लेखक: प्रफुल शाह
खण्ड 19
गुरुवार, 02/12/1999
शेखर ने साई विहार में दोपहर 2.30 बजे प्रवेश किया। वह पांच दिनों बाद घर लौटा था, इस बीच उसकी कोई खबर नहीं थी, कोई फोन नहीं था, किसी को भी मालूम नहीं था कि वह कहां है और कब वापस आने वाला है। उसके इस व्यवहार से शिरवळ निवासियों और पुलिस वालों के मन में संदेह पैदा होना स्वाभाविक ही था।
शेखर को इस बात का लेकर काफी शर्मिंदा था कि पिछले चार दिनों से वह अपने भांजे को खोजने में परिवार वालों की मदद के लिए उपस्थित नहीं था। उसे इस बात का भी दुःख था कि उसकी बहन और उसके परिवार वालों की इस मुश्किल घड़ी में उसने कोई मदद नहीं दी।
शेखर की मनःस्थिति और उसकी भावनाओं की चिंता किए बिना सूर्यकान्त ने सीधा सवाल किया, “तुम इतने दिनों तक थे कहां?”
“मेरा मित्र एक लड़की से प्रेम करता था और उससे शादी करना चाहता था। दोनों के परिवार इसके लिए राजी नहीं थे। इसलिए दोनों ने घर से भागकर शादी करने का प्लान बनाया था। उनमें ऐसा करने की हिम्मत नहीं थी इसलिए उन्होंने मुझसे अपने साथ चलने के लिए कहा और यह भी कहा कि किसी को बताना नहीं है।”
“तो तुम प्रेमी युगल के साथ थे...लेकिन कहां?”
“गोआ में...उन्होंने वहीं शादी की..दोनों के परिवार वाले जानते थे कि मैं उनका खास दोस्त हूं ...उन्होंने सोचा कि उनमें से कोई आकर मेरे रिश्तेदारों से उनके बारे में पूछताछ करेगा...इसलिए उन्होंने मुझे भी इस बारे में मेरे घर वालों को भी बताने से मना किया था..मुझे भी ऐसा ही लगा कि ऐसा ही करना ठीक होगा...लेकिन मुझे माफ कर दें... ”
विष्णु और जनाबाई के चेहरों पर अविश्वास तैर रहा था। सूर्यकान्त सहज था, उसने अपने साले की पीठ थपथपाई और उसको प्रोत्साहित करते हुए कहा, “कोई बात नहीं। जब तुम बाहर जा रहे थे तो तुम्हें कहां मालूम था कि इस तरह की घटना होने वाली है। पर तुम्हें परिवार के कम से कम एक व्यक्ति को तो बताकर जाना था, मुझे ही बता देते।”
“मी चुकला, एकदम चुकला....” (मुझसे भूल हुई, बड़ी भूल हुई.) शेखर, परिस्थिति को देखते हुए पुलिस वालों को कुछ शिरवळ वासियों को भी तुम पर संदेह हो रहा था कि कहीं तुमने ही तो संकेत का अपहरण नहीं कर लिया।”
“मैं...अपने संकेत का अपहरण करूंगा?”
“तुम घर से किसी को भी बताए बिना गायब हो गए थे। जाने के बाद तुमने एक फोन कॉल भी नहीं किया कि तुम कहां हो। और तो और, तुम्हारा हुलिया भी उस व्यक्ति से मिलता-जुलता है जैसा अंजलि टीचर ने संकेत को स्कूल से ले जाने वाले के बारे में बताया था।”
ठीक उसी समय एक सिपाही ने साई विहार के अंदर प्रवेश किया। “शेखर भाऊ तुम्हाला चौकी वर आणायला साहेबांनी सांगितले आहे।”( शेखर भाई, सर ने मुझे तुम्हें चौकी पर लाने के लिए कहा है)
सूर्यकान्त उठ खड़ा हुआ। वह शेखर के साथ जाने को तैयार था।
सिपाही ने साफ किया कि केवल शेखर देशमुख को ही बुलाया गया है।
प्रतिभा और सूर्यकान्त निश्चिंत थे कि संकेत के गुम होने में शेखर का हाथ नहीं है। आखिर वह ऐसा कैसे कर सकता है? यह असंभव है।
“कुछ भी असंभव नहीं मिस्टर देशमुख,” इंसपेक्चर माने ने शेखर से कहा और उसे अपने सामने वाली कुर्सी पर बैठने के लिए कहा। जिस समय इंसपेक्टर माने अपनी बात कह रहे थे और इस दौरान उसके पूरे व्यवहार की विवेचना कर रहे थे, शेखर बॉल उनकी बातों को सुनते हुए पाइंट पेन को टेबल पर चला रहा था।
इंस्पेकट माने अचानक उठ खड़े हुए और एक सिपाही को बुलाया। “श्री देशमुख से पूरी जानकारी ले लो, उसके दोस्त का नाम, पता, टेलीफोन नंबर, उम्र, उसकी पत्नी का नाम, पता और उस होटल का टेलीफोन नंबर जहां वे रह रहे हैं...पूरी खोजबीन करो...जरूरत पड़ी तो नवविवाहित दंपती को भी पुलिस चौकी में बुलाओ...”
