Fathers Day - 74 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | फादर्स डे - 74

Featured Books
Categories
Share

फादर्स डे - 74

लेखक: प्रफुल शाह

खण्ड 74

शनिवार 28/02/2009

पुलिस द्वारा उमेश जाधव को रिहा कर देने के कारण अंकुश दलवी को यकायक आघात-सा लगा। उसने यह बात सूर्यकान्त को फोन करके बताई, लेकिन सूर्यकान्त को इस पर अधिक आश्चर्य नहीं हुआ। हत्या का संदिग्ध आरोपी यदि भाग जाता तो पुलिस की बड़ी बदनामी होती इसलिए पुलिस ने शायद यह विचार किया होगा कि पहले अधिकाधिक सबूत और गवाह जुटा लिए जाएं, उसके बाद आगे बढ़ा जाए-सूर्यकान्त ने इस तरह से सोचा। लेकिन तब तक यदि संदिग्ध आरोपी भाग गया तो? कहीं जाकर छिप जाए तो फिर कहीं उसे ढूंढ़ने में कानून के हाथ छोटे न पड़ जाएं।

सूर्यकान्त ने इस केस में अपने तरीके से आगे बढ़ने का विचार किया और जानकारों से विचार-विमर्श करने के बाद नई व्यूह रचना बनाई ताकि पुलिस भी जागे और सक्रिय होकर उसे अपना फर्ज ठीक तरीके से निभाना पड़े और केस आगे बढ़े। सूर्यकान्त भांडेपाटील ने 25 मई को अंकुश और मनीषा दलवी के साथ मिलकर एक प्रेस कॉन्फ्रेंन्स बुलाई और अपनी मांगें उनके सामने रख दीं कि इस केस में पुलिस तेजी से कार्रवाई करे और संदिग्ध आरोपी का डीएनए टेस्ट करवाया जाए।

जरा भी कोताही न बरतते हुए जरूरत पड़ने पर इस केस की जांच को सक्षम टीम को सौंपने की मांग भी गई। इसी के साथ कोर्ट में अर्जी भी दी गई कि सूर्यकान्त भांडेपाटील द्वारा एकत्र की गई जानकारी के आधार पर पुलिस कोकाम करने का निर्देश दिया जाए।

ये सारी कोशिशें बेकार, बेअसर नहीं रहीं। केस की जांच को मुंबई क्राइम ब्रांच को सौंपा गया। 13 जुलाई को क्राइम ब्रांच ने भंडाफोड़ किया, साहिल अंकुश दलवी के अपहरण और हत्या के बदले उमेश जाधव (24 साल), उसकी मां छाया गणपत जाधव (50साल) और उमेश के चचेरे भाई अतुल दीपक देसाई (20 साल) को गिरफ्तार किए जाने की खबर दी गई, इन तीनों ने अपना अपराध कबूल भी कर लिया था।

साहिल दलवी हत्या के मामले में आरोपियों का मोडस ऑपरेंडी लगभग वैसा ही था, जैसा कि सूर्यकान्त भांडेपाटील ने सोचा था। सबसे पहले इस अपराध के पीछे का मकसद देखें। पहला- दलवी परिवार द्वारा किए गए अपमान का बदला लेना, दूसरा उधार ली गई रकम को दलवी के मुंह पर मारना और वह भी उसी से वसूल की गई फिरौती की रकम से ही।

