Prem Gali ati Sankari - 87 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 87

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प्रेम गली अति साँकरी - 87

87----

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हद ही हो गई, सबके ही तो टीके लगे थे और सब बड़े मज़े में घर वापिस आए थे, मैं कोई अनोखी थी क्या? मेरी इस स्थिति से संस्थान का बड़े से लेकर छोटा बंदा तक मेरे लिए चिंतित हो गया था |  क्या मैं सबको परेशान करने के लिए ही हूँ ---कारण कोई भी हो? यह सोचकर मुझे बहुत खराब लगा मैं सोच रही थी कि कमरे में ही कुछ हल्का-फुल्का मँगवा लेती हूँ लेकिन रतनी और शीला दीदी के सामने चलती होगी मेरी !

“शीला दीदी ! अगर अभी आराम कर लूँ तो कैसा रहेगा?” मैंने ऐसे ही कह दिया | 

“सबके साथ खा लो, फिर आ जाना आराम करने, मैडम और सर इंतज़ार कर रहे होंगे | ”शीला दीदी बोलीं | 

“ठीक तो लग रहा है न ?”रतनी ने कुछ चिंता के स्वर में पूछा | 

“हाँ, हाँ वैसे तो ठीक ही है लेकिन जाने क्यों ऐसा लग रहा है जैसे आलस सा शरीर में उतर आया हो | ”

“हाँ, बेहोश हो गईं थीं तो थोड़ी कमज़ोरी तो होगी | बेचारा उत्पल कितना घबरा गया था, जैसे उससे कोई गलती हो गई हो---” शीला दीदी ने ऐसे ही कह दिया | 

“वो तो वैसे भी बहुत चिंता करता है----”रतनी के चेहरे पर मुस्कराहट फैली थी | 

“चेंज कर लूँ न ?” रतनी की बात पर ध्यान न देते हुए अपने बाथ-गाउन पर दृष्टिपात करते हुए मैंने कहा और अपने ड्रेसिंग में चली गई | 

“दरवाज़ा मत बंद करना ---”शीला दीदी इन्स्ट्रक्शन देने से नहीं चूकीं | 

उन्हें अब भी डर था कि मैं कहीं चक्कर खाकर न गिर पड़ूँ | 

ड्रैसिंग रूम में कपड़े बदलते समय मेरा दिल फिर से धड़कने लगा | वहाँ से लाने वाला भी मिला तो उत्पल ही, इतने लोग थे कोई भी ला सकता था | बेकार ही अपने मन का चोर चुगली खाता है | कौन ---ऐसा तो कौन था वहाँ जो मुझे इस तरह कंधे पर ढोकर लाता ? मन ने खुद से सवाल किया | उत्पल के रहते कोई संस्थान का कर्मचारी तो उठाकर ला नहीं सकता था | बाकी पापा, अम्मा थे और थीं सब लेडीज़---कभी ऐसी परिस्थिति में कोई भी ला सकता है लेकिन उत्पल को मेरे लिए भगवान हर जगह खड़ा करके रखते थे | 

चेंज करते समय मुझे अपने शरीर में से उसकी गंध ने फिर से घेर लिया और मैं और भी संकोच में नहा उठी | उसका स्पर्श जैसे मेरे शरीर पर चिपक गया था | जब उसने झुककर मुझे उठाया था तब मैं अर्धनिद्रा सी में थी लेकिन उसकी साँसों को मैंने महसूस किया था जो मेरे भीतर घुल गईं थीं जैसे | अच्छा लगने के साथ अब मुझे शीशे के सामने कपड़े बदलते हुए मैं जैसे अपने से ही छिपने की कोशिश कर रही थी | ये क्या हो रहा था, जितना मैं उससे दूर जाने की कोशिश कर रही थी, उतना ही उसकी गंध मुझे अपने पास खींच लाती थी | यही आकर्षण प्यार था क्या जो उसके इतना कुछ बताने के बावज़ूद भी कुछ दिन नाराज़गी में रहकर फिर से मन उसी की ओर झुक रहा था | अब कोई सोचे कि ऐसा तो कैसा और क्या था उस कम उम्र के लड़के में ?क्या मैं स्वयं जानती थी? अचानक मुझे उसका एक संवाद याद आ गया | 

“ये देखो!मेरी दाढ़ी सफ़ेद होने लगी है----”न जाने क्या बात करते हुए उसने मुझे जाने कैसे टटोलकर बड़ी मुश्किल से चार/छह बाल दिखाए थे और ठठाकर हँस पड़ा था | 

“आप कहती हो न, मैं बूढ़ी हो रही हूँ---और मुझे देखो, मैं भी तो---”

“पागल हो गए हो क्या?” समझ नहीं आ रहा था, उसके पागलपन को आखिर नाम क्या दूँ ?

