शर्मिला की दो बेटियां थी।
वह अपनी दोनों बेटियों से बहुत प्यार करती थी।
बेटियों की अच्छी परवरिश के लिए गांव से आकर शहर में बस गयी।
उसके पति अधिकतर नौकरी के चलते घर से बाहर रहते थे।
शर्मीला की दोनों बेटियाँ पढ़ाई ,खेल कूद में अव्वल थी। वह उन्हें खुद ही पढ़ाती थी।
उनके पिता को भी उन पर बहुत गर्व था।
वह भी अपनी पत्नी की प्रशंसा करते नहीं थकते थे।
लेकिन एक घटना ने शर्मीला की जिंदगी पर हजारों सवाल खड़े कर दिए।
शर्मीला की छोटी बेटी 10 साल की थी। उसके पति उस समय दूसरे शहर में काम करते थे।
इसी बीच उनके घर से 5 किलोमीटर की दूरी पर कराटे क्लास शुरू हुई थी, उनके सोसायटी के बहुत सारे बच्चे कराटे क्लास के लिए जाते थे।
छोटी बेटी स्वर्णिम की जिद पर शर्मीला ने भी उसे कराटे क्लास भेजना शुरू कर दिया। वह भी कराटे ड्रेस पहनकर बहुत खुश हो कर कराटे क्लास जाती थी।
शुरू के 2 ,3 दिन कभी माँ, कभी बहन छोड़ने लेने जाती थी।
उसके बाद शर्मीला ने सोचा स्वर्णिम के उम्र के बहुत सारे बच्चे साइकिल से जाते हैं। तो उन्होंने भी स्वर्णिम को सायकिल से जाने की परमिशन दे दी, क्योंकि स्वर्णिम भी सायकिल से जाने की बहुत जिद कर रही थी।
2,3 दिन से स्वर्णिम भी बहुत आराम से सायकिल से अन्य बच्चों के साथ आती जाती थी। इसलिए अब माँ को भी इतना डर नहीं था।
लेकिन 11वे दिन जब स्वर्णिम कराटे क्लास से आ रही थी, अन्य बच्चों से आगे निकलने के चक्कर में बड़ी बस से हल्की सी छू गयी और उसका बैलेंस बिगड़ गया और गिर गयी।
गिरते ही उसकी बस एक चीख सुनाई दी। उस वक़्त बस बहुत ही धीरे चल रही थी। चीख सुनते ही ड्राइवर ने तुरंत गाड़ी से उतरकर बच्ची को उठाया और गोद में लेकर हॉस्पिटल भागा लेकिन तब तक बच्ची मर चुकी थी। शरीर पर बस उसके गिरने की खरोंच थी।
इस घटना की वज़ह से उसके पति, रिश्तेदारों ने उसे दोषी ठहरा दिया कि उसकी मौत की ज़िम्मेदार सिर्फ वह है। उसे क्या जरूरत थी बेटी को कराटे क्लास भेजने की।
एक तरफ बेटी के जाने का ग़म दूसरी तरफ लोगों के शब्दों के तीखे बाण ने शर्मीला को बहुत अंदर तक तोड़ दिया ।
उसने तो अपने बेटी के बेहतर भविष्य के लिए ही उसे कराटे क्लास भेजा था। ताकि वह इस समाज में छुपे हुए दरिंदों से अपनी रक्षा स्वंम कर सकेगी ।
लेकिन उसके पति ने भी उसके मरने की सारी जिम्मेदारी उस पर ड़ाल दी।
जबकि उसने तो अपना जीवन ही बेटियों के भविष्य के नाम कर दिया था ।
उसने अपनी लगी लगाई सरकारी नौकरी तक छोड़ दी थी बेटियों की परवरिश के लिए ।कितने साल से जब उसके पति दूसरे शहर में नौकरी कर रहे थे तब उसने अकेले ही अपने घर को संभाला। पति की अनुपस्थिति में बच्चों की हर जरूरत का ख्याल उसने खुद रखा।
लेकिन इस दुःखद घटना ने उसकी परवरिश पर सवाल खड़ा कर दिया।
हमारे समाज में बच्चे अच्छा करते हैं तब पिता गर्व से कहते हैं मेरा बेटा/ बेटी है।
लेकिन जहां कुछ भी गलत होता है तो सारी जिम्मेदारी माँ पर डाल दी जाती हैं क्यों ?
बार बार उसे उस बात का ताना मारा जाता है जिसकी वो दोषी नहीं होती है। वो तो सिर्फ अपने परिवार के लिए जीती है।
उसके लिए फैसले गलत कैसे हो गये आज ?
अब तक उसके लिए सारे फैसले सही थे। लेकिन इस एक घटना ने उसे ग़ैर जिम्मेदार बना दिया।
✍🌹देवकी सिंह 🌹