प्राचीन युग से ही हमारे समाज में नारी का विशेष स्थान रहा है ,हमारे पौराणिक ग्रन्थों में नारी को पूज्यनीय एवं देवीतुल्य माना गया है , हमारी धारणा रही है कि देव शक्तियाँ वहीं पर निवास करती हैं जहाँ पर समस्त नारी जाति को प्रतिष्ठा व सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है,नारी सृष्टि का आधार है, वह समाज को जीवनदान देती है,जिस प्रकार तार के बिना वीणा तथा धुरी के बिना रथ का पहिया बेकार है,ठीक उसी प्रकार नारी के बिना मनुष्य का सामाजिक जीवन बेकार है,नारी पुरुष की संगिनी है वह पुरुष की सहभागिनी है,नारी के बिना मनुष्य के सामाजिक जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती, नारी बेटी है, पत्नी है,मित्र है , प्रेयसी और माँ है,इस प्रकार अनेकों गुणों से नारी को विभूषित व सुसज्जित बताया जाता है, कहते हैं कि....
“ यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, तत्र देवता रमन्ते।
यत्र नार्यस्तु न पूज्यन्ते, तत्र देवता न रमन्ते ।।"
अर्थात - जहाँ नारियों की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते है तथा जहाँ नारियों की पूजा नहीं होती है वहाँ देवता निवास नही करते है।
बिना नारी के विकास के यह समाज अधूरा है, जैसे पत्नी-पति की अर्धांगिनी है, ठीक इसी प्रकार नारी समाज का अद्धांग है, आधे अंग के अस्वस्थ तथा अविकसित रहने पर पूरा अंग ही रोगी और अविकसित रहता है,यदि मनुष्य शिव है तो नारी शक्ति है, यदि पुरुष विश्वासी है तो नारी श्रद्धामयी है, यदि पुरुष पौरुषमय है तो नारी लक्ष्मी है,किसी भी दृष्टि से वह पुरुष से कम नहीं है,
वह पुत्री के रूप में पोषणीय, पत्नी के रूप में अभिरमणीय तथा माता के रूप में पूजनीय है,उसमें संसार की अपूर्व शक्ति निहित है,प्रसन्न होने पर वह कमल के समान कोमल और क्रुद्ध होने पर साक्षात चण्डी का रुप धर लेती है,
इसी नारी को आधार बनाकर इस कहानी को रचा गया है,तो चलिए चलते हैं कहानी की ओर....
ठाकुर सत्यव्रत सिंह की विशाल एवं भव्य हवेली,जो कि पुश्तैनी है,उसका नाम मोतीमहल है,ये उस समय से मौजूद है जब राजे- रजवाड़ों का जमाना था और उनके दादा-परदादा जमींदार कहलाते थे,उनके यहाँ उस समय अँग्रेज अफ्सरों का भी आना जाना रहता था,लेकिन ये जमींदारी ,शान और शौकत सत्यव्रत सिंह को रास ना आती थी,उन्हें अपने दादा और चाचा द्वारा गरीबो और मज़लूमों का शोषण फूटी आँख ना भाता था,वें जब भी इन सब चींजों का विरोध करते तो हमेशा अपने चाचा से मार खाते थे क्योंकि उनके पिताजी जी जीवित नहीं थे....
और आज वहीं सत्यव्रत सिंह जी अपने जीवन के नब्बे साल पूरे कर चुके हैं,हवेली में अफरातफरी मची है क्योंकि वें बहुत बीमार हैं,उन्होंने अस्पताल जाने से भी इनकार कर दिया है क्योंकि वें अपनी जिन्दगी के आखिरी पल अपने परिवार के साथ बिताना चाहते हैं अस्पताल में नहीं, तब मजबूर होकर डाक्टर साहब को बुलाया गया तो उन्होंने उनकी जाँच करने के बाद कहा....
" ठाकुर साहब के पास ज्यादा समय नहीं है,आप अपने सभी करीबियों और रिश्तेदारों को यहाँ बुला लीजिए",
और ऐसा कहकर डाक्टर साहब चले गए और घर में सब अपने अपने मोबाइल से लोगों को ये अशुभ सूचना दे रहे हैं,तभी ठाकुर सत्यव्रत जी ने मद्धम स्वर में अपने पोते सुस्वागतम से पूछा....
"मृणालिनी आई क्या"?
"नहीं आई दादाजी!"सुस्वागतम बोला...
"कब आऐगी वो,मेरे पास ज्यादा वक्त नहीं है",ठाकुर सत्यव्रत धीमे स्वर में बोलें...
"आ जाएगी दादाजी! दीदी आ ही रही होगी,बस पहुँचने वाली होगी",सुस्वागतम बोला....
