लेखक: प्रफुल शाह
खण्ड 64
बुधवार 19/07/2000
अंकुश को मॉं और पत्नी का डर दिखाते ही वह लहू बात करने के लिए चला गया था। मांगे थे दस मिनट, लेकिन अंकुश सिर्फ तीन मिनट में ही वापस आ गया। सूर्यकान्त की विचारतंद्रा को तोड़ते हुए अंकुश ने बताया,
“हां साहब, सब कुछ लहू ने ही किया है।”
इतना सुनते ही सूर्यकान्त के सर से पांव तक आग लग गई। उसका चेहरा गुस्से से लाल हो गया। क्रोध, हताशा और वेदना-सभी भाव एकसाथ उसके चेहरे पर आ गए थे। सूर्यकान्त के चेहरे के हावभाव बदलते जा रहे थे। वह अंकुश या लहू के साथ कुछ बुरा बर्ताव कर बैठेगा इस विचार से तीन-चार पुलिस कर्मियों ने सूर्यकान्त को पकड़कर रखा।
दोपहर चार बजे पुलिस लहू को भीतर की कोठड़ी में लेकर गई। वहां उसका स्टेटमेंट लिखा जा रहा था। सूर्यकान्त और उसके दोस्त बाहर बैठे हुए थे। सूर्यकान्त अचानक उठा और कोठड़ी में जाकर कहने लगा,
“इसका स्टेटमेंट लिखने के बजाय रेकॉर्ड कर लें। उसकी आवाज में सब जगह कबूली रेकॉर्ड होगी। सबूत रहेगा और सबकुछ जल्दी खत्म होगा। आप बाद में आराम से स्टेटमेंट लिखते बैठें।”
अब पुलिस में भी सूर्यकान्त का दबदबा बढ़ गया था। उसके प्रति सम्मान और विश्वास भी मजबूत हो गया था। पुलिस को उसकी सलाह व्यावहारिक और सही मालूम हुई। सूर्यकान्त फिर से बाहर आकर बैठ गया।
अब तक, लहू को घर से उठाकर लाने की खबर हवा के वेग से शिरवळ और आसपास के इलाकों में पहुंच चुकी थी। भांडेपाटील परिवार और उनके सगे-संबंधी, दोस्त परिवार और बाकी सातारावासी परिचितों की भीड़ क्राइम ब्रांच परिसर में जुटने लगी। लहू क्या बताएगा, पुलिस का क्या जवाब होगा, इससे ज्यादा लोगों का ध्यान इस सवाल के जवाब पर था कि संकेत कहां है। लगातार आ रहे फोन कॉल से सूर्यकान्त परेशान हो गया था। आखिर उसने फोन पर बता ही दिया,
“लहू ने सबकुछ कबूल कर लिया है। पुलिस वाले भीतर उससे पूछताछ कर रहे हैं। उनको सब बता रहा है। मुझे अभी ज्यादा कुछ मालूम नहीं है।”
सूर्यकान्त की बगल में विष्णु मर्डेकर बैठा था। सूर्यकान्त के फोन पर बारबार प्रेमजी भाई पटेल सरीखे मित्रों के फोन आ रहे थे कि क्या हुआ? वो कुछ बोला क्या? घर से उसे फोन आ रहे थे लेकिन उसने तय कर लिया था कि अभी घर वालों को कुछ भी नहीं बताना है। भीतर कोठड़ी में पुलिस और लहू के बीच कुछ भी चल रहा होगा, लेकिन बाहर बैठे हुए सूर्यकान्त ने अपने भीतर प्रज्ज्वलित हुए ज्वालामुखी को बड़ी कोशिशों से काबू करके रखा हुआ था और चेहरे पर शांति का मुखौटा ओढ़ रखा था। सूर्यकान्त के मन में अत्यधिक चलबिचल थी, बेचैनी हो रही थी, उसका दम घुट रहा था। अलग की तरह का बोझ ने उसके दिल और दिमाग पर कब्जा कर लिया था। इतने दिनों बाद, इतने हफ्ते बाद, इतने महीनों बाद संकेत सुरक्षित तो होना ना?
