Prafull Katha - 11 in Hindi Biography by Prafulla Kumar Tripathi books and stories PDF | प्रफुल्ल कथा - 11

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प्रफुल्ल कथा - 11


चढ़ते सूरज की तरह मेरा जीवन एक -एक पायदान ऊपर चढ़ने लगा | पता ही नहीं चला कि मैं कब बच्चे से युवा हुआ , तरुण हुआ और वयस्कता की ओर बढ़ चला हूँ ! नौकरी मिलने और शादी होने और फिर बच्चे पैदा हो जाने के बाद से ऐसा लगने लगा कि अब जीवन की दुपहरिया भी तो आ चुकी है |
नाचीज़ की नौकरी मिलने की कहानी आप सुन चुके हैं | कहाँ मुझे काले कोट, सफेद पैंट में कचहरी जाना था और कहाँ अब मैं अपने मनचाहे एयरकन्डीशंड प्रसारण संगठन और स्टूडियो में पदासीन था ! कहाँ हर दिन किसी मुवक्किल की राह देखनी थी और कहाँ अब एक से एक सेलेब्रिटी गायक और वादक कलाकारों , वार्ताकारों और ऐसे ही तमाम लोगों से मिलना जुलना हो रहा था और बिना टेंशन हर महीने का वेतन बैंक के खाते में पहुँच रहा था| इसी को नियति कहते हैं , भाग्य कहते हैं ! हाँ , तो जीवन के लिए एक साथी की अब मन में तलाश थी या यूं कह लीजिए कि शरीर को आवश्यकता थी तो ऊपर वाला उस दिशा में भी सक्रिय था | आकाशवाणी गोरखपुर में उन दिनों कैजुअल एनाउंसर धीरा जोशी जितनी तेजी से मेरी ज़िंदगी में आईं उतनी ही तेजी से वे नाटकीयता बिखेरती चली भी गईं थीं जिसका प्रसंग पिछले अंकों में किया जा चुका है,पढ़ ही चुके होंगे |एक और मजेदार बात यह कि मेरा यह असफल प्यार मेरे जीवन को इतना आंदोलित कर जाएगा इसका एहसास मुझे उन दिनों नहीं था लेकिन जैसे जैसे समय बीतता गया उन दिनों की याद और भी शिद्दत से आने लगी |उन दिनों की छपी मेरी हर कहानियों में उसका अक्स देखा जा सकता है |
उन दिनों में मेरे प्रथम प्रेम को असफल करने में लगभग विलेन जैसी भूमिका निभाने वाले गोरखपुर में एक राधा बाबा थे | उनकी कथा बहुत रोचक है | उनका जन्म 16 जनवरी 1913 को गया (बिहार) के फखरपुर गाँव में एक मिश्र परिवार में हुआ था | बचपन का नाम चक्रधर था | बताते हैं कि बालक के मन में साधु संतों के प्रति आस्था थी और उन्हें बचपन में ही संत दर्शन होने लगे | परिजनों ने 14 वर्ष की उम्र में उनका विवाह जगाधरी देवी के साथ कर दिया| उनको एक संतान हुई किन्तु उसने पैदा होते ही दम तोड़ दिया| युवा चक्रधर ने इसके बाद विवाह बंधन तोड़ दिया और सन्यासी हो गए |आगे उनके स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने और जेल जाने का भी घटनाक्रम घटित हुआ | घर छूट चुका था और उन्हें अब लोग मधुसूदनानन्द के नाम से और फिर राधा बाबा के नाम से जानने लगे थे | कोलकता में वे सेठ जयद्याल गोयंदका के संपर्क में आए और उनके परामर्श पर भाई जी हनुमान प्रसाद पोद्दार ने उनको गोरखपुर बुला लिया | गीता वाटिका का परिवेश उनको वृंदावन लगा और उनके व्यक्तित्व मे दीप्तिमान राधा तत्व मुखरित होने लगा | अब राधा बाबा पूरे गोरखपुर में ख्याति पाने लगे | उनकी कुटी में राधा नाम संकीर्तन बराबर चलने लगा | बाबा ने कुछ वर्ष बाद 1956 में काष्ठ मौन धारण करने का संकल्प लिया जो कुछ वर्षों बाद समाप्त हो गया | उधर 22 मार्च 1971 को भाई जी हनुमान प्रसाद पोद्दार का देहावसान हो गया | राधा बाबा के निर्देशन