लेखक: प्रफुल शाह
खण्ड 32
शनिवार, 11/12/1999
साई विहार में नीरव शांति छाई हुई थी; बिलकुल वैसी ही जैसी कि युद्ध समाप्त होने के बाद रणक्षेत्र में छाई रहती है। अपनी बेगुनाही साबित होने की खुशी महसूस करने की बजाय सूर्यकान्त को दुःख हो रहा था इस बात का कि उसके परिवार ने उसके इरादों पर संदेह किया। दूसरों के लिए भी इतना आसान नहीं था, वे भी अपराधबोध से ग्रस्त थे, ‘आखिर उन्हें सूर्यकान्त के इरादे पर संदेह हुआ तो कैसे हुआ।’ लेकिन सबसे बुरी स्थिति प्रतिभा की थी। ‘मैंने अपने पति की मंशा पर शंका कैसे कर ली? उसने सारी जिंदगी मुझसे बहुत प्यार किया। उसने मेरे साथ रहने के लिए अपने घर-परिवार तक को छोड़ दिया। अब वह हमारे खोए हुए बेटे को पाने की लड़ाई लड़ रहा है। ऐसे समय में मैं उसके साथ ऐसे कैसे कर सकती हूं, वह भी एक घृणित और अकल्पनीय कारण से?’
सूर्यकान्त को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। उसका सिर भारी हो रहा था। वह अपने कमरे में कुछ देर बैठता था, तो कुछ देर चहलकदमी करने लगता था। वह पुराने अखबारों के गट्ठे में से कुछ खोजने लगा। उसने बॉलपॉइंट पेन से एक खबर पर निशान लगाया और उसे भविष्य के संदर्भ के लिए अलग से रख लिया। वह अखबार के पन्नों को बड़े उत्साह से अपनी नजरों से स्कैन करता जा रहा था मानो संकेत और उसके अपहरणकर्ता को कहां खोजना है, उसका पता उसमें छपा हुआ हो। प्रतिभा उसे कमरे के दरवाजे से पीछे की तरफ से देख रही थी। वह कमरे के अंदर जाकर उससे बात करना चाहती थी, वास्तव में माफी मांगना चाहती थी। इससे पहले कि वह ऐसा कर पाती, संकेत तेजी से अपने कमरे से बाहर निकला और साई विहार से भी बाहर निकल गया। संजय उसके साथ हो लिया।
साई विहार पुलिस चौकी में, इंसपेक्टर माने ने अपने दो सीनियर पुलिस कॉन्स्टेबल की ओर देखा। “आप दोनों ही हमारे विभाग में काफी अनुभवी हैं। मैं जानता हूं कि यह काम काफी कठिन है लेकिन मैं आप लोगों पर विश्वास कर सकता हूं। सत्य की ओर जाने वाला मार्ग कठिनाइयों भरा होता है, लेकिन हमें उसी रास्ते पर चलना होगा। मुझे पक्का विश्वास है कि इस पूरी मशक्कत के बाद हमें कोई न कोई सुराग तो अवश्य ही मिलेगा।”
इंसपेक्टर माने ने उन लोगों को जाने के लिए कहा। दोनों सिपाहियों ने उन्हें सैल्यूट ठोंका और साई विहार की ओर बढ़ गए। इंसपेक्टर माने अपने बॉल पॉइंट पेन से डेस्क पर कुछ लिखते हुए विचारों के प्रवाह में बह निकले। ‘साई विहार में कुछ छिपा हुआ है। अविश्वास के कुछ बीज अवश्य हैं जो सूर्यकान्त के खिलाफ उग रहे हैं। उसका साला संदेहास्पद स्थितियों में गायब हो गया था। उसके चचेरे भाई अजय ने केवल दो ही महीने के लिए उसके साथ काम किया। अब उसके ड्राइवर की लड़की का दोस्त गायब हो गया है। इस पूरी पहेली में कोई हिस्सा अवश्य छूट रहा है।’
सिपाही साई विहार के बाहर ठहर गए।
“मुझे ये बड़ा विचित्र लग रहा है...”
“हां, सही है। यह हमारे काम का हिस्सा है, इसलिए अब पीछे मुड़ने का सवाल ही नहीं।”
“हम यहां अपनी ड्यूटी करने आए हैं। हमें परिवार की भावनात्मक परेशानी के बारे में सोचने की इजाजत नहीं है।”
“हमें जांच करते समय अनुशासन में रहने की आवश्यकता है।”
विष्णु ने साई विहार में सिपाहियों को आते हुए देखा।
“सूर्यकान्त घर पर नहीं है, वह किसी काम से बाहर गया हुआ है।”
“कोई बात नहीं। हमें उनसे कोई काम नहीं है, कृपया प्रतिभा को बुलाइए।”
“प्रतिभा क्यों? आप मुझसे पूछ सकते हैं...”
