Andhayug aur Naari - 8 in Hindi Women Focused by Saroj Verma books and stories PDF | अन्धायुग और नारी--भाग(८)

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अन्धायुग और नारी--भाग(८)

और जिसका डर था वही हुआ,दादाजी को बैठक में मेरी स्याही वाली कलम मिल गई,जो मुझे दादाजी ने ही मेरे जन्मदिन पर उपहार स्वरूप थी,वो कलम चाँदी की थी,उन्होंने विशेष रुप से शहर के सुनार को आर्डर देकर बनवाई थी,अब उन्हें पक्का यकीन हो गया था कि मैने ही रात को तुलसीलता को बैठक से भगाने में उसकी मदद की थी,उनका शक़ इसलिए और पक्का हो गया क्योंकि मेरा कमरा उनकी बैठक के बगल में ही था,इसलिए उनकी सभी बातें भी मैने सुनी होगी,तब मैंने ही तुलसीलता को वहाँ से छुड़वाया होगा....
और दादाजी सीधे मेरे कमरें में चले आए,मैं उस समय बिस्तर पर बैठकर कोई किताब पढ़ रहा था, फिर दादाजी ने ना कुछ पूछा और ना कुछ बताया सीधे मेरे गाल पर एक तमाचा जड़ते हुए बोले....
"बतमीज! शर्म नहीं आती तुझे,बड़ो का निरादर करते हुए",
"दादाजी! मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा कि आप ऐसा क्यों कह रहे हैं"?,मैं दादाजी से बोला....
"अच्छा! तो तुझे कुछ समझ नहीं रहा,लेकिन रात को सब समझ में आ रहा था ,जब उस देवदासी को बैठक से भागने में उसकी मदद कर रहा था",दादाजी बोलें....
"कौन देवदासी?,मैं किसी देवदासी को नहीं जानता",मैने झूठ बोलते हुए कहा....
"अब ज्यादा मत बन,मुझे सब पता है कि ये तेरा ही काम है",दादा जी बोले....
"मैने कुछ नहीं किया दादा जी! आप मेरा विश्वास कीजिए",मैंने दादाजी से कहा...
"अगर तूने कुछ नहीं किया तो ये तेरी चाँदी की कलम बैठक में क्या कर रही थी"?,दादा जी ने पूछा....
"मैं तो इसे ही ढूढ़ रहा था,ये आपके पास कैसें आई"?,मैंने दादा जी से कहा....
"झूठ बोलता है....मुझसे झूठ बोलता है,आज तो तेरी खैर नहीं,बड़ा हमदर्द बना फिरता है ना दूसरों का,आज तो मैं तेरी वो मरम्मत करूँगा कि जीवन भर याद रखेगा",दादाजी चिल्लाए...
और फिर उस दिन दादाजी ने मेरे कमरें के किवाड़ भीतर से बंद किए और कमरें के कोने में ही एक छाता रखा था,उन्होंने मुझे उस छाते से तब तक पीटा जब तक कि वो छाता टूट ना गया और फिर मुझे उसी हालत में छोड़कर कमरें से बाहर चले गए,उनके जाने के बाद दादी मेरे कमरें में आईं और जहाँ जहाँ मुझे चोट लगी थी वहाँ हल्दी और तिल के तेल का गुनगुना लेप लगाते हुए मुझसे बोलीं....
"तू ऐसे काम क्यों करता है? तुझे क्या लेना देना कि वो अपने कमरें में किसे लाते हैं और किसे नहीं"
"लेकिन दादी मुझे ये सब अच्छा नहीं लगता है",मैं दादी से बोला...
"और अब ये तुझे अच्छा लग रहा है,पूरा शरीर मार खाकर नीला पड़ा है,तुझे जब पता है कि उनके भीतर हम सबके लिए कोई रहम ही नहीं है तो तू क्यों उलझता है उनसे"?,दादी बोली....
"लेकिन दादी वो देवदासी बहुत भली है,इसलिए मैंने उसे यहाँ से भागने में मदद की",मैंने दादी से कहा....
"तो इसका मतलब है कि तू उस लड़की को जानता है",दादी ने पूछा...
"पूरी तरह से नहीं जानता,लेकिन इतना पता है कि वो बहुत भली है",मैं बोला....
"अगर वो भली होती तो ऐसे काम ही क्यों करती"?,दादी बोली...
"ये उसकी मजबूरी है,उसके माँ बाप ने उसे बहुत छोटी उम्र में ही देवदासी बनाकर वहाँ भेज दिया था", मैंने दादी से कहा...
"तुझे तो सब मालूम है उस लड़की के बारें में,कहीं तू भी तो नहीं फँस गया उस लड़की के चंगुल में,हाँ...हाँ.. फँसेगा क्यों नहीं,खून तो तेरी रगों में भी इसी खानदान का दौड़ रहा है ना!",दादी बोली....
