Fathers Day - 30 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | फादर्स डे - 30

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फादर्स डे - 30

लेखक: प्रफुल शाह

खण्ड 30

शुक्रवार, 09/12/1999

प्रतिभा के माता-पिता ने उसे अपने गांव मावली वापस लौटने के लिए कहा। उस पर शादी करन के लिए बहुत दबाव था। कभी यह सलाह के रूप में आता तो कभी समझ के तौर पर। प्रतिभा को लगने लगा था कि उसके लिए इतने दबाव का प्रतिरोध कर पाना एक समय के बाद संभव नहीं हो पाएगा। इसलिए, उसने अपने माता-पिता की भावनाओं के साथ खेलने का मन बना लिया। उसने उन्हें आश्वासन दिया कि वह आगे से सूर्यकान्त से नहीं मिलेगी साथ ही उसने अपने माता-पिता से अनुरोध किया कि वह उसे नौकरी जारी रखने दें। विरोध करने की बजाय उसने आज्ञापालन की नीति अपनाई। आखिर माता-पिता अपनी संतान की इच्छा को कब तक नकार सकते थे? कितने समय तक वे अपनी बेटी को नाख़ुश देख सकते थे? आखिरकार वे नरम पड़ ही गए।

प्रतिभा ने फाल्टन की स्कूल में टीचर के रूप में फिर से काम करना शुरू कर दिया। सूर्यकान्त अपने डिप्लोमा के अंतिम साल में था। सामाजिक और आर्थिक रूप से दोनों ही समाज में कमोबेश एक ही स्तर पर थे। उनके परिवार कठोर परिश्रमी थे और जमीन से जुड़े हुए थे। जीवन मूल्य भी उनके समान ही थे। लेकिन, इस वैवाहिक गठबंधन का एक नकारात्मक पक्ष यह था कि दूसरे माता-पिता की तरह प्रतिभा के भी माता-पिता भी उसके लिए अधिक अमीर खानदान का लड़का खोजना चाहते थे।

अचानक पीछे से आई एक आवाज से सूर्यकान्त कठोर वास्तविकता में लौट आया। उसने सौरभ को एक कोने में बैठकर जोर-जोर से रोते हुए देखा। बच्चा डरा हुआ लग रहा था। सूर्यकान्त उसकी ओर भागा। उसे गले से लगाकर प्रेम किया। जब वह शांत हो गया, तब सूर्यकान्त ने उसके रोने का कारण पूछा। सौरभ जवाब नहीं दे पा रहा था। सूर्यकान्त को जवाब पाने के लिए उसे बहलाना पड़ा। “मला भीती वाटते।”(मुझे डर लग रहा है।) बच्चा अपनी बात ठीक से समझा नहीं पाया और दूसरे कमरे में चला गया।

सूर्यकान्त ने महसूस किया कि उसका परिवार लगातार डर और दुःख में जी रहा है। आखिर कितने समय तक ऐसा चलता रहेगा? उसने हमेशा अपनी जिंदगी पूरी हिम्मत के साथ जी थी। एक बार फिर उसका मन उसे कॉलेज के दिनों में ले चला।

प्रतिभा, इस बात को अच्छी तरह से जानती थी कि उसके माता-पिता विवाह के लिए उस पर फिर से दबाव बनाएंगे, वह सूर्यकान्त से साफ-साफ यह बात नहीं कह पा रही थी कि वह जल्दी से जल्दी उसके साथ विवाह बंधन में बंधना चाहती है। दोनों कानूनी रूप से विवाह करने योग्य उम्र को पार कर चुके थे। इसलिए इस बारे में फैसला उनका फैसला अंतिम और स्वतंत्र था। एक स्कूल टीचर और एक कॉलेज के विद्यार्थी ने, जिसकी उम्र 21 थी, 7 अप्रैल 1988 को रजिस्टर्ड मैरिज कर ली।