मृणालिनी ठाकुर सत्यव्रत जी की पोती है,जो कि पेशे से लेखक है और स्त्रीविमर्श के बारें में ही लिखती हैं,उसके लिखे नाँवेल्स का आधार नारियाँ ही होतीं हैं,उसे इन नाँवेल्स के लिए कई पुरुस्कार भी मिल चुके हैं,वो ठाकुर सत्यव्रत जी की चहेती है,क्योंकि दोनों के विचार हूबहू मिलते हैं और तभी मोतीमहल के सामने एक कार आकर रूकी और उसमें से खादी की धोती पहने हुए मृणालिनी उतरी और हड़बड़ी में ठाकुर सत्यव्रत जी के कमरें की ओर चली गई और ठाकुर साहब के सिराहने पहुँचकर बोली....
"दादाजी!अब कैसी तबियत है आपकी "?
"ठीक नहीं हूँ मृणाल ! तभी तो तुझे बुलवाया है",ठाकुर सत्यव्रत लरझती आवाज़ में बोलें...
"आप ठीक हो जाऐगें दादाजी!",मृणालिनी बोली...
"अब मुझे ठीक होने की आशा दिखाई नहीं देती मृणाल! और वैसे भी बुढ़ापे का एक ही इलाज होता है और वो है मौत",ठाकुर साहब लरझती आवाज़ में बोले...
"ऐसा ना कहें दादाजी! अभी तो आपको मेरे बच्चों को भी खिलाना है",पास खड़ा मृणाल का बेटा सौहार्द बोला....
तब ठाकुर साहब थोड़ा मुस्कुराए और मृणाल से बोले....
"मृणाल! मेरा एक काम करेगी",
"हाँ! कहिए! दादाजी!",मृणाल बोली...
तब ठाकुर साहब बोलें....
"मेरी लिखी कुछ कृतियाँ मेरे कमरे की दूसरी अलमारी में रखीं हैं,उन पर मेरा नाम लिखा होगा,तुझे वो आसानी से मिल जाऐगीं",
"तो मैं आपकी लिखी उन कृतियों का क्या करूँ"?,मृणालिनी ने पूछा....
"तू उन्हें अपने नाम से छपवा दें",ठाकुर साहब बोले...
"नहीं! दादाजी! वें तो मेरे लिए आपकी अनमोल धरोहर हैं,मैं उन्हें अपने नाम से कैसें छपवा सकती हूँ", मृणालिनी बोली...
"तो तू उन्हें नहीं छपवाएगी",ठाकुर साहब बोलें...
"नहीं! मैं उन्हें आपके नाम से ही छपवाऊँगीं, और सब भी तो पढ़े कि आपने क्या लिखा है",मृणालिनी बोली....
"अच्छा! जैसी तेरी मर्जी",ठाकुर साहब बोलें...
और फिर मृणाल और उसके परिवार के आ जाने से ठाकुर साहब खुश थे और उस दिन उन्होंने सभी रिश्तेदारों से थोड़ी थोड़ी बात की और रात के तीसरे पहर वें सबको अलविदा कह गए,मोतीमहल के आखिरी बुजुर्ग अब जा चुके थे,सबने उन्हें बोझिल मन से अन्तिम विदाई दी और जब उनकी मृत्यु के बाद के सभी संस्कार पूर्ण हो गए तो फिर मृणालिनी ने उनके कमरें से उनकी लिखी रचनाओं को निकाला और उनकी अन्तिम निशानी अपने साथ ले गईं.....
और एक रात वों उन्हें पढ़ने बैठी,पहले उसे ठाकुर साहब की चिट्ठी मिली ,जो कुछ इस तरह थी....
मृणाल! मैं भी तेरी तरह लेखक बनना चाहता था,लेकिन ठाकुर खानदान के लिए ये इज्ज़त का मामला था, मेरे लेखक बनने से समाज में उनका नाम बदनाम हो जाता उनकी इज्जत को बट्टा लग जाता,इसलिए मैंने लिखा तो बहुत कुछ लेकिन वो सब कभी लोगों तक नहीं पहुँच पाया,मैंने समाज की गंदगी को अपने लेखों में दर्शाने कोशिश की थी,लेकिन मैं वो सब कभी समाज तक पहुँचा नहीं पाया,इस बात का अफ़सोस मुझे हमेशा रहा है,मेरी लिखी सारी रचनाएं नारियों पर थीं,उस अन्धेयुग में नारियों की क्या दशा थी,ये मैनें समझाने की कोशिश की थी,लेकिन मुझे कभी किसी ने समझने की कोशिश नहीं की और मेरे दादाजी जी इन सब चीजों के सख्त खिलाफ़ थे ,मैं वो सब दुनिया के सामने लाता तो उनकी नाक कट जाती, उनके घर में क्या क्या होता था ,ये उन्होंने कभी भी अपनी हवेली की दहलीज़ के बाहर नहीं आने दिया, मैं अनाथ था,मैंने लोगों को ये कहते हुए सुना था कि मैं किसी तवायफ़ का बेटा था,मेरे पिता जो कि ठाकुर खानदान से थे वें किसी तवायफ़ के इश्क़ में पड़ गए,वो तवायफ़ हिन्दू होती तब भी ठीक था,वो एक मुसलमान थी,माँ का नाम तो मैं नहीं जानता,क्योंकि ना तो वो मुझे किसी ने बताया और ना ही मुझे जानने की कोई उत्सुकता थी...
