाल सुनकर किशोरी भावुक हो गईं। रोते हुए बोलीं,
"अंधेरा तो अब इस घर की किस्मत में लिख गया है।"
यह कहकर किशोरी रोने लगीं। केदारनाथ ने उन्हें गले लगा लिया। सुनंदा ने आंगन की बत्ती जला दी थी। केदारनाथ ने कहा,
"भइया और भाभी कहाँ हैं ?"
"बद्री वकील से मिलकर आया था उसके बाद से ही बैठक में है। अब वहीं बैठा रहता है चुपचाप। जाकर पास बैठो भी तो कुछ बोलता नहीं है। उमा तो पहले ही अपने आप में खो गई थी। अब काम करती है नहीं तो अपने कमरे में लेटी रहती है।"
सुनंदा ने किशोरी को सहारा दिया और उनके कमरे में ले गईं। केदारनाथ बैठक की तरफ बढ़ गए।
बैठक में अंधेरा था। उस अंधेरे में बद्रीनाथ तखत पर लेटे हुए थे। उनकी आँखों से अब जल्दी आंसू भी नहीं निकलते थे। उन्हें ऐसा लगता था कि भीतर सिर्फ़ एक गहरा सन्नाटा है। इतना गहरा कि उसके होने का एहसास पागल कर देगा। अचानक कमरे की बत्ती जली। अंधेरे की अभ्यस्त आँखें अचानक रौशनी में आने से कुछ पलों के लिए चुंधिया गईं। वह उठकर बैठ गए। केदारनाथ उनके पास बैठकर बोले,
"भइया अंधेरे में बैठे थे....."
"मन के भीतर इतना अंधेरा है कि बाहर का अंधेरा पता ही नहीं चलता है।"
यह कहकर बद्रीनाथ ने अपने भाई की तरफ देखा। उनकी आँखों का सूनापन देखकर केदारनाथ का दिल दहल गया। वह उनके चेहरे को देख रहे थे। एकदम मुर्झा गया था। जैसे शरीर को किसी भयानक रोग ने जकड़ लिया हो। उनके मन में आया कि मानसिक पीड़ा किसी बीमारी से कम नहीं होती है। केदारनाथ समझ नहीं पा रहे थे कि अपने भाई से क्या कहें। उन्होंने बद्रीनाथ को गले लगा लिया। वह रोने लगे। लेकिन उनके भाई की आँखें किसी मरुस्थल की तरह सूखी थीं। यह बात उन्हें और पीड़ा पहुँचा रही थी। बद्रीनाथ ने खुद को अलग करते हुए कहा,
"तुमसे कहा है ना कि बेवजह परेशान ना हुआ करो। अपना घर संभालो।"
"हमने भी आपसे कहा है कि हम अपने भाई को नहीं छोड़ेंगे। अलग घर में रहते हैं पर पराए नहीं हो गए हैं।"
यह कहते हुए केदारनाथ भावुक हो गए। बद्रीनाथ ने उनके कंधे पर हाथ रखकर कहा,
"हमारे कहने का मतलब है कि यह घर वीरान हो गया है। इसके आबाद होने की कोई गुंजाइश नहीं है। तुम्हारे ऊपर दो बच्चियों की ज़िम्मेदारी है। तुम उनके भविष्य की चिंता करो।"
"उनके भविष्य की चिंता भी कर रहे हैं। पर आप लोगों को ऐसे ही नहीं छोड़ देंगे। कुछ और नहीं कर सकते हैं तो रोज़ आकर हालचाल ही ले लिया करेंगे।"
बद्रीनाथ ने अपने भाई की तरफ देखा। वह बहुत निराश थे। उन्होंने कहा,
"केदार....सब लुट गया है।‌ अब कुछ भी नहीं बचा है। अब बाकी बचा हुआ जीवन इसी तरह अंधेरे में घुटते हुए बीतेगा।"
केदारनाथ ने एकबार फिर अपने भाई को गले लगा लिया। बद्रीनाथ ने कहा,
"जो हो रहा है केदार उसके ज़िम्मेदार हम ही हैं। अपने अहंकार में ही माया की अनदेखी की थी। उसका श्राप आज सबकुछ निगल गया। हमसे बहुत बड़ी गलती हो गई थी केदार। अब तो उसका प्रायश्चित भी नहीं कर सकते हैं। सिर्फ सज़ा भुगतना है।"
बद्रीनाथ अब अक्सर अपने भाई के सामने माया वाले किस्से के लिए खुद को दोषी ठहराते थे। केदारनाथ कुछ कह नहीं पाते थे। पर उन्हें भी यही लगता था कि माया के साथ अन्याय हुआ था।