“नहीं, हमें प्रतिभा से कुछ सवाल पूछने हैं।”
“सर, उसकी मानसिक स्थिति अच्छी नहीं है। भूख, प्यास, नींद सबकुछ खत्म हो चुका है। वह मानसिक उथल-पुथल में है।”
“हम समझते हैं, लेकिन हमें उनसे कुछ सवाल पूछने ही पड़ेंगे। ऐसा करना मामले को सुलझाने में मदद ही करेगा। कृपया उन्हें बुलाएं।”
विष्णु ने जनाबाई को इशारा किया प्रतिभा को हॉल में लेकर आएं। कुछ समय बाद दोनों, शालन के साथ आईं और सोफे पर बैठ गईं। जनाबाई और शालन, प्रतिभा के दोनों ओर बैठीं और विष्णु उनके सामने। सिपाहियों ने उनकी ओर देखा और फिर एकदूसरे की ओर।
“यहां पर केवल प्रतिभा ही बैठेंगी। हमें उनसे अकेले में कुछ सवाल पूछने हैं।”
विष्णु उठ खड़े हुए।
“लेकिन सर....”
“कृपया हमारे काम में व्यवधान न डालें। हम ज्यादा वक्त नहीं लेंगे।”
विष्णु, जनाबाई और शालन अंदर चले गए। सिपाही प्रतिभा के सामने रखी हुई दो कुर्सियों पर बैठ गए। उन्होंने उस पर सवालों की बौछार शुरू कर दी।
“आप किस स्कूल में काम करती है? आपने पढ़ाई कहां से की? आपके माता-पिता कहां रहते हैं? आपने यह काम कब शुरू किया? आपके स्कूल का समय क्या है? आपने प्रेम विवाह किया है, ठीक? आपके अपने सास-ससुर के साथ संबंध कैसे हैं? क्या लोग आपकी शादी से खुश थे? अक्सर आपके घर में कौन आत-जाता है? सूर्यकान्त से हमेशा मिलने-जुलने के लिए कौन आता-जाता है? क्या आपको इस मामले में किसी पर संदेह है? अपराधी को आपका टेलीफोन नंबर कहां से मिला?”
प्रतिभा को चिड़चिड़ाहट होने लगी थी। उसे अपनी मर्जी के विरुद्ध कई सवालों के जवाब देने पड़ रहे थे। उसे चक्कर आ रहे थे। वह सवालों को ठीक तरीके सुन भी नहीं पा रही थी। ‘तुम...स्कूल..संकेत...सूर्यकान्त...संदेह...फोन करने वाले की आवाज...।’ अचानक उसने अपना चेहरा अपनी हथेलियों से छुपा लिया और रोने लगी। यह देखकर सिपाही स्तंभित रह गए। ठीक उसी समय संजय भीतर आया।
प्रतिभा को इस स्थिति में देखकर, संजय ने आपा खो दिया। वह सिपाहियों पर चिल्लाया। “आपको किसी के घर में आकर पूछताछ करने में शर्म नहीं आती? आप निर्मम हैं जो एक ऐसी महिला से पूछताछ कर रहे हैं जिसका बच्चा खो गया है। आपको जो कुछ पूछना है, हम लोगों से पूछें। सूर्यकान्त और मैं आपके सारे सवालों के जवाब देंगे। ”
सिपाही कुछ जवाब देना चाहते थे, लेकिन इसके पहले ही संजय ने उन्हें काफी भला-बुरा कह दिया और उन्हें साई विहार से बाहर निकल जाने के लिए कहा।
सूर्यकान्त और रफीक़ मुज़ावार पुणे के एक भविष्यवक्ता के दरवाजे पर खड़े थे। उन्होंने दरवाजा खटखटाया। वह एक ऐसा जाना-माना भविष्यवक्ता था जो लोगों की समस्याओं का समाधान अपने लोलक की मदद से करता था। सूर्यकान्त लोलक में उसकी परछाईं देख पा रहा था। उसके मामले का सच भी इसी लोलक की तरह था, इस ओर से उस ओर झूलता हुआ। इस भेंट से कुछ भी हासिल नहीं हुआ। उन्हीं तथ्यों को बताया गया, लेकिन कोई समाधान नहीं मिला।
सूर्यकान्त निराश हो गया। रफीक़ अपने दोस्त के साथ सहानुभूति व्यक्त कर रहा था। दोनों ही एक लंबे समय से शिरवळ में रह रहे थे लेकिन उनके बीच दोस्ती संकेत के अपहरण के बाद ज्यादा बढ़ी। रफीक़ ने सूर्यकान्त का रोज साथ देने के लिए अपने काम से छुट्टी ले रखी थी। कस्बे के कुछ लोगों को उनकी इस दोस्ती में ही दुर्भावना नजर आ रही थी।
अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार
©प्रफुल शाह
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