लेखक: प्रफुल शाह
खण्ड 59
सोमवार 10/07/2000
शनिवार, आठ जुलाई को चंद्रकान्त सुबह से ही फोन का इंतजार कर रहे थे। पूरी दोपहर गुजर जाने के बाद तीन बजे के बाद भापकर एसटीडी बूथ पर उसके लिए फोन आया। चंद्रकान्त के भाई ज्ञानेश्वर सोनावणे ने कॉल रिसीव किया। फोन करने वाले ने साफ-स्पष्ट हिंदी में बात करना शुरू किया।
“एक लाख की व्यवस्था करके रखो। अगर लाख रुपया नहीं दिया तो अमित की एक-एक आंख का एक लाख चुकाना पड़ेगा। पैसा किधर चुकाना है,वो मैं कल बताऊंगा।”
इस बीच, पुलिस की जांच धीमी गति से चल रही थी। उनके काम करने के वही घिसे-पिटे पुराने सरकारी तरीके के कारण किसी भी दिशा से कोई सुराग मिल ही नहीं रहा था। सारे प्रयास खोखले साबित हो रहे थे।
रविवार, नौ जुलाई को भी चंद्रकान्त सोनावणे, भापकर के एसटीडी बूथ पर बैठा रहा, लेकिन न तो किसी का फोन आया, न कोई मिलने ही आया। उसका टेंशन बढ़ता जा रहा था। इस बार अपहरणकर्ता ने चंद्रकान्त के दोस्त कैलाश शिंदे को फोन किया। ये सुनकर लाचार चंद्रकान्त कैलाश के घर भागता हुआ गया। पलट कर किसी का फोन नहीं आया। वह फिर से भापकर के बूथ पर आकर बैठ गया।
सोमवार सुबह साढ़े दस बजे कॉल आया। हिंदी में, एकदम कम शब्दों में कड़क संदेश मिला,
“मोरेगांव रोड, सेवागिरी महाराज मंदिर के पास एक लाख रुपए लेकर आ जाओ...वापस जाते टाइम अमित ट्रक में बैठा मिलेगा...” चंद्रकान्त की अब तक की कहानी सुनकर सूर्यकान्त इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि अमित का किडनैपर एक चालाक, होशियार और लुच्चा किस्म का आदमी है। अपने बचाव के लिए वह कभी-भी, कुछ भी कर सकता है। कहीं से भी, किसी को भी फोन कर रहा था। एक बात तय थी कि उसके पास चंद्रकान्त सोनावणे के बहुत सारे संबंधियों के फोन नंबर थे। पूर्व नियोजित ढंग से अपहरण की तैयारी की गई थी। यह काम अकेले आदमी का हो सकता है क्या? गैंग हो सकती है। अपह्रत बच्चे के अभिभावक या फिर पुलिस उसे घेरने के लिए जाल न फैला सकें, इसकी पूरी सावधानी बरती जा रही थी। मोडस ऑप्रेंडी संकेत के अपहरण से परफेक्ट मिलती-जुलती थी। सचमुच ऐसा ही था, या केवल सूर्यकान्त को ऐसा लग रहा था?
