लेखक: प्रफुल शाह
खण्ड 70
मंगलवार, 20/11/2001
सूर्यकान्त भांडेपाटील जो चाहते थे वैसा ही कुछ मिलता-जुलता हुआ। पता नहीं यह भविष्य की घटना का संकेत था या फिर महज संयोग। सूर्यकान्त को पूरा भरोसा था कि उसने कुछ भी गलत नहीं किया है। जो मन ने कहा, वही किया। अच्छे-अच्छों को पानी पिला दे, लोगों के छक्के छुड़ा दे, ऐसी मारक और कातिल अदाओं वाली को वह आज अपने साथ घर ले जा रहा था। उसकी कोशिश यही थी कि गांव वालों की उस पर नजर न पड़ पाए। इसीलिए वह रास्ते में न तो किसी की ‘राम-राम’ का जवाब देने के लिए रुका न ही किसी से बात करने के लिए ही।
संकेत भांडेपाटील परिवार के जीवन से चला गया है। सौरभ स्वस्थ होकर अपनी पढ़ाई में रुचि लेने लगा है। खेलकूद में उसकी रुचि उल्लेखनीय है। प्रतिभा अभी भी कभी-कभी छुपकर रो लेती है, पर जीवन अब ठीक तरीके से चलने लगा है, कम से कम ऊपर से देखने पर तो ऐसा ही मालूम पड़ता है। सूर्यकान्त सोच रहा था कि इस इस शांत पड़े जल में कहीं फिर से तो कोई चक्रवात उठ खड़ा नहीं होगा। आखिरकार उसने सभी परिवार वालों की उपस्थिति में बात छेड़ ही दी, “मैंने एक लाख पैंसठ हजार रुपए का रिवॉल्वर खरीदा है...” सबको झटका लगा। रिवॉल्वर? आखिर किसलिए? बड़ी मुश्किल से तो खून-खराबे से मुक्ति मिली है। अब सूर्यकान्त के सामने सही वजह बताने के अलावा कोई चारा नहीं था। उसने बताया कि सातारा पुलिस सुपरिटेंडेंट रामराव पवार के अनुरोध के कारण उसने अपने लिए रिवॉल्वर का लाइसेंस लिया है। उसने यह भी बताया कि लाइसेंस को हर साल रिन्यू करवाना पड़ता है जिसके लिए गांव के पुलिस पाटिल से लेकर डिप्टी पुलिस सुपरिटेंडेंट तक और सरपंच से लेकर कलेक्टर तक की दस्तखत की आवश्यकता पड़ती है।
इस बार रिन्यूअल एप्लीकेशन के साथ जब वह कलेक्टर अनिल डिग्गीकर से जब मुलाकात की तब उन्होंने सूर्यकान्त को समझाया, “देखिए, संकेत का केस पूरा हो चुका है फिर भी यदि लाइसेंस आपके पास है तो रिवॉल्वर रखने में आपको क्या तकलीफ है? लोग तो लाइसेंस पाने के लिए कितने उल्टे-सीधे उपाय करते हैं। यदि इस समय आपको पैसों की समस्या हो तो कीमत मैं चुका देता हूं। आप रिवॉल्वर ले ही लीजिए। जब कभी यह काम आए, तो मुझे याद कर लीजिएगा।”
डिग्गीकर साहब की बात सूर्यकान्त के गले उतर गई और उनका अनुरोध भी उसे ठीक ही लगा। उस समय इंपोर्टेड अस्त्रों को लाने पर पाबंदी थी। इंडियन आर्मी को आवेदन देने के बाद इसे पाने के लिए छह-छह महीने इंतजार करना पड़ता था।
सूर्यकान्त को याद आया कि महाराष्ट्र केसरी पहलवान काकासाहेब संभाजी पाटिल उर्फ दहयारीकर ने एक रिवॉल्वर बेचने की बात की थी। उसने सांगली के पास दहयाना के रहवासी काकासाहेब से सेकंडहैंड रिवॉल्वर का सौदा एक लाख पैंसठ हजार रुपए में किया। अब तक सूर्यकान्त के पास आर्म लाइसेंस आ चुका था। पिस्तौल (एनपी बोर 36) वेपन नंबर 499259 कंपनी सिजेड मेकिंग चेकोस्लोवाकिया। लाइसेंस की मूल तारीख 25/8/2000।
एक तो संकेत के केस में मची हुई धूम, मीडिया की ओर से मिल रही अहमियत, बड़े नेता-अफसरों के साथ उठना-बैठना, मिलना-जुलना, ऊपर से गर्म स्वभाव, सूर्यकान्त सफल कॉन्ट्रैक्टर से अब एक सफल बिल्डर बन गया था। सफलता की दौड़ती गाड़ी और उस पर से इस रिवॉल्वर के कारण कुछ खास दोस्तों को छोड़ दें दो बाकी लोग अब सूर्यकान्त के साथ एक जायज़ दूरी बनाकर रखने लगे थे।
सौभाग्य से घर वालों ने सूर्यकान्त की इस दलील को स्वीकार कर लिया था कि उसने रिवॉल्वर सिर्फ आत्मरक्षा के लिए ही ले रखी है, फिर भी विष्णु भांडेपाटील को रिवॉल्वर सामने देखना अच्छा नहीं लगता था। प्रतिभा की नजर जब भी उस चकमते हुए हथियार पर पड़ती, तो वह मन ही मन प्रार्थना करने लगती थी। बड़ा हो रहा सौरभ भी उत्सुकता और जिज्ञासा से उसकी ओर देखता रहता था। सिर्फ वक्त और रिवॉल्वर ही यह जानती थी कि इसका प्रयोग होना है क्या? यदि होना है तो कब और किसके विरुद्ध?
