Prem Gali ati Sankari - 88 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 88

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प्रेम गली अति साँकरी - 88

88---

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इंसान की कैफ़ियत है। उसे जिससे दूर जाना होता है, उसके बारे में ही ज्यादा सोचता है | यानि सोचना कोई ऐसी क्रिया नहीं है जिसमें वह जान-बूझकर कूदे या फिर उसे करना या न करना चाहे | यह तो अपने आप ही साँस जैसे चलती रहती है, पिघलती रहती है, मचलती रहती है, ऐसी ही कोई प्रक्रिया है | कुछ करने से कुछ नहीं होता जैसे प्रेम करने की कोशिश से प्रेम नहीं होता | प्रेम जाने दिल की गलियों में से, साँसों की अनदेखी नसों, अनदेखी, अनपहचानी गलियों में अपने आप ऐसे समाने लगता है जैसे ईश्वर ने दिल के झरोखे में एक फूँक मारकर फुसफुसा दिया हो, जैसे सूरज को देखते ही सूरजमुखी की मुस्कान खिल उठती हो, जैसे रातरानी की महक हौले से मन के बंद द्वार में प्रवेश कर जाती हो | मेरे मन की स्थिति को कौन जान सकता था?मन ही मन को जाने और न जाने कोय !

मैं अर्ध अचेतनवस्था में क्या आई घर में मेरी तबियत पूछने वालों का मजमा जुडने लगा | रतनी और शीला दीदी तो संस्थान के मजबूत स्तंभ थे ही | उन दोनों के पति यानि रतनी के पति जय(जेम्स)और शीला दीदी के पति प्रमोद शुक्ल जो अब संस्थान का बाहर का काम देख रहे थे, वो और दिव्य और डॉली, यहाँ तक कि प्रमेश  जी की माँ जो कभी ही आती थीं मेरी तबियत के विषय में पूछने आए | लगभग सभी लोग तो संस्थान के अंपने  थे जिन्हें न तो कोई आने-जाने में रोक-टोक थी, न कोई सलाह देने-लेने में अब संकोच करते थे | हाँ, और सबसे महत्वपूर्ण प्रमेश बर्मन की दीदी जो अम्मा को प्रमेश से मेरी शादी की बात करने के लिए कभी भी फ़ोन लगा देती थीं | चुप्पी की पट्टी मुख पर चिपकाए प्रमेश!मैं कल्पना करने लगी थी कि अगर मेरी आचार्य प्रमेश बर्मन से

डॉली को देखकर तो मेरे मन में आया, ये छोटी सी बच्ची कितनी बड़ी हो गई ! वैसे वह आती-रहती थी कभी-कभी लेकिन कभी इस प्रकार से मेरी दृष्टि उस पर नहीं गई थी | आज लगा कि उसकी तो विवाह की उम्र हो गई थी----एक बार रतनी ने ज़िक्र किया था कि उसका कोई बॉय फ्रैंड था शायद----और मैंने उनसे कहा था कि वो इस बात को हल्के में न ले, वो खुद जानती है कि प्यार का खोना क्या होता है | उसके बाद मेरी इस विषय पर रतनी से कभी बात नहीं हुई | आज अचानक डॉली को देखकर मुझे वह बात याद आ गई | 

आजकल बच्चे इतनी जल्दी मैच्योर हो जाते हैं कि उन्हें किसी को कुछ समझाने की ज़रूरत ही नहीं होती | कभी कभी तो लगता है मानो माँ के गर्भ से सब कुछ सीख कर निकले हों | बाहरी प्रभाव से बच्चे सब कुछ सीख जाते हैं जबकि होना तो यह चाहिए कि परिवार में ही बच्चों को ट्रेनिंग दी जाए, उन्हें उनके भले-बुरे के बारे में सिखाया जाए, बाहर से तो बच्चे वही सीखकर आते हैं जिनमें उन्हें आकर्षण लगता है और उनकी रुचि होने लगती है | पता नहीं क्यों मैं डॉली के बारे में सोचने लगी थी | दिव्य ने अपने पिता की हरकतों से बहुत कुछ सीख लिया था लेकिन कोशिश यह की गई थी कि जहाँ तक हो सके डॉली को बचाया जा सके | वैसे यह मुश्किल तो था ही, एक छोटे से घर में जगन के व्यवहार का बच्चों पर प्रभाव न पड़ना लगभग असंभव ही था |  डॉली बड़े प्यार से मेरे पास आई थी और मेरी तबियत के बारे में पूछते हुए उसकी आँखें भर आई थीं | 

