किसी ने क्या खूब लिखा है –
‘जीवन में यह अमर कहानी , अक्षर अक्षर गढ़ लेना , शौर्य कभी सो जाए तो सैनिक का जीवन पढ़ लेना ! ‘ शायद नियति मेरे साथ भी यही किस्सा रचती जा रही थी | आठवीं या नौवीं कक्षा से अपने पिताजी के सानिध्य में साहित्य और लेखन से मेरा जुड़ाव हो चला था | उनके रफ़ लेखों को मैं अपनी अच्छी हस्तलिपि देता था और उसे पत्र- पत्रिकाओं में भेजने ,छपने के बाद उसका संग्रह करने का काम बखूबी करने लगा था | जब पारिश्रमिक आता तो मुझे भी पिताजी इनाम देते ..और बस ! मैं धन्य हो उठता था क्योंकि यह तो ‘आम के आम गुठलियों के दाम’ सरीखे होता |
..आप जिज्ञासु तो होंगे ही यह जानने के लिए कि भला वो कैसे ? तो उसका उत्तर यह है कि उन दिनों सोशल मीडिया तो था नहीं , पत्र- पत्रिकाएँ ही घर घर पढ़ी जाती थीं | उनमें छपने का मतलब यह होता था कि आप ‘हीरो’ बन गए ! ऊपर से देर सबेर पारिश्रमिक भी आता था | हाईस्कूल करते- करते मैंने हिन्दी में टाइपिंग भी सीख ली थी इसलिए अब वे सामग्रियां टाइप होकर जाने लगी थीं |
मुझे याद है कि वर्ष 1969 में हाई स्कूल उत्तीर्ण करने के बाद मुझे दयानन्द इंटर कालेज में दाखिला मिल गया था |मैं अपने बेतियाहाता से सायकिल से स्कूल जाया करता था | स्कूल के दो जेलनुमा गेट थे,एक मुख्य सड़क पर और दूसरा पीछे |उनमें नियत समय पर टाला ठोंक दिया जाता था और देर से आए छात्र को प्रेयर के बाद जेलरनुमा प्रधानाचार्य से मिलकर ही प्रवेश मिल पाता था |मेरे किशोर मन पर इसका बड़ा असर पडा और आगे से जीवन में समय का पाबन्द होना ही उसने मुनासिब समझ लिया |
हाँ , विद्यालय से लगभग 2 से 2-30 बजे छूट जाया करता था और फ़िर मैं अपनी पाठ्येत्तर गतिविधियों के लिए भरपूर समय पा जाता था |ये गतिविधियाँ थीं –गोरखपुर से प्रकाशित होने वाले उस समय के एकमात्र दैनिक अखबार “हिन्दी दैनिक” और उसके बाद वहीं के एक पाक्षिक अखबार “सही समाचार” में समय बिताना | उन दिनों डा.हरिप्रसाद शाही गोरखपुर के गणमान्य नागरिक और कांग्रेस के बड़े नेता थे |वे पिपराइच से दो बार विधायक रह चुके थे और उन दिनों जिला परिषद गोरखपुर के चेयरमैन थे|उन दिनों “आज” लोकप्रिय अखबार था लेकिन वह वाराणसी से छपकर आता था | ”हिन्दी दैनिक” शाही जी का अखबार था और उसके सम्पादन का काम उनके सुपुत्र विजय प्रताप शाही करते थे | शुरुआत में मैं जब एक दिन डरते- डरते उस अखबार के दफ्तर में पहुंचा तो विजय जी ही मिले थे |मुझे उनका व्यवहार बहुत ही अच्छा लगा और उन्होंने मेरे इस निवेदन को स्वीकार कर लिया कि मैं अंशकालिक सम्पादन की अपनी सेवाएं देते हुए पत्रकारिता का ककहरा सीख लूँ |
उधर “सही समाचार’ के मालिक-सम्पादक डा.राम दरस त्रिपाठी थे जो मेरे पिताजी के मित्र थे | उन्होंने कोलकता से अपनी पत्रकारिता की यात्रा शुरू की थी और अब वे गोरखपुर से अपना स्वयं का प्रेस लगाकर अखबार निकाल रहे थे | चूंकि अखबार पाक्षिक था इसलिए वहां हफ्ते में एक या दो बार जाकर मैटर तैयार करना और उसे सम्पादक जी को सौंपना मेरा काम था | त्रिपाठी जी बहुत जीवट वाले मस्त पत्रकार थे | किसी से डरते नहीं थे और हमेशा विवादों में बने रहना उनका शौक था | सह सम्पादक के रूप में मेरी पत्रकारिता की यह यात्रा गोरखपुर से शुरू हो चुकी थी | कुछ यूं समझ लीजिए कि ये दोनों संस्थान कुछ इस तरह के थे कि मेरी पत्रकारिता कोर्स की थियरी और प्रैक्टिकल एक साथ वहीं चलने लगी थी |अगले दिन का छपा हुआ अखबार मेरे अनुभव और ज्ञान का आइना होता था |शाही जी दफ्तर में कम आते थे लेकिन उनके सामने प्रतिदिन सुबह “हिन्दी दैनिक” अवश्य होता था |कभी कभी जब “आज”देर से आता था तो शहर में “हिन्दी दैनिक” ही छाया रहता था |
