Fathers Day - 39 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | फादर्स डे - 39

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फादर्स डे - 39

लेखक: प्रफुल शाह

खण्ड 39

बुधवार -15/12/1999

विचार...विचार...विचार...विचारों का चक्र सूर्यकान्त का पीछा छोड़ ही नहीं रहा था। किसी इल्ली के शरीर में जिस तरह कांटे चिपके रहते हैं उसी तरह विचार भी सूर्यकान्त से चिपक कर रहते थे। एक विचार, एक सवाल का हल ढूंढ़ते साथ ही दूसरा विचार, दूसरा सवाल सामने आकर खड़ा हो जाता था।

संकेत का अपहरण, उस सुबह उसके साथ बिताए हुए कुछ क्षण...प्रतिभा का दुःख...हताश-निराश सौरभ...पिता विष्णु की मौन लाचारी..आई जनाबाई की विवशता...खुद के भीतर संकेत के न होने के कारण विरह का गहरा जख्म...और उसपर रह-रह जम रही यादों की परतें। स्वयं के एक विवश पिता होने का पक्का होता जा रहा यकीन...परिवार के सदस्यों के चेहरों पर बढ़ती जा रही उदासी...पुलिस की विफलता...अपने आप पर उठने वाली शंका-कुशंकाएं...प्रत्येक प्रयास के बाद भाग्य की ओर से झटका...

अब तो उसके मन में अजीब तरह की शंकाएं जन्म लेने लगी थीं। ‘कोई जादूगर तो संकेत को लेकर नहीं चला गया होगा? किसी भूत-पिशाच की छाया तो नहीं पड़ी? किसी बाबा-बैरागी-तांत्रिक-मांत्रिक के हाथों में तो नहीं पड़ गया होगा मेरा संकेत? वरना कोई भी रास्ता उस तक क्यों नहीं पहुंच पा रहा है?

आखिर कोई संपर्क, कोई तार, कोई पदचाप या कोई दिशा क्यों नहीं मिल पा रही है? पुलिस वालों की जी-तोड़ कोशिश, संकेत को देखने वाला वह दुकानदार, वह टेलीफोन ऑपरेटर, टीचर, अनगितन पूछताछ, इतने सब लोगों में से एक भी व्यक्ति संकेत तक नहीं पहुंचा पाया? कैसी मां का दूध पिया है इन लोगों ने कि एक छोटा-सा बच्चा तक खोज कर नहीं ला पाए?’

सूर्यकान्त के मन में शंका उठने लगी कि कहीं कुछ गलती हो रही है। जांच करने में कुछ तो छूट रहा है। कई बार ऐसा भी होता है कि चीज आपकी आंखों के सामने होती है, लेकिन दिखाई नहीं पड़ती, खोजने पर भी नहीं मिलती। कहीं दूर भागदौड़ करके खोज करते समय कोई पास की घटना नजर से बचकर  तो रह नहीं जाती? दूर के सूत्र इकट्ठे करते समय पास की कोई गठान खोलने से बच तो नहीं जाती? कोई एक घटना, पास का व्यक्ति, किसी के द्वारा सहजता से दी गई सूचना? कोई गलत राह पकड़ ली है यह तो निश्चित हो गया है। ऐसा कोई एक सूत्र है अवश्य है जो पकड़ से बाहर रह गया है।

लेकिन...शुरुआत किसी दिशा से की जाए? खूब सोच-विचार के बाद जो सही राह पर उठाया गया एक ही कदम संकेत अपहरण मामले की पहेली को सुलझा देगा लेकिन उस दिशा का पता कैसे लगाया जाए? कहां से ..कहां से...कहां से शुरुआत की जाए?  विचारों की सुनामी...विचारों की लहरों एक बड़ी भारी दीवार और उस दीवार को पकड़कर संकेत तक संकेत तक पहुंचाने वाली सही राह खोजने निकला सूर्यकान्त....सच में यह बहुत कठिन काम था...लेकिन...लेकिन ये उतना ही जरूरी भी था...और कठिन नहीं भी था।

