Fathers Day - 27 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | फादर्स डे - 27

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फादर्स डे - 27

लेखक: प्रफुल शाह

खण्ड 27

मंगलवार, 07/12/1999

जिस समय शिरवळ के निवासी संकेत के अपहरण, दी गई फिरौती और मामले में छिपे रहस्य के बारे में चर्चा करने में व्यस्त थे, सूर्यकान्त का दिमाग उन अतिरिक्त एक लाख रुपए के बारे में सोचने में व्यस्त था. जो उस उसके वार्डरोब में मिले थे। वह उन्हें किस तरह सुरक्षित रखा जाए, ये भी सोच रहा था।

सुरेश कुंभार न केवल उसे ईंट सप्लाई करने वाला व्यवसायी था, बल्कि वो एक अच्छा मित्र भी था।

‘सुरेश ने ये रुपए मुझे परसों दिए थे। जब मैंने उन्हें लेने से मना किया तो उसने बताया कि यह पैसा उसने खास मेरे लिए ही बैंक से निकाला था। उसने जोर देकर कहा था कि इस संकट की घड़ी में ये पैसे काम आ सकते हैं। दोस्तों के अलावा और कौन भला इस हद तक जाकर मदद कर कता है। उसने कहा था इस रकम को वह आगे कभी लौटा दे, जब जरूरत न हो। ’

सूर्यकान्त ने इस रकम को उसी प्लास्टिक बैग में रखा था जिसमें उसने अपनी फिरौती की राशि बैंक से निकालकर रखी थी। अब, जब उसने फिरौती दे ही दी है, तो इन अतिरिक्त एक लाख रुपयों को घर में रखना ठीक नहीं। ‘मुझे इन पैसों को पहले बैंक में जमा कर देना चाहिए। इसके बाद मैं पुलिस स्टेशन जकर मामले की प्रगति के बारे में जानकारी हासिल कर सकता हूं। यदि मुझे पैसों की जरूरत पड़ ही गई तो, बैंक जाकर निकाल सकता हूं।’

साई विहार का प्रत्येक व्यक्ति इस बात को लेकर हैरान था कि सूर्यकान्त घर से बाहर जा रहा है। उसने खुद ही स्प्ष्ट करते हुए बता दिया, “मैं बैंक जा रहा हूं और उसके बाद गांव का दौरा करूंगा।”

पिता विष्णु ने इस पर अपनी अप्रसन्नता जताते कहा, “तुम्हें इस समय अपने व्यवसाय की बजाय अपने परिवार पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है, ताकि भविष्य में इस तरह की घटना दोबारा न हो। ”

सूर्यकान्त अपने पिता की इस सलाह से क्षुब्ध हो गया, लेकिन कुछ न कहना ही उसने उचित समझा। वरन, उसने अपनी मां की ओर देखा और कहा, “मैं घर में बड़ी रखना नहीं चाहता, इसलिए मैं बैंक में उसे जमा करने जा रहा हूं। इसके बाद मैं पुलिस स्टेशन जाऊंगा।” उसने संजय की तरफ देखा और कहा, “यदि तुम मुझे कुछ बताना चाहो तो मेरे सेलफोन पर कॉल कर लेना।”

सूर्यकान्त 500 रुपयों के दोनों बंडल लेकर श्रीमंत मालोजीराजे सहकारी बैंक की ओर चल पड़ा। उसने इस रकम को अपने बैंक अकाउंट में जमा किया और राहत की सांस ली कि अब घर में पैसा रखने के खतरे से वह मुक्त हो गया।

यह छोटे शहर का एक छोटा-सा बैंक था इसलिए एक लाख रुपए उसके लिए वास्तव में एक बड़ी रकम थी। इससे भी ऊपर, जो व्यक्ति इस रमक को जमा कर  रहा था वह शिरवळ का एक जाना-माना ठेकेदार था। लोग उसे बखूबी जानते थे, उसकी इज्जत करते थे, और करें भी क्यों नहीं, अन्य कई कारणों के अलावा उसने इस बैंक को भी बनाया था।

इस एक लाख रुपए को बैंक अकाउंट में जमा करते हुए सूर्यकान्त ने सोचा भी नहीं था यह रकम उसके जीवन में तूफान खड़ा करने वाली है...

संकेत अपहरण मामले में जिस तरह से घटनाएं सामने आती जा रही थीं, उस वजह से शिरवळवासियों को अफवाह फैलाने का खूब मसाला मिल रहा था। हर कोई दूसरे को यह साबित करने पर तुला था कि इस मामले में वह जो कह-समझ रहा है, वही सही है।

सूर्यकान्त जैसे ही बैंक से बाहर निकला, कई लोग उससे बात करना चाहते थे। वे जानना चाहते थे कि पिछले दिनों क्या षडयंत्र हुआ था, और साई विहार में सबकुछ कैसा चल रहा था। सूर्यकान्त के पास बात करने का समय था ही नहीं, और वह उन लोगों से बातचीत करना भी नहीं चाहता था। उत्सुकतावश वह, बीच-बीच में अपनी चाल को धीमा कर देता था और पीछे आ रहे लोगों की ओर मुस्कुरा कर देख भर लेता था, इससे ज्यादा कुछ नहीं।

सूर्यकान्त शिरवळ पुलिस चौकी पहुंच चुका था। वहां उसने एक अकेले सिपाही को बैठा पाया।“इंसपेक्टर माने ड्यूटी पर कब आएंगे?”

