Fathers Day - 54 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | फादर्स डे - 54

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फादर्स डे - 54

लेखक: प्रफुल शाह

खण्ड 54

शुक्रवार 17/02/2000

संकेत अपहरण की घटना की जांच में जुटा त्रिकुट-थ्री मेन आर्मी अपना काम सही तरीके से कर रही थी। अब तक संकेत के अपहरण से संबंधित संदिग्धों के नामों में से एक भी नाम और उसकी जांच-पड़ताल छूटनी नहीं चाहिए, सूर्यकान्त का पक्का इरादा था। उसके इस इरादे के गवाह रफीक़ मुजावर और विष्णु मर्डेकर भी पूरे जोश के साथ काम में जुटे हुए थे।

कात्रज के पास एक लाख रुपए की रकम गायब हुई- यह सच वहां के पुलिस वाले सालुंके ने उगल ही दिया था। उसी दिन उस जगह दिखाई पड़े दंपती के बारे में सालुंके को अधिक जानकारी नहीं थी। आधी-अधूरी जानकारी लेकर सूर्यकान्त उस बाइक का नंबर याद करने के लिए अपने दिमाग पर जोर देने लगा। उसे उस बाइक की नंबर प्लेट के कुछ नंबर ही याद आ रहे थे। वे आधे नंबर याद करने के लिए पूरी मशक्कत करनी पड़ी।

वह दंपती तो फिरौती और अपहरण की घटना के बारे में खुद से पूछताछ को लेकर बहुत डर गया था। बहुत गहराई से पूछने पर पता चला कि वे लोग केवल क्वालिटी टाइम बिताने के मकसद से उस जगह पर गए थे। जंगल में मंगल- के अलावा उनके हाथ और कोई भी क्वालिटी जानकारी हाथ नहीं लगी।

सूर्यकान्त के संकेत शोध अभियान में घर वाले पूरा-पूरा सहयोग दे रहे थे। घर से गायब हुए अपने बच्चे को वापस पाने के अतिरिक्त उनके लिए और कोई भी काम महत्वपूर्ण नहीं था। विवेक और शेखर के कंधों पर अपने धंधे का बोझ डालकर सूर्यकान्त अपनी त्रिकुट टीम की मदद से भागदौड़ कर रहा था। उसके पास न तो आलस फटक रहा था न थकान। छोटी-सी छोटी जानकारी या किसी छोटे से सुराग की भी जांच करने से वह चूक नहीं रहा था।

इतनी भागमभाग के बीच भी त्रिकुट की आंखें, कान एकदम चौकस थे। किसी भी जगह से, कोई भी जानकारी मिलते ही पहले यह जांचा जाता कि पुलिस द्वारा संकेत के गुमशुदा होने की फैलाई गई नोटिस और अपराधी का स्केच है कि नहीं? एक से बात करते समय दूसरे का जिक्र आते ही उधर को दौड़ लगाते थे। किसी को सपने में कुछ दिखाई दिया, तो उस जगह का फेरा लगा लेना। किसी बच्चे का लावारिस शव मिलने की सूचना मिलने पर सरकारी शवगृह में जाकर उसकी पड़ताल करना।

सूर्यकान्त को लग रहा था कि उसकी इस जांच-पड़ताल की जानकारी किसी को नहीं होगी, उसका काम चुपचाप चलता रहेगा, लेकिन यह बात अधिक दिन तक छिपी नहीं रह सकी। अब तो पुलिस वाले ही खुद ही आकर पूछने लगे थे कि कोई सुराग हाथ लगे तो हमें बताएं, हम आपके साथ चलेंगे। सूर्यकान्त महाराष्ट्र भर में संकेत की खोज कर रहा था। उसने गोवा तक दौड़ लगा दी थी।

