लेखक: प्रफुल शाह
खण्ड 67
मंगलवार 18/07/2000
सातारा पुलिस की जांच-पड़ताल और सवाल-जवाबों का सिलसिला चालू था। लहू ढेकणे को कोर्ट में हाजिर करने के बाद आठ दिन की यानी 24 जुलाई तक की पुलिस कस्टडी ले ली गई थी। पुलिस को अब उससे अधिक पूछताछ की आवश्यकता भी नहीं थी।
साई विहार में सभी उदास थे। एकदम गुमसुम। उदासी के बादल घर से हिलने का नाम ही नहीं ले रहा था। फिर भी सूर्यकान्त मित्रमंडली के साथ दौड़भाग कर रहा था। संकेत अपहरण केस का खुलासा हो चुका था। कुछ भी शेष नहीं था। सरकारी सिक्योरिटी पुलिस विष्णु मर्डेकर छुट्टी की अर्जी देकर अपने गांव निकल गया था। केस पूर्णता पर थी। अपराधी लहू पुलिस के कब्जे में था। अब कोई खतरा नहीं था।
अब तक पुलिस और भांडेपाटील परिवार को समझ में आ गया था कि संकेत के साथ क्या हुआ था, किसने किया था, क्यों किया था। खबरें अखबारों में छपकर आने लगीं। उन्हें पढ़कर न केवल शिरवळ गांव, बल्कि पूरा महाराष्ट्र हिल गया।
सूर्यकान्त ने घर में सबको चेताया,
“सब लोग अपने-अपने काम से लग जाएं। अब घर में बैठकर संकेत वापस तो आने वाला नहीं है। भाग्य में जितना बदा था उतना उसका साथ और स्नेह हमें मिला। प्रतिभा आज से तुम फिर से स्कूल जाना शुरू करो। स्कूल में ऐसे कितने ही संकेत होंगे जिन्हें तुम्हारे प्रेम, शिक्षा, परवरिश और मार्गदर्शन की आवश्यकता है।”
जनाबाई कुछ बोलतीं इसके पहले विष्णु भांडेपाटील ने सूर्यकान्त की तरफदारी करते हुए कहा,
“उसका कहना बिलकुल ठीक है। संकेत के बारे में सच सामने आने से पहले ही सब बहुत दुखी और उदास थे। खूब रोए हम सब। अब भी ऐसा ही चलता रहा तो किसी न किसी की तबीयत जरूर बिगड़ेगी। इससे अच्छा है कि सभी लोग अपने आपको संभालें। हिम्मत रखें। अपने-अपने काम से लग जाएं। अब जैसी भगवान की मर्जी।”
प्रतिभा, जनाबाई से लिपटकर रोने लगी। लेकिन जल्द ही संभल गई। विष्णु भांडेपाटील ने एक बुजुर्ग की जिम्मेदारी निभाई,
“सूर्यकान्त तुम कबसे अपने काम पर जाओगे? बेटा, तुमने खूब दौड़ाभाग की है। संघर्ष किया है। नियती से दो-दो हाथ किए हैं। जान की भी परवाह नहीं की। बदनामी सहन की। थक गए होगे। कुछ दिन आराम करो और फिर तुम भी अपने काम से लग जाओ।”
सूर्यकान्त संकेत के फोटो की तरफ देखते हुए बोला,
“संकेत तो अब बहुत दूर निकल गया है। लेकिन उसका खूनी कानून के शिकंजे से बचने न पाए। मैं लहू के विरुद्ध सारे सबूत जुटाने में लगा हुआ हूं। इस काम में कुछ और दिन लग सकते हैं। इसी के साथ मैं अब अपने काम-धंधे में से भी लगता हूं।”
प्रतिभा को स्कूल में देखकर सभी स्तब्ध रह गए। उसे देखकर शिक्षक हाथ जोड़कर खड़े हो जाते थे। सबके चेहरे पर एक दुःख था, विषाद था। संकेत के गाल खींचने वाली और उसको पप्पी देने वाली दोनों लड़कियां प्रतिभा से चिपटकर रोने लगीं। प्रतिभा ने दोनों को समझाया और कक्षा में भेजा। अपनी कक्षा में जाकर बच्चों को पढ़ाना शुरू किया।
सूर्यकान्त और रफीक़ एक डायरी और पेन साथ लेकर बैठे।
“रफीक़ भाई मैं संकेत के डिटेल्स पढ़ता हूं। हम ढूंढ़ते हैं कि कहां क्या मिल सकता है।”
रफीक़ ने धीमी आवाज में कहा,
“अगर थोड़ा आराम करना चाहते हों तो, कर लीजिए। मैं दो घंटे बाद आता हूं।”
“नहीं। अब तो जिंदगी भर आराम करना है। आराम करने के चक्कर में कहीं कोई जरूरी सुराग, सबूत हमारे हाथ से निकल न जाए। संकेत के प्रति प्रेम व्यक्त करने के लिए ही ये सब करना है। लहू किसी भी प्रकार के सबूत की कमी के कारण कानून से बचने न पाए....उसने मेरे संकेत को....”