सूर्यकान्त ने अपने परिवार को इस विवाह की सूचना दे दी। हर कोई इससे खुश था, लेकिन उनका कहना था कि बहू तभी घर आएगी, जब विवाह का कार्यक्रम परिवार में पारंपरिक तरीके से संपन्न हो जाएगा। सूर्यकान्त का परिवार प्रतिभा के माता-पिता से मिलने के लिए गया। उनके पास इस विवाह को स्वीकार करने के अलावा अब कोई विकल्प बचा ही नहीं था। अब, सूर्यकान्त और प्रतिभा 10 जुलाई 1988 को एक बार फिर, पारंपरिक तरीके से एकदूसरे के हो गए। वैसे तो दोनों परिवारों के सदस्य इस समारोह में मुस्कुराते चेहरों के साथ शामिल हुए थे, सभी रीति-रिवाजों का पालन किया गया, लेकिन भीतर ही भीतर वे बदले की आग में जल रहे थे।

नवदंपती को इस हकीकत का जल्दी ही पता चल गया। दोनों ही पक्षों में नाराजगी और गुस्सा भरा हुआ था। भांडेपाटील परिवार ने सूर्यकान्त की पढ़ाई पर बहुत सारा पैसा खर्च किया था। दरअसल, वह परीक्षा में दो साल तक पास नहीं हो पाया था इसलिए उन्हें पैसों का अतिरिक्त भार उठाना पड़ा था। माता-पिता के मन में स्वाभाविक सवाल उठ रहा था कि आखिर उसकी पढ़ाई पर हुए खर्च को चुकाए बगैर वह भला विवाह का विचार भी कैसे कर सकता था? उन्हें इस बात की भी नाराजी थी कि उसने अपनी पसंद की लड़की से विवाह करने से पहले एक बार भी उनसे सलाह नहीं ली। परिवार से लेकर गांववासियों तक, सबके बीच इस बारे में छोटी-बड़ी बातें होने लगी थीं कि सूर्यकान्त ने बिना सोचे-समझे यह फैसला क्यों ले लिया।

सूर्यकान्त और प्रतिभा विवाह की खुशियां मना ही रहे थे कि उन्हें अपने-अपने माता-पिता के भीतर पल रही असुरक्षा की भावनाओं को झेलना पड़ा। उन्हें पारिवारिक घर से बाहर निकलने के लिए कह दिया गया। उन्होंने इस मानसिक झटके को बड़ी हिम्मत के साथ झेला। नियति ने उनके लिए एक और चुनौती तैयार करके रखी हुई थी। प्रतिभा फाल्टन में नौकरी कर रही थी, लेकिन सूर्यकान्त को पहली नौकरी पुणे में मिली। उसके पास उस नौकरी को स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई विकल्प ही नहीं था।

सूर्यकान्त का हमेशा से सपना रहा था अपना बिजनेस करना। लेकिन पैसे की कमी के कारण उसका सपना साकार नहीं हो पा रहा था। पुणे में बड़ी मुश्किलों का सामना करते हुए उसने एक साल तक नौकरी की। उसके बाद उसने नौकरी छोड़ दी और अपना काम शुरू कर दिया। आर्थिक दृष्टि से यह उसके लिए बहुत मुश्किल समय था। उसने निर्माण स्थलों पर सेंटरिंग का काम लेना शुरू कर दिया। लगन, कठिन परिश्रम और व्यावसायिक समझ ने उसे बिजनेस में आगे बढ़ने में मदद की। उसने निर्माण कार्यों का ठेका लेना शुरू कर दिया, इसी के साथ-साथ वह लेबर और मटेरियल के भी ठेके लेने लगा। खुद को स्थापित ठेकेदार कहलाने के लिए उसे तीन साल का समय लग गया। परीक्षा के इस कठिन समय में उसे प्रतिभा की ओर से लगातार प्रेम और सहयोग मिलता रहा। वे 1992 में सौरभ के और 1996 में संकेत के माता-पिता बने।

संकेत के जन्म के बाद सूर्यकान्त का बिजनेस बड़ी तेजी से आगे बढ़ने लगा। उसने न केवल खूब पैसा कमाया, लेकिन उसे लोगों का सम्मान भी मिला। वह ऐसा समय था कि उसे परिवारिक जिम्मेदारियों पर कम और अपने बिजनेस पर ज्यादा ध्यान देना पड़ता था। इस दौर में, खुशी-खुशी न केवल अपने घर को संभाला, बल्कि परिवार और अपनी नौकरी भी बड़े अच्छे से संभालती रही।

सबकुछ 29 नवंबर 1990 तक अच्छा ही चल रहा था, जब संकेत अचानक गायब हो गया। संकेत के जन्म ने उनके परिवार पर आनंद, शांति और खुशियों की बौछार की थी। क्या उसका इस तरह से गुम हो जाना उनकी जिंदगी से ये सबकुछ छीन लेगा?