पांच, पच्चीस, पचास, सौ....न जाने कितनी जांच-पड़तालें चल रही थीं। जल्दी से जल्दी जांच और खोज और मनचाहा जवाब पाने की उत्सुकता, चिंता के बीच दिन और रात कैसे बीत रहे थे-मालूम ही नहीं पड़ रहा था। सिर्फ और सिर्फ खोज।

प्रतिभा संकेत का विरह परेशान कर रहा था, तीव्रता से परेशान कर रहा था लेकिन उसको इस बात का अभिमान था कि उसका पति संकेत को खोजने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रख रहा है। वह खुद भी बहुत विचार कर रही थी, कुछ याद आ जाता तो लिख डालती थी।

एक शाम, थके-मांदे सूर्यकान्त और उसकी मंडली को चाय देकर प्रतिभा उनके पास आकर बैठ गई। सूर्यकान्त समझ गया कि वह कुछ बताना चाहती है। चाय पीते हुए उसने पूछा,

“क्या हुआ, कुछ बोलना चाहती हो क्या?”

“वो लहू ढेकणे की जांच-पड़ताल करके देखिए न?”

सूर्यकान्त को हंसी आ गई।

“तुमने पहले भी लहू को लेकर शंका व्यक्त कर चुकी हो। तुमको आज फिर उस पर संदेह हो रहा है, तो चलो बताओ कि लहू पर संदेह करने का क्या कारण है तुम्हारे पास...?”

प्रतिभा एक शिक्षिका की तरह कारण समझाने लगी।

“वो एकदम शांत है। कोई नशा नहीं करता तंबाकू गुटका, सिगरेट बीड़ी तो ठीक पर चाय की भी आदत नहीं है उसको। बहुत सारे मजदूर तो हाथ में चाय आने तक काम छोड़कर बैठ जाते थे, लेकिन ये चुपचाप अपना काम करता रहता था और संकेत उसके बाजू में बैठकर खेलते रहता था। उसको पॉलिश करते हुए देखते रहता था। दोनों एकदूसरे को देखकर मुस्कुराते थे और थोड़ी-बहुत बातचीत भी होती थी। ”

“लहू का बहुत अधिक चुपचाप रहना ही मेरी शंका का कारण है।”

सूर्यकान्त ने प्रतिभा से पूछा,

“किसी का चुपचाप रहना, अच्छा होना यानी शंका कारण? मुझे तो तुम्हारी यह शंका कुछ अजीब सी लगती है।”

रफीक़ मुजावर और विष्णु की ओर चेहरा घुमाकर सूर्यकान्त विषय बदल दिया।

“संदेह न करने के कारण एकदम साफ हैं। एक तो वह बहुत सीधा-सादा आदमी है। संकेत जिस दिन गुमा, उस दिन वह अपने मौसेरे भाई के लिए लड़की देखने के लिए गांव गया हुआ था। वहां से लौटकर वह गांव के लड़कों के साथ क्रिकेट खेल रहा था और यह बात उसने पुलिस को भी बताई थी। हम आधी रात को उसे गांव से उठाकर यहां लाए, पूछताछ की। फिर भी वह दूसरे दिन हमारे घर आया था। मुझसे मिला। घर वापस जाने के लिए पैसे मांगे। मैंने पचास रुपए दिए। उन्हें लेकर वह चुपचाप निकल गया। यदि वह अपराधी होता तो उसे अपने घर आने और मेरे सामने खड़े होने की हिम्मत होती क्या? और अंजलि टीचर का वर्णन भी लहु के हुलिए से मेल नहीं खाता है। ”

