Andhayug aur Naari - 4 in Hindi Women Focused by Saroj Verma books and stories PDF | अन्धायुग और नारी--भाग(४)

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अन्धायुग और नारी--भाग(४)

मैं नहाकर जैसे ही रसोई के भीतर पहुँचा तो मैने देखा कि चाची मिट्टी के चूल्हे पर गरमागरम रोटियाँ सेंक रहीं है,मुझे देखते ही उन्होंने लकड़ी का पटला डाला और उसके सामने पीतल की थाली रखते हुए बोली...
"यहाँ बैठ जा! मैं खाना परोसती हूँ",
और उनके कहने पर मैं लकड़ी के पटले पर बैठ गया फिर उन्होंने मेरी थाली में खाना परोसना शुरु किया,कटोरी में दाल,आलू बैंगन की भुजिया,आम का अचार और गरमागरम घी में चुपड़ी रोटियाँ,मैने खाना खाना शुरू किया तो उन्होंने मुझसे पूछा....
"कल रात तेरे चाचा और तू कहाँ गए थे"?
"देवदासियों का नृत्य देखने",मैने कहा...
"फिर तेरे चाचा कल रात तुझे छोड़कर कहाँ गायब हो गए थे",चाची ने पूछा...
"मैं क्या जानू,मुझे क्या पता"?,मैने कहा..
"झूठ बोल रहा है ना तू मुझसे",चाची बोली...
"भला ! मैं तुमसे झूठ क्यों बोलने लगा",मैने कहा...
"मुझे सब पता है,तू मुझसे कुछ भी छुपाने की कोशिश मत कर",चाची बोली...
"कसम से चाची! मैं तुमसे कुछ नहीं छुपा रहा",मैने कहा...
तब चाची बोली...
"कल रात तेरे चाचा किसी देवदासी को हवेली में लेकर आए थे,मैने अपने कमरे की खिड़की से देखा था,वो जो हवेली के पीछे वाला कमरा है,वें उसे लेकर वहीं गए थे और फिर भोर भये वो देवदासी उनके कमरें से बाहर निकली थी"
"हाँ! उसका नाम तुलसीलता है और मैं उससे मिल चुका हूँ",मैने कहा...
"तो अब तक ये बात मुझसे क्यों छुपा रहा था"?,चाची बोली...
"मैं तुम्हें दुख नहीं पहुँचाना चाहता था",मैने कहा....
"इसमें दुख काहे का बेटा! ये तो मैं तबसे देख रही हूँ,जब से इस घर में ब्याहकर आई हूँ,अब तो मुझे ये सब देखने की आदत सी हो गई है,सच कहूँ तो अब उतना फरक भी नहीं पड़ता मुझे,पहले बहुत फरक पड़ता था,लेकिन अब मैं तेरे चाचा की आदत से अच्छी तरह वाकिफ हो चुकी हूँ,चाची दुखी होकर बोली...
"आप और दादी ये सब सहन कैसें कर लेती हो,इन पुरूषों की इतनी ज्यादतियाँ,दादाजी तो इस उम्र में भी अपना ये शौक नहीं छोड़ रहे हैं",मैंने चाची से कहा...
तब चाची बोली...
"क्योंकि हम लड़कियों के माँ बाप हमें ये कहकर ससुराल भेजते हैं कि हमारी नाक ना कटने पाए,मायके से डोली जाती है और ससुराल से ही अर्थी निकलती है,क्योंकि शादी के बाद हम बेटियों के लिए माँ बाप के घर में कोई जगह नहीं रहती,हम उनके लिए पराए हो जाते हैं"
"ऐसा क्यों होता है चाची"?,मैने पूछा...
"पता नहीं बेटा ! आखिरकार ऐसी परम्पराएँ हम बेटियों के लिए ही क्यों बनीं हैं",चाची बोली...
"ऐसी परम्पराएँ बनाईं ही क्यों गईं जहाँ माँ बाप अपनी बेटी को किसी और के घर भेज देते हैं" मैं बोला...
"अच्छा! ये सब छोड़ ,बहुत हो गईं फालतू की बातें और कुछ लेगा,एक गरमागरम रोटी और दूँ",चाची ने बात को वहीं खतम करते हुए कहा...
"नहीं! अब और कुछ नहीं लूँगा,मेरा पेट तो भर चुका है",मैं ऐसा कहकर थाली के सामने से उठ गया....
फिर खाना खाकर मैं अपनी कोठरी में आकर लेट गया रातभर का जागा था इसलिए बिस्तर पर लेटते ही मुझे बहुत जोरो की नींद आ गई,मैं अभी थोड़ी देर ही सोया हूँगा कि मुझे आँगन में अपने चाचा सुजान सिंह की आवाज़ सुनाई दी,वें चाची से चीखकर कह रहे थें...
"कहाँ है वो तेरा लाड़ला! आज तो मार मारकर मैं उसकी चमड़ी उधेड़ दूँगा"
"क्यों मारोगे उसे! उसने भला तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?",जनकदुलारी चाची ने पूछा....
"वो कल रात कहाँ था"?,चाचा सुजान सिंह ने पूछा....
"तुम ही तो उसे अपने साथ लेकर गए थे,तुम ही बताओ कि कल रात तुमने उसे कहाँ छोड़ा था,सारी गलती तुम्हारी है और तुम सारा दोष उस लड़के के ऊपर मढ़ रहे हो",जनकदुलारी चाची चिल्लाई....
फिर चाची के सवाल का चाचा जवाब ना दे सकें और वहांँ से बिना कुछ कहे चुपचाप निकल गए,चाचा के जाने के बाद मैं चुपचाप अपनी कोठरी से बाहर निकलकर आया और चाची से बोला...