कॉन्सटेबल रमेश देशमुख शाम को साढ़े पांच बजे अंदर की कोठड़ी से बाहर निकलकर आए। उन्होंने सूर्यकान्त के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा,
“चलिए, हमें निकलना होगा, वह हमें कुछ बताना चाहता है, कुछ दिखाना चाहता है।”
फलटण के डिप्टी पुलिस सुपरिटेंडेंट संजय ऐनपुरे, सदानंद बेलसरे, रमेश देशमुख, राजेन्द्र कदम, मोज़ेस लोबो, पप्पू घोरपड़े, अविनाश शेजाल, अविनाश पवार, पानसरे, वाघमारे वगैरह की फौज लहू ढेकणे को लेकर गाड़ी की तरफ चलने लगी। ये सभी लोग पुलिस की बड़ी गाड़ी में बैठ गए। सूर्यकान्त की गाड़ी में सूर्यकान्त, मर्डेकर और कॉन्स्टेबल रमेश देशमुख बैठे।
प्रतिभा की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। उसके आसपास लोगों की भीड़ बढ़ रही थी। दौड़भाग चालू थी लेकिन उस तक आवाज न पहुंचने पाए इसकी सावधानी भी बरती जा रही थी। उसकी नजरें घर भर में घूमने लगीं। संकेत के हाथ में तिरंगा पकड़े हुए फोटो की ओर उसका ध्यान गया। किसी अनजान कारण की वजह से वह हिचकियां लेकर रोने लगी।
सूर्यकान्त के पास उसके दोस्तों के लगातार फोन आते जा रहे थे,
“हमको भी अपने साथ चलने दो। कहां पहुंचना है, बताओ। हम लोग शिरवळ से निकल चुके हैं।”
कॉन्स्टेबल रमेश देशमुख ने सूर्यकान्त को सख्त ताकीद दी,
“इस समय किसी को भी मत बुलाइए।”
सूर्यकान्त ने थोड़ा चिढ़कर पूछा,
“सभी लोग ऑलरेडी शिरवळ से निकल चुके हैं, उन्हें कहां पहुंचने के लिए कहूं?”
“देशमुख ने अपने नाराजगी को छिपाते हुए सूर्यकान्त का फोन अपने हाथ में लिया और जवाब दिया”
“शिरवळ से सीधे सुरूर पहुंचना है। वहां पहुंच कर गाड़ी सूर्यकान्त भाऊ की बजाय आपमें से कोई एक चलाए।”
इस वाक्य का अर्थ खुद सूर्यकान्त भी नहीं समझ पाया था। लेकिन इस समय इन सब बातों का विचार करने का कोई मतलब नहीं था।
शाम को छह बजे के आसपास नेशनल हाईवे नंबर चार के सुरूर चौक पर गाड़ियां पहुंचीं। सूर्यकान्त और पुलिस दल जब सातारा से चालीस किलोमीटर की दूरी तय करके सुरूर पहुंचा तब शिरवळ का मित्रमंडल को वहां पहुंचने के लिए केवल बीस किलोमीटर चलना पड़ा था। दस-बारह गाड़ियां भरकर संजय भांडेपाटील, प्रेम जी पटेल, गुरुदेव भर्दाडे, राजेन्द्र तांबे, रवीन्द्र नाना पानसरे और रफीक़ मुजावर सहित और भी कुछ लोग सुरूर चौक पर उनकी राह देखते रुके हुए थे। इतनी बड़ी संख्या में वहां पर पहुंचे लोगों को देखकर पुलिस को बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा। लेकिन अब कोई कुछ भी सुनने की मानसिक तैयारी में नहीं था।
डीवायएसपी संजय ऐनपुरे ने भी कड़क नजरों से अपने चेहरे पर नाराजगी के भाव लाकर सूर्यकान्त की तरफ देखा। सूर्यकान्त ने कंधे उचकाते हुए ऐसा दर्शाया ‘इसके लिए मैं कुछ नहीं कर सकता।’ प्रेम जी पटेल ने सूर्यकान्त की गाड़ी की ड्राइवर सीट का जिम्मा संभाल लिया। गाड़ी शुरू करने से पहले सभी पूछ रहे थे कि कहां जाना है। पुलिस ने बस इतना ही बताया कि वाई के रास्ते पर जाना है।