"नहीं! दादी! उसने तो मुझे वहाँ आने के लिए मना किया है,मुझसे कह रही थी कि यहाँ मत आया कर, ये जगह तेरे लिए ठीक नहीं है",मैंने दादी से कहा....
"वो ठीक कहती है,तुझे वहाँ नहीं जाना चाहिए,तेरे दादा और चाचा की तरह तू मत बनना बेटा!,दो चार सालों में एक अच्छी सी लड़की देखकर तेरा ब्याह कर दूँगी तो तू अपनी दुल्हन को बहुत प्यार से रखना, अपने दादा और चाचा की तरह अपनी दुल्हन की बेइज्जती कभी मत करना",
ये कहते कहते दादी की आँखें भर आईं तो मैं उनके गले से लग गया और वें मेरा माथा चूमकर मेरे कमरें से बाहर चलीं गईं...
फिर कुछ देर बाद चाची भी मुझे समझाने आईं और वें भी मुझे समझाकर वहाँ से चलीं गईं,लेकिन अब मेरा जो होना था वो तो हो ही चुका था और अब मैं तुलसीलता के बारें में सोच रहा था कि अब दादाजी उसके साथ क्या करेगें,यही सोचते सोचते शाम हो गई और मैं छत पर घूमने के लिए अपने कमरें से बाहर निकला तो मैंने देखा कि मेरी छोटी बहन माया अपने लिए कपड़े की गुड़िया सी रही थी,तब मैंने माया से पूछा....
"यहाँ क्या कर रही है तू"?
तो वो बोली....
"भइया! अपने लिए कपड़े की गुड़िया बना रही हूँ फिर इसका किसी अच्छे गुड्डे के संग ब्याह करूँगी,ऐसा गुड्डा ढूढ़कर लाऊँगी इसके लिए जो बाबूजी की तरह बिल्कुल ना हो,जो मेरी गुड़िया को ना तो कभी मारे और ना ही उस पर कभी चिल्लाएं",
माया की बात सुनकर मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा,घर के माहौल का उसके कोमल मन पर कैसा प्रभाव पड़ा था,इसलिए वो ऐसा कह रही थी,उसमें उस बेचारी का क्या दोष था वो तो वही कह रही थी जो घर में वो रोज देखती थी,तब मैंने उससे कहा....
"माया! मैं तेरे और छाया के लिए भी ऐसा दूल्हा ढूढूगा,जो तुम दोनों को बड़े प्यार से रखे,जो तुम दोनों पर कभी चिल्लाए नहीं",
"सच! भइया",बारह साल की माया चहकते हुए बोली....
"हाँ! पगली! एकदम सच",मैंने माया से कहा....
और तभी चौदह साल की छाया दनदनाती हुई छत पर आई और माया से बोली....
"अच्छा! तो तू इधर है,काम के डर से भागकर यहाँ चली आई और यहाँ आकर गुड़िया बना रही है,आज मैं माँ से तेरी शिकायत जरूर करूँगीं",
"लेकिन ऐसा क्या कर दिया इसने"?,मैने छाया से मुस्कुराते हुए पूछा....
"भइया! पता है इसने क्या किया,माँ ने हम दोनों से ओखली में अचार के मसाले कूटने को गया था,क्योंकि माँ ये काम नौकरानी से नहीं करवाती और ये महारानी छत पर आकर गुड़िया बना रही है,कामचोर कहीं की,मैं वहाँ मसाले कूट कूटकर पसीने से लथपथ हुई जा रही हूँ",
मुझे छाया की बात सुन कर हँसी आ गई और मैंने माया से कहा....
"ऐसा नहीं करते माया!जीजी का काम में हाथ बँटवाना चाहिए ना"!
"भइया! जीजी झूठ कह रही है,मैं अपने हिस्से के मसाले कूट चुकी हूँ",माया बोली....
"अच्छा! मैं झूठ बोल रही हूँ,तूने हल्दी कूट दी और जब मिर्चें कूटने की बारी आई तो यहाँ चली आई",छाया बोली....
"मिर्चों से मुझे छींक आती है और जब वो मेरी आँखों में लग जातीं हैं तो आँखें जलने लगतीं हैं",माया बोली....
"बड़ी आई...छींक आती है,मुझे तो जैसे छींक आती ही नहीं",छाया बोली....
"अच्छा! अब तुम झगड़ो मत,चलो मिर्चें कूटने का काम मैं कर देता हूँ",मैंने दोनो से कहा....
"नहीं! सत्या भइया! रहने दो,मैंने कुछ मिर्चें कूट दी थीं और बची हुई मिर्चे माँ ने कूट लीं,सारे मसाले कुट चुके हैं,तुम्हें वहाँ कुछ करने की जरूरत नहीं है,सारा काम हो चुका है",छाया बोली...
और दोनों बहनें बहस करतीं हुईं छत से नीचे चली गई और मैं फिर से तुलसीलता के बारें में सोचने लगा कि अब उसका क्या होगा?

क्रमशः....
सरोज वर्मा....