सूर्यकान्त और टीम में इस बात पर एकमत हो गया कि लहू ढेकणे से दोबारा जांच-पड़ताल का कोई मतलब नहीं है। केवल समय की बरबादी ही होगी। मिशन संकेत खोज अभियान के पीछे ये त्रिकुट हाथ धोकर पड़ा था। कोई भी सूत्र अब तक हाथ नहीं लगे थे। टीम ऑफ थ्री खूब भागदौड़ कर रही थी। पुलिस या किसी और के भरोसे न रहकर ये तीनों अपने आंख-कान और बुद्धि की मदद से एक-एक बात का पता लगा रहे थे। देखते-देखते संदेहास्पद लोगों की सूची में कई नामों का समावेश हो चुका था। संकेत को गुमशुदा हुए अब छह महीने होने को आए थे...न तो संकेत का पता चल रहा था, न ही अपहरण करने वाले का कोई पता चल रहा था। अब क्या करें? डेड एंड आ गया था।

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सोमवार 05/06/2000

संकेत अपहरण की घटना के मामले में बहुत सारी बातों का सोमवार से गहरा संबंध दिखाई पड़ रहा था। कई घटनाएं-दुर्घटनाएं सोमवार को ही हो रही थीं। संकेत की खोज करने के लिए पुलिस बल और सूर्यकान्त की टीम ने किए  अथक प्रयास विफल साबित हुए थे।  सारी भागदौड़ का नतीजा शून्य ही था।

संकेत के अपहरण की घटना भांडेपाटील परिवार के लोगों के लिए महाभयंकर भूकंप या सुनामी से भी अधिक गंभीर थी। उसके वापस लौटने की निराशाजनक वेदनाओं के आफ्टर इफेक्ट्स भी इन लोगों को झेलने पड़ रहे थे। घऱ के मलिन वातावरण का सीधा असर सौरभ पर दिखाई पड़ने लगा था। वह एकदम बदल गया था। हिंदी फिल्मों की कहानियों में जिस तरह दो भाइयों का डबल रोल होता है और उन दोनों को एकदूसरे से अलग करने के लिए कहानी में जिस तरह प्लॉट जमाया जाता है, उसी तरह का कुछ सौरभ की जिंदगी में भी घट गया था।

सौरभ का व्यवहार, बोचचाल सबकुछ बदल गया था। वह अकेलेपन के जाल में उलझता चला जा रहा था।

घर में घटी इस घटना और आसपास के वातावरण का दुष्प्रभाव सौरभ के स्वभाव पर तो पड़ ही रहा था, लेकिन इसका बुरा असर उसके कोमल मन पर कुछ ज्यादा पड़ रहा था। धीरे-धीरे उसका मन पढ़ाई से उचाट हो रहा था। पढ़ाई पर ध्यान लगाना उसके लिए असंभव सा हो गया था। होशियार सौरभ की शैक्षणिक प्रगति में गिरावट आने लगी थी। एक तेज विद्यार्थी अपनी कक्षा में पीछे-पीछे रहने लगा था। वार्षिक परीक्षा का नतीजा देखते साथ प्रतिभा को जोरदार धक्का लगा, उसका दिल ही बैठ गया। इस साल वह बहुत मुश्किल से पास हुआ था। प्रतिभा ने तय कर लिया कि सौरभ को इंग्लिश मीडियम स्कूल से निकाल मराठी मीडियम स्कूल में स्विच ऑन किया जाए। घर में उसके इस फैसले का विरोध होने लगा था। उसने भरी आंखों से अपनी वेदना व्यक्त की।

“अरे...उसकी हालत तो देखो...जरा उसकी तरफ देखो...खेलता नहीं, कुछ बोलता नहीं, हंसता नहीं, रोता भी नहीं...मराठी स्कूल में रहेगा तो मैं उसका ख्याल रख सकूंगी...सौरभ यदि ऐसे ही डरते-डरते जीएगा तो एक दिन मैं उसे भी खो बैठूंगी।”

इतना सुनने के बाद विरोध करने वाले सभी लोग चुप हो गए। प्रतिभा ने जो वेदना व्यक्त की उसमें उसकी लाचारी साफ झलक रही थी। इसके अलावा, सौरभ के भविष्य का भी विचार करना जरूरी था।

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार

©प्रफुल शाह

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