में उनकी अन्त्येष्टि क्रिया हुई |अब गीता वाटिका में राधा बाबा अकेले रह गए लेकिन उनके भक्तों का आना- जाना जारी रहा |राधा बाबा पर भक्तों की अंध श्रद्धा होती जा रही थी |वे अब अपने भक्त जनों के लिए वर- वधू भी चुनने लगे थे | विश्वविद्यालय के अनेक प्राध्यापकों सहित डा । हेमचंद जोशी (धीरा जोशी के परिजन) भी राधा बाबा के अंध भक्त हो गए और लगभग चार महीनों चले मेरे प्रेम प्रसंग पर उस समय पूर्ण विराम लग गया जब धीरा ने बताया कि उसकी शादी इन्हीं बाबा ने दिल्ली के एक पंजाबी परिवार में तय कर दी है | शायद हम दो प्रेमी उस दौर के उन संस्कारबद्ध लोगो में थे जो परिवार और समाज के बंधनों को तोड़ने में डरते थे और अपने प्यार की कुर्बानी हँसते हँसते दे भी दिया करते थे |
इसी संदर्भ में एक छोटी सी घटना यह भी बताना चाहूँगा कि उस दौर में किसी एक रात जब मैं और धीरा अपनी नाइट शिफ्ट की ड्यूटी खत्म करके ऑफिस की गाड़ी से देर रात अपने अपने घर जा रहे थे तो मैंने रमाशंकर दुबे, ड्राइवर से कहा “ क्यों न दुबे जी आप हम दोनों को कहीं दूर भगा ले चलिए !” उसने मुस्कुराकर कहा था ‘’ क्या सचमुच ?” ..उसने भी खिलखिलाकर अपनी सहमति दे दी क्योंकि वह जानती थी कि ऐसा संभव नहीं और ऐसा मैंने मजाक में कहा था ! अंतत:मेरे सपनों की रानी धीरा राधा बाबा की बताई हुई शादी के बंधन में बंधकर सात समुंदर पार कैलिफोर्निया (अमेरिका) चली गई थी |एक सच्चे प्रेमी की आह लगी और राधा बाबा भी कुछ ही दिनों बाद इस लोक से चले गए |
जैसा बता चुका हूँ मेरा म्यूचुअल ट्रांसफर इलाहाबाद से गोरखपुर हो गया था | गोरखपुर आते ही मेरे विवाह के प्रपोजल आने शुरू हो गए थे | उसी बीच विवाह प्रसंग में तड़का तब लगा जब मेरा सेलेक्शन पी.सी.एस. (जे.) के लिए लिखित क्वालीफाई कर लेना हुआ |एक सुबह औपचारिकता वश मैं मिठाई लेकर अपने सहायक निदेशक सुशील चंद्र दुबे के घर क्या पहुँच गया कि पूरे आफिस में इस बात का शोर हो गया कि दुबे जी अपनी बेटी की शादी करना चाहते हैं |उधर मुहल्ले के एक अत्यंत निकटवर्ती रिश्तेदार ने किसी अपने को उलाहना स्वरूप कहा कि घर में एक लड़का जज बन रहा है उनको वह दिखाई नहीं दे रहा है? क्यों नहीं उसके यहाँ बात चलाते हो ? लेकिन तड़का वाला यह दौर ज्यादा दिन नहीं चला क्योंकि इसके इंटरव्यू के बाद जब फाइनल रिजल्ट निकला तो अपना नाम नहीं था | सो, इस चैप्टर ने ट्विस्ट ले लिया |
हम हिन्दू सरयूपारीण ब्राम्हणो में चाहे लड़का हो या लड़की उसके विवाह में तमाम चीजें बारीकियों से देखी जाती रही हैं | अब तो समय बदलता जा रहा है इसलिए उन अनिवार्य शर्तों में भी ढील पड़ने लगी है नहीं तो कुंडली मिलान ,खानदान का इतिहास ,उनका चाल -चलन,दान- दहेज आदि के चक्रव्यूह से सभी को निकलना होता था | उधर मेरे पिताजी आनंद मार्गी होने के नाते बिना दान दहेज लिए किसी ऐसे सुयोग्य प्रस्ताव आने की चाहत लिए बैठे थे का जो कम से कम सजातीय हो | उत्साहपूर्वक एक प्रतिष्ठित आनंदमार्गी अधिवक्ता दुबे जी के परिवार से प्रस्ताव आया | अम्मा- पिताजी ने उनके यहाँ जाकर कुछ औपचारिक्ताओं का निर्वहन भी कर डाला लेकिन अगले कुछ ही दिनो में उस पर भी ग्रहण लग गया जिसकी एक अलग रोचक कथा है जो आप सुनना तो चाहेंगे ही !