घोर निराशा का दामन थामे सूर्यकान्त ने सामने रखे टीपॉय पर अपनी हथेली पटकी। इस वजह से कुछ अखबार और लिखे हुए कुछ कागज जमीन पर गिरकर बिखर गए। उसे अब अपने आपसे चिड़चिड़ाहट होन लगी थी। उसने सभी अखबार और कागजात उठाकर इकट्ठे किए और ठीक से जमा लिए। टीपॉय के बीचोंबीच सजाकर रख दिए। वह फिर से कुर्सी पर आकर बैठ गया। हाथ बांधकर उसने पूरे कमरे भर में नजर दौड़ाई उसके बाद वही नजर टीपॉय पर रखे अखबारों पर आकर ठहर गई। सामने अलग से रखी कॉपी को उसने उठाया। इस कॉपी में सूर्यकान्त ने बीते कुछ दिनों के अखबारों में छपी कुछ खबरों की कतरनें चिपका रखी थीं। कॉपी खोलकर उसकी खबरों को ध्यानपूर्वक पढ़ना शुरू किया। हरेक खबर को बार-बार पढ़ा। कॉपी को बंद करके बाजू में रख दिया। अखबार खोलकर उसमें से फिरौती और अपहरण की खबरों को खोजना शुरू किया। जिस पृष्ठ पर ऐसी खबर दिखाई दी उस पर निशान लगाकर उसे ध्यान से काटकर कॉपी में तिथि और अखबार के नाम के साथ चिपकाना शुरू कर दिया।

संकेत के वापस आने की आहट किसी को भी नहीं मिल पा रही थी। लेकिन मन में दबी आशा की किरण उथल-पुथल मचा रही थी। विष्णु भांडेपाटील अपने काम पर वापस जाने लगे। उन्होंने फिर से नौकरी शुरू कर दी। रोज 12 किलोमीटर शिरवळ से भोर अप-डाउन करने लगे। प्रतिभा कभी-कभी अपने विचारों में खो जाती थी। रो-रोकर अब आंखों के आंसू भी सूख चुके थे। संकेत की वापसी की उम्मीद प्रबल होने पर उसकी सूखी आंखों से एकाध आंसू उसकी गालों पर आते-आते सूख जाता था।

सौरभ ने घर से बाहर जाकर खेलना बंद कर दिया था। उसकी ओर देखने की शिरवळवासियों नजरें अब बदल गई थीं। कुछ लोग उसकी ओर दयाभरी नजरों से देखते थे, तो कुछ लोगों में उसे आखिरी बार देखने उत्सुकता रहती थी क्योंकि उनके मन में ऐसी आशंका ने घर कर लिया था कि अब सौरभ का भी अपहरण हो सकता है।

फालूत, निरर्थक विचारों में चक्कर में किसी के भी ध्यान में यह बात नहीं आ रही थी की गांव भर में दौड़ने-भागने वाला, हंसने-खेलने वाला, धमाल मचाने वाला सौरभ धीरे-धीरे अपना बचपन खोते जा रहा है। उसके भीतर के इस परिवर्तन को केवल प्रतिभा, सूर्यकान्त और जनाबाई ने ही महसूस किया था। परंतु ये तीनों खुद भी दुःखी, निराश, विवश और परिस्थिति के समक्ष लाचार थे। एक बेटा नजरों से दूर हो गया था और दूसरा प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा अदृश्य होता जा रहा था। प्रतिभा और सूर्यकान्त को अब एक नई चिंता सताने लगी थी...ईश्वर करें सबकुछ अच्छा ही हो...लेकिन सौरभ को कहीं कुछ हो गया तो? जीवन में कभी सौरभ को खो देने की बारी आ गई तो? नहीं.. नहीं... ऐसा कुछ हो गया तो जीएंगे कैसे? और किसके लिए? जीवन का अर्थ ही क्या रह जाएगा?

प्रतिभा ने दिल पर पत्थर रखने की शुरुआत की। प्रतिभा को अब यह समझ में आ गया था कि संकेत के लिए उसका रोना और उसकी बुरी स्थिति देखकर सौरभ के मन पर बुरा असर हो रहा है, उसे अपार वेदना हो रही है। सौरभ को अब और व्यथित नहीं होने देना है, प्रतिभा ने मन में उसकी दैनंदिन देखभाल करने का विचार पक्का कर लिया था।

उसके दिल ने अब सवा तीन साल के नन्हें संकेत के गुम जाने की वेदना को  नजरों से व्यक्त करने की मनाही कर दी थी। स्थिति ही ऐसी बन गई थी कि सौरभ की बढ़ती बेचैनी को देखकर संकेत के लिए रोने-बिसूरने पर प्रतिभा को रोक लगाना आवश्यक हो गया था।