दल बल के सबसे आगे पुलिस की बड़ी गाड़ी लहू को लेकर चल रही थी। बाकी गाड़ियां उस बड़ी गाड़ी को फॉलो करते हुए चल पड़ीं। बड़ी गाड़ी में बैठा हुआ लहू पुलिस को कुछ बता रहा था। कोई जगह दिखाने की कोशिश कर रहा था। इस वजह से पुलिस की बड़ी गाड़ी सड़क की बांई तरफ धीरे-धीरे चल रही थी। अंधेरा बढ़ता जा रहा था। उस पर से बरसात के दिन थे। लहू ने दो बार गाड़ी रुकवाई, फिर वो खुद ही भ्रमित हो गया। शायद उसे ठीक से जगह याद नहीं आ रही थी। फिर से बड़ी गाड़ी रास्ते के किनारे-किनारे बढ़ने लगी। उसके पीछे दूसरी गाड़ियां चल रही थीं।
नीरा गांव से चंद्रकान्त बार-बार सूर्यकान्त को फोन लगा रहा था। लेकिन सूर्यकान्त उसका फोन रिसीव नहीं कर रहा था। दोनों पिता अपने-अपने बेटों की चिंता से घिरे हुए थे। आसमान में बादलों की गड़गड़ाहट सुनाई दी। सूर्यकान्त और चंद्रकान्त पर नियति क्रूर अट्टहास कर रही थी।
शेंदूरणे गाव आ गया। उसके रास्ते के दोनों तरफ खेतों में हल्दी की खेती दिखाई दे रही थी। लहू एक बार फिर चकरा गया। उसे जगह याद नहीं आ रही थी। इतने में उसे रास्ते के बाजू में लकड़ी की टाल दिखाई दी। और फिर उसे कुछ याद आया लेकिन फिर भी वह असमंजस में पड़ा हुआ था कि यहां पर गन्ने के खेत थे या नहीं? अभी तो हल्दी के खेत दिखाई दे रहे हैं। शेंदूरगाव के रास्ते पर पुलिस ने बड़ी गाड़ी रोकी। पुलिस ने सूर्यकान्त को गाड़ी से नीचे उतरने से मना किया।
“आप गाड़ी में ही रुकें, हम अभी आते हैं।”
लेकिन वह उनकी किसी भी बात को सुनने की मनःस्थिति में था ही नहीं। कुछ दिनों पहले उसकी मारुति कार इसी जगह पर बंद पड़ गई थी और वह बुरी तरह परेशान हो गया था। इस बार फिर सूर्यकान्त उसी व्यग्रता में फंस गया।
वह गाड़ी से उतरकर धीमे कदमों से चलने लगा। उससे कुछ कदम आगे लहू ढेकणे संजय ऐनपुरे को कुछ बता रहा था,
“मैं उसे गन्ना खिलाने यहां लेकर आया था। आसपास कोई न हो, मैं इस बात का पूरा ध्यान रख रहा था। उसको लेकर मैं खेतों में आठ-दस फुट अंदर आया। उसको नीचे बिठाया उसके बाजू में बैठकर उसकी पीठ पर प्रेम से हाथ फेरते हुए पूछा तुमको गन्ना खाना है न? उसने गर्दन हिलाकर हां कहा। मैंने उससे कहा कि मैं तुम्हारे लिए गन्ना तोड़कर लाता हूं लेकिन तुम अपने नए स्पोर्ट शूज उतार कर रख दो। कीचड़ में गंदे हो जाएंगे। फिर मैंने ही उसके जूते उतार दिए। उसमें से लेस निकाली। वह गन्ने की राह देख रहा था...लेकिन मैंने तुरंत शू लेस उसके गले के चारों तरफ कसकर बांधी और लेस के दोनों किनारे खींचते चला गया। ज्यादा देर नहीं लगी उसको. आसानी से फिनिश कर दिया... ”
लहू के आखरी दो वाक्यों के समय सूर्यकान्त उसके बहुत नजदीक पहुंच चुका था। संजय ऐनपुरे ने सूर्यकान्त को एक बार फिर से दूर जाने का निवेदन किया। सूर्यकान्त थोड़ा दूर निकल गया और ऐनपुरे लहू को लेकर और थोड़ा सामने बढ़े। सूर्यकान्त और लहू के बीच सुरक्षित दूरी देखकर ऐनपुरे ने लहू से सवाल किया,
“उसके कपड़ों का क्या किया? कपड़े कहां हैं?”