मैं उस दौर के अपने एक बहुनामी निकटवर्ती मित्र के साथ प्राय; अपना खाली समय बिताया करता था | युवावस्था में अक्सर की जाने वाली तमाम सही -गलत गुस्ताखियाँ भी होती रही थीं |वे मेरी शिफ्ट ड्यूटी में भी मेरे आफिस पहुँच जाया करते थे और उनकी निकटता देखकर सभी उनसे मित्रवत व्यवहार किया करते थे | वे मेरे मुहल्ले में मेरी ही गली के बदरी पांडे नामक एक पेशकार के एक वन रूम सेट में रहते थे जहां अक्सर शाम को हमलोग कुछ खाने- पीने का भी इंतजाम किया करते थे | शराब तो नहीं हाँ बीयर और आमलेट आदि अवश्य शामिल होता था | ऐसी ही किसी शाम उन सजातीय मार्गी दुबे जी के साले बलदाऊ जी ने मुझे वहाँ अपनी चोर निगाहों से देख लिया था |बस, फिर क्या ! उसने नमक - मिर्च लगा कर मेरा चरित्र चित्रण मेरी होने वाली सास (अपनी बहन मिसेज दुबे ) से कर दिया और मेरा दाम्पत्य संबंध बनते- बनते बिगड़ गया |
अब परिजन दूसरे प्रस्तावों पर विमर्श करने लगे |मेरे साथ एक और दिक्कत यह थी कि उन्हीं दिनों में मुझसे छोटी बहन प्रतिमा की भी शादी खोजी जा रही थी और परिजनों का यह मन बन रहा था कि अब उसकी शादी के बाद ही मेरी शादी की जाए |आगे चलकर वही हुआ भी |
मेरे केंद्र में अब एक महिला डाइरेक्टर मिसेज किश्वर सुल्तान नियुक्त हो चुकी थीं | वे तेज तर्रार आधुनिक महिला थीं |उनके पति गोरखपुर के मियां साहब के रिश्ते में थे इसलिए वे मियां साहब के साथ मुहददीपुर की उनकी कोठी में ही रहने लगीं | बताते हैं कि वे पहले आल इंडिया उर्दू सर्विस में बहुत विख्यात एनाउंसर थीं और सीधी भर्ती से निदेशक पद पा गई थीं | उन दिनों के डी. जी. , चटर्जी साहब की वे खास थीं |आकाशवाणी गोरखपुर के कार्यक्रमों में निखार लाने में वे जुट गईं | उधर गोरखपुर में अपराध चरम पर था |कुख्यात हरिशंकर तिवारी और ठाकुर ग्रुप जिसमें पहले रवींद्र सिंह थे और फिर उनकी हत्या के बाद वीरेंद्र शाही अगुआ बने इन दोनों गुट में चल रही वर्चस्व की लड़ाई में सिलसिलेवार हत्याएं हो रही थीं |बी.बी.सी. लंदन ने भी इसको सुर्खियां प्रदान की थीं |यह सिलसिला लगभग 1989-90 तक चला |अब आप ही बताइए कि जब कोई शहर बारूद के ढेर पर बैठा हो तो ऐसे में वहाँ साहित्यिक - सांस्कृतिक गतिविधियों का कुन्द पड़ते जाना तो स्वाभाविक ही था | फिर भी इस दौरान गोरखपुर का कला मंच सक्रिय रहा और अपना रंग कर्म जारी रखे रहा | विश्वविद्यालय में प्रोफेसर गिरीश रस्तोगी अपनी संस्था “रूपांतर” के जरिए अनेक प्रभावशाली नाटकों को प्रस्तुत कर रही थीं | कुछ और संगठन साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियां चला रहे थे |कार्यालय में संघ लोक सेवा आयोग से चुने गए एक नए कार्यक्रम अधिकारी डा०अनीसुररहमान खान भी आ गए थे जिससे डाइरेक्टर साहिबा का कुछ नया करने का मंसूबा फलने फूलने लगा |पुराने साथी आर. एन. सिंह ,श्यामानंद मिश्र,आर ० एन ० झा ,आर ० के ० झा ,जानकी प्रसाद तो थे ही |मेरठ के एक फक्कड़ी कलाकार प्रकाश शर्मा जी म्यूजिक कम्पोजर थे जिनको दो कुशल कम्पोजर मिले हुए थे -उस्ताद राहत अली (लखनऊ से )और जनाब शुजात हुसैन खान (रामपुर से) |