सूर्यकान्त आगे कुछ नहीं बोल पाया। रफीक़ ने पास में रखा हुआ पानी का ग्लास उसकी ओर बढ़ाया। सूर्यकान्त ने थोड़ा पानी पिया। थोड़ी शांति मिली।
“ध्यान से सुनिए...लहू दोपहर साढ़े बारह बजे संकेत को लेकर गया। स्कूटर से दोनों शिरवळ बाजार से एनएच4 हाइवे पर पहुंचे। उसी रोड से दोनों बारह किलोमीटर दूर आगे खंडाला पहुंचे। खंडाला एसटी स्टैंड के पास पान की टपरी से संकेत के लिए चॉकलेट और बिस्किट खरीदे...वहां से आगे वाई पहुंचा और एसटीडी बूथ से फोन किया। ये पहला कॉल था जो फातिमा ने रिसीव किया था। उसके बाद मन में कोई विचार लेकर वह वाई से रिटर्न हुआ। शेंदूरजणे गांव पहुंचा...वहां रास्ते से लगा हुआ एक गटर...गटर से जुड़ा हुआ बड़ा खेत दिखाई दिया...दोपहर दो बजे के करीब वह संकेत को लेकर खेत में घुसा और सवा दो बजे उसने संकेत का खात्मा कर दिया। ”
रफीक़ अचंभित हुआ... ‘सूर्यकान्त किस मिट्टी से बना हुआ इंसान है...कलेजे पर पत्थर रखकर अपने बेटे के साथ घटी अंतिम घटना का वर्णन कर रहा है...इस आदमी मन की क्या हालत हो रही होगी इस तरह का वर्णन करते हुए...सूर्यकान्त भाऊ के कलेजे के टुकड़े-टुकड़े हो रहे होंगे....’
सूर्यकान्त ने दूसरा कागज उठाया। उसे नजरों के सामने रखकर आगे बोलना शुरू किया,
“रफीक़ भाई, अमित और संकेत का अपराधी एक ही है। अमित के केस को देखा जाए तो...चंद्रकान्त सोनावणे की दुकान का काम लहू ने किया था। काम के सिलसिले में उनके घर पर आना-जाना भी लगा रहता होगा उसका...इस कारण अमित से पहचान भी हो गई होगी...मोटरसाइकिल से राउंड मारने का लालच दिखाकर उसने अमित को स्कूल से उठाया। नीरा गांव से नीरा नदी की ओर मुड़ा। नदी का पुल पार करके लोणंद रोड पर आगे बढ़ा...पहले से तैयारी कर रखी थी उसी के हिसाब से प्लास्टिक फैक्ट्री के पास बाइक खड़ी की...फैक्ट्री के कचरे ढेर में पड़ी हुई सफेद नायलॉन की पट्टी उठाई और फिर अमित को लेकर राउडी गांव को ओर चल पड़ा। राउडी के सुनसान खेत में प्लास्टिक की पट्टी की मदद से अमित का गला घोंटकर हत्या कर दी। कपड़े थोड़ी दूर पर दबा दिए...और फिर वह वहां से आगे बढ़ गया....”
उसी समय साई विहार के गेट पर रजिस्टर्ड एडी से सूर्यकान्त के लिए पत्र लेकर पोस्टमैन आया। दरवाजे की घंट बजी। पहचान वाले पोस्टमैन ने सही करवाई और विष्णु भांडेपाटील के हाथ में लिफाफा दिया। उसे लेकर वह घर के भीतर आए। सूर्यकान्त कागज पर कुछ लिख रहा था। लिफाफा रफीक़ के हाथो में थमाकर विष्णु वहीं पर बैठ गए। रफीक़ ने पत्र के ऊपर लिखे नाम को पढ़ा।
“आपका रजिस्टर्ड पत्र आया है।”
“खोलिए और पढ़िए। आपसे कुछ छिपाया जाता है क्या?”
इस वाक्य को सुनकर रफीक़ को खुशी भी हुई और आश्चर्य भी। सूर्यकान्त को मुझ पर इतना भरोसा? उसने कवर खोला और पत्र पढ़ा। पहले सूर्यकान्त की ओर फिर विष्णु भांडेपाटील की तरफ देखा।
प्रश्न भरी नजरों से भौंहें उचकाते हुए विष्णु ने तुरंत सवाल किया,
“कैसा पत्र है? सरकारी दिखता है...”
रफीक़ की जीभ अटकने लगी...क्या बताया जाए, उसे सूझ ही नहीं रहा था।
“चाचा... ये तो....वो है न...”
