Fathers Day - 16 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | फादर्स डे - 16

Featured Books
Categories
Share

फादर्स डे - 16

लेखक: प्रफुल शाह

खण्ड 16

मंगलवार, 30/11/1999

सिपाही ने थोड़ा चौंककर, घबराई हुई नजरों से अपने अधिकारी की ओर देखा। अधिकारी माने उस पर चिल्लाए, “ऐकायला येत नाही कि खोपड़ी मधे उतरत नाही?(सुनाई नहीं देता या समझ में नहीं आता?)”

सूर्यकान्त चकराया हुआ-सा अपना सिर खुजला रहा था। अपहरण करने वाले की ओर से कोई खबर नहीं थी और कोई न उसके सोच-विचार का ही कोई नतीजा सामने आ रहा था। प्रतिभा लगातार रो रही थी। सौरभ भी दुःख के गर्त में गिरा जा रहा था। सूर्यकान्त इतनी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था कि अपने माता-पिता से नजरें मिला सके। उसका कोई भी संपर्क इस समय किसी भी तरह से कारगर साबित नहीं हो रहा था। वह असहाय था, उसकी धन-दौलत, सामाजिक प्रतिष्ठा या व्यावसायिक सफलता इस मामले को सुलझाने में किसी काम की नहीं थी। धीरे-धीरे उसे खुद से नफरत होने लगी थी। वह सोच रहा था कि वह अपने किसी भी किरदार में सफल नहीं रहा, न तो पति के रूप में, न बेटा, न पिता और न एक दृढ़-निश्चयी व्यक्ति के रूप में ही। उसके विश्वसनीय दोस्तों की टीम भी किसी ठोस विकल्प के को लेकर सामने नहीं आ रही थी कि बच्चे की खोज के मामले को सुलझाने के लिए किस तरह से आगे बढ़ा जाए। आशा की कोई भी किरण दिखाई नहीं पड़ रही थी। दोस्तों और पुलिस बल को तो छोड़ ही दें, सभी शिरवळवासी भी इस मामले को सुलझाने के लिए जो कुछ भी कर सकते थे, कर रहे थे। फिर भी असफलता ही हाथ लग रही थी।

सौरभ अपनी नोटबुक में गोले बना रहा था। वह लगातार संकेत के बारे में ही सोच रहा था। पायल और पराग आकर उसके नजदीक बैठ गए। ये बच्चे साई विहार की उदासीनता में घिर गए थे। चूंकि वे अबोध बच्चे थे, वे समझ ही नहीं पा रहे थे कि उन्हें इतना दुःख क्यों हो रहा है। पायल हैरान थी कि आखिर संकेत उनके साथ खेलने के लिए क्यों नहीं आया। यह तो उनका नियम ही था कि हर रात को वे लोग कुछ देर के लिए इसी कमरे में खेलते, मौज-मस्ती करते थे और फिर सोते थे। देर रात को, प्रतिभा आकर संकेत को उसके कमरे में ले जाती थी। पायल ने चारों ओर देखा। जब वह आश्वस्त हो गई कि उसे कोई नहीं देख रहा है तब उसने हिम्मत जुटा कर पूछा, “सौरभ भाऊ आज संकेत खेळायला येणार? सौरभ भाई, क्या संकेत आज खेलने के लिए आएगा? सौरभ ने अपने कंधे उचकाकर इशारा किया कि वह नहीं जानता। ” सभी बच्चे दुःखी थे, लेकिन साई विहार में किसी के पास भी इतना समय या ऊर्जा नहीं थी कि वे उनका ख्याल करते।

प्रतिभा इस बात का पश्चाताप कर रही थी कि वह एक दिन पहले ऊपर वाले की ओर से दिए गए इशारे को समझ नहीं पाई। उसने संकेत को कुसुम के साथ जाने नहीं दिया। संकेत तब जागा जब उसकी चाची जा चुकी थी। उसने उसके साथ खेल खेला....वह उसी कमरे में था, जहां वह थी लेकिन वह आग्रह कर रहा था कि वह उससे से फोन पर बात करेगा। प्रतिभा उससे कहती रही कि उसे जो कुछ कहना है आमने-सामने कहे, लेकिन उसे समझाने की सारे प्रयास विफल रहे। उसे फोन करने के लिए आउटहाउस में जाना पड़ा। उसने फोन पर 10-15 मिनट बात की। संकेत ने फोन पर पूछा, ‘आई, तुमने आज क्या किया? तुमने खाना खाया या नहीं?’ प्रतिभा ने उसे बड़े स्नेह से पूछा, ‘यदि तुम चाची के साथ गांव चले जाओगे तो तुम्हें मेरी याद आएगी या नहीं?’ संकेत ने जवाब दिया, ‘तुम्हें अकेला छोड़कर मैं कहीं नहीं जाऊंगा।’

