लेखक: प्रफुल शाह
खण्ड 77
शनिवार 24/05/2015
ऐसे ही एक दारू की दुकान में पियक्कड़ दत्तात्रय और लहू की मुलाकात हो गई। दत्तात्रय का डीलडौल लहू से मेल खाता था। उस पर से दत्तात्रय को पीने की जबर्दस्त लत थी। लहू मन ही मन खुश हुआ। काम के लायक शिकार गांठने में ईश्वर ने उसकी मदद कर दी थी। लहू ने दत्तात्रय के साथ दोस्ती करना शुरू की। धीरे-धीरे औपचारिक बातचीत पक्की दोस्ती में बदल गई। संबंध मजबूत करने का एकमात्र रास्ता दारू के ग्लास से होकर जाता था। लहू उदार मन से दत्तात्रय को रोज दारू पिलाने लगा। साथ में नॉनवेज का लजीज भोजन होने लगा। मीठी-मीठी दोस्ती भरी बातें लहू पर आंख बंद करके विश्वास करने का कारण बनने लगीं।
अनपढ़, गंवार और भोले दत्तात्रय पर दारू और दोस्ती का नशा पूरी तरह से चढ़ने लगा था। लहू, दत्तात्रय का नशा उतरने ही नहीं देता था। हर रोज उसको दारू पिलाता था, नॉनवेज खिलाता था। मदिरा और मटन की छोटी-छोटी पार्टियां करते हुए लहू ने दत्तात्रय से बहुत सारी जानकारियां इकट्ठी कर ली थीं। लहू को अब समय गंवाने में रुचि नहीं थी। उसने एक नाटक रचा।
“एक तैयार जमीन खरीदकर रखी है, लेकिन मेरी मदद करने वाला कोई नहीं है। एक दोस्त के नाते तुम उसको जोतने में मदद करोगे क्या? ”
दत्तात्रय के ग्लास में क्वार्टर खाली करते हुए लहू ने एक दांव फेंका। भोलाभाला दत्तात्रय दोस्ती की परीक्षा देने के लिए तैयार हो गया।
15 मई 2015 की शाम को साढ़े पांच बजे लहू और दत्तात्रय दारू के अड्डे पर मिले। लहू ने दत्तात्रय को दो क्वार्टर दारू पिलाई। बाहर निकलकर उसकी जेब में दो सौ रुपए जबर्दस्ती ठूंस दिए। दारु की दुकान में जाकर और दो बोतलें खरीदीं।
“जमीन और मिट्टी की के बारे में पहले पता कर लेंगे। तुम प्लॉट देख लो, तुम्हें कैसा लगता है।”
इतना कहते हुए लहू ने दत्तात्रय को मोटरसाइकिल के पीछे बैठने का इशारा किया। दत्तात्रय खुशी-खुशी उसके कंधे पर हाथ टिकाकर विराजमान हो गया।
पाचगाव-कांदलगाव रोड से लगी हुई एक सुनसान टेकड़ी के पास लहू ने मोटरसाइकिल रोकी। खुद जमीन पर पालथी मारकर बैठ गया।
“काम बाद में, पहले मौज करेंगे,” कहते हुए उसने दत्तात्रय का हाथ खींचकर अपने पास जमीन में बिठा लिया। एक सच्चे दोस्त की तरह लहू ने एक के बाद एक क्वार्टर खोलना शुरू किया। दत्तात्रय अपने नए दोस्त के साथ दोस्ती निभाते रहा।
तीन क्वार्टर खत्म हुए तब तक दत्तात्रय एकदम आउट हो चुका था। उसे कुछ होश नहीं था। लेकिन लहू जैसा जिगरी और दिलदार दोस्त देने के लिए दत्तात्रय भगवान को धन्यवाद देते हुए बड़बड़ाते जा रहा था। शाम की लालिमा पश्चिम की ओर अपना बाजी पूरी करने चली थी। अंधेरा हल्के से अपना जाल जमीन पर फैला रहा था। दत्तात्रय की सुधबुध खो चुकी थी। लहू अंधेरा होने की राह देख रहा था।
लहू अपनी जगह से उठा। थैली से हंसिया निकाला। अपनी पूरी ताकत से हंसिये को दत्तात्रय के सिर पर दे मारा। भोले-भाले दोस्त दत्तात्रय के ऊपर जानलेवा हमला किया। कड़ाक से खोपड़ी टूटने की आवाज के साथ खून का फव्वारा निकल पड़ा। दत्तात्रय के सिर से खून की धारा बहने लगी।
