लेखक: प्रफुल शाह
खण्ड 21
सोमवार, 06/12/1999
सूर्यकान्त ने अपनी कलाई पर बंधी घड़ी पर नजर दौड़ाई। समय भाग रहा था। वह असहाय महसूस कर रहा था। वह इस बात का अफसोस मना रहा था कि संकेत के साथ उसके बिताए हुए सुनहरे दिन अब कभी वापस नहीं आएंगे। उसने महसूस किया कि वक्त पिछले सोमवार पर ही ठहरा हुआ है, अफसोस, उसकी सांसें ठहरी हुई नहीं हैं।
आज ठीक एक सप्ताह हो गया, संकेत को लापता हुए।
सुबह के समय प्रतिभा रसोई में व्यस्त तो थी, पर उसका दिमाग एकदम खाली था। जिस समय वह नल के नीचे चावल धो रही थी, उसका ध्यान संकेत की यादों में फिसल गया। उसकी आवाज, उसका सुंदर हंसता-मुस्कुराता चेहरा...उसकी आंखों से आंसू बह निकले और बरतन के ऊपर से बह रहे पानी में जा मिले जिसका उपयोग वह चावल धोने के लिए कर रही थी। एक मां के आंसुओं ने बरतन को पूरी तरह भर दिया था। अचानक, उसे संकेत की आवाज सुनाई पड़ी, “आई वरण भात बनवते का? मला लय आवड़ते.” (मां, क्या तुम दाल चावल बना रही हो, मुझे बहुत अच्छा लगता है? वह झट-से पीछे मुड़ी और बोली,“हां, मैं अपने संकेत के लिए दाल-चावल बनाऊंगी।” और फिर जैसे ही उसने बरतन को देखा, उसमें चावल के दाने थे ही नहीं। चावल तो बरतन के बहते हुए पानी के साथ सिंक में इकट्ठा हो गए थे। बरतन में बचा था, तो केवल पानी, वह पानी जिसमें एक दुखियारी मां के आंसू शामिल थे....
प्रतिभा चीखी। ‘चावल कहां गया? मुझे संकेत के लिए दाल-चावल बनाना है।’ चकराकर उसने अपने दोनों हाथों से अपना सिर पकड़ लिया। जनाबाई ने रसो में प्रवेश किया और प्रतिभा के कंधों पर हाथ रख दिया।
“तुम जाओ और अपनी पूजा करो। आज मैं सबके लिए खाना बनाती हूं।”
“ कृपा करके वरण-भात बनाइगा... संकेत को बहुत अच्छा लगता है...वह मुझसे कुछ मिनट पहले ही कह रहा था। पिछले सोमवार को, स्कूल जाने से पहले उसने मुझे नाश्ते में वरण-भात ही बनाने की फरमाइश की थी, पर मैंने यह कहकर मना कर दिया था कि तुम सुबह-सुबह दाल-चावल कैसे खा सकते हो। मैं भी कितनी मूर्ख थी, उसकी एक छोटी-सी फरमाइश भी पूरी नहीं कर पाई। आज भी सोमवार है...दाल-चावल बनाइए, वह उसे खाने के लिए जरूर आएगा...”
साई विहार में तीन आगंतुकों ने प्रवेश किया, शामराव भांडेपाटील जिन्हें लोग प्रेम से आबा कहते थे, उनकी पत्नी शालन और उनका बेटा अजय। वे संजय के माता-पिता और भाई थे, सूर्यकान्त के चाचा-चाची और चचेरा भाई। इन सभी को सूर्यकान्त से बड़ा लगाव था और इन्होंने लंबे समय तक वई गांव में एकसाथ बचपन बिताया था।
दरअसल, सूर्यकान्त ने अपनी स्कूली पढ़ाई उन्हीं के घर रहकर पूरी की थी। अजय सिविल इंजीनियर था और 1998 में दो महीने के लिए सूर्यकान्त के साथ बतौर सुपरवाइजर उसने काम भी किया था।
विष्णु, सूर्यकान्त, शामराव, शालन, अजय, शेखर, विवेक और संजय सभी एक कमरे में बैठे हुए थे। उन्हें नाश्ते में कांदा पोहा परोसा गया था, लेकिन किसी की भी उसे खाने की इच्छा नहीं थी। वास्तव में, किसी के पास भी न तो सांत्वना के, न ही बातचीत के लिए कोई शब्द बचे थे। ऐसा लग रहा था कि उनकी आशा की आखरी किरण भी समाप्त हो चुकी है।
संजय ने सूर्यकान्त का हाथ अपने हाथों में लेकर कहा, “दादा हिम्मत सोड़ायची नाही. तुम्हींच हारले तर संगळ्यांच काय होणार? संकेत अजून परत येऊ शकतो, कधी पण परत येऊ शकतो।”(भाई, हिम्मत मत हारो, तुम ही आशा छोड़ दोगे तो बाकी सबका क्या होगा? संकेत वापस आ सकता है, किसी भी समय वापस आ सकता है।)
स्केच किसी भी समय आ सकता है। शिरवळ पुलिस चौकी के स्टाफ को अपराधी के स्केच का इंतजार था। और वह आ गया। इंसपेक्टर माने की टेबल पर उसकी कई फोटोकॉपियां रख दी गईं। “इस मामले में जितने लोगों से पूछताछ की गई, उनमें से एक भी इस जैसा दिखाई नहीं पड़ता, यहां तक कि शेखर देशमुख भी इससे मेल नहीं खा रहा है।”
