लेखक: प्रफुल शाह
खण्ड 15
मंगलवार, 30/11/1999
विष्णु भांडेपाटील को तंबाकू चबाने की आदत थी। आज, वह बाकी दिनों से अधिक तंबाकू खा रहे थे। वह तंबाकू को अपनी हथेलियों में घिस रहे थे। ऐसा लग रहा था कि उनकी हथेलियों में इतनी ताकत आ गई थी कि तंबाकू तो क्या वे किसी लोहे के टुकड़े को भी मसल कर रखे देते।
उन्होंने सूर्यकान्त की ओर देखा और कहा, “हे बघ, पोराला काय नाई होणार...(बच्चे के साथ कुछ भी बुरा नहीं होगा)। वह सुरक्षित घर लौट आएगा। लेकिन आज के बाद से अपने व्यवसाय में इतने अधिक व्यस्त मत रहा करो। अपने परिवार की ओर अधिक ध्यान देना शुरू करो। पैसे से जीवन नहीं खरीदा जा सकता।”
इंसपेक्टर माने समझ ही नहीं पा रहे थे आखिर कौन संकेत को स्कूल से लेकर गया और कौन, जबकि सूर्यकान्त का न तो किसी के साथ झगड़ा है न ही दुश्मनी। ‘शिरवळ में इतना गंभीर अपराध हो कैसे सकता है? सूर्यकान्त इतना भी अमीर नहीं कि कोई उससे फिरौती की मांग करे। यदि अपराधी को पैसे चाहिए हैं तो अब तक उसने फोन क्यों नहीं किया?’ मामला उलझा हुआ था। खोजबीन को आगे बढ़ाने के लिए जांच में एक भी सुराग हाथ नहीं लग पाया था।’
सूर्यकान्त ने इंसपेक्टर से कहा कि पूछताछ के दौरान किसी को भी यातना न दी जाए। उसने यह भी स्पष्टरूप से बता दिया था कि किसी के साथ भी अन्याय नहीं होना चाहिए न ही किसी पर झूठे आरोप ही लगाए जाने चाहिए।
“यदि किसी को इस मामले में गलत तरीके से फंसा दिया गया तो उन्हें समाज को मुंह दिखाना मुश्किल हो जाएगा।” पुलिस अधिकारी को सूर्यकान्त ने साफ-साफ कह दिया था।
इस सलाह से इंसपेक्टर माने को बुरा लगा। उसने सोचा हालांकि पूरा पुलिस अमला अपराधी को खोजने के लिए दिन रात जुटा हुआ है पर दुःख इस बात का है कि सूर्यकान्त ने उसके फैसले पर भरोसा नहीं किया।
इंसपेक्टर ने चारों ओर देखा। सूर्यकान्त की सलाह ने उसे परेशान कर दिया था। उसने एक ग्लास पानी पिया और गहरी सांस ली। उसने खाली ग्लास टेबल पर पटका और अपनी टेबल पर लगी घंटी बजाई। एक सिपाही दौड़ता हुआ आया।
“तुम यहां क्यों इंतजार कर रहे हो?”
“सर, आपने घंटी बजाई थी।”
“ओह, क्या मैंने घंटी बजाई थी? हां, मेरा सिर दुःख रहा है, मुझे एक कप चाय पिलाओ।”
सिपाही खंडाला-लोणंद रोड पर चाय की खोज में निकल पड़ा। उसे भी चाय की बहुत जरूरत थी। उसने देखा कि होटल मयूर खुला हुआ है। होटल में जाने की बजाय वह पास की पान की दुकान में चला गया। उसने एक बंडल बीड़ी खरीदी, दस रुपए का नोट दिया और दुकानदार रमेश गाढवे को उसकी बात ध्यानपूर्वक सुनने को कहा।
“मैं पुलिस वाला हूं, जो कुछ पूछूं उसका सही-सही जवाब देना।” डरे हुए दुकानदार से उसके 10 रुपए वापस कर दिए।
“क्या मैंने कोई गलती की है सर?”
“क्या तुमने सोमवार को किसी आदमी के साथ छोटे बच्चे को जाते या आते हुए देखा था?”
“सोमवार?”
“सोमवार या आज?”
“सर सोमवार को एक आदमी एक बच्चे के साथ मेरी दुकान पर आया था।.”
“वह आदमी कैसा दिखाई देता था? क्या तुमने बच्चे को ध्यान से देखा था?”
“सर, उसने बच्चे को देने के लिए चॉकलेट खरीदा था।”
“अच्छा, वो तुम्हारी दुकान पर कैसे आया था?”
“सर, स्कूटर में।”
सिपाही इस जानकारी को पाकर बहुत खुश हुआ। उसके लिए तो यह जानकारी भारत के बहुमूल्य कोहिनूर हीरे को पाने जैसी थी। उसने अपनी जेब से एक छोटी सी डायरी निकाली, सवाल पूछना शुरू किया और दुकानदार के जवाबों को लिखना शुरू कर दिया।
“तुम्हारा नाम ...तुम्हारी उम्र... घर का पता...कितने दिनों से तुम यहां दुकान चला रहे हो? वह आदमी किस समय तुम्हारी दुकान में आया था? उसका हुलिया कैसा था? उसने क्या पहन रखा था? क्या वह परेशान दिख रहा था? क्या उसके कपड़ों पर खून के निशान थे? क्या बच्चा डरा हुआ नजर आ रहा था? बच्चे ने क्या पहन रखा था? उसने कितने चॉकलेट खरीदे? उसने तुमको कितने पैसे दिए? यदि वह आदमी दोबारा तुम्हारे सामने आ जाए तो क्या तुम उसे पहचान पाओगे?”
इतनी पूछताछ के बाद. सिपाही को भरोसा हो गया कि दुकानदार ने जिस बच्चे को देखा था, वह और कोई नहीं, बल्कि संकेत ही था! और वह सही था !
संकेत अपहरण मामले में यह पहला विश्वसनीय सुराग था जो, पुलिस के हाथ लगा था। ‘दोनों को रमेश गाढवे ने 29 नवंबर 1999 को खंडाला-लोणंद रोड पर होटल मयूर के पास स्थित अपनी पान की दुकान पर देखा था।’
सिपाही को पूरा विश्वास था कि इंसपेक्ट माने उसके प्रयासों की सराहना करेंगे और इतनी महत्वपूर्ण जानकारी लाने के लिए उसकी तारीफ करेंगे। ऐसा तो नहीं हुआ परंतु इंसपेक्टर ने उसे एक और काम थमा दिया, “यह पहला सुराग है। जाओ और अपराधी को अपनी तहसील या जिले में तलाश करो, इसके पहले कि वह अपनी पहुंच से बाहर निकल जाए। हमें उसे पकड़ना ही होगा।”
अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार
©प्रफुल शाह
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