कपालक्रिया की असहनीय वेदना से निरपराध दत्तात्रय अपनी जगह पर तड़फने लगा। मर्मांतक वेदना से विलाप करते हुए चीखने लगा। जमीन पर उसका तड़फड़ाता बदन धीरे-धीरे खून के डबरे में आखरी सांसें गिनने लगा। मानो कुछ हुआ ही नहीं, इस तरह भावशून्य कातिल लहू, दत्तात्रय की दयनीय हालत देखते हए बहुत देर तक सके पास शांति से बैठा रहा। सारा खून बह जाने के बाद वह मरे हुए दत्तात्रय के पास सरका। अपनी हंसिये से उसका गर्दन काटकर, शरीर से सिर अलग किया। उसके बाद कलाइयों के पास से दोनों हाथों की हथेलियां काटकर अलग कर दीं।
तय किया हुआ काम लहू ने शांति से पूरा कर डाला। इसके बाद उसने अपने शरीर के पूरे कपड़े उतार डाले और दत्तात्रय की धड़ पर जैसे-तैसे चढ़ा दिए। शर्ट और पैंट की बटनें ठीक से लगा दीं। और उसके कपड़े अपने शरीर पर चढ़ा लिए।
शव पर चढ़ाई हुई अपनी पैंट की जेब में लहू रामचन्द्र ढेकणे के नाम वाला मतदाता परिचय पत्र, जेल में पैरोल के लिए दिए गए आवेदन की कॉपी, भाई अंकुश ढेकणे और बहन का फोन नंबर लिखी हुई डायरी वगैरह सरका दिया। खुद पहने हुए दत्तात्रय की शर्ट की जेब के दो सौ रुपए निकालकर आनंद से उनपर धीरे होठ टिका दिए। अपने साथ लाई हुई कपड़े की थैली से सीमेंट के लिए इस्तेमाल की जाने वाली प्लास्टिक की बोरी बाहर निकाली। उसे खोलकर उसमें दत्तात्रय का कटा हुआ सिर और कटी हुई दोनों हथेलियां और हत्या के लिए इस्तेमाल किया हुआ हंसिया ठूंसा। थैली का मुंह साथ लाई हुई रस्सी से कसकर बंद किया और उस थैली को हाथ में लेकर सीटी बजाते हुए धीमे-धीमे मोटरसाइकिल की दिशा में बढ़ने लगा।
अंधेरे की काली-काली अनगिनत परछाइयां दत्तात्रय पांडुरंग नायकुड़े के खून सने मृतदेह की बर्बर हालत देखकर सुन्न होकर कुछ देर ठिठकी होंगी, लेकिन नरपिशाच लहू ढेकणे ने एक बार भी पीछे मुड़कर देखे बिना मोटरसाइकिल को किक मारी और खुशी-खुशी वहां से निकल गया। उस समय शाम के साढ़े सात बज रहे थे। दत्तात्रय पांडुरंग नायकुड़े के आंगन के तुलसी वृंदावन के पास बाला हुआ दीपक बुझ गया था। वातावरण में एक अबूझ रहस्यमय शांति फैल गई थी।
मोटरसाइकिल की स्पीड में इंजिन की ताकत और काम पूरा हो जाने का घमंड जोर मार रहा था। कुछ देर में लहू ने कर्नाटक की सीमा से लगकर बहने वाली दूधगंगा नदी के पुल से सीमेंट की थैली नदी की अथाह गहराइयों में फेंक दी। मस्त सीटी बजाई। मानो उसने उस काली गहराइयों में खुद की फरार कैदी की पहचान हमेशा के लिए डुबो दी थी और कैदी के लेबल से अपने आपको मुक्त कर लिया था।