वह वर्ष था 1969 का जब विश्व प्रसिद्ध सीमांत गांधी उर्फ़ अब्दुल गफ्फार खान भारतवर्ष की यात्रा के दौरान गोरखपुर भी आए हुए थे | अपने संगठन “खुदाई खिदमतगार” को लेकर वह भारत में भी हिन्दू मुस्लिम भाईचारे का प्रसार कर रहे थे | उनकी एक प्रेस कांफ्रेंस उन दिनों रेलवे स्टेशन के पास स्थित सिंचाई विभाग के गेस्ट हाउस में रखी गई | यह अवसर मेरे लिए प्रेस कांफ्रेंस कवरेज करने का सुनहला अवसर बन गया | मैं उसे कवर करने पहुंचा | अन्दर से बहुत घबडाहट हो रही थी | पिताजी से टिप लेकर कुछ सवालों की लिस्ट मैंने बना ली थी | वहां गोरखपुर के एक से एक दिग्गज पत्रकार ( ‘पायनियर’ के मुन्नालाल , ‘नादर्न इंडिया पत्रिका’ के आर.डी.त्रिपाठी,’आज’ के ज्ञान प्रकाश राय आदि) मुझ जैसे नौसिखिया को घूर रहे थे |मौक़ा देखकर मैंने भी सीमांत गांधी से अपना सवाल पूछ ही डाला था जिसका उन्होंने उत्तर भी दिया | मैं हर्ष के साथ वहां से सीधे” हिंदी दैनिक” दफ्तर लौटा था और अखबार के पहले पन्ने की हेड लाइन यह प्रेस कांफ्रेंस बनी थी |
”हिन्दी दैनिक” आठ पृष्ठों का अखबार हुआ करता था और उसके पेट भरने के लिए सम्वाददाताओं द्वारा भेजे गए समाचार, विज्ञापन,प्रेस सूचना कार्यालय के मैटर,स्थानीय प्रेस विज्ञप्तियां,सम्पादकीय आदि का सहारा लिया जाता था | टेलीप्रिंटर पर आए समाचारों और रेडियो के धीमी गति के समाचारों का भी सहारा लिया जाता था | मैटर के लिए हेड मशीनमैंन शंकर सर पर सवार हो जाया करता था |उधर विजय बाबू अब धीरे धीरे मुझ पर लगभग आश्रित हो चले थे और वे दफ्तर आते अवश्य थे लेकिन सिगरेट और चाय के दौर तक ही उनका योगदान रहने लगा था |उनके जीवन की भी एक अलग ही कहानी है जिसमें विलासिता है , प्यार है, विछोह और टूटन है ! अत्यधिक चाय पीने की आदत मुझे वहीं से लग गई थी जो आज तक बनी हुई है |वहां काम करते हुए मुझे ज्ञानचंद जैन और राजेश शर्मा जैसे वरिष्ठ पत्रकारों का सानिध्य भी मिला |अगर मैं उन कृष्ण कुमार मिश्र का नाम नहीं लूंगा जो उस प्रेस के मैनेजर थे तो बहुत बड़ी भूल होगी जो मेरे गाँव के पास के गाँव उनवल के थे और जिन्होंने मुझे पुत्रवत स्नेह दिया था |
पाठकों , आज मैं दावे के साथ इस बात को कहना चाहूँगा कि अपनी 18 साल की युवा उम्र में किसी दैनिक अखबार में काम करते हुए एक अप्रेन्टिस पत्रकार के रूप में कैरियर की शुरुआत करते हुए मैंने फील्ड रिपोर्टर,डेस्क सम्पादक,सम्पादकीय एवं स्तम्भ लेखन जैसी विधाओं में पारंगतता पा ली थी जो आगे चलकर बहुत काम आई |आज धन और समय देकर भी कोई संस्थान इतना प्रशिक्षण नहीं दे सकता है जितना “हिन्दी दैनिक “ ने मुझे दे दिया था |
हिंदी के एक मूर्धन्य कवि हैं श्री अशोक चक्रधर | उनकी इस लोकप्रिय कविता से मैं अपनी आत्मकथा के इस किश्त को समापन बिंदु की ओर ले जाना चाहता हूँ –
“लहर ने ,समन्दर से उसकी उम्र पूछी ,समंदर मुस्कुरा दिया | लेकिन जब बूंद ने लहर से उसकी उम्र पूछी तो लहर बिगड़ गई ,कुढ़ गई,...चिढ गई...बूंद के ऊपर ही चढ़ गई ...और .....और इस तरह मर गई ! बूंद समंदर में समा गई और ... समंदर की उम्र बढ़ा गई ! “
पाठकों, मैं भी उस बूंद के समान हूँ जिसकी नियति अंततःप्रकृति के समन्दर में समा जाना है |लेकिन उसको अभी यात्रा तो करनी ही है इसलिए आत्मकथा का शेष भाग आगे के पन्नों में |
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