सूर्यकान्त ने उसे टोका,
“कुछ भी छिपाने की जरूरत नहीं...जो होगा बता डालो।”
रफीक धीरे से बुदबदाया
“जी वो...लाइसेंस है....रिवॉल्वर पास रखने की मंजूरी...रिवॉल्वर खरीदने का लाइसेंस है।”
सुनते ही विष्णु गरज पड़े,
“किसलिये? रिवॉल्वर का लाइसेंस?...सूर्या....ये सब क्या है? तुम्हें लाइसेंस से क्या काम? हम किसान लोग...खेती छोड़कर मैंने नौकरी को स्वीकारा...तुम्हारी जिद के कारण तुमको धंधा करने दिया। अब ये बंदूक खरीद कर तुम कौन सा काम करने वाले हो बताओ जरा?”
“बाबा...वो मैंने....” सूर्यकान्त बोल ही रहा था कि उसे विष्णु ने बीच में ही टोक दिया,
“घर में किसी से पूछा भी था? इस बारे में बात की थी? मुझे मरा हुआ समझ लिया है क्या? इस कागज के बारे में तुमने मुझसे एक शब्द भी कहा?”
सूर्यकान्त समझाइश देने लगा,
“मुझे यह बात मंजूर है कि इस बारे में घर में किसी से बात नहीं हुई है। इतनी भागदौड़ और धमाल मची थी कि बताना भूल ही गया। ”
विष्णु भांडेपाटील की जुबान और कड़ी हो गई।
“बताना भूल गए? ऐसे कैसे भूल गए? और तुम बताने कब वाले थे? किसी पर गोलियां चलाने के बाद?”
“बाबा, आपको जितना गुस्सा करना हो, कर लें। मेरा इस बारे में आपसे कोई विरोध नहीं है। लेकिन पहले मेरी बात सुन तो लें। रामराव पवार आए थे। मैं उनसे मिलने गया था। संकेत का केस उन्हें मालूम था। लहू रोज नई-नई धमकियां दे रहा था। हम सबकी जान को खतरा था।”
“इसलिए रिवॉल्वर ले लेगो? किसान से बिल्डर बन गए अब बंदूक खरीदकर गुंडा बनने का इरादा है क्या?”
विष्णु की गोलीबारी धड़ाधड़ जारी थी।
“ऐसा कुछ नहीं है बाबा। पवार साहब ने आग्रह किया कि लाइसेंस ले कर रखो, कभी बुरा वक्त आ ही जाए तो इसका उपयोग हो सकता है। रिवॉल्वर अपनी सुरक्षा के लिए जरूरी है। साहेब ने पुलिस वालों की तरफ से ही फॉर्म भरकर भिजवा दिया था। मैंने चुपचाप सही कर दी थी। उसके बाद संकेत के लिए भागदौड़ में बताना भूल गया।”
“अच्छा, तो अब इस लाइसेंस का क्या करोगे?”
“कुछ नहीं, मैंने फॉर्म भरते समय ही फैसला कर लिया था कि रिवॉल्वर नहीं खरीदनी है... ये कागज फाइल में पड़ा रहेगा।”
विष्णु पाटील चुपचाप अंदर के कमरे में निकल गए। रफीक़ ने टाइमिंग गेम खेलते हुए फुसफुसाते हुए पूछा,
“भाऊ...आप सचमुच रिवॉल्वर नहीं खरीदेंगे?”
“ये कवर यहीं रहेगा हमेशा...डोंट वरी...आगे जो कुछ भी करना है वो मैं नहीं करूंगा...और जो कुछ होगा उसमें मेरी आवश्यकता नहीं पड़ेगी।”
सातारा स्थानीय अपराध शाखा की जांच पड़ताल समाप्ति की ओर थी। अब पूछने को कुछ शेष रहा भी नहीं था। लहू ढेकणे ने दोनों अपहरणों और हत्याओं को कबूल कर लिया था। पुलिस चार्जशीट तैयार करने में जुट गई थी। लहू दोनों समय बढ़िया दबाकर खाना खाता था, बढ़िया नींद लेता था, आराम करता था। ऐसा लग रहा था मानो वह वेकेशन एंजॉय कर रहा है। पुलिस वालों ने बहुत अपराधी देखे थे लेकिन लहू जैसा पहले कभी नहीं देखा। अपने कुकर्मों की उसको कोई चिंता नहीं थी न ही पछतावा था। दिल-दिमाग पर अपने पाप का कोई दबाव भी नहीं था। दो खून का अपराध करने के बाद पकड़े जाने की न तो शर्म थी, न लाज। भविष्य क्या, आगे क्या होगा इसकी चिंता नहीं थी। चेहरे पर लेशमात्र फिक्र नहीं झलक रही थी। लेकिन, उसके दिमाग में जरूर भयंकर विचार चल रहे थे। यदि पुलिस वाले अपराधियों के दिमाग में चल रही बातें पढ़ पाते तो? पुलिस वालों की नींद उड़ गई होती, आराम हराम हो गया होता। भूख-प्यास उड़ गई होती और नौकरी दांव पर लग गई होती।
अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार
©प्रफुल शाह
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