पुल से तुरंत लहू ने कोल्हापुर से बाहर की ओर रवानगी डाल दी। उसे मालूम करना था, देखना था कि इस नए केस के कारण पुलिस के बीच कैसी खलबली मच रही है। पुलिस ने दत्तात्रय पांडुरंग नायकुड़े के शव को लहू ढेकणे का समझकर अंतिम संस्कार कर दिया है, जानते साथ ही लहू को नया जीवन मिलने जैसा आनंद हुआ। किए गए काम पर खुद पर गर्व हुआ। रास्ते के एक किनारे पर बैठकर लहू विचार करता रहा। अपनी चालाकी, बुद्धि और दिमाग पर इतना खुश हुआ कि जोर-जोर से हंसने लगा। उसका अट्टहास सुनकर एक राहगीर डरकर दूर भाग गया। यह देखकर तो लहू और जोर-जोर से हंसने लगा। पुलिस की मूर्खता देखकर तो उसकी खुशी सातवें आसमान पर थी। लहू को इतनी खुशी हो रही थी कि बड़ी देर तक वह अकेला ही हंसता रहा।
पुलिस के सामने अपनी इस बर्बरता का वर्णन करते हुए भी लहू हंस रहा था। किसी स्थितप्रज्ञ की भांति उसने पुलिस को घटना का एक-एक स्थान दिखा दिया। वहां उसने क्या किया? किस तरीके से किया इसका अचूक डिमॉन्स्ट्रेशन करके दिखाया। इतना सब करते हुए उसके मन में नायकुड़े की पत्नी, मॉं और बच्चों का जरा भी ख्याल नहीं आया।
सूर्यकान्त को भोले-भाले दत्तात्रय नायकुड़े की मृत्यु भयानक, क्रूर और कारुणिक लगी। इसी के साथ इस बात की आश्वस्ति भी हुई कि दत्तात्रय नायकुड़े के खून के मजबूत सबूत हैं। लहू के नाम पर तीसरा खून पुलिस की पोथी में दर्ज हो गया था।
एक आपराधिक वृत्ति के विकृत इंसान के कारण तीन निर्दोष व्यक्तियों का बलिदान लेने वाले न्यायतंत्र पर सूर्यकान्त के मन में भयंकर रोष उफन रहा था।
संकेत, अमित और अब दत्तात्रय की जान चली गई। इसकी सजा कानून तो अपने तरीके से देगा ही परंतु भांडेपाटील, सोनावणे और नायकुड़े परिवार के भाग्य में आजीवन अकेलापन, वेदना, विरह और जो यातनाएं लिखी गईं उसके लिए लहू को कोई सजा नहीं? इन निर्दोष लोगों की कुछ भी क्षतिपूर्ति नहीं? इन ज्वलंत सवालों के जवाब सूर्यकान्त के पास नहीं थे। केवल एक ही राह सूझ रही थी। लहू जैसे यथासंभव अधिकाधिक नराधमों का काम तमाम करना, जेल में बंद करवाना और इस काम में कोई भी ढिलाई नहीं, किसी प्रकार का आलस नहीं।
साहिल अंकुश दलवी प्रकरण में तीन आरोपियों को जेल में डाला गया था। इस घटना के संबंध में एक अंग्रेजी अखबार के पत्रकार ने तत्कालीन जॉइंट पुलिस कमिश्नर राकेश मारिया से पूछा था कि क्या इस अपहरण और हत्या के मामले की चीरफाड़ करके सच सामने लाने में और खूनियों को जेल में बंद करवाने तक सूर्यकान्त ने पुलिस की मदद की-तो राकेश मारिया ने किसी से भी कोई मदद न लेने की बात कहकर साफ मना कर दिया।
लेकिन सूर्यकान्त को इसकी परवाह नहीं थी। पापुलर होने या फिर पैसे कमाने के लिए उसने कुछ भी नहीं किया था। लेकिन उस बीच अंकुश दलवी ने एक मराठी टीवी चैनल की कार्यक्रम संचालिका और अभिनेत्री रेणुका शहाणे के समक्ष इस बात को भावविभोर होकर कबूल किया था,
“सूर्यकांत भांडेपाटील माझ्या आयुष्यात ईश्वरा सारखे धावुन आले. त्यांच्यामुळे माझ्या मुलाचे खुनी पकडले गेले आहेत.” (सूर्यकान्त भांडेपाटील मेरे जीवन में भगवान की तरह दौड़कर आए थे। उनके कारण मेरे बेटे के कातिल पकड़े गए हैं।)
अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार
©प्रफुल शाह