लेखक: प्रफुल शाह
खण्ड 42
सोमवार -03/01/2000
डिप्टी मिनिस्टर छगन भुजबल से बातचीत करते समय सूर्यकान्त की आवाज में नम्रता और सौम्यता थी। संकेत के गुमने के बाद और उसके वापस लौटने के दिनों में बढ़ती दूरी के बीच सूर्यकान्त के स्वभाव में अनजाने ही बहुत अधिक अंतर आ गया था। पहले वाला ऊंची आवाज में बोलने वाला, छोटी-छोटी बात में भड़कने वाला और किसी की भी परवाह न करने वाला सूर्यकान्त इधर शांत, सौम्य और गंभीर हो गया था। आवेदन पत्र में लिखे गए शब्दों में अत्यधिक विनम्रता थी। बावजूद, उस बुझी हुई राख के नीचे धधकता हुआ अंगारा पूर्ववत था। शब्द भले ही सौम्य हों, पर आवेदन में सूर्यकान्त का आक्रोश, उसके ह्रदय में जल रही मशाल उस आवेदन में जाहिर हो रही थी। उसने स्पष्ट शब्दों में मांग की थी कि संकेत के अपहरण की घटना की जांच सीआईडी को सौंपी जानी चाहिए।
सूर्यकान्त की इस मांग के कारण राज्य प्रशासन और पुलिस महकमे में हचल मच गई। अजीतदादा पवार और छगन भुजबल के समक्ष हुई चर्चा और सौंपे गए आवेदन पत्रों से एक बात तो स्पष्ट हो गई थी कि सूर्यकान्त हाथ पर हाथ धरे बैठने वाला व्यक्ति नहीं है।
लेकिन....यह एक बात किसी को भी समझ में नहीं आ रही थी कि आखिर अपहरणकर्ता कौन-सी मिट्टी में मिल गया है। उसके शरीर में कौन-सा खून बह रहा है कि वह निश्चिंत होकर सबकुछ देखते बैठा है। पक्का रणनीतिकार, हिम्मती है या भयंकर निष्ठुर, पत्थर के कलेजे वाला, दृढ़निश्चयी? इस गुनाहगार के लिए समाज, कानून, शासन व्यवस्था, पुलिस, राननेता, प्रेम, भय
इन सबसे दूर रहकर तमाशा देखना बहुत आसान था। कीचड़ में खिले कमल की तरह वह इन सबसे निर्लिप्त था...एकदम निर्लिप्त।
और ऐसे व्यक्ति के साथ नन्हें संकेत का जीना कितना कठिन हो गया होगा? यह आदमी संकेत के साथ दुराचार तो नहीं कर रहा होगा? संकेत तो बहुत छोटा है, रोता होगा...उसकी जिद और उसके रुदन से परेशान होकर यह बेशरम कहीं उसके साथ मारपीट तो नहीं करता होगा? या अल्लाह ...! उस कोमल सी जान की रक्षा करना...मेरे बादशाह...परवरदिगार। रफीक़ के मन में अनेक आशंकाएं आ रही थीं। वह सूर्यकान्त के घर की ओर मुड़ गया। बीते कुछ दिनों से शिरवळवासियों की उसकी ओर देखने की नजरें बदल गई थीं, यह बात चाणक्य बुद्धि वाले रफीक़ को बहुत पहले ही समझ में आ गई थी। रफीक़ एक दोस्त, एक पड़ोसी के नाते मानव धर्म निभाने के लिए सूर्यकान्त की मदद कर रहा था। उसके साथ भागदौड़ कर रहा था। सूर्यकान्त का साथ दे रहा था। इस मित्रधर्म लोगों को एतराज भला क्यों होना चाहिए? मुश्लिक में फंसे एक व्यक्ति की निःस्वार्थ भाव से दूसरा व्यक्ति मदद नहीं कर सकता? इसको लेकर लोगों के मन में शंका-कुशंका क्यों होन चाहिए? इन्हीं विचारों के साथ रफीक़ मुजावार साई विहार में पहुंच गया।
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मंगलवार 04/01/2000
बिना थके प्रयास, विचारों की बाढ़, दोबारा जांच-पड़ताल, किसी पर संदेह हुआ नहीं कि उठा लो उसको, ले चलो पुलिस चौकी में और करो सवाल-जवाब, करो शिनाख्ती परेड, न जाने कितना और क्या-क्या कर डाला लेकिन फिर भी पुलिस वालों की स्थित कोल्हू में जुते हुए बैल की ही तरह थी। घूम-फिर कर वहीं। उनका चक्कर शुरू होकर फिर जहां से चले थे, वहीं आकर खत्म हो जाता था...शून्य...एक बहुत बड़ा शून्य।
