६८
सुना है काल की धारा में
आदमी के स्वभाव में परिवर्तन आता है
फिर भी कुछ आदमियों के हृदय से
वीणा की झंकार नही सुनाई देती
सितार की धुन उनके देह में नही लहराती
मौन गले से , सुरवटों की लडियाँ नही बहती
आँखों के पंछी खूषी से नही फडफडाते
यह सब देख के उनके जीवन में
आनंद मौन हो जाता है
कुछ तो अलग बदलाव आया है
यह जानकर व्यक्ति के अंदर से
एक आवाज गूनगुनाने लगती है
वह सुनके संगीत को पता चलता है
आदमी बदल सकता है ,और
व्यक्ति को भी पता चलता है
मौन में भी संगीत होता है
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६९
समय न निकल जाए इसलिए
तेज दौडते आया तू
घोडे के आयाली के पिछे
बडे रुबाब से छाया तू
आकर्षक ऐसा मर्दाना
पर धूलि ने तुझे आगोश में लिया
घोडे के टाप में से
महसूस हो रही थी
तेरे बदन की ज्वाला
गरम साँसों में उतर
रही थी अंगारों की माला
घोडे के लगाम भी झेल रहे थे
तुम्हारे हाथ की ताकत
राजा को पहुँचाना था खलिता
इसलिये तू दौडा कहाँ से कहाँ तक
राजा के एक इशारे पे ,तू
अपनी जान कुर्बान कर देता है
तुझे सलाम ए सांडणी स्वार
अपने देश के लिये तू जीता है या मरता है
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७०
नंदादीप की शलाका
पीले तेज में जल रही थी
भगवान के मुख पर पडी
उसकी छाया, अगम्यता दिखा रही थी
भगवान के दरबार में मिन्नते ,मन्नते
पर उसके हिसाब में सिर्फ तेरे करमों की झोली
कर्म के चक्रों से तुझे तेरा फल मिलेगा
दुःख में ,मैं तेरे साथ रहूँगा
तेरी भीगी आँखों को पोछुंगा
तू लढना उस दुःख से
फिर मैं तेरा बेडा पार करूंगा
सूख में अच्छे कर्म कर
दुःखी लोगों को राहत दे दे
फिर सूख दुःख क्या रहेंगे तेरे
मैं ही तेरा साथी बनूंगा
दिया बताता है प्रकाश से
यह भगवान के विचार
साज सजे फूलों का
महक समजाए निराकार
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७१
मंचक पर लेटी हुई
उदासी से भरी रानी
राजा है रणसंग्राम में
बन गया महल विराणी
चिंताओं का जाल मन में
हृदय में वेदनाओं का तूफान
राजा के एक एक जख्म से
रानी पर पडे निशान
तलवार की टणत्कार उसके
कानो में गुंजती रहती है
रक्तरंजित दृश्यों की माला
आँखों के आगे विहरती है
भगवान के आगे दिप जले दिन रात
राजाजी की यशोगाथा
मन में दोहराए
सारा दिन सारी रात
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७२
आम के पेड बंधे झुले में
दिनभर लल्ला झुलता रहे
उपर लटके आम
उसके खिलौना बनते रहे
हवाँए आती है
उसे झुलाए जाती है
पंछी हलकेसे उडकर
लल्ला की हँसी देखता है
कुत्ता बैठे आसपास
उसकी रक्षा करता है
डाली पर बैठे राघू मैना
वही से बात करते है
लल्ला के एक हुंकार से
सब उसके पास आते है
जीते जागते खिलौंने देखकर
माँ दंग रह जाती है
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७३
तुम कभी अचानक
मेरे द्वार पर आए
तो, पहचानूंगी क्या मैं तुम्हे ?
संसार के सुखदुःख की सिलवटों से भरा
तेरा चेहरा अजनबी लगेगा मुझे
जवानी की वह तस्वीर मन में थी
वही मेरे पहचान की है
तप्ती धुप की गरमी में तुमने मुझे ठुकरा दिया
अब नही शब्द मेरे पास तुम्हारे लिए
मौन भावना और देहबोली नही है अब तुम्हारे लिए
रास्ते अपने समांतर गए तो भी अब वह
राहे ना एक होंगी, तुम तुम्हारे रास्ते चलो
मैं मेरा रास्ता नापूंगी
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