लहू ने एकदम गैरजिम्मेदारी से जवाब दिया,
“काम खत्म होने के बाद मैंने उसके कपड़े उतार दिए।”
ऐनपुरे ने आश्चर्य से पूछा,
“क्यों,कपड़े क्यों उतार लिए?”
“साहेब, कपड़े सफेद रंग के थे। रिफ्लेक्शन पड़ता कि नहीं। अंधेरे में भी यदि कोई गन्ने को पानी देने आता तो तुरंत दिखाई पड़ जाते न? शरीर का रंग मिट्टी जैसा होता है इसलिए जल्दी से मालूम नहीं पड़ता। मैंने हाथ से ही थोड़ी सी मिट्टी खोदकर निकाली और उसके कपड़े उस मिट्टी में गाड़ दिए।”
संजय ऐनपुरे को समझ में आ गया था कि लहू के पास लाश को ठिकाने लगाने के लिए समय, पैसे, कूव्वत और इच्छा भी नहीं थी। उसे घटनास्थल से तुरंत भागना था। ऐनपुरे ने सवाल किया,
“इतने छोटे बच्चे के बूटों के लेस से गला कैसे घोंटा जा सकता है?”
सवाल पूछने के बाद उन्होंने यूं ही पीछे मुड़कर देखा तो सूर्यकान्त एकदम पास खड़ा था। उसने आखरी सवाल ठीक से सुन लिया था। सूर्यकान्त गुस्से से भर उठा।
“कैसे पागल आईपीएस हैं आप? अंधेरा बढ़ता जा रहा है...संकेत के बारे में छोड़ दीजिए अब...अमित कहां है उससे पहले यह पूछना शुरू करें...”
एक व्यथित पिता ने अपना सारा दुःख किनारे रख दिल पर पत्थर रख लिया था। उसे लगा कि संकेत केवल साढ़े तीन साल का कोमल बच्चा था। उस पर से उसे गुमे हुए सात-आठ महीने हो चुके थे...इस वजह से वह अब शायद...उधर अमित तेरह साल का लड़का था और उसकी किडनैपिंग हुए अभी दस ही दिन हुए थे...अमित के सुरक्षित मिलने की संभावना अधिक थी।
सूर्यकान्त की गुस्से भरी ऊंची आवाज सुनकर सभी उसके पास आ गए। वह पुलिस की कार्यशैली पर भड़क रहा था। ऐनपुरे का इशारा पाकर विष्णु मर्डेकर अब सूर्यकान्त से दूरी बनाकर खड़ा हुआ था। उसे सूर्यकान्त से सुरक्षित दूरी बनाकर खड़े रहने की सलाह दी गई थी उसकी वजह एक ही थी कि गुस्से के जोर में, आवेश में आकर उसके हाथों की स्टेनगन छीनकर कहीं कुछ उल्टा-सीधा कर बैठा तो?
सूर्यकान्त के सभी मित्र उसे शांत करने में जुट गए। उसे लहू से दूर लेकर जाने लगे। कुछ लोग पुलिस से चर्चा करने लगे।
रफीक़ मुजावर ने हिम्मत जुटाकर संजय ऐनपुरे और लहू के पास जाकर सलाह दी
“सूर्यकान्त भाऊ ठीक कह रहे हैं...इससे अमित के बारे में पूछना शुरू करें...अमित को खोजें।”
डीवाईएसपी ऐनपुरे को यह सलाह जंच गई।
अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार
©प्रफुल शाह