सूर्यकान्त शांत बैठने वालों व्यक्तियों में से नहीं था. जिसने जो बताया, वह कर गुजरता, कोई किसी जानकार भविष्यवक्ता की जानकारी देता तो वह बिना देर किए उसके पास दौड़ जाता। हताशा, निराशा के बावजूद उसी घटनाक्रम को बार-बार बताता। वही-वही कैसेट बार-बार बजाता रहता। पंडित, ज्योतिषी, भविष्यवक्ता, नजूमी, बाबा, बादशाह, मौलवी, संत-जिसने जो बताया उसका पूरे नियम के साथ पालन करता। पूरी श्रद्धा के साथ जो भी बताया जाता, उसको करता। ये सारे खर्च अब हजारों का आंकड़ा पार करके लाखों तक पहुंचने चले थे। इन लाखों के खर्च की चिंता किसी को नहीं थी, उन्हें तो फिक्र थी बर संकेत की।
प्रतिभा को स्कूल के विद्यार्थियों में संकेत दिखाई देने लगा था। संकेत के उम्र के बच्चों में दिखने वाला संकेत का चेहरा उसके आत्मविश्वास को टिकाए रखता था। विष्णु भांडेपाटील हर रोज शिरवळ से भोर मशीन की तरह अप-डाउन करते थे। सिंचाई विभाग काम करते-करते अपने मन में रोज नई आशाओं का सिंचन करते थे। विवेक और शेखर सूर्यकान्त का कामकाज संभाल रहे थे। पायल और पराग की दुनियादारी से अनभिज्ञता उनके लिए आशीर्वाद के समान थी। जनाबाई और शालन भारी मन से घर की व्यवस्था संभाल रही थीं। सबकी चिंता कर रही थीं तो बीच में ही आंखों में आंसुओं को अपने आंचल के किनारे से इस तरह से पोंछती कि कोई देख न ले। पहले वाला सौरभ अब दिनोंदिन खोता जा रहा था। चाबी भरे हुए गुड्डे की तरह उसकी दिनचर्या मशीनवत चल रही थी। उदास, निराश, हतोत्साहित, न बोलने वाला सौरभ।
इन सब व्यक्तियों और व्यक्तित्वों के बदलाव के बीच सरकता हुआ समय अपने मूल स्वरूप में ही कायम था। काल की गति एक क्षण भी रुके बिना अविरल चलती जा रही थी, क्योंकि भविष्य के गर्भ से कौन-सा भयानक स्वरूप लिए शिशु जन्म लेने वाला है, इसकी जानकारी काल को नहीं थी।
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गुरुवार 27/01/2000
महाराष्ट्र शासन के जलसंसाधन मंत्री, सातारा के पालक मंत्री और राजनीति के कद्दावर नेता आठ दलों के गठबंधन सरकार के आधारस्तंभ अजीतदादा पवार की प्रेस कॉंन्फ्रेन्स चल रही थी। सातारा प्रेस कॉन्फ्रेन्स में अजीतदादा ने प्रगतिशील भारतीय जनता पार्टी-शिवसेना गठबंधन द्वारा खाली कर दी गई सरकारी तिजोरी के सवाल-जवाब के बीच आम जनता के घड़ियाली आंसू समेटने के लिए आए थे। प्रेस कॉन्फ्रेन्स में अजीतदादा ने पक्का आश्वासन दिया कि उनकी डेमोक्रेटिक फ्रंट सरकार में पाई-पाई का हिसाब रखा जाएगा। कुछ कठोर निर्णय लेने पड़ेंगे- ऐसी लाचारी भी उन्होंने इस समय व्यक्त की। कृष्णा नदी के जल के महत्व को समझाया। विकास कार्यों की वजह से होने वाले विस्थापितों के पुनर्वास का वादा भी दिया। सातारा जिले और शहर का कायाकल्प और विकास की रुपरेखा बताई।
एक से बढ़कर एक घोषणाओं का दौर चल रहा था। वादों की बौछार बढ़ती ही चली जा रही थी कि एक पत्रकार ने एक तीखा सवाल दागा।
“शिरवळ के तीन साल के संकेत भांडेपाटील नामक बालक के अपहरण की घटना का अभी तक कोई ठोस नतीजा क्यों नहीं दिखाई पड़ रहा? इतनी धीमी गति से चल रही जांच का कारण क्या है ?”