पिता के लिए तो रोकर अपनी वेदना बाहर निकालने या दुःख के बोझ को बहती हुई आंखों से हल्का करने की व्यवस्था प्रकृति ने की ही नहीं है। पुरुष अपनी वेदना को अपने भीतर बहुत अंदर दबाकर रखे, हंसते-मुस्कुराते चेहरे के साथ पिता, भाई, पति इन सबकी जिम्मेदारियों को बखूबी अपने कांधे पर धरकर घूमते रहे, लेकिन आंसू गिराने की उसे इजाजत नहीं है। सूर्यकान्त ने भी वही किया, या कहें उसे ऐसा करना पड़ा। उसे एक बात अच्छी तरह से समझ में आ गई थी कि प्रतिभा, सौरभ और पूरे परिवार को और खुद को संभालने का एक ही रास्ता बचा है, वह जल्दी से जल्दी संकेत को खोज निकालना।

सबकुछ पहले से याद करना शुरू किया। एक-एक घटनाक्रम को याद करने का जी-तोड़ प्रयास करते रहा। जो कुछ घटा उसके बारे में फिर से बारीकी से विचार किया। प्रत्येक घटना पर सूक्ष्मता से दृष्टि डालते हुए उसे समझने की कोशिश की। प्रत्येक संदेहास्पद व्यक्ति की सूची की जांच की। अपनी और प्रतिभा के आसपास घटी छोटी-बड़ी घटनाओं और व्यवसाय में रोजाना घटी घटनाओं की समीक्षा करके देखी। विचारों का इतना बड़ा घेरा बनाने का सिर्फ एक ही मकसदा था कि संकेत या उसके अपहरणकर्ता तक पहुंचने के लिए एकाध सूत्र ही हाथ लग जाए। एक सही राह मिल जाए। लेकिन निरंतर विचार मंथन केवल और केवल शून्य पर जाकर टिक रहा था।

सूर्यकान्त ने दोस्तों की मदद से एक बार फिर रिमांड होम और अनाथ आश्रमों के चक्कर लगाए। जहां-जहां संभव था, वहां-वहां पूछताछ की। मुलाकातें की, भागदौड़ की। घर में तीन-तीन बार सत्यनारायण की महापूजा का आयोजन हो चुका। करीब पच्चीस ज्योतिषी-भविष्यवक्ताओं से बात हो गई। आश्वासन मिले। जानकारों ने जो कुछ बताया उसे शांतिपूर्वक सुनकर पूरे श्रद्धाभाव से पूजा-अर्चना भी की गई। पानी की तरह पैसा बहाया गया लेकिन परिणाम सिर्फ और सिर्फ शून्य...और शून्य.

भांडेपाटील परिवार और सूर्यकान्त के लिए तीन अक्षर महत्वपूर्ण थे, सं...के...त, जी...व...न और मृ...त्यु ....सूर्यकान्त को प्रतिभा का खेदपूर्ण, लाचार और हताश चेहरा देखकर बहुत डर लगता था। उसके हावभाव, गतिविधियां देखकर वह हैरान रह जाता था। यदि....इसे ...कुछ ...हो...गया...तो? इसकी कल्पनामात्र असहनीय थी। उसे मन ही मन लगने लगा था कि उसकी हार तो निश्चित है। इस संघर्ष में वह जीत नहीं पाएगा। संकेत का कुछ पता नहीं चल रहा है। सारे प्रयास विफल साबित होते जा रहे हैं। प्रतिभा अपनी वेदना और आंसू छुपा कर रखती है और अंदर ही अंदर परेशान होती रहती है। इस पूरी परिस्थिति से उसकी पकड़ ढीली होती जा रही है। खुद की इमेज, व्यावसायिक कौशल, अपने बलबूते प्राप्त की हुई रईसी, समृद्धि, राजकीय संपर्क, पुलिस की भागदौड़, क्राइम ब्रांच के प्रयास इस सबमें से कुछ भी काम का नहीं रहा। एक व्यक्ति, एक पुरुष, एक पिता, एक पति और एक पुत्र के नाते वह एक विफल साबित हुआ। सुपर फ्लॉप....

अंजुरी में भरा हुआ पानी कितने भी प्रयासों से रोक कर रखें, फिर भी अंजुरी अपने आप खाली हो ही जाती है। शेष रह जाती हैं जुड़ी हुई खाली हथेलियां और नसीब की रेखाएं। संकेत को खोजने के प्रयासों के साथ ऐसा ही कुछ हुआ था, पानी की तरह बहते जाना और हाथ आना केवल रिक्तता...सिर्फ और सिर्फ शून्य...शून्य...

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार

©प्रफुल शाह

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