उन दिनों का गोरखपुर चाहे जैसा रहा हो आकाशवाणी गोरखपुर अब अपनी नई डाइरेक्टर पाकर रेडियो को एक नए मुकाम पर ले जाने लगा था |फर्मायशी प्रोग्राम हो या हिन्दी और उर्दू के साहित्यिक कार्यक्रम ,रेडियो खूब सुना जाने लगा था |रेडियो पर बोलना गर्व की बात मानी जाती थी और बदले में पारिश्रमिक मिलना तो सोने पर सुहागा था |कुछ तो ऐसे निकले जिन्होंने अपने चेक भुनाए ही नहीं बल्कि उसे अपने ड्राइंग रूम में फ्रेम करवा कर टांग दिए थे |राहत अली और उनकी शागिर्द ऊषा टंडन अग्रिम पंक्ति के गायक कलाकार बन रहे थे |देश विदेश में उनको बुलाया जा रहा था |आकाशवाणी परिसर में तीन तीन दिनों तक श्रोताओं के लिए सजीव कार्यक्रम आयोजित किए जाने लगे जिसके निमंत्रण पाने के लिए लोग सिफारिशें करते थे |देश का कोई भी बड़ा कलाकार इन आयोजनों में आने से शायद ही बचा रह गया हो |एक टीम स्पिरिट की भावना से काम हो रहा था |
इन स्वर्णिम दिनों को याद करते हुए यह भी बताना चाहूँगा कि चूंकि उस दौर में मनोरंजन का एकमात्र साधन रेडियो था (गूगल,दूरदर्शन आया नहीं था ) इसलिए रेडियो हर घर में सुना जा रहा था |शाम को कृषि एवं ग्रामीण प्रसारण में कैरेक्टर हरी भाई (हरीराम द्विवेदी ) और जुगानी भाई (डा. रवींद्र श्रीवास्तव ) की नोक -झोंक को लोग सुनने के लोग लिए लालायित रहते थे | मुझे आज भी याद है कि कार्यक्रम के अंत में जब बाजार भाव में अनाज तथा शाक – भाजी और अंडे आदि का भाव बताया जाता था तो जुगानी भाई सफेद आलू सुनकर बिदक पड़ते थे क्योंकि अंडे को सफेद आलू कहते हुए उनको चिढ़ाया जाता था |शायद आप विश्वास नहीं करेंगे लेकिन उस दौर में कुछ श्रोता उनके इतने दीवाने थे कि वे स्टूडियो आकर उनसे मिलते थे |उनकी उम्र बहुत नहीं थी लेकिन आवाज से लगता था कि वे कोई बुजुर्ग दिहाती व्यक्ति हैं | लेकिन उनका यह जादू कुछ ही वर्षों बाद मद्धिम पड़ने लगा क्योंकि केंद्र पर फार्म एंड होम यूनिट के आते ही उन पर प्रफेशनल जेलेसी का साया मंडराने लगा |हरीराम द्विवेदी आकाशवाणी वाराणसी चले गए और मुखिया जी बनकर (ब्रज भूषण शर्मा)एक नया पात्र सामने आए और उन्होंने जुगानी भाई को धीरे धीरे किनारे करना शुरू कर दिया |
उन दिनों अन्य कलात्मक संगठनों की तरह आकाशवाणी में भी आपस में प्रोफेशनल जेलेसी की बीमारी फैलने लगी जिसने न सिर्फ़ आपसी स्नेह और मधुर संबंधों को प्रभावित किया बल्कि आकाशवाणी की लोकप्रियता पर भी असर डाला |यह कहने में मुझे कोई भी संकोच नहीं है कि इसी रोग ने आकाशवाणी गोरखपुर के सबसे लोकप्रिय कार्यक्रम कृषि और ग्रामीण प्रसारण की लोकप्रियता अचानक से घटा दी |जुगानी भाई (डा. रवींद्र श्रीवास्तव) अंतत:उस कार्यक्रम से हट गए और उन्होंने कुछ और कार्यक्रम शुरू किए |कार्यक्रम अधिकारी पद से सेवानिवृत्त होने के बाद आज वे पूर्वी उत्तर प्रदेश में भोजपुरी के शीर्ष कवि और लेखक के रूप में जाने जाते हैं |मुझे दुख इस बात का है कि नींव के पत्थर सरीखे ऐसे लोगों को आज विस्मृत कर दिया जा रहा है |कार्यक्रम प्रमुख पद पर बैठे अकुशल , खोटी सोच वालों ने आकाशवाणी का सत्यानाश कर दिया है |वहाँ के लोगों की घटिया सोच और आपसी असंतोष का प्रभाव अब उसके प्रसारणों पर भी पड़ने लगा है इसीलिए मीडिया संसाधनों की प्रतिद्वंदिता के इस कठिन दौर में आकाशवाणी हांफने लगा है |
और अंत में ‘दाग देहलवी’ के शेर की कुछ मौजू पंक्तियाँ- ‘ रख दिया मैनें राज़ ए दिल अपना,
उसको तुम जानो या खुदा जाने |
जानते- जानते ही जानेगा ,
मुझमें क्या है अभी वो क्या जाने !’