Fathers Day - 48 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | फादर्स डे - 48

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फादर्स डे - 48

लेखक: प्रफुल शाह

खण्ड 48

सोमवार 08/02/2000

पुलिस का डर, मारपीट, मानसिक वॉर-गेम, पूछताछ सब बेकार हो गया था। बहन और जीजा ने सबकुछ कबूल कर लिया है- अमजद की गुनाह कबूली इसी पर आधारित रहने वाली थी, लेकिन अंधेरे में मारे गए इस तीर का भी कोई फायदा नहीं हुआ। पुलिस का गेम फेल हो गया था।

पुलिस के सामने दो रास्ते थे। पहला, अमजद कठोर कलेजे वाला शातिर अपराधी है, जल्दी मुंह नहीं खोलेगा। यदि ऐसा हुआ तो उसकी जुबान खोलने के दूसरे कई रास्ते हैं और दूसरा, यानी अमजद वास्तव में निर्दोष होगा।

लेकिन ये अमजद शेख नागरिकों के लिए और प्रेस के लिए किडनेपिंग केस का मुख्य संदिग्ध आरोपी था। उसे खोजने के लिए बीते डेढ़-दो महीने आकाश-पाताल एक कर दिया गया था। अब उसको निर्दोष साबित करके छोड़ देना संभव नहीं था। यदि वह वास्तव में अपराधी होगा, तो एक बार छूटने के बाद उसे दोबारा पकड़ पाना असंभव ही होगा। लोग पुलिस की थू-थू करते।

पुलिस इंस्पेक्टर सदानंद बेलसरे ने आदेश दिया,

“गांव छोड़कर कहीं भाग जाने के बारे में सोचना भी मत...समझ लो...भाई पर प्रेम जताना हो तो पुलिस स्टेशन में आकर सबकुछ सच-सच उगल देना। नहीं तो यहीं तो तुम सबकी आरती उतारूंगा...।”

लोबो और कदम भीतर से अमजद शेख को बाहर लेकर आ गए। उसके पीछे सूर्यकान्त और रफीक़ थे ही। सभी लोग जीप में सवार हो गए। बहन लाचारी से भाई की ओर देख कही थी। उसकी आंखें आंसुओं से भरी हुई थीं।

.........................

बुधवार 09/02/2000

शिरवळ में भारी उत्तेजना का माहौल था। भारत-पाकिस्तान ट्वेन्टी-टवेन्टी मैच जीतने के लिए भारत को केवल 11 रन बनाने हों, उस तरह का रोमांच शिरवळ में पसरा हुआ था। गांव-भर में खबर फैल गई थी कि अमजद शेख मिल गया है। और अधिक समाचार पाने लिए लोग सुबह-सुबह अखबार की राह देखते हुए बैठे थे।

‘तरुण भारत’ में दीपक गिरी की बहुत बड़ी बाई लाइन स्टोरी प्रकाशित हुई थी।

‘संकेत भांडेपाटील अपहरण प्रकरण-संशयितास गोवा येथे अटक (संकेत भांडेपाटील अपहरण कांड के संदेही को गोवा में पकड़ा गया)। संदेही आरोपी अमजद शेख को पुलिस ने गोवा में पकड़ लिया है लेकिन अपह्रत बालक संकेत सूर्यकान्त भांडेपाटील के बारे में संदेही की ओर से जांच-पड़ताल में कोई जानकारी हासिल नहीं हो पाई।’

इस खबर में लिखा गया था कि अपहरण वाले दिन सूर्यकान्त ने अमजद शेख को गांव में अवश्य देखा था, लेकिन उसके बाद अमजद शेख शिरवळ से फरार हो गया था।

अखबार में प्रकाशित यह खबर शिरवळ में कानाफूसी करने वालों के लिए अच्छा मसाला थी। पाठकों ने अपनी-अपनी तरह से मसालेदार खिचड़ी पकानी और परोसनी शुरू कर दी।

“उसको देखकर ही लगता था कि लड़का ठीक नहीं है।”

“मैं क्या कहता हूं....ऐसे लोगों को गांव में रहने ही नहीं देना चाहिए।”

“अण्णा...अब हम इसमें क्या कर सकते हैं। वो लड़का सूर्यकान्त का काम करता था न...? ”

“...देखो भाई, जमाना बहुत खराब हो गया है। आदमी को खुद पर ही भरोसा करना कठिन हो गया है, फिर ये तो पराया लड़का है...इतना भरोसा क्यों करना चाहिए... मेरा यह कहना है..”

“अब पुलिस उसका जो करना है, करेगी...”

आधी रात के बाद सूर्यकान्त घर वापस पहुंचा। घर का हर एक व्यक्ति उसकी राह ताकते बैठा था। उसके घर में पैर रखते ही प्रतिभा भागते हुए उसके पास जाकर खड़ी हो गई।

“संकेत कहां है?”

सूर्यकान्त के पास जवाब नहीं था। वह तुरंत जीप की ओर भागी। निराश-हताश होकर भारी कदमों से वापस लौट आई। जीप में संकेत नहीं था।

“मेरा संकेत ठीक तो है ना? उसको तुम लोगों ने पकड़ा तब सबसे पहले पूछ लेना था ना कि संकेत कहां है?”