इंसपेक्टर माने ने शेखर की ओर देखा और फिर उसे जाने के लिए कह दिया। इसके पहले कि शेखर खड़ा हो पाता, माने सर ने अपना हाथ उसके कंधे पर रखकर उसे बताया, “तुमने जो कुछ बताया है, वह सही सही हो, इसमें ही भलाई है, वरना नविवाहित युगल के हनीमून में विघ्न पड़ने की गुंजाइश है। जानकर या अनजाने में, सोच-समझकर या गलती से, क्या तुमने ऐसा कुछ तो नहीं बताया है जो सही नहीं है?”तुम सच को छुपा तो नहीं रहे हो?
शेखर परेशान हो गया। उसने न में सिर हिलाया और सिपाही के साथ जानकारी देने को चल पड़ा। इंसपेक्टर माने इस बात को लेकर दुविधा में थे कि शेखर के वापस लौट आने पर वह खुश हों या नहीं। उसके द्वारा दी गई सफाई सही मालूम पड़ती है। ‘तो अब मेरे प्रमुख संदिग्धों में से एक मुक्त हो रहा है। इसका मतलब यह भी है कि अब अपराधी की खोज काम का फिर से शून्य से शुरू करना पड़ेगा।’
प्रतिभा अपने बेटे की एक झलक पाने को बेकरार थी। लेकिन, उसके दिमाग में केवल यादें ही आ-जा रही थीं। बेटे की मधुर स्मृतियां उसे किसी तीर की बेध रही थीं। संयोग से उसने फैमिली एलबम देख लिया। उसकी नजरें संकेत के पहले जन्मदिन पर खींची गई तस्वीरों पर अटक गईं। ‘हमने उसे बड़े पैमाने पर मनाया था। हमने कई रिश्तेदारों और मेहमानों को निमंत्रित किया था, खासतौक पर बच्चों को। संकेत मुझे इस तरह से निहार रहा था मानो वह मुझे बरसों से जानता था। मैंने जब उसके माथे पर तिलक धरा तो वह मेरी ओर देखकर मुस्कुराया। मैं उसकी मुस्कान फिर कब देख पाऊंगी? कब एक बार फिर मैं उसके माथे पर तिलक लगा पाऊंगी?’
एक सिपाही संदिग्ध की खोज में वाई गांव पहुंचा। वह सही रास्ते पर था, लेकिन इस बात को लेकर अनिश्चितता थी कि क्या वाकई संदिग्ध इतनी दूर आया होगा। उसने एक टेलीफोन बूथ देखा और उसके मन में शिरवळ पुलिस चौकी में फोन लगाने का विचार आया। ‘मैं पता कर लूं कि जब मैं बाहर था उस बीच क्या कोई महत्वपूर्ण सुराग तो हाथ नहीं लग गया। इससे मेरा काम भी आसान हो जाएगा।’
बूथ पर एक महिला बैठी थी। उसने रिसीवर उठाया, नंबर डायल करने ही वाला था कि एक विचार उसके दिमाग में कौंधा। उसने रिसीवर वापस रख दिया। उसे अपनी पहचान बताने की आवश्यकता ही नहीं थी, यूनिफॉर्म ही काफी थी।
“तुमचं नाव?”(आपका नाम?)
महिला की समझ में कुछ नहीं आया। वह डर गई और उसने सिपाही से पूछा, “सर क्या मुझसे कोई गलती हुई है? आप कृपया फोन लगा लें...”
“नाव सांगा पटकन”(जल्दी से अपना नाम बताओ)
“सुलभा”
“सुलभा...सरनेम?”
“सुलभा कड़ाणे।”
“सुलभा ताई, कृपया बताएं कि इस बूथ पर रोज कितने लोग फोन करने आते हैं?”
“सर, आपको सही आंकड़ा तो नहीं बता पाऊंगी।”
“अंदाजन?”
“करीब 200-300 लोग रोज आते हैं।”
अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार
©प्रफुल शाह
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