26 जनवरी को उमेश ने अपने चचेरे भाई अतुल को अपने मंतव्य की जानकारी देकर अपने साथ जोड़ लिया। और फिर वह मौके की तलाश में रहने लगा। लेकिन हर दिन कोई न को रुकावट आ ही जाती थी। 3 फरवरी को साई धाम सोसायटी की छठवीं मंजिल पर रहने वाला साहिल सुबह नीचे ट्यूशन के लिए पहुंचा। उसे उमेश ने देखा। साहिल जैसे ही ट्यूशन खत्म कर वापस अपने घर जाने के लिए निकला उसी समय उमेश ने उसे नए वीडियो गेम का लालच देकर अपने घर बुलाया। साहिल की बालसुलभ बुद्धि में यह बात भला कहां से आती कि वीडियो गेम नहीं मौत के खेल का निमंत्रण है और इस खेल में उसे हारना ही है। साहिल वीडियो गेम के खेलने के लिए उसके घर के अंदर जाकर बैठा ही था कि उमेश के मजबूत हाथ साहिल के गले और मुंह को दबाने लगे। छाया ने उसके पैर पकडकर रखे थे। ऐसी क्रूर सख्ती के सामने बच्चा आखिर कितनी देर तक टिक पाता? देखते-देखते ही उसकी जीवन-लीला समाप्त हो गई। अब? साहिल की लाश को रैग्जीन की बैग में भरकर फिर ट्रैवलिंग बैग में ठूंसा गया। मां-बेटा दोनों मिलकर एक निजी बस में बैठकर मुंबई से पुणे पहुंचे। वहां स्वारगेट स्टॉप में उतरकर उन्होंने कराड की बस पकड़ी। उमेश जाधव ने फोन करके अतुल देसाई को वहां बुला लिया। वह रिक्शा लेकर पहुंचा। ये लोग रिक्शे में बैठकर कृष्णा नदी के पुल पर गए। वहां उन्होंने साहिल के शव को नदी में फेंक दिया और उमेश तथा छाया उसी रात मुंबई वापस आ गए। मानो कुछ हुआ ही नहीं, इस तरह व्यवहार करने लगे। दूसरे दिन उमेश ने बोरीवली जाकर अंकुश दलवी को पीसीओ बूथ से फोन करके धमकी दी कि पंद्रह लाख रुपए तैयार रखो नहीं तो तुम अपने बेटे का मुंह भी नहीं देख पाओगे।

इस केस में जांच के नतीजे देखकर सूर्यकान्त को संतोष हुआ, परंतु सबसे पहले उमेश को गिरफ्तार करना जरूरी था। अगर वह शातिर अपराधी होता तो न जाने कितने साहिल और संकेतों को हड़प लेता। फिर भी, एक लहू को जेल के भीतर भेजने में अपनी खुद की भूमिका पर संतोष और खुशी हुई। उसने संकेत की तस्वीर को देखा, उसके नजदीक जाकर तस्वीर पर हाथ फेरते हुए कहा, “थैंक यू बेटा”, यह देखकर प्रतिभा की आंखों में आंसू आ गए, खुशी के आंसू।

जुलाई, 2014-कोल्हापुर की कलंबा जेल सेंट्रल जेल में लहू ढेकणे उम्र कैद की सजा काट रहा था। उसे न अफसोस था न पछतावा। वह जेल का जीवन मजे से काट रहा था। दो वक्त पेटभर खाना, समय पर सोना, किसी बात का टेंशन नहीं था। वह अपना शरीर बनाने लगा। उसका दिमाग शांत नहीं था। उसे जेल की सलाखें पसंद नहीं थीं। उसे कैद करके रखने वाली जेल की ऊंची-ऊंची दीवालें उसकी आखों में खटकती थीं। उसके लिए कभी न खुलने वाला जेल का मेन गेट जैसे उसके साथ क्रूर मजाक करता था। कैदी लहू ने एक कागज से बड़ी उम्मीदें लगा रखी थीं, उसका सारा ध्यान एक अर्जी में ही लगा हुआ था। लहू ने इतनी लंबी कैद के बाज पैरोल पर छूटने की अर्जी दी थी, वह सोचता रहता था कि उसकी अर्जी का जवाब कब आएगा।  सकारात्मक आएगा या नकारात्मक? यही सवाल लहू को दिन-रात सताता रहता था।

अगस्त, 2014 को लहू की आस पूरी हुई और उसकी पैरोल की अर्जी को मंजूरी मिल गई। लहू को एक महीने के लिए घर जाने की इजाजत मिल गई थी। लहू को ज्यादा रुचि मुक्ति में थी।