संकेत ने जो कहा था, प्रतिभा उसे याद करके रो पड़ी। जनाबाई उसका ध्यान रख रही थीं। प्रतिभा ने अपनी सास को पूरा घटनाक्रम बताया कि हमेशा जल्दी सो जाने वाला संकेत कैसे देर रात तक उसके साथ जागते रहा, बातें करता रहा, खेलते रहा और दोनों साथ-साथ खूब हंसते रहे।

संकेत की यादें उसे दिमाग में लगातार चल रही थीं। वह रो रही थी, खांस रही थी और उसे सांस लेने में भी परेशानी होने लगी थी। “जाने से पहले उसने मेरे साथ बहुत समय बिताया था। उसने वह सब किया जो उसके मन में आ रहा था... ”   जनाबाई ने फटकारा, “तुम ऐसी बातें क्यों कर रही हो? वह कहीं नहीं गया है। संकेत वापस आने वाला है। वह अवश्य घर वापस आएगा।”

प्रतिभा को सांत्वना देते-देते जनाबाई स्वयं रोने लगीं। यह पहली बार था कि वह अपनी पुत्रवधू के सामने रो रही थीं। “मला संकेत हवा, काही पण करा। मला मुलगा हवाच।(मुझे संकेत चाहिए। चाहे कुछ भी करो, पर मैं उसे वापस चाहती हूं।)”

सूर्यकान्त अपनी मां और पत्नी के दुःख और उनकी परेशान हालत में देख नहीं पा रहा था। वह वहां से दूर चला गया। वह गुस्से में बुदबुदाया, “पूरे दो दिन बीत गए हैं। आखिर पुलिस वाले कर क्या रहे हैं?

इंसपेक्टर माने और उनके सभी सिपाही सावधान की मुद्रा में खड़े थे। इंसपेक्टर ने अपने साथियों से कहा, “बाकी सबकुछ भूल जाओ। जाओ और अपराधी को पकड़ने के लिए शिरवळ और आसपास के इलाके का चप्पा-चप्पा छान मारो। अपराधी संकेत को लेकर यहां से ज्यादा दूर नहीं गया होगा। टीचर अंजलि और रमेश गाढवे के बताए हुलिए के अनुसार अपहरण करने वाले का स्केच बनवाओ। ”

सिपाहियों ने एकसाथ ‘येस’ कहा। अचानक, इंसपेक्टर माने को कुछ याद हो आया, “सूर्यकान्त का साला कहां है? क्या किसी ने शेखर देशमुख के बारे में कोई जानकारी हासिल की? यह काम किसके जिम्मे था?”

“सर, एक सिपाही शेखर के बारे में जानकारी लेने के लिए किसी से मिलने गया है। शायद उसे कुछ मिल जाए।”

इसी समय सूर्यकान्त ने पुलिस चौकी में प्रवेश किया। जैसे ही उसने सिपाही को शेखर के बारे में बात करते हुए सुना, अचानक उसने एक कदम पीछे लिया और गुस्से से फट पड़ा।

“इंसपेक्टर यहां चल क्या रहा है? दो दिन हो गए मेरा बेटा घर वापस नहीं लौटा है। वह कहां होगा इसका कोई सुराग भी नहीं मिल पाया है। ऐसे कैसे आप संकेत के मामा पर संदेह कर सकते हैं?”

इंसपेक्ट माने उस पिता के दर्द को अच्छे से समझ पा रहे थे जिसका बेटा गुम हो गया है। “बघा भाऊ, टेंशन नको घ्या। ( भाई, इस बारे में चिंता न करे)”

“चिंता नहीं तो क्या करूं? घर जाकर आराम से सो जाऊं?”

“मी असं नाही म्हणत। (मेरे कहने का मतलब वो नहीं था)।”

“कृपया मुझे बताएं कि पुलिस वाले इतने अंधेरे में क्यों हैं? न तो बच्चा घर वापस आया है, न ही उसके बारे में कोई जानकारी ही मिल पाई है। ”

“हमारी खोजबीन जारी है।”

“क्या जारी है? शेखर पर संदेह?”

“उस पर संदेह करने का कारण है। बच्चे के लापता होने के एक दिन पहले से वह घर से बाहर है। उसने किसी को भी नहीं बताया कि वह कहां जा रहा है और क्यों। यहां तक कि उसने अपनी दीदी और जीजाजी को भी सूचना नहीं दी है। आज तीन दिन हो गए, वह घर लौटकर नहीं आया है। उसने किसी को फोन भी नहीं किया है। और आखिरी लेकिन बहुत महत्वपूर्ण बात, उसका हुलिया भी वैसा ही जैसा कि संकेत को स्कूल से लेकर जाने वाले आदमी का था। ऐसी परिस्थिति में हमें उसके बारे में भी जांच करना होगा, समझ गए?”

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार

©प्रफुल शाह