Andhayug aur Naari - 9 in Hindi Women Focused by Saroj Verma books and stories PDF | अन्धायुग और नारी--भाग(९)

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अन्धायुग और नारी--भाग(९)

मुझे ये समझ नहीं आ रहा था कि मुझे उसकी इतनी चिन्ता क्यों हो रही है? आखिर क्या है जो मेरे मन में उसके लिए इतनी हमदर्दी पनप गई है? वो उम्र में मुझसे बड़ी भी है,वो कम से कम बीस बाईस बरस की तो होगी ही, वो मुझसे उस दिन के बाद बात करती तो मैं उसकी उम्र पूछ लेता,लेकिन वो तो मुझे उसकी कोठरी में आने से मना करती है, खैर! मुझे क्या? मेरा तो जो फर्ज था,वो मैंने निभा दिया,अब तुलसीलता जाने और उसका काम जाने,मैंने सबके बारें में सोचने का ठेका थोड़े ही ले रखा है....
और फिर यही सब सोचने के बाद मैं खाना खाने रसोई में पहुँचा तो चाची बोली...
"एक बात पूँछूँ सत्या"!
"हाँ! पूछो चाची!" मैं ने चाची से कहा....
"कहीं तेरे मन में उस देवदासी के लिए कुछ ऐसा वैसा तो नहीं है", चाची बोली....
"नहीं! चाची! वो तो मानवता के कारण मैनें उसकी मदद की",मैने चाची से कहा...
"बस बेटा! अब ऐसी मानवता करना छोड़ दे,इस बार तो छाते से मार खाते खाते छाता ही टूटा है,कहीं ऐसा ना हो कि अगली बार मार खाते खाते लट्ठ टूट जाएं",चाची मुस्कुराते हुए बोली...
"मतलब मेरे पिटने पर तुम्हें खुशी हुई",मैंने चाची से रुठते हुए कहा...
"नहीं! ऐसी कोई बात नहीं है बेटा!,मैं तो तुझसे ये कहना चाह रही हूँ कि अपने चाचाजी और दादाजी से पंगा मत लिया कर",चाची बोली....
"वो तो ठीक है चाची! लेकिन सब कुछ आँखों के सामने देखते होते हुए कैसें बरदाश्त कर लूँ? आँखों देखी मक्खी नहीं निगली जाती मुझसे",मैने कहा...
"अब ये सब छोड़ ,तू खाने पर ध्यान दें और सोते वक्त तेरे लिए हल्दी वाला दूध भिजवा दूँगीं तो पी लेना, अन्दरूनी चोटों में आराम लग जाएगा", चाची बोली....
और फिर मैं चुपचाप खाना खाने लगा,खाना खाने के बाद अपने कमरें में पहुँचा और लालटेन की रोशनी धीमी करके,बिस्तर पर लेटा तो चोटों के दर्द के मारे सारा शरीर दुख उठा फिर थोड़ी देर बिस्तर पर लेटने के बाद मैं बिस्तर से उठा और मैंने लालटेन की रौशनी तेज की फिर एक किताब लेकर पढ़ने बैठ गया,मुझे पढ़ते पढ़ते काफी देर हो गई थी,फिर चाची अपने सारे काम निपटाकर मेरे कमरें में हल्दी वाला दूध लेकर आई और मुझसे बोली...
"तू सोया नहीं अब तक,मुझे जरा देर है गई दूध लाने में,तो मैं सोच रही थी कि अब तक तो तू सो गया होगा, छाया माया भी आज जल्दी सो गईं थीं, नहीं तो उन्हीं से दूध भिजवा देती",
"कोई बात नहीं चाची! अब मुझे इतना दर्द नहीं हो रहा है,हल्दी वाले दूध की इतनी भी जरूरत नहीं थी", मैंने चाची से कहा....
"ऐसे कैसें जरूरत नहीं है,जब तक मैं जिन्दा हूँ तो तुझे कोई तकलीफ़ नहीं होने दूँगीं",चाची बोली...
"मुझे मालूम है चाची कि तुम मुझे कितना प्यार करती हो,इतना प्यार तो सगी माँ ही कर सकती है",मैं चाची से बोला....
"मुझे अपने जीवन में अपनों का प्यार तो मिला नहीं,हाँ! एक गैर का प्यार जरूर मिला था लेकिन मैं उससे प्यार निभा नहीं पाई,",चाची बोली...
"मतलब! मैं कुछ समझा नहीं",मैने पूछा.....
"मतलब ये कि मेरी तो सौतेली माँ थी जिसने कि मुझे कभी प्यार किया ही नहीं,सोचा था कि पति प्यार करने वाला मिलेगा,लेकिन वो तो ऐसा मिला कि ऐसा पति तो किसी दुश्मन को भी ना मिले",चाची बोली...