कलंबा जेल से छूटकर लहू सीधा अपने गांव देगाव गया। वहां वो लगातार अपने भाई अंकुश के साथ ही रहता था। कभी बाहर नहीं निकलता था। किसी से मिलता-जुलता भी नहीं था, मिले भी तो बात क्या करे? शायद गांव वाले उसके साथ बात करना पसंद न करें। वह कोई बड़ा काम करके तो आया नहीं बे कि घर-बाहर के लौट उससे मिलने के लिए दौड़ते हुए आएँ। घर आकर पूछताछ करें। वो था तो खूनी ही, दो-दो मासूम बच्चों का हत्यारा। नराधम, पाशविक और क्रूर। गांव में ज्यादातर लोगों को उसका जेल से वापस लौट आना बिलकुल भी पसंद नहीं आया पर आदमखोर को आखिर कहे कौन, ‘तेरे मुंह से बदबू आती है?’ अंकुश के लिए तो भाई को घर में रखना मजबूरी ही थी। उसको रखे बिना कोई चारा नहीं था, खून का संबंध जो ठहरा, आंखों की शर्म थी, समाज का दस्तूर था। घर में भी बहुत कुछ हिस्सा लहू का भी था। लोग उसे डरी हुई नजरों से दूर से ताकते रहते थे। सैकड़ों लोगों के उसकी छुट्टियां खत्म होने का इंतजार में एक महीना पूरा हुआ और देगाव के रहवासियों ने राहत की सांस ली कि शैतान ठीक तरीके से रहा।

सितंबर, 2014

अंकुश ढेकणे अपन भाई लहू को लेकर कोल्हापुर की कलंबा जेल में पहुंचा तब दोपहर के ढाई बज रहे थे। लहू एक पेड़ के नीचे बैठ गया। उसने अंकुश को समझाया, ‘चार बजे जेल की ड्यूटी बदलेगी तब मैं अंदर चला जाऊंगा। तू निकल जा, बस मिल जाएगी तो समय पर घर पहुंच जाएगा।’

अंकुश ने उसका कहना मान लिया और तुरंत वहां से अपने गांव की ओर लौट गया। इधर, जेल परिसर में लहू एक पेड़ के नीचे बैठा हुआ था। ठंडी हवा बह रही थी, पंछी कलरव कर रहे थे। वे कैसे मुक्त मन से आकाश में उड़ान भर रहे थे। जिस डाली पर मन करे, उस पर बैठ जाते थे और जब मन करता उड़ जाते थे। लहू के कपटी मन को आजादी का स्वाद लग गया था। उसे वापस कैद होने का मन नहीं कर रहा था। उसने सोचा, ‘कुछ तो करना पड़ेगा। क्या करूं...क्या करूं...’ यही सोचता हुआ वह आसपास देखने लगा। किसी का भी ध्यान उस पर नहीं था। कुछ अपने काम में मशगूल थे, तो कुछ अपनी ड्यूटी पूरी होने की राह देख रहे थे।

इतने में पांच बज गए। वह धीरे से खड़ा हुआ। जेल के भीतर जाने के बदले वह मेन गेट पर आ गया। गेट खुला था। शायद पुलिस के आवागमन के कारण उसे बंद नहीं किया गया था। बिना किसी संकोच या घबराहट के लहू ढेकणे दरवाजे की तरफ बढ़ता ही गया। मन में पकड़े जाने की दुविधा थी पर वह चेहरे पर ऐसा कोई भाव नहीं दिखा रहा था। वह इतनी सहजता से दरवाजे से बाहर निकल गया मानो किसी से मिलने के लिए आया था और अब वापस जा रहा है। उसका भाग्य अच्छा था कि किसी का भी ध्यान उस पर नहीं गया।

दो-दो हत्याओं के अपराध में उम्र कैद की सजा भोग रहा अपराधी एक बार फिर कायदे-कानून को चकमा देने में सफल हो गया था। थोड़ी दूर चलन के बाद उसने अपनी चाल तेज कर दी। यह गति बढ़ती ही गई, लेकिन इस तरह की किसी को उस पर शंका न हो। कोल्हापुर स्टेशन के नजदीक पहुंचते ही उसे याद आया कि उसने तो बहुत देर से कुछ खाया ही नहीं है। उसे तेज भूख लग रही थी। जेब में हाथ डाला, कुछ रुपए थे। पैरोल के लिए दी गई अर्जी की कॉपी थी। देगाव में अंकुश की नजरें चुराकर उठाया हुआ मोबाइल फोन था। यह फोन अंकुश की पत्नी का था।

उसने पेट भर नाश्ता किया और फिर आगे की सोचने लगा। पहचान छिपाने और पेट भरने के लिए कुछ काम-धंधा खोजने का विचार किया, पर वह सब कल से। अभी तो मुक्ति की अनुभूति के लिए मीठी नींद चाहिए थी। जेल से छूटने के सपने के बिना नींद।

 

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार

©प्रफुल शाह