Fathers Day - 75 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | फादर्स डे - 75

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फादर्स डे - 75

लेखक: प्रफुल शाह

खण्ड 75

सिंतबर 2014

लहू ढेकणे पेरौल पर खत्म कर अभी जेल में आया नहीं था। पुलिस का सिरदर्द बढ़ता जा रहा था। नियमानुसार अंकुश ढेकणे ने लहू को जेल में वापस लाने की जिम्मेदारी ली थी लेकिन जेल रेकॉर्ड में लहू के वापस आने की कोई सूचना पंजीबद्ध नहीं होने के कारण वह जेल से दोबारा फरार होने की नियमानुसार विज्ञापन नहीं दिया गया था। वरना इस कारण गंभीर अपराध दाखिल होकर लहू नियमानुसार कसूरवार ठहराया जाता और उसको सजा भी दी जाती।

जरा कल्पना करें कि ऐसा नराधम खतरनाकर खूनी चुपचाप पुणे पहुंच गया होता और उसने सूर्यकान्त, प्रतिभा या सौरभ के साथ कुछ भला-बुरा कर दिया होता तो? दो मासूम छोटे बच्चों का हत्यारा समाज में निश्चिंत होकर घूम रहा था और किसी को भी इसके बारे में पता तक नहीं था। क्योंकि किसी को भी यह बात पता नहीं थी कि पैरोल पर छूटा हुआ लहू वापस जेल में गया नहीं है। लहू के मन में क्या था? दूसरे दिन अखबारों के पहले पन्ने पर तो क्या अंदर के पन्नों के किसी कोने में भी लहू ढेकणे के दोबारा फरार होने की छोटी-सी भी खबर प्रकाशित नहीं हुई थी. कारण क्या था ? यह जानने योग्य है।

कलंबा जेल से फरार होने के बाद दूसरे दिन लहू कोल्हापुर के रास्ते टेक्सटाइल सिटी और मैनचेस्टर ऑफ महाराष्ट्र का दर्जा प्राप्त इचलकरंजी शहर में पहुंचा। भाभी के चुराए हुए मोबाइल को चालू करके उसने अंकुश को बता दिया, “मैं जेल में नहीं गया।”

इतना कहकर उसने फोन स्विच ऑफ कर दिया। कोल्हापुर पहुंचने के बाद उसको एक समस्या सताने लगी। जेब खाली थी। दिन कैसे गुजारा जाएगा? खाएंगे क्या? दसवीं पास करने के बाद लहू ने कोहिनूर टेक्निकल इंस्टीट्यूट से मैकेनिकल ड्राफ्ट्समैन का कोर्स किया था। उसके बाद फर्नीचर पॉलिश का काम किया। लेकिन स्थाई काम न होने के कारण और नियमित आमदनी नहीं होने कारण उसने शॉर्टकट से पैसा कमाने के लिए अपना दिमाग लड़ाया था।

कोल्हापुर में वह एकदम नया आदमी होने के कारण काम मिलना मुश्किल था। मेहनत करने का मन नहीं था। फिर से उल्टे-सीधे काम, चोरी-चकारी करने लगा। कोल्हापुर-शहापुर के पास एक बंगले में सेंध लगाने के लिए घुसा। किसी ने उसे देखकर हल्ला मचाने के कारण वह वहां से जान बचाकर भाग निकला। इस भागमभाग में भाभी का चुराया हुआ मोबाइल फोन कहीं गिर गया। अज्ञात व्यक्ति के विरुद्ध पुलिस ने गुनाह दाखिल किया। जांच के दौरान बरामद मोबाइल देगाव निवासी एक महिला का होने की बात मालूम हुई। यदि पुलिस ने गंभीरता से जांच की होती तो और यदि अंकुश ने पुलिस को समय पर हकीकत बता दी होती तो लहू के कुकर्मों पर ब्रेक लग गया होता।

अब लहू की मारामार शुरू हो गई। जैसे तैसे पेट भरने के बाद पुलिस से बचते फिरना। अपनी सही पहचान समाज में छिपा कर रखना। फरार कैदी की भूमिका अब उसको सहन नहीं हो रही थी। सब झेलकर उसको नई जिंदगी जीना थी। लेकिन कैसे? सूझ नहीं रहा था। उसने तोत्या नाम से समाज में घूमना-फिरना शुरू कर दिया। सरनेम रखा सावंत। एक झोपड़ी किराए से ली। होटल में काम किया, लॉज में काम किया।

लेकिन इस तरह तोत्या नाम से कितने दिनों तक भटकते रहने वाला था? लहू इसी तरह सात महीने घूमता रहा। लेकिन तंग आ गया। अनिश्चितता, दौड़धूप, जान पर हमेशा पुलिस की लटकती तलवार और साथ में फरार कैदी की इमेज भी लहू के सिर पर मंडरा रही थी। जब बहुत तंग आ गया तो उसने मन ही मन एक फैसला किया, पक्का फैसला कि बस, अब बहुत हुआ। उसके मन में क्रोध उमड़ पड़ा। माथे पर बल पड़ गए, आंखों में लाल धागे उमड़ गए और एक खतरनाक, धूर्त हंसी होठों पर मचलने लगी। क्षण भर के लिए उसने आंखें मूंदीं। गर्दन को झटका दिया। आंखें खोलकर दूर कहीं देखने लगा।