प्रतिभा ने रोना शुरू कर दिया।

“मॉं का कलेजा क्या होता है, तुम मर्द इस बात को समझ ही नहीं सकते...एत मॉं के दिल पर कैसे घाव लगते हैं, वह भी नहीं समझ पाओगे... ”

सूर्यकान्त ने उसकी पीठ पर हाथ रखा।

“प्रतिभा...सुनो...अमजद शेख एक ही बात दोहरा रहा है कि उसने कुछ नहीं किया है। संकेत को वह पहचानता भी नहीं। यदि वह निर्दोष होगा तो संकेत के बारे में कहां से बताएगा?”

प्रतिभा दो कदम पीछे हटी।

“निर्दोष? तो मुंह छुपाते हुए क्यों भाग रहा है? उसने कहा...और तुमने मान लिया? मुझे कुछ नहीं पता...मुझे संकेत चाहिए...वापस लाकर दो... ”

दिल का टुकड़ा खो चुकी एक मॉं के दर्द के सामने सूर्यकान्त लाचार हो गया था।

शिरवळ पुलिस चौकी में वापस लौटकर सदानंद बेलसरे, लोबो और रमेश देशमुख यात्रा की थकान और रात्रि जागरण को भूलकर अमजद शेख के सामने धरना देकर बैठे थे। चाय का दौर चलता जा रहा था। घुमा-फिरा कर वही दो-चार सवाल उससे बार-बार पूछे जा रहे थे।

“बोल..संकेत का अपहरण कैसे किया?”

“बच्चे को कहां छुपाकर रखा है?”

“तेरे साथ और कौन-कौन हैं?”

सवालों के सिलसिले में और जान डालने के लिए चपत, थप्पड़ और गुदगुदी भी की जा रही थी लेकिन अमजद शेख न जाने किस मिट्टी का बना हुआ था भगवान जाने, वह अपनी कैसेट बदल ही नहीं रहा था।

“साहब मैं सच बोल रहा हूं...अल्लाह मालिक है...मैं बेगुनाह हूं साहब...मैंने कुछ भी नहीं किया है...मैं संकेत को नहीं जानता जी...”

एक पुलिस वाला ताजुद्दीन शेख और उसकी षोड़शी बेटी फातिमा को पुलिस थाने लेकर आ गया। अमजद और फातिमा की नजरें मिलीं। लैला-मजनू पुलिस चौकी में आमने-सामने थे। अमजद को देखते ही फातिमा ने अपना मुंह फेर लिया। ऐन वक्त पर लैला पलट गई थी। मजनू मार खा-खाकर सूज गया था। ताजुद्दीन के चेहरे से खलनायक वाला गुस्सा टपक रहा था। बेलसरे और बाकी सभी लोग अगले सीन की प्रतीक्षा कर रहे थे।

“क्यों रे, इसको पहचानता है?”

अमजद ने सिर हिलाकर हां कहा।

“संकेत और उसके घर की सारी जानकारी यही लड़की तुझे देती थी?”

“ओ हीरोइन....सुन रही हो क्या?”

इतना सुनते साथ फातिमा दो कदम पीछे सरक गई। ताजुद्दीन को तो भरोसा ही नहीं हो रहा था कि उसकी नजरों के सामने ये सब क्या हो रहा है। और इसमें उसकी बेटी फातिमा का क्या रोल है। फातिमा का नाम बीच में आने के कारण, बेटी को पुलिस चौकी के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं, ये बात ताजुद्दीन के भेजे में घुस ही नहीं रही थी।

पुलिस ने एक बार फिर अमजद, फातिमा और ताजुद्दीन से पूछताछ शुरू की। सवालों की झड़ी लगा दी। शारीरिक और मानसिक-दोनों तरह का बल प्रयोग किया। एक भी उपाय काम नहीं आ रहा था। ताजुद्दीन खान और फातिमा को पुलिस ने धमकाया।

“बाप-बेटी को जो कुछ भी मालूम है, सच-सच बता दो। एक बार इस तरह के केस में फंस गए तो जीना मुश्किल हो जाएगा...समझ में आ गया? ...और तुम्हारी तो बेटी है...अच्छे से विचार कर लो...और बाप-बेटी दोनों सच बता डालो...या जीवन बरबाद करने का इरादा है?”

ताजुद्दीन असहाय होकर बोलने लगा,

“साहेब...संकेत बाबा हमारे बच्चे जैसा है...हमारा छोटा बेटा ही कहो उसे...संकेत तो जान है हमारी...बरसों से सेठ का नमक खाया है....हमारे अन्नदाता हैं वो...नौकरी दिया...खाना दिया....रहने के वास्ते घर भी दिया है...सेठ जी के बेटे के बारे में ऐसा सोचना नापाक हरकरत है जनाब...पाप है पाप...अल्लाह वालिद को क्या मुंह दिखाएंगे कयामत के दिन? जहन्नुम में भी जगह नसीब नहीं होगी परवरदिगार...हम ऐसा करना तो क्या, ऐसा सोच भी नहीं सकते जनाब...”

पुलिस ने ताजुद्दीन और फातिमा को घर वापस भेज दिया। अमजद के साथ फिर कवायद शुरू की। पुराने सवाल नए शब्दों के साथ पूछना शुरू किया। पुलिस की मंशा थी कि यदि वह झूठ बोल रहा होगा, तो शब्दों के जाल में फंस जाएगा। लेकिन अमजद शेख पुलिस की किसी भी करामात में फंस नहीं रहा था। हाव-भाव, व्यवहार और बोलचाल से एक ही सच सामने आ रहा था। अमजद शेख का कोई भी पुलिस रेकॉर्ड नहीं था।

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार

©प्रफुल शाह

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