"चाची! आज चाचा तुम्हें बिना कुछ कहें ऐसे कैसें निकल गए"?
"क्योंकि सारी गलती उनकी थी और मेरे सवाल का उनके पास कोई जवाब ना था",चाची बोली...
"चाची! एक बात पूछूँ",मैने कहा...
"हाँ!बोल!",चाची बोलीं...
"क्या तुम्हें कभी चाचा को छोड़कर चले जाने का मन नहीं करता"?,मैने पूछा...
"करता तो है",चाची बोली...
"तो तुम उन्हें छोड़ क्यों नहीं देती"?,मैने पूछा...
तब चाची बोली...
" दोनों बेटियों को लेकर कहाँ जाऊँगीं,कहाँ छुपाऊँगीं अपनी सयानी होती बेटियों को,तुझे पता नहीं है बेटा! कि ये दुनिया कितनी खराब है,कम से कम अभी यहाँ वें दोनों बाप की छत्रछाया में तो हैं,कोई बात नहीं कि उन्हें उनका पिता नहीं चाहता,लेकिन मुझे इस बात की तो तसल्ली रहती है कि मेरी बेटियाँ इस घर में सुरक्षित हैं,लेकिन मुझे ये भी बहुत अच्छी तरह से पता है कि बाप की करनी का फल हमेशा औलाद को ही भुगतना पड़ता है और यही बात सोचकर मुझे हमेशा डर लगता रहता है कि ना जाने मेरी दोनों बेटियों छाया और माया का क्या होगा"?
"चाची! जब तक मैं जिन्दा हूँ तो तुम्हें छाया और माया की चिन्ता करने की जरुरत नहीं है,मैं हमेशा उन दोनों का ख्याल रखूँगा",मैंने कहा....
"बेटा! अब तू ही उन दोनों का सहारा है,मैं तेरे चाचा से ऐसी कोई भी आशा नहीं रखती,क्योंकि उन्हें तो अपनी बेटियों से नफरत है,उन्हें तो बेटे चाहिए थे,जो मैं उन्हें ना दे सकी",चाची बोली....
"चाची! मैं तुम्हारा बेटा हूँ और वें दोनों मेरी बहनें,जब से होश सम्भाला है तब से तुम ही तो मुझे माँ बनकर पाल रही हो,छाया और माया की तो तुम बाद में माँ बनी हो,पहले तो तुम मेरी माँ हो",मैने कहा...
"बहुत बड़ी बड़ी बातें करना सीख गया है तू तो",चाची बोली...
"हाँ! सब तुम्हारी संगति का असर है",मैने कहा....
और फिर हम दोनों ठहाका मारकर हँस पड़े,दोपहर का समय ऐसे ही बात करते करते बीत गया ,साँझ हो गई तो मुझे तुलसीलता की याद हो आई,मैने सोचा भोर में तो उससे ज्यादा बात नहीं हो पाई थी,क्यों ना अभी चलकर मैं उससे उसका हाल चाल पूछ आऊँ फिर यही सब सोचकर में मंदिर की ओर चल पड़ा,कुछ ही देर में मैं वहाँ पहुँच भी गया,जहाँ देवदासियों की कोठरियाँ बनी थी...
मैं वहाँ पहुँचा तो मुझे वहाँ किशोरी दिखी,उसकी नज़र भी मुझ पर पड़ी तो उसने मुझसे पूछा....
"तू और यहाँ! फिर से क्यों आया है"?
"तुलसीलता से मिलने",मैंने कहा...
तब किशोरी गुस्से से बोली...
"अपनी उम्र देखी है तूने,अभी तेरे पढ़ने लिखने की उम्र है,जा अपने घर चला जा,ये जगह तेरे लिए नहीं बनी है,तू अभी बच्चा है,ज्यादा बड़ा बनने की कोशिश मत कर,क्यों ऐसी जगह आकर अपनी जिन्दगी बर्बाद करना चाहता है"
"मैं कुछ समझा नहीं कि तुम क्या कहना चाहती हो"?,मैंने किशोरी से कहा...
"मेरे कहने का मतलब है कि तुझे ऐसी जगह नहीं आना चाहिए,तू मुझे शरीफ़ दिखता है,तेरा ऐसी जगह पर भला क्या काम,जिससे तू मिलने आया है वो अभी तुझसे नहीं मिल सकती",किशोरी बोली...
"लेकिन क्यों? क्या वो व्यस्त है",मैने भोलेपन से पूछा...
"अच्छा! अगर तुझे सब जानना है तो तू यहाँ थोड़ी देर खड़ा रह तुझे थोड़ी देर में सब पता चल जाएगा", किशोरी बोली....
और फिर किशोरी के कहने पर मैं थोड़ी देर वहाँ खड़ा रहा,कुछ देर के बाद तुलसीलता की कोठरी के दरवाजे खुले और वहाँ से एक आदमी निकला,फिर कुछ देर में तुलसीलता भी कोठरी से बाहर निकली और जैसे ही उसकी नजरें मुझसे मिली तो उसने नजरें झुका लीं,फिर वो कुएँ पर आई और उसने कुएँ से एक बाल्टी पानी निकालकर अपने सिर से डाल लिया ,फिर वो अपनी कोठरी के भीतर जाते हुए बोली....
"तू यहाँ मत आया कर,ये जगह तेरे लिए ठीक नहीं है"
और फिर अपनी कोठरी के भीतर जाकर उसने दरवाजे बंद कर लिए,मुझे समझ नहीं आ रहा था कि किशोरी और तुलसीलता ने एक ही बात क्यों कही कि "यहाँ मत आया कर,ये जगह तेरे लिए ठीक नहीं है"।

क्रमशः...
सरोज वर्मा....