2015 मई महीने में लहू ने महसूस किया कि अब आराम से जीने के दिन बहुत करीब आ गए हैं। उसके भीतर का पशु जाग गया। उसने अपने जैसी ही कद-काठी के एक आदमी को देखा था। अपना मकसद पूरा करने के लिए उसने एक प्लान बनाया। सभी छोटी-बड़ी बातों का विचार किया और अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए दबे पांव झोपड़ी से बाहर निकला।

एक-एक कदम आगे बढ़ाते हुए, मन में विचारों का जोड़-घटाव चालू था। निशाना तय था। नतीजा क्या होना है-मालूम था। लेकिन वास्तव में क्या होने वाला था, किसी को भी मालूम नहीं था।

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रविवार 16/05/2015

कोल्हापुर से पांच किलोमीटर की दूरी पर गिरगाव इलाके में कंदलगाव के पास एक सुनसान टेकड़ी थी। इक्का-दुक्का चरवाहा वहां कभी-कभार अपने गाय-बैलों को चराने के लिए वहां ले जाता था। सुबह एक चरवाहा वहां से अपने जानवर लेकर उन्हें चराने के लिए निकला। मई महीने की खुशनुमा सुबह थी।

मौसम का आनंद लेते हुए गाना गुनगुनाते हुए चरवाहा चलते जा रहा था। इतने में उसके पैर थम गए। हाथ नाक की ओर गया। तेज बदबू पूरे बदन में न समा जाए लिए उस चरवाहे अपनी नाक जोर से दबाकर रखी और इधर-उधर देखने लगा। सामने उजड़ी पड़ी मचान पर कुछ दिखाई दिया। विचित्र ला लगा इसलिए पास जाकर देखा तो उसे उल्टी आ गई।

सामने एक शव पड़ा हुआ था। इंसान का शव। उस प्रेत का सिर नहीं था। दोनों हाथों की कलाइयां गायब थीं। उसने तुरंत पांचगाव पुलिस पाटील तात्योसा पाटील के पास दौड़ लगाई। तात्योसा ने स्थानीय करवीर पुलिस चौकी को सूचना दी। श्वान पथक के साथ पुलिस बल घटनास्थल पर पर पहुंची। देखते साथ पुलिस के रोंगटे खड़े हो गए। इतनी बेरहमी से हत्या? सिर काटने की बात तो सुनी थी, लेकिन यहां तो हाथ भी काट दिए गए हैं। इन हाथों से ऐसा कौन सा पाप हुआ था कि हत्यारे ने हाथ भी काट लिए?

अपने विचारों को पीछे धकेलते हुए पुलिस दल आसपास उजाड़ पड़ी हुई जगह पर मृतक का सिर और कलाइयां, प्रयुक्त हथियार या संबंधित अन्य वस्तुएं तलाशने लगी। सारा गांव इस निर्मम हत्या को देखने के लिए निकल पड़ा था। प्रशिक्षित श्वान मेईन रोड तक जाकर वापस लौट आए, लेकिन कोई सबूत हाथ नहीं लगा।

अब, शव के कपड़ों पर पुलिस ने ध्यान केंद्रित किया। उसकी पैंट और शर्ट की जेबें तलाशी गईं। एक कड़क-सी वस्तु मिली....वाह..ये एक डायरी थी। मतादाता परिचय पत्र। उस पर नाम लिखा था लहू रामचंद्र ढेकणे। पुलिस के दिमाग की बत्ती जल उठी...अरे...ये तो फरार भयंकर अपराधी लहू रामचन्द्र ढेकणे का  शव है। डायरी को टटोलने पर लहू के भाई अंकुश और उसकी बहन का नंबर मिल गया. कुछ दूरी पर चश्मा मिला।

एक पुलिस वाले राहत की सांस छोड़ी...चलो शव की पहचान तो हो गई। दूसरे ने भी लंबी सांस खींची, ‘दो मासूमों को हत्या करने वाले को इतनी निर्मम मौत देकर भगवान ने हिसाब बराबर कर दिया।’ तीसरा कुछ ज्यादा ही व्यवहारिक निकला, ‘धरती का बोझ कम हुआ।’

लेकिन अब एक नया सवाल खड़ा हो गया...लहू को मारा किसने? एक फरार कैदी को पकड़कर इतनी कुशलता से उसका कांटा निकालना किसी आम आदमी के बस का काम नहीं था। विचारों के ऊहापोह में नियमानुसार पंचनामा करके शव को घटनास्थल से हटाया गया। लहू के भाई अंकुश को तत्काल पुलिस स्टेशन में बुलाया गया।

अंकुश ने पुलिस थाने में शव के कपड़ों को देखते साथ ही पहचान लिया कि यह लहू है। आंसू भरी आंखों से कबूल किया कि मैं जिस समय लहू को जेल में छोड़ने के लिए गया था, तब उसने यही कपड़े पहने हुए थे। लहू का मतदाता परिचय पत्र देखकर अंकुश रोने लगा। डायरी के अक्षर भी लहू के ही थे-ऐसा अंकुश ने बताया। पंद्रह साल जेल में बिताए हुए भाई को अंकुश ने पहचान लिया।