सूर्यकान्त अपने बच्चे का विछोह अब और अधिक बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। न ही वह अपने परिवार को इतने अधिक दर्द में देख पा रहा था। वह अपनी जगह से उठा, ‘मैं अब निश्चित ही इसका अंत करके रहूंगा। मैं तब तक आराम नहीं करूंगा जब तक यह मालूम न हो जाए कि संकेत के साथ वास्तव में क्या हुआ है।’ उसने अपनी मुट्ठियां और जबड़ा पूरे संकल्प के साथ भींचा। उसे मंदिर की घंटियां सुनाई पड़ रही थीं, उसने अनुभव किया कि मां अम्बा ने उसे इस अभियान के लिए आशीर्वाद दे दिया है।

एक ओर सूर्यकान्त पर सच को जानने का भूत सवार हो गया था, तो दूसरी ओर पुलिस ने भी इस मामले को नए दृष्टिकोण से जांचने का तय किया था।

‘क्या सूर्यकान्त ने फिरौती के एक लाख रुपयों की रकम अपने पास ही रख ली?’ यह सवाल एक बार फिर शिरवळ पुलिस के दिमाग में कौंधने लगा था। ‘यदि सूर्यकान्त ने तयशुदा जगह पर वह रकम रख दी थी, तो वह तीन मिनटों के भीतर ही कहां गायब हो गई?’ ‘किडनैपर इन पैसों को लेकर भागने में कैसे सफल हो गया, जबकि वहां पर इतने सारे पुलिस वाले उस जगह पर नजर रखे हुए थे और उनके हाथ कुछ भी नहीं लगा?’

अब शिरवळ पुलिस ने सूर्यकान्त के खिलाफ जांच करना शुरू कर दिया था। वे बैंक गए और उसके दोस्तों और शिरवळनिवासियों से कई सवाल किए गए। ‘यदि उसने बैंक में वही नोट जमा किए, जो उसने निकाले थे तो फिर फिरौती में उसने क्या दिया?’ ‘सूर्यकान्त कैसा व्यक्ति है?’ ‘सूर्यकान्त के चरित्र के बारे में आपका क्या विचार है?’ पुलिस वाले समस्या को सुलझाने के लिए हरसंभव प्रयास करना चाहती थी।

इस मामले में इस नए सूत्र के साथ, पुलिस को छोटा ही सही लेकिन एक महत्वपूर्ण सुराग मिला। शिरवळ में एक छोटा सा होटल है। जिसके मालिक श्री गोलांडे थे। यहां पर अधिकतर मजदूर आकर बैठते थे। वे यहां चाय-नाश्ते के लिए जमा होते थे। कभी-कभी वे यहां दोपहर के भोजन के समय पर आकर एक या दो डिश का आर्डर करते थे और उसे अपनी घर से लाई हुई रोटियों से साथ खाया करते थे। इस होटल का पसंदीदा मेन्यू था घोस्टपिंग, गर्मागरम, मसालेदार और किफायती व्यंजन। होटल में मजदूरों और ठेकेदारों से बातचीत के बाद पुलिस ने पाया कि एक नाम का उल्लेख बार-बार हो रहा था, वह था अमज़द शेख़ का।

“अमज़द शेख़ का ताजुद्दीन खान की बेटी के साथ प्रेम प्रसंग चल रहा है।”

“ताजुद्दीन खान कौन है?”

“वह सूर्यकान्त का ड्राइवर है। वह उन्हीं के आउटहाउस में रहता है। ”

“ठीक है, पर अमज़द करता क्या है?”

“संकेत की ही तरह, अमज़द भी लापता है।”

 

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार

©प्रफुल शाह