“रो क्यों रही है पगली ?”मैंने उसके सिर को प्यार से सहला दिया था | 

“नहीं दीदी, मैं रो नहीं रही हूँ, वो तो यूँ ही----”उसने अपना चेहरा मुझसे छिपाने की चेष्टा की थी | 

“विक्टर, कार्लोस ठीक हैं अब?” उसे उन दोनों से बहुत प्यार था और वह भी चौकीदार की पत्नी और बच्चों की तरह जब भी आती, बड़े से प्रांगण में या फिर लॉन में उनके साथ दौड़ लगाती रहती | 

कार्लोस, विक्टर के साथ बच्चों की तरह दौड़ लगाने वाली लड़की ‘प्रेम में है?’मेरे मन में रह रहकर तरंगें उठ रही थीं | रतनी को इसके बारे में ध्यान रखना चाहिए, आज का ज़माना बड़ा खराब है | दिल्ली में तो ऐसे केसेज़ की भरमार थी | कुछ न कुछ ऐसी बातें हो जाती थीं जिनके परिणाम भयंकर ही होते थे | आए दिन खबरें पढ़ लीजिए, देख लीजिए | इस उम्र के बच्चों के मन घबराहट से भर जाता है | 

थोड़ी देर बाद सब अपने-अपने काम की ओर चले गए थे, उत्पल भी | मेरीओर एक ठंडी दृष्टि डालना वह भूला  नहीं था | आचार्य प्रमेश बर्मन और उसकी दीदी को देखकर उसके चेहरे पर अप्रसन्नता की छाप स्पष्ट दिखाई दे  रही थी | वैसे ही बर्मन का नाम सुनकर वह ऐसे ही उखड़ने लगता था जैसे श्रेष्ठ को देखकर उखड़ जाता था | अब श्रेष्ठ तो उसे दिखाई नहीं देता था लेकिन प्रमेश का चुप्पी भर लटका चेहरा तो उसके सामने हर रोज़ ही आता था | 

खाना तो कबका हो ही चुका था, सिटिंग रूम में कॉफ़ी का दौर चल रहा था | मैं आराम करने अपने कमरे में जाना चाहती थी लेकिन प्रमेश की दीदी के बैठे रहने के कारण अम्मा चाहती थीं कि मैं कुछ देर उनके साथ बैठूँ | चुपचाप बैठी रही मैं एक कहना मानने वाली बच्ची की तरह और धीरे-धीरे कॉफ़ी की सिप लेती बैठी रही | 

“प्रमेश ! तुम यहाँ हर दिन आते हो, तुम्हें अमी से बात करनी चाहिए | एक दूसरे को जानना तो जरूरी है न!” प्रमेश की बड़ी बहन ऐसे बात कर रही थीं जैसे मेरा और प्रमेश की शादी पक्की ही हो गई है | मुझे थकान और ऊब लग रही थी और यह मेरे चेहरे पर स्पष्ट फैली हुई थी | इस चुप्पी भरे आदमी के साथ भला कैसे---?क्या और कैसे करूँ?पता नहीं अम्मा–पापा क्यों नहीं समझ पा तरहे थे, मैंने कितनी बार कहा भी तो था कि अगर मैं शादी नहीं करूँगी तो कौनसा आसमान टूट जाएगा?

“चलो, अमी दीदी आपको आपके कमरे में छोड़ आती हूँ---“अचानक शीला दीदी न जाने कहाँ से नमूदार हो गईं थीं | 

“मैम !इनको अब आराम करना चाहिए---”उन्होंने अम्मा से कहा | 

अम्मा पहले से ही कम से कम इस समय ये सब बातें करने के मूड में बिलकुल नहीं थीं | 

“ठीक है लेकिन तुम दोनों को बात करना माँगता---प्रोमेश !”

“ओमी!तुम भी बेटा, नाऊ बी सिन्सियर एबाउट---” मुझे लगा कि अगर मैं कुछ देर और वहाँ ठहरी तो वे मुझे प्रमेश के साथ डेट पर भेजकर ही दम लेंगी | 

अम्मा ने भी मुझे इशारे में वहाँ से खिसकने की हरी झंडी दे दी थी | 

मैंने प्रमेश की दीदी को प्रणाम किया और शीला दीदी के साथ वहाँ से निकल आई | 

“थैंक यू शीला दीदी---“बाहर निकलकर मैंने उनका हाथ दबाकर थैंक्स किया और उनके साथ अपने कमरे की ओर चल पड़ी |