लेखक: प्रफुल शाह
खण्ड 12
मंगलवार, 30/11/1999
सूर्यकान्त गरम मिजाज़ का व्यक्ति था और उसका बर्ताव अशिष्ट, पर अपने काम के साथ तालमेल बिठाने वाला। ऐसा माना जाता है कि निर्दयी निर्माण उद्योग में टिके रहने के लिए ठेकेदारों को जिस तरह का काम करना पड़ता है, उसके कारण देर-सबेर उनके भीतर इस तरह की कुछ बुराइयां घर कर ही जाती हैं। यहां व्यक्ति को सौंपा गया काम तयशुदा समयसीमा में पूरा करने के लिए कई तरह के मजदूरों से निपटना पड़ता है। इन बातों को छोड़ भी दें तो सूर्यकान्त खुद की जिंदगी को पटरी पर रखना बहुत मुश्किल था, खासतौर पर खाने-पीने का कोई तय समय नहीं होता था। और यही कारण है कि वह कई बार जरूरी काम भी भूल जाता था, कई बार तो प्रतिभा उनकी ओर उसे याद दिलाती थी।
ऐसी ही एक घटना सूर्यकान्त को याद हो आई।
लहू ने साई विहार के फर्नीचर के पॉलिश का काम करीब एक सप्ताह पहले पूरा कर लिया था। उसका भुगतान भी कर दिया गया था, कुछ भी बकाया नहीं था। वैसे तो वह स्थाई कर्मचारी भी नहीं था, फिर भी।
लहू ने सूर्यकान्त को उसके मोबाइल फोन पर कॉल किया, “सर, मुझे तुरंत 500 रुपए चाहिए।” उस समय सूर्यकान्त अपने दो-तीन दोस्तों के साथ बैठा हुआ था। उन्हें पुणे के लिए निकलना था। “तुम कहां हो?” सूर्यकान्त ने उससे पूछा। “शिरवळ स्टेट ट्रांसपोर्ट बस डिपो के पास ईश्वर होटल में।” लहू का जवाब आया।
“ठीक है, वहीं रुको, मैं तुरंत वहां पहुंचता हूं।” सूर्यकान्त ने उसे आश्वस्त किया।
लेकिन, लहू से किए वायदे को सूर्यकान्त भूल गया और दोस्तों के साथ पुणे के लिए निकल गया।
“साब, मैं होटल ईश्वर पे रुका है अभी तक,” लहू ने चार बजे के आसपास सूर्यकान्त को फोन किया।
“अरे, मैं तुम्हारे पास आना भूल ही गया। अब तुम घर निकल जाओ,” सूर्यकान्त ने उसे जवाब दिया।
इतना सुनने के बाद लहू ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। वह न तो नाराज हुआ न परेशान। लेकिन, सूर्यकान्त को अपनी गलती का एहसास हुआ, पर इस समय कुछ भी नहीं किया जा सकता था।
प्रतिभा की हालत हर घंटे बिगड़ती ही जा रही थी। वह घर पर सांत्वना देने आने वाली हर महिला से लिपट जाती और एक ही बात बार-बार दोहराती। “संकेत को घर वापस लेकर आओ। उसने कल दोपहर से कुछ भी खाया नहीं है,” उसने कहा। उसके घर पर जमा हुई महिलाओं को प्रतिभा का दुःख देखा नहीं जा रहा था। रोते हुए उसके मुंह से निकलने वाले शब्दों को भी वे समझ नहीं पा रही थीं, आखिर वह कह क्या रही है, उन्हें एक ही शब्द ठीक से सुनाई पड़ रहा था, ‘संकेत’।
सूर्यकान्त ने लहू से अपना ध्यान हटाने का विचार किया और दोबारा मंत्रोच्चार करने लगा।
‘कार्तवीर्य जुनोनमम राजा बाहु सहस्त्रावनामम्
तास्येय स्मरनाम मात्रेनाम् गतम नश्तांच लभ्यते’’
जो आगंतुक सूर्यकान्त के कमरे में ही बैठे हुए थे आपस में फुसफुसा रहे थे, “लगता है यह मंत्र गायब हुए व्यक्ति की तलाश में मदद करेगा,” एक ने कहा। “उपाय करने में तो कोई बुराई नहीं है। कम से कम ये मंत्र उसकी उम्मीदों को जिंदा रखेगा, उसके चित्त स्थिर रहेगा और यदि बच्चा वापस आ जाता है तो इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है,” दूसरे ने जोड़ा।”
सौरभ अब संकेत के वापस घर आने की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा था। वह साई विहार के एक कमरे के कोने में चुपचाप बैठा हुआ था। क्या यह वही सौरभ है जो हमेशा शिरवळ की गलियों में अपने दोस्तों के साथ हंसी-मजाक और मौज-मस्ती करता रहता था?