परिवार के सभी सदस्य सामान्य हो गए थे, या सामान्य होने का ढोंग कर रहे थे, पता नहीं। किसी को दुःख न पहुंचे इस लिहाज से प्रत्येक व्यक्ति अपनी पीड़ा को अपने दिल में ही दबाए संकेत की याद में एकांत में आंसू बहा लेता था। घर की दीवारों के कोनों के पास इसका हिसाब था कि सूर्यकान्त, प्रतिभा और सौरभ कितनी बार अकेले में रोए लेते थे। इनके आंसू थे कि सूखते ही नहीं थे और लहू ढेकणे जेल में कोर्ट के फैसले की प्रतीक्षा में सरकारी रोटियां तोड़-तोड़ कर अपना शरीर बना रहा था। संकेत...संकेत ...संकेत दिल दिमाग और आंखों के सामने इस इस बच्चे की यादें हटने का नाम ही नहीं लेती थीं। सूर्यकान्त के मन में आया कि संकेत कि याद में कोई रचनात्मक कार्य किया जाना चाहिए। ऐसी ही विचार प्रक्रिया के बीच से जन्म हुआ एक उत्सव का। शिरवळ में छत्रपति शिवाजी महाराज क्रीड़ा प्रतिष्ठान की ओर से 30अक्टूबर से 2 नवंबर के बीच संकेत भांडेपाटील स्मृति चषक के लिए राज्य स्तरीय कबड्डी प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। इस प्रतियोगिता को जिस तरीके से भव्य प्रतिक्रिया मिली उससे भांडेपाटील परिवार को बड़ा संतोष हुआ।
इस सफलता से प्रेरित होकर अगले साल 2001 में अपने भविष्य के लिए रकम एकत्र करने के लिए स्वीमिंग चैंपियन पिता-पुत्री की जोड़ी सतीश और स्नेहल कदम शिरवळ आई। इन दोनों के पराक्रम और सफलता से प्रेरित होकर सूर्यकान्त भी अपने बेटे सौरभ को तैराकी सिखाने लगा। इसी बहाने वह अपने बेटे के साथ अधिक समय गुजारने लगा था। सौरभ का साथ देने के लिए सूर्यकान्त ने भी नीरा नदी में छलांग लगाई। शिरवळ में प्रतियोगिता हो या अभ्यास, नीरा नदी के अलावा और कोई विकल्प था ही नहीं। कोच की कमी, साधनों के बारे में जानकारी न होना, ट्रेनिंग का अभाव के बावजूद पिता-पुत्र दोनों अपने जोश और जुनून के सहारे सतत तैरते रहे, सीखते रहे।
इस सबके बीच सूर्यकान्त बिना नागा, नियमित रूप से संकेत केस की सुनवाई के लिए कोर्ट में हाजिर रहता था। ध्यानपूर्वक दलीलों को सुनता, लहू को देखता तो मन में अनेक भावनाएं उमड़ती थीं पर सूर्यकान्त बड़ी मुश्किल से खुद पर काबू रख पाता था। अकेले सूर्यकान्त को ही नहीं, पूरे शिरवळ को संकेत के केस के फैवले की प्रतीक्षा थी।
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गुरुवार 08/08/2002
सातारा सेशन्स कोर्ट में अच्छी-खासी भीड़ थी। सूर्यकान्त अपने मित्रों के साथ वहां मौजूद था। सभी सांस रोककर बैठे था, आज फैसले का दिन था। न्यायमूर्ति एनके गुंजोतीकरे ने संकेत अपहरण और हत्या के अपराध में लहू रामचन्द्र ढेकणे को दोषी करार दिया। इसपर किसी को हैरानी नहीं हुई। इसके बाद उसे जन्मकैद की सजा सुनाई गई। यह सुनकर सूर्यकान्त को निराशा हुई। ऐसे क्रूर हत्यारे को तो फांसी की सजा होनी चाहिए थे, तुरंत।
सभी ने सूर्यकान्त को समझाया कि अभी अमित सोनावने प्रकरण का फैसला आना बाकी है। लहू उससे तो बच ही नहीं सकता। इसके अलावा उनके पास आगे अपील करने का भी समय होगा। हो सकता है कि राज्य सरकार ही आगे अपील करे। भांडेपाटील परिवार किसी की मौत की कामना नहीं करना चाहता था लेकिन उस रात किसी ने घर पर भोजन नहीं किया। किसी की भी नजर के सामने से संकेत हट ही नहीं रहा था।
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मंगलवार 07/10/2003
नीरा रहवासी अमित चंद्रकान्त सोनावणे(उम्र 13 साल) के अपहरण और खून के मामले में पुणे के एडिशनल सेशन्स जज वीवी बोरिकरे ने लहू रामचन्द्र ढेकणे को कसूरवार ठहराते हुए फैसला दिया। सभी को आतुरता से प्रतीक्षा थी कि इस मामले में इस नराधम को क्या सजा मिलने वाली है। कोई भी कड़ी से कड़ी सजा भी कम ही होगी।
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बुधवार 08/10/2003
जज वीवी बोरिकरे ने अमित सोनावणे के अपहरण और हत्या के अपराध में लहू रामचन्द्र ढेकणे को मृत्युदंड की सजा सुनाई। इसे सुनकर समूचे पुणे जिले में संतोष की लहर फैल गई। सभी चाहते थे कि इस नराधम को जल्द से जल्द फांसी पर लटका दिया जाए। ऐसे आदमी को अधिक समय तक जिंदा रखना ठीक नहीं है।
अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार
©प्रफुल शाह
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