“मैं उन्हें बता दूंगा कि आप आए थे।” सिपाही ने कहा साथ ही यह भी जोड़ा, “क्या आप उन्हें कुछ खास बताना चाहते हैं?”

सूर्यकान्त अपने आप से बोला, ‘मैं तो वास्तव में यहां कुछ खास सुनने के लिए आया था, न कि कुछ कहने के लिए।’

सूर्यकान्त घर वापस आ गया। “तुमको कुछ मालूम हुआ?” परिवार के सभी सदस्यों ने उससे पूछा। उसने ‘नहीं’ में अपना सिर हिला दिया। “हमें धीरज रखना होगा। संकेत आज भी आ सकता है, कल भी और शायद परसों भी। अपहरणकर्ता शातिर है और धूर्त भी। उसने फिरौती की रकम मांगने में भी जल्दबाजी नहीं की थी। ”

सभी दोपहर का भोजन करने के लिए बैठ गए। सभी एकदूसरे का ख्याल करके और जीने की खातिर कुछ ग्रास मुंह में डाल रहे थे।

न केवल सौरभ, पराग और पायल, बल्कि संकेत के सारे दोस्त भी यह जानने को व्यग्र थे कि वह घर कब वापस आने वाला है।

प्रतिभा इस दर्द को और अधिक झेल नहीं पा रही थी , लेकिन वह किससे अपने मन की बात कह सकती थी? परिवार के सभी सदस्य अपने-अपने कामों में व्यस्त हो गए थे।

पुलिस, शिरवळ निवासी और भांडेपाटील परिवार के सदस्य-सभी ने इस मामले को सुलझाने के लिए अपनी-अपनी तरफ से जो भी बन सकता था, सब किया था। फिरौती की रकम भी नेकनीयत से दे दी गई थी। अब यह ईश्वर की इच्छा और अपहरण करने वाले की ईमानदारी पर निर्भर था कि मामला कब खत्म हो।

प्रतिभा का दिलोदिमाग पूरी तरह से संकेत की यादों से लबालब था। उन्हें जीवंत करने के लिए वह नीचे बैठकर परिवार का एलबम देखने लगी।

‘नौ महीनों का संकेत कितना सुंदर लग रहा है! और लाल ड्रेस में तो वह बहुत ही शानदार लग रहा है! दरअसल, लाल ड्रेस सौरभ के लिए खरीदा गया था, लेकिन वह उसे फिट नहीं बैठा तो हमने उसे संकेत को पहनाकर देखा। उसे वह इतना पसंद आया कि अक्सर ही पहनने लगा और अपने भाई को चिढ़ाता भी था कि तुम्हारा ड्रेस अब तुम्हारा नहीं मेरा है। और यह फोटो तब का है जब संकेत एकक महीने का था। हमारे पास सौरभ का एक महीने वाला फोटो था, उससे मिलता-जुलता फोटो खींचने के लिए हमने संकेत का यह फोटो खींचा था।’

उसने जैसे ही एलबम का पन्ना पलटा, उसके गालों पर तेजी से आंसू ढुलकने लगे। जनाबाई ने ये सब देखा और महसूस किया कि उसकी इन सब गतिविधियों पर तुरंत विराम लगाना होगा। उसने प्रतिभा के हाथों से एलबम ले लिया और सौरभ को दे दिया जो कमरे के दूसरे कोने में बैठा हुआ था। “इस एलबम को दूसरे कमरे में ले जाकर रख दो। ” उन्होंने कहा। सौरभ ने वही किया जो उससे करने के लिए कहा गया था।

“रोना बंद करो। अब रोने की भला क्या जरूरत है?  संकेत किसी भी समय वापस आ सकता है। अब खुशी-खुशी उसका इंतजार करने का वक्त है।” जनाबाई ने उसे प्रेम से समझाया। हालांकि वह जानती थीं कि उनके ये शब्द कितने खोखले हैं, लेकिन जनाबाई अपनी बहू को आराम पहुंचाना चाहती थीं, वरना लगातार रोते रहने से उसकी तबीयत पर बुरा असर पड़ सकता था।

एलबम के पन्नों को पलटते हुए सौरभ भी रोने लगा। पायल और पराग उसके करमें में आए, एक कोने में बैठ गए और वे भी रोने लगे, लेकिन सौरभ का ध्यान उन पर नहीं गया।

भांडेपाटील परिवार की खुशियों में बढ़ोतरी होने के बजाय दुःख और दर्द ही बढ़ता जा रहा था। दुर्भाग्यवश, कोई भी इस सवाल का जवाब नहीं जानता, ‘इन आंसुओं का बहना कब थमेगा?’

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार

©प्रफुल शाह

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