"वो सब तो ठीक है चाची! लेकिन जो बाद में तुमने कहा कि उसका प्यार तुम निभा नहीं पाई,",मैंने चाची से पूछा....
"वो बस ऐसे ही, था कोई",चाची बोली...
"कौन था चाची? जरा मुझे भी बताओ",मैने कहा...
"रहने भी दे,वो तो बातों बातों में मुँह से बात निकल गई",चाची बोली...
"अब बात निकल ही गई है तो फिर अधूरी क्यों रह जाएँ,चाची! अब बता भी दो कि वो कौन था",मैंने चाची से पूछा....
"तू क्या करेगा उसके बारें में जानकर"?,चाची बोली...
"मतलब ऐसा कोई था आपकी जिन्दगी में",मैं ने चाची से पूछा....
"था कोई,जिसे मेरी वजह से अपनी जान गँवानी पड़ी",चाची बोली...
"ऐसा क्या हुआ था उसके साथ",मैंने चाची से पूछा....
"उसे मेरे बड़े भाई और काका ने मार दिया था",चाची बोली....
"क्यों? ऐसा क्या गुनाह किया था उसने",मैंने चाची से पूछा....
"उसने मेरी परवाह की थी और मेरी भावनाओं को समझा था इसलिए बेमौत मारा गया बेचारा!,समाज को ये कहाँ मंजूर होता है कि कोई बड़े घर की लड़की किसी चरवाहे से प्रेम करने लगे",चाची बोली...
"ये क्या कह रही हो चाची"?,मैं ने चाची से पूछा....
"हाँ! सच कह रही हूँ,वो मुझसे प्रेम करता था",चाची बोली...
"बस! इसलिए उसको तुम्हारे काका और बड़े भाई ने मार दिया",मैंने चाची से पूछा...
"हाँ!बस! उस बावले को इसी पाप की सजा मिली ",चाची बोली...
"लेकिन प्रेम करना कोई पाप तो नहीं है",मैं ने चाची से कहा...
"है! पगले! किसी गरीब लड़के का किसी अमीर लड़की को चाहना पाप ही तो है",चाची बोली....
"हुआ क्या था,पूरी बात बताओ",मैं चाची से बोला....
तब चाची ने अपनी कहानी सुनानी शुरू की....
मैं उस समय सोलह बरस की थी,नवरात्रि का त्योहार आया था,तो मैं उन दिनों भोर हुए अपनी सहेलियों के साथ दुर्गा देवी के मंदिर में जल चढ़ाने जाया करती थी,वो मंदिर हमारे गाँव से लगभग दो तीन कोस दूर एक पहाड़ी पर था,वो नवरात्रि के नौ दिन ही तो हुआ करते थे जब हम लड़कियों को घर से बाहर जाने की छूट मिला करती थी और हम स्वछन्द चिड़ियों की भाँति चहकते,एक दूसरे से हँसी ठिठोली करते उस मंदिर में जल चढ़ाने जाया करते थे.....
उन दिनों चैत्र की नवरात्रि चल रही थी,मौसम भी बहुत गुलाबी गुलाबी सा था,ना ठण्डा और ना गरम,मंदिर के रास्ते पर टेसू के नारंगी नारंगी फूल फूले थे,खेतों में फसले पककर सुनहरी हो चुकीं थीं और भोर की बेला तो वैसें भी बहुत सुहानी होती है,इतना खूबसूरत मौसम और हम लड़कियों की स्वतन्त्रता ऐसा था जैसे सोने पे सुहागा,हम सभी लड़कियांँ सरकण्डे से बनी अपनी अपनी टोकरियों में पूजा का सामान और हाथों में पीतल का बना जल का कलश लेकर खुशी खुशी माता के मंदिर में दर्शन कर जाते थे और मंदिर में पूजा करने के बाद इधर उधर टहलकर फिर घर लौटते थे....
उस रोज भी हम सभी ने यही किया और हम सभी टहल ही रही थीं कि मुझे दूर से किसी के बाँसुरी बजाने की आवाज़ सुनाई दी,तब मैंने अपनी सहेलियों से कहा....
"चलो! उधर चलकर देखते हैं कि कौन बाँसुरी बजा रहा है",
तब उन सभी में से एक बोली जो कि मेरी सहेली चंपा थी....
"नहीं! री! हमें वहाँ नहीं जाना चाहिए,ना जाने कौन अन्जाना हो और कहीं ये बात घरवालों को पता चल गई तो हमारी हड्डी पसली तोड़कर बराबर कर देगें",
"चल ना! चलकर देखते हैं और ये बात घरवालों को कैसें पता चलेगी,जब उन्हें हम में से कोई बताएगा ही नहीं",मैं बोली....
"अच्छा! चल! मैं और तू चलते हैं,इन सभी को यही रहने देते हैं",चंपा बोली...
और फिर मैं और चंपा उस टीले की तरफ चल पड़े जहाँ कोई बैठा बंसी बजा रहा था....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....