शव की पहचान के सवाल से मुक्ति मिल गई थी। प्रथमदृष्टया पुरानी रंजिश का मामला दिखाई पड़ रहा था या फिर अनैतिक यौन संबंध की आशंका भी जान पड़ रह थी। एक आदमी को जान से मारना वो भी इतनी बर्बरता से काट डालना अकेले आदमी का काम नहीं हो सकता था। पुलिस दल खूनी को खोजने के लिए पुणे, सातारा, कराड, इचलकरंजी और जयपुर की ओर रवाना की गई। उसी शाम को सूर्यकान्त के शुभचिंतक ने उसे यह खबर फोन करके सुना दी थी।

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रविवार 17/05/2017

सूर्यकान्त रोज की ही तरह नित्यकर्म निपटा कर आया। प्रतिभा चाय लेकर आई। उसने अखबार हाथ में लिया। पहले ही पन्ने पर बड़े अक्षरों में खबर थी

“पुण्यातील अट्टल गुंड लहु ढेकणे याचा खून.” (पुणे के कुख्यात गुंडे लहू ढेकणे का खून)

लहू की हत्या? सूर्यकान्त ने सपाटे से खबर पढ़ने लगा। अखबार प्रतिभा को भी दिखाया। अंग्रेजी का पेपर उठाया। उसमें खबर थी, ‘‘Dismembersed body of a man found.’’

लहू ढेकणे खतम? दो खून करने वाला खूनी छह-सात महीने समाज में माथा ऊंचा करके घूमता रहा, छुट्टा फिरता रहा, वो लहू मारा गया? और किस तरीके से? दो बार पुलिस को धता बताकर जेल से बड़ी कुशलता से फरार होने वाला लहू की निर्मम हत्या? छूमंतर होने वाले बदमाश का खूनी खात्मा? ऐसे कैसे? आखिर किसने उसे इतनी क्रूरता से मार डाला? क्यों मारा?उसके अपराध का शिकार व्यक्ति ने बैर तो नहीं भुना लिया? लहू के और कितने गुनाह सामने आने को बाकी हैं?

सूर्यकान्त के दिमाग को अनेक विचारों ने घेर लिया था। पेपर में छपी फोटो में जो कुछ दिखाई दे रहा है उसे सच कैसे मान लिया जाए? इसका सबूत क्या है? जैसा दिखता है, वैसा होता नहीं है-इसीलिए लोग फंसते भी हैं यह भी सच ही है। सूर्यकान्त ने एक बार फिर अपने सूत्रों को सक्रिय कर दिया। फोन पर फोन करने लगा और वापसी फोन पर फोन रिसीव भी कर रहा था। लहू के बारे जितनी संभव हो के, उतनी जानकारी इकट्ठा करने की कोशिश में जुट गया।

कोल्हापुर करवीर पुलिस थाने से इस घटना की पूरी जानकारी और शव का फोटो ऑनलाइन मंगवा लिया। एक बार फिर संकेत अपहरण की घटना का गहराई से विचार करने लगा। लहू रामचन्द्र ढेकणे के बारे में जानकारी बारीकी से याद करने लगा। डायरी में लिखी गई पुरानी टिप्पणियों को फिर से देखा। फिर से कुछ नई टिप्पणियां लिख लीं।

शव के ई-मेल पर मिले सभी फोट और बाकी जानकारी इनबॉक्स में रख ली। शव का चेहरा नहीं था। सिर काटा गया था। दोनों हथेलियां कलाई के पास से काटी गई थीं। इसलिए पहचानना असंभव था। फिंगरप्रिंट मैचिंग का रास्ता बंद था। अब केवल डीएनए टेस्ट ही संभव था लेकिन इसके लिए पुलिस की मंजूरी लेनी पड़ती। इसमें बहुत सारा समय बरबाद हो जाता। सूर्यकान्त ने शव का बहुत बारीकी से निरीक्षण करना शुरू किया। फोटो का एक-एक सेंटीमीटर भाग ज़ूम करके देखने लगा। यह प्रक्रिया बहुत समय तक चलती रही। इसके बाद उसने लहू ढेकणे के अपने पास रखे हुए फोटो के फोल्डर को खोला। अलग-अलग एंगल से लिए गए लहू के कई फोटो उसके पास जमा थे। हर फोटो को वह देखने लगा। उसमें लहू का एक पूरा फोटो भी था जिसमें लहू के पैर ठीक से दिखाई दे रहे थे। सूर्यकान्त उन पैरों को बहुत देर तक ज़ूम करके बारीकी से देखता रहा। फोटो में से एक पैर क्रॉप करके स्क्रीन पर कॉपी-पेस्ट किया। अब लहू के पैर की और शव के पैर की इमेज आजू-बाजू में पेस्ट करके सेव कर ली और सूक्ष्मता से निरीक्षण चालू किया

 

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार

©प्रफुल शाह