“आपके बाल तो कितने सुंदर लगते हैं, सॉल्ट-पेपर ---आजकल कितना फैशन है, लोग तो पैसे खर्च करके करवाते हैं और आपके तो नेचुरल हैं | ”

यानि हर चीज़ में ईश्वर ने मुझे बैस्ट बनाया था, उसकी दृष्टि में | मैं मुस्कान ओढ़ने के सिवा और क्या ही कर सकती थी? न जाने कितनी बार एक ही बात को नए-नए शब्दों का जामा पहनाकर वह कुछ न कुछ कहने की कोशिश करता ही रहता;

“एक दिन दुर्गा पूजा में बिलकुल आपके जैसी कोई महिला थीं लाल बॉर्डर और लाल पल्लू वाली सफ़ेद साड़ी, बड़ी सी गाढ़ी लाल बिंदिया और वैसी ही गाढ़ी लाल, दूर तक भरी माँग----कितनी सुंदर लग रहीं थीं वह ! बिलकुल ही आपके जैसी--”और उसने एक लंबी साँस खींचकर मेरे चेहरे पर अपनी दृष्टि टिका दी | ऐसी हरकतें वह कितनी बार करता ही रहता था | 

उसे हर लाल बॉर्डर वाली बंगाली साड़ी पहने, बड़ी सी बिंदिया लगाए, माँग भरे महिला बहुत सुंदर लगती और उसमें मेरी छवि देखना उसका शगल बन चुका था | जब आप किसी को पसंद करने लगे हों और वह आपके सामने इस तरह की बातें करता हो स्वाभाविक ही होता है कि उसकी ओर शनै:शनै:झुकाव होता रहे | यही हाल था मेरा और हर बार मैं उससे दूर भागने की कोशिश में असफ़ल हो जाती थी लेकिन ऐसी स्थिति किसी के हाथ में नहीं होती | चीज़ें होती ही चली जाती हैं और घटनाओं के चिन्ह कहीं भी दिखाई देने लगते हैं | 

“ठीक तो हो ?” शीला दीदी ने नॉक करके पूछा | 

मैं तो न जाने कहाँ भटकने लगी थी, दरवाज़े पर नॉक सुनते ही जैसे फिर से इसी दुनिया में आ गई | 

“बस, आ रही हूँ शीला दीदी----”कहती हुई मैं अपने को स्वस्थ दिखाती हुई बाहर निकल आई, मन के भीतर धुकर-पुकर हो रही थी | अब फिर वह मिलने वाला था, बिलकुल सामने बैठता था वह खाने के समय मेरे और मैं आँखें नीची करके खाना खाती थी | सच कहूँ, कितनी बार तो मैं ठीक से खा भी नहीं पाती थी, लगता उसकी दृष्टि मुझ पर ही है | 

वही दृश्य था जो मैं सोच रही थी, उत्पल मेरे सामने वाली कुर्सी पर ही था | सब खाने पर प्रतीक्षा कर रहे थे | मेरे पहुंचते ही महाराज और रमेश फटाफट खाना लगाना शुरू करने लगे | अम्मा-पापा ने डाइनिंग-टेबल भी 24 कुर्सियों की बनवा ली थी जिससे कोई छोटी-मोटी पार्टी या कुछ लोगों का फॉर्मल डिनर हो तो आराम से वहीं हो जाता था | 

“ऐसा तो किसी को नहीं हुआ इस टीके के बाद, अमी पर ही क्यों इसका ऐसा प्रभाव पड़ा ?” अम्मा अभी भी मेरी चिंता कर रही थीं | 

“डॉक्टर कह रहे थे न, ज्यादा सोचती रही होगी, इस बारे में ?” पापा ने अम्मा की बात का उत्तर दिया | 

“अरे ! पापा, इसमें सोचने की क्या बात है?और मैं कोई छोटी बच्ची हूँ क्या?” मैंने हँसकर कहा और अपने को बिंदास दिखाने की कोशिश करने लगी | 

“अब तो सब ठीक हो रहा है, दूसरे टीके भी सबके लग चुके | अब शायद सरकारी इजाज़त मिल जाए तो दिव्य को इस ट्रिप के साथ भेज देंगे | ”पापा ने ऐसे ही कहा | 

मेरे भी पहला टीका तो अम्मा-पापा के साथ ही लगा था | वे अपने साथ ही ले गए थे वे दोनों मुझे और मुझे कुछ भी नहीं हुआ था, भली चंगी थी मैं !उस बार तो पापा के डॉक्टर ने उन्हें अपने चैंबर में ही बुलवा लिया था | न कोई नंबर का चक्कर हुआ था, न हमें बैठना पड़ा था | कुछ भी रिएक्शन नहीं हुआ था जैसे सूई बांह के भीतर एक ट्रिप मारकर आ गई थीं | मैंने जब अम्मा-पापा से कहा था कि सूई महारानी तो मेरी नसों की गलियों में एक चुप्पी का आवरण पहनकर जैसे अच्छे बच्चे की तरह चुपचाप सैर करके वापिस आ गईं | 

अम्मा-पापा बड़े दिन बाद खुलकर हँसे थे, वरना भाई की चिंता, पूरे संस्थान की चिंता, दुनिया-जहान की चिंता!आखिर उन्हें किसकी चिंता नहीं होती थी ?मेरी तो परमानेंट चिंता थी ही | 

कई बार होता है न कि कुछ विशेष बात करने के लिए नहीं होती तो कुछ भी कहने के लिया बात निकाल ली जाती है | बस, पापा वही कर रहे थे | भाई भी कई बार आने की इच्छा जाहिर कर चुका था | कोविड में भी क्लासेज़ तो चल ही रही थीं ऑन लाइन, अब फिर से सब कुछ पूरी तरह खुलने के आसार तो थे ही |