इंसपेक्टर ने बारीकी से स्केच को देखा। वह गुस्से से उबल रहा था, उसके आंखें लाल और जबड़े भिंचे हुए थे। उसने स्केच की एक प्रति को इस तरह मरोड़ा मानो वह अपराधी की गर्दन ही मरोड़ रहा हो।
इंसपेक्टर माने ने घंटी बजाई। दो सिपाही उनकी ओर दौड़ कर आए। उन्होंने दोनों की तरफ देखा। स्केच के मुड़े हुए कागज को सीधा किया और कहा, “मेरी बात ध्यान से सुनो... स्केच की प्रतियों को ले जाओ और शिरवळ और आसपास के सभी गांववालों को दिखाओ। एक कॉपी बस डिपो में चिपकाओ, टी स्टॉल, पान ठेला ...एक भी गली छूटने न पाए। हम अपराधी हमारी काबिलियत का मजाक उड़ा रहा है और हम उसे खोज नहीं पा रहे हैं। अपराध को हुए आठ दिन बीत गए हैं और हमारे पास एक भी सबूत नहीं है। ये तो हमारी वर्दी का मजाक नहीं तो और क्या है।
रफीक़ मुकादम और उसके दो दोस्त अंबा देवी के मंदिर में इकट्ठा हुए। किसी वह उदास और निराश था कि इस मामले को सुलझाने के सारे प्रयास विफल साबित हो रहे हैं और इंसान की जान की कोई कीमत ही नहीं रह गई है। उसने अपने दोस्तों के साथ महाराष्ट्र भर के जितने बाल कल्याण केंद्रों में जाकर संकेत का फोटो और विवरण सौंपा था, उन सभी ने सकारात्मक उत्तर दिया था। इन केंद्रों के इनचार्ज उनके प्रति संवेदनशील तो थे, लेकिन जब उनसे इस बारे में अधिक जानकारी मांगने पर वे चिढ़ रहे थे।
उन्होंने रफीक़ और उसके दोस्तों से कह दिया कि अगर उनके पास इस संबंध में आगे कोई सकारात्मक जानकारी आएगी तो वे उन्हें फोन करेंगे, अब उन्हें इस तरफ से कोई फोन न किया जाए।
रफीक़ और उसके दोस्तों के दिमाग में जो सवाल चल रहा था वह यह था कि यह बात सूर्यकान्त और प्रतिभा को कौन बताए? प्रेमजी भाई पटेल, गुरुदेव भरदाड़े, नितिन भारगुड़े पाटील, राजेन्द्र तांबे, रवीन्द्र पानसरे और विजय मालेकर अपने-अपने क्षेत्रों में सफल व्यक्ति थे लेकिन इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं था।
रफीक़ ने प्रेमजी भाई की ओर देखा, “चलिए, सूर्यकान्त के पास चलते हैं और उन्हें यह बात बता देते हैं। माना कि संकेत आज तक घर नहीं लौटा है, पर वह कल वापस आ सकता है या किसी भी दिन आ सकता है। हम इन बाल संरक्षण केंद्रों में लगातार फोन लगाकर इस बारे में पूछते ही रहेंगे।”
शिरवळ के वरिष्ठ नागरिकों में से एक इस बातची को सुन रहे थे। उन्होंने सलाह दी, “आप सरकारी अस्पतालों में जाकर भी देखें। यदि बच्चा बेहोश होगा, घायल होगा तो आपको वह वहां मिल सकता है। आपको शवालय में भी पता करना चाहिए कि क्या वहां पर किसी बच्चे का लावारिस शव तो नहीं पड़ा है!” हर कोई सकते में आ गया। वह जो कह रहे थे क्या वह सच है, बहुत व्यावहारिक बात थी, लेकिन उसे पचा पाना मुश्किल था। किसी ने भी इस सुझाव को स्वीकारने या इससे सहमत होने में रुचि नहीं दिखाई। लाश...संकेत की लाश...? संभव ही नहीं, हमने उसे कुछ दिन पहले ही हंसते-खेलते हुए, मौज-मस्ती करते हुए देखा है, भगवान इतना निर्दयी भला कैसे हो सकता है...
भगवान के प्रति प्रतिभा का विश्वास अब डांवाडोल होने लगा था। उसके मन में इतनी कड़ुवाहट भर गई थी कि वह जनाबाई की बात भी नहीं सुन रही थी। रसोईघर छोड़कर पूजा करने जाने के बजाय वह हॉल में आ गई।
दो पुलिस वाले संजय और सूर्यकान्त से मिलने के लिए आए थे, सातारा पुलिस लोकल क्राइम ब्रांच के हेड कॉन्स्टेबल रमेश देशमुख और कॉन्स्टेबल राजेन्द्र कदम। उनसे इस मामले में आगे जांच-पड़ताल करने के लिए कहा गया था।
क्या कोई महत्वपूर्ण जानकारी छूट तो नहीं रही है, इसी बात की तस्दीक करने के लिए ये दो पुलिस वाले भांडेपाटील परिवार से कुछ और जानकारी इकट्ठा करना चाहते थे। इससे उन्हें खोज अभियान को आगे बढ़ने के लिए दिशा और दृष्टि मिल सकती थी।
अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार
©प्रफुल शाह
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