इतना सुनते ही सभागृह में सन्नाटा पसर गया। अजीतदादा का जवाब सुनने के लिए पत्रकारों ने कान खड़े कर लिए।
अजीत दादा पवार, “ इस प्रकरण में पुलिस ने इंच भर प्रगति नहीं की है इसलिए जांच प्रक्रिया अब सीआईडी को सौंपी जा रही है। ”
इस घोषणा की प्रतिक्रिया क्या हुई? पुलिस विभाग का टेंशन कम हुआ? सीआईडी की जिम्मेदारी बढ़ गई होगी? भांडेपाटील परिवार का खोया हुआ विश्वास वापस मिला? अपहरणकर्ता के कानों में जूं रेंगी होगी? मासूम संकेत का क्या हुआ होगा?
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शनिवार 29/01/2000
बहुत हुआ, अब कब तक राह देखें? सूर्यकान्त को आभास हुआ कि संकेत हाथ छुड़ाकर बहुत दूर जा रहा है, और सौरभ को यह सब गुमसुम होकर देख रहा है। उसका कलेजा मुंह को आ गया। एक टीस उठी। अब उसका धैर्य चुकता जा रहा था। पुलिसिया लापरवाही और धीमी कार्रवाइयों से उसे बहुत चिढ़ हो रही थी। केवल शाब्दिक आश्वासनों से वह ऊब गया था। संकेत द्वारा भोगे जाने वाले कष्ट और परिवार वालों की बयान न की जा सकने वाली पीड़ा, सरकारी मशीनरी के लिए केवल एक ‘केस’ ही थी, कागज पर टाइप किए हुए शब्द और एप्रूवल वाले दस्तखत मात्र। असंख्य फाइलों में एक और बढ़ा हुआ फाइल का नंबर। लेकिन सूर्यकान्त को यह बखूबी समझ में आ गया था कि इतनी विरह वेदना, कष्ट, सहनशीलता, धैर्य और एक मासूम बालक को अपने जीवन का धोखा...ये सब सिर पर टंगी हुई तलवार की तरह था। यह तलवार किसकी जान ले लेगी, बता पाना मुश्किल था। तलवार का एक घाव और जिंदगी के टुकड़े...टुकड़े...टुकड़े।
सूर्यकान्त ने एक बाजी खेलने का मन बनाया। अब मन में किसी भी चिंता को छुपा कर नहीं रखना है। अपना मन की बात सबके सामने कहकर, वेदना के आक्रोश में भीतर पल रहे ज्वालामुखी को फट जाने देना...देखें इस ज्वालामुखी का लावा आखिर कितनी आग फैलाता है। उसकी आंच कहां तक पहुंचती है। फैसला आसान तो नहीं था। सरकार और शासन व्यवस्था के विरुद्ध आवाज उठानी थी। प्रशासन से सीधी टक्कर लेनी थी। इस पार या उस पार करना था। यह बात पूरी तरह से मन में ठान लेने के बाद सूर्यकान्त भांडेपाटील ने खंडाला में एक प्रेस कॉन्फ्रेन्स बुलाई। किसी की चिंता करते हुए, बिना डरे सूर्यकान्त ने पुलिस और प्रशासन पर धावा बोल दिया।
अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार
©प्रफुल शाह