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मंगलवार 11/07/2000
चंद्रकान्त सोनावणे और सूर्यकान्त भांडेपाटील की मुलाकात आधी रात एक बजे के बाद हुई। कैलेंडर की तारीख 10 से बदल कर 11 हो गई थी और आधी रात एक पिता चंद्रकान्त, अपनी व्यथा-कथा दूसरे पिता सूर्यकान्त को सुना रहा था। दोनों का दुःख एक जैसा था। दोनों की लाचारी, बेबसी एक जैसी, दिल को चीर देने वाली। सबकुछ सुनते हुए सूर्यकान्त को ऐसा महसूस होता था कि ये तो मेरी ही कहानी है...रात बीतने के साथ-साथ चंद्रकान्त की कथा भी आगे सरकती जा रही थी।
सेवागिरी महाराज मंदिर के पास चंद्रकान्त सोनावणे को अमित के अपहरणकर्ता को एक लाख रुपए पहुंचाने के लिए जाना था। घटना एकदम ताजी थी। इसलिए चंद्रकान्त को एक-एक शब्द याद था। बस, जख्मों को कुरेदने की देर थी।
नौ जुलाई को पैसों का जैसे-जैसे इंतजाम करके चंद्रकान्त नीरा पुलिस चौकी में दाखिल हुआ। वहां के हेडकॉन्स्टेबल ने भरोसा दिया कि आप वहां जाकर रकम रख दें और हमें सिग्नल दें, आगे का काम पुलिस करेगी। धड़कते दिल से चंद्रकान्त सोनावणे ने फिरौती की रकम सेवागिरी महाराज मंदिर के पास रख दी और वापस हो लिया। ये लेकिन कहे मुताबिक वहां पर न तो कोई ट्रक खड़ा था, न ही अमित दिखाई पड़ रहा था। थोड़ी देर बाद पुलिस ने आकर बताया, ‘पैसे लेने के लिए कोई आया ही नहीं। लीजिए ये रकम,अपने पैसे सुरक्षित रख लें।’
दस जुलाई को एक फर्नीचर कारीगर चंद्रकान्त के घर आकर अमित के अपहण की घटना के बारे में सहानुभूति व्यक्त करके चला गया। धीरे से उसने यह भी जानने की कोशिश की कि पैसों का इंतजाम हुआ या नहीं। चंद्रकान्त की तरफ से स्पष्ट जवाब न मिलने से वह अपनी काली सुजुकी समुराई बाइक लेकर लौट गया। उसी दिन, यानी दस जुलाई को शाम सात बजे भापकर एसटीडी बूथ पर फोन आया। अपराधी ने दानवीर कर्ण के अंदाज में एक बार फिर हिंदी में कहा, “मैंने तेरा पचास हजार माफ कर दिया है। अब तू मेरे को सिर्फ पचास हजार दे। ये पैसा थोपटेगांव में निरा-जेजुरी रोड पर गन्ने के रस की एक दुकान है, वहां पर रख देना। एक टेम्पो में तेरा अमित तेरे को मिल जाएगा। ”
फोन रखकर चंद्रकान्त हड़बड़ी में नीरा गेस्ट हाउस के पास रहने वाले एक पुलिस कर्मी के घर भागते हुए पहुंचे। समय कम था लेकिन फिर भी पुलिस वालों को चंद्रकान्त की मदद तो करनी ही थी। पुलिस इंस्पेक्टर जगदाले ने चंद्रकान्त की लई हुई रकम में से बीस-बीस रुपयों के लाल नोट किनारे रखे, उन नोटों के नंबर डायरी में नोट किए और नोटों पर प्लस का निशान लगा दिया।
नीरा पुलिस चौकी से चंद्रकान्त सोनावणे सीधे थोपटेगांव के गन्ने के रस के ठेले के पास पहुंचे।
“पैसे यहां रख दें, बेटा पंद्रह मिनट में मिल जाएगा।”
चंद्रकान्त ने पैसे नीचे रख दिए। और वह झटपट वापस हो लिए। तभी पुलिस ने किसी को पैसे उठाते हुए देखा...कॉन्स्टेबल ने हल्ला मचाया।
“रुक जा, भाग मत...नहीं तो गोली मार दूंगा...”
भागदौड़ हुई, गोली निकली, गोली उसके शरीर को हल्के से छूते हुए नीचे गिर गई, बात में मालूम हुआ कि यह गोली तो एक पुलिस वाले को छूकर नीचे गिरी थी। वह घायल हो गया। लेकिन अपराधी तो भागने में सफल रहा था। थोड़ी ही देर में चंद्रकान्त ने गन्ना रस के ठेले के पास जाकर देखा तो पैसे गायब थे। अपराधी फिरौती की रकम वसूल करने में सफल हुआ तो उसे घेरने के पुलिस विभाग की कोशिश नाकामयाब रही। पुलिस की मौजूदगी और घंटे भर की खोजबीन के बाद भी अमित किसी को नहीं मिला।
अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार
©प्रफुल शाह
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