सभी कहते थे कि मेरे पिता बहुत ही उदार प्रवृत्ति के इन्सान थे उनका नाम ठाकुर रघुनाथ सिंह था,शायद उन्हीं का चाल चलन मेरे रगों में खून बनके दौड़ रहा था इसलिए मैं भी बिल्कुल उनके जैसा ही था,सभी कहते थे कि मेरे पिता विलायत से अपनी पढ़ाई पूरी करके आए थे,वें गाँव के बच्चों को पढ़ाया करते थे जो कि मेरे दादाजी को पसंद नहीं था,इसलिए मेरे पिता जी ने उनका घर छोड़ दिया और उन्होंने एक मंदिर को अपना ठिकाना बना लिया,वहाँ उन्हें जो भी प्रसाद के रूप में दे जाता तो खा लेते,फिर उन्हें एक दिन उनके कोई दोस्त मिले,जो काफी रईस थे,उन्होंने पिता जी को अपने यहाँ मुंशी रख लिया,पिता जी के दोस्त काफी अय्याश किस्म थे और उनका तवायफों के कोठों पर आना जाना था,वें मेरे पिता जी को भी वें वहाँ ले गए और वहीं उनकी मुलाकात मेरी माँ से हो गई ,जो कि एक मुसलमान औरत थीं और फिर माँ ने कोठा छोड़कर पिता जी के साथ घर बसा लिया,फिर मुझे जन्म देते वक्त वो चल बसीं और पिता जी मेरी परवरिश अकेले करने लगे और उन्हें भी कुछ समय बाद तपैदिक हो गया और फिर मजबूर होकर पिताजी ने दादाजी को ख़त लिखा,तब हम दोनों को दादाजी हवेली ले आएं लेकिन पिताजी ज्यादा दिनों तक जिन्दा नहीं रहे और मेरे जीवन की बागडोर मेरे चाचा सुजान सिंह और दादा शिवबदन सिंह के हाथों में आ गई.....
अभी के लिए मेरा इतना परिचय काफी है,अब तुम मेरी रचनाएँ पढ़ो वहांँ तुम्हें मेरे बारें में सब पता चल जाएगा....
और फिर मृणालिनी ने उनकी रचनाओं खोलीं तो पहले ही पन्ने पर ऊपर की ओर लिखा था "देवदासी", ठाकुर सत्यव्रत जी की पहली रचना का नाम था देवदासी था और फिर मृणालिनी ने उसे पढ़ना शुरु किया....
देवदासी एक ऐसी महिला होती थी जिसका विवाह भगवान से हो जाता था और वो अपना समस्त जीवन ईश्वर के नाम कर देती थी,ये बात मुझे हमेशा परेशान करती थी कि विज्ञान, प्रौद्योगिकी और मानवाधिकारों की दुनिया में कई चीजें हैं, विशेष रूप से धार्मिक परंपराएं जो मानवाधिकारों, संवैधानिक सिद्धांतों, नैतिक सिद्धांतों और उन लक्ष्यों का पूरी तरह से उल्लंघन करती हैं और ऐसी ही एक प्रथा है देवदासी...
इसके निशान अभी भी कहीं कहीं पाए जाते हैं, देवदासी का शाब्दिक अर्थ है "भगवान का सेवक",
इस प्रथा में किसी भी उम्र की लड़कियों की शादी किसी मूर्ति, देवता या मंदिर से कर दी जाती थी,मैं उस काल में जी रहा था जब हमारे देशपर ब्रिटिश शासन था,जहाँ ये सब चींजे गैरकानूनी थी,लेकिन जमींदार लोग इस अमानवीय परम्परा को बढ़ावा देने के लिए ब्रिटिश शासन का मुँह बंद करने के लिए मनमानी रकम देते थे या जमीन एक टुकड़ा उनके सामने हड्डी की भाँति डाल दिया जाता था,
क्योंकि पहले तो उन लड़कियों का उनके अभिभावक या माता पिता देवताओं को प्रसन्न करने के लिए उनका विवाह देवताओं से करवा देते थे,लेकिन जब वें व्यस्क हो जातीं थीं तो फिर वें पूरे गाँव की ब्याहता बन जाती थी,जैसे पुराने जमाने में नगरवधु होती थी,लेकिन उस समय नगरवधुओं को विशेष सम्मान मिलता था,उन्हें कोई भी अपनी वासना की पूर्ति के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकता था,लेकिन देवदासियों के साथ ऐसा नहीं था,उनके साथ कोई भी जबर्दस्ती कर सकता था,उनके साथ कभी भी कोई भी शोषण कर सकता था...
नारियों का ऐसा अपमान मुझसे असहनीय था,क्योंकि हमेशा से मैनें अपने समाज में नारियों का अपमान देखा था,मैं अब सोलह का पूरा होकर सत्रहवीं में लगा था और एक रोज़ में अपने चाचा सुजान सिंह के साथ देवदासियों का नृत्य देखने गया और तब मैंने उसे पहली बार देखा था.....
क्रमशः....
सरोज वर्मा....