सौरभ बातूनी बच्चा था, लेकिन इस घटना के बाद तो मानो वह गूंगा ही हो गया। वह उसके आसपास अपहरण की संभावना या ऐसी ही किसी अशुभ घटना की आशंका पर चल रही चर्चा से भयभीत था।
उसके घर में कुछ भी सामान्य नजर नहीं आ रहा था। यह सात साल का मासूम घर में व्याप्त अप्रिय वातावरण में घिर-सा गया था।
शिरवळ पुलिस चौकी में आशा की किरण थी। पूरी रात की जांच-पड़ताल के बाद, सिपाहियों ने आठ आदमियों का एक अलग दल बनाया, जिनका हुलिया संकेत को ले जाने व्यक्ति से मिलता-जुलता था, जिसका उल्लेख अंजलि टीचर ने किया था। उन्हें एक बेंच पर बैठकर प्रतीक्षा करने के लिए कहा गया, जब तक कि टीचर आकर अपराधी की पहचान न कर ले। सिपाहियों के दिमाग में एक ही बात घूम रही थी, ‘एक बार पहचान हो जाए, बस। तुमने एक मासूम बच्चे को अगवा किया और उसके कारण हम सारी रात सो नहीं पाए।’
टीचर अंजलि पुलिस चौकी में दाखिल हुईं करीब 10.30 बजे सुबह। एक सिपाही ने उनसे कुछ कहा और उन्होंने बेंच पर बैठे आठों लोगों पर नजर दौड़ाई। उनमें से किसी के चेहरे के भाव बदले नहीं। वे सभी बैठे-बैठे ऊब चुके थे, थक गए थे, उनींदा हो रहे थे, गुस्सा भी आ रहा था उन्हें। उनमें से दो के चेहरे पर तो कोई भी भाव नहीं था, मानो कुछ हुआ ही नहीं हो। एक अपना कान साफ करते हुए बैठा, तो दूसरा तंबाकू मलने में व्यस्त था।
अंजलि वाळिंबे एक आदमी के बाजू में खड़ी हो गई और उसे देर तक देखती रही। सिपाही तुरंत उत्साहित हो गया। ‘उसे खोज लिया गया, यही वो है!’ एक सिपाही ने अपनी उत्सुकता जाहिर भी कर दी। परंतु अंजली टीचर ने तीन चक्कर लगाए और वहां से दूर हट गईं। एक सिपाही उन्हें इंसपेक्टर माने के पास ले गया।
जब टीचर पहुंचीं, इंस्पेक्टर किसी के साथ चाय पी रहे थे। उन्होंने अपना कप किनारे रखकर टीचर को चाय का कप दिया। उसने मना कर दिया।
“मैडम, अपराधी कौन है? ”
“मैंने कल इनमें से किसी को भी नहीं देखा था।”
“ये सभी दिखने में करीब-करीब वैसे ही हैं जैसा कि आपने बताया था।”
“सर, सही है, पर वह आदमी इन लोगों की तुलना में कुछ ज्यादा ही गहरे रंग का था। ”
“क्या ये लोग काले-सावले नहीं हैं?”
“ये भी काले ही हैं, लेकिन वह इनसे भी ज्यादा काला था। मुझे स्कूल के लिए देरी हो रही है, क्या मैं जा सकती हूं?”
इंसपेक्ट माने ने कोई जवाब नहीं दिया, लेकिन सहमति के लिए अपना सिर हिला दिया। टीचर अंजलि चौकी छोड़ कर बाहर निकल गईं।
इंसपेक्टर माने अब और ज्यादा चिंतित हो गए। एक सिपाही ने ठट्ठा किया,“ अब हम किसी अफ्रीकन को पकड़कर लाते हैं। क्या ये लोग काले नहीं हैं? समझ में नहीं आ रहा है कि उन्होंने किसको देखा था, देखा भी था या नहीं?”
हर घर, हर दुकान और हर कक्षा में एक ही चर्चा थी, ‘संकेत कहां है?’ अब लोग अपने बच्चों को शिरवळ की सड़कों पर अकेले भेजने से भी डरने लगे थे। माता-पिता अपने स्कूल जाने वाले छोटे बच्चों को लगातार निर्देश देते जा रहे थे कि अनजान आदमियों से बात मत करना, उन्होंने कोई खाने-पीने की चीज दी तो उस ओर देखना भी मत, स्कूल से सीधे घर ही आना। सब बच्चों को एक ही सामान्य सलाह थी, “तुम सड़कों पर घूमो-फिरो नहीं। तुम्हें घर के भीतर ही रहना है या फिर ऐसी जगहों पर जाओ जो सुरक्षित और घर के आसपास ही हो, ताकि हम तुम पर अपनी नजर रख सकें।”
इतनी सलाह के बावजूद, बड़े-बुजुर्ग चिंतित थे और बच्चे परेशान और चकराए हुए थे। संकेत के साथ हमेशा खेलने वाले बच्चे इस बात को समझ ही नहीं पा रहे थे कि आखिर कोई उसे क्यों लेकर गया।
“मैं संकेत को अपने टिफिन बॉक्स से रोज एक मिठाई खिलाऊंगी,” प्यारी-सी बच्ची माधुरी गावड़े बोल पड़ी।
तो, अपर्णा मांगड़ेकर ने अपने स्कूल बैग से दो पेंसिल निकालीं। “देखो मैंने संकेत के लिए एक नई पेंसिल ली है, बिलकुल मेरी जैसी ही।”
स्वप्निल वांगड़े ने तुरंत बात आगे बढ़ाई, “अब मैं संकेत को तब तक बैटिंग करने दूंगा,जब तक वो चाहेगा।”
रोहन मिथारी तो रो ही पड़ा। “मैं अब संकेत से कभी झगड़ा नहीं करूंगा, वो बहुत प्यारा है।
स्कूल में पढ़ने वाले ये नन्हें बच्चों ने तो गुमशुदा, अपहरण और फिरौती जैसे शब्दों को कभी सुना ही नहीं था, उनका मतलब जानना तो दूर की बात है।
वे तो केवल इतना समझ पा रहे थे कि हर बीतते हुए दिन, और बिकटतम होती स्थिति के साथ, ये शब्द उनके शब्दकोश में शामिल होते जा रहे हैं।
सौरभ को संकेत की बहुत याद आ रही थी। जब भी कोई उसके कमरे के भीतर आता था, उसकी आंखें आशा से चमक उठती थीं।
अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार
©प्रफुल शाह
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