लेखक: प्रफुल शाह
प्रकरण 2
सोमवार, 29/11/1999
भले ही, शिरवळवासियों का ध्यान इस ओर गया न हो, लेकिन साई विहार को छोड़कर सारा कस्बा किसी विषाद की गिरफ्त में था। हमेशा की तरह घड़ी ने सुबह के सात बजाये और सूर्यकान्त की दिनचर्या रोज़ की ही तरह शुरू हो चुकी थी। वह तैयार होकर सोफे पर बैठा था, अपनी सुबह की चाय के इंतजार में। उसने शिरवळ के दैनिक अखबार ऐक्य को पढ़ना तो शुरू किया, पर न जाने क्यों उसका ध्यान नहीं लग रहा था। उसने अखबार किनारे रख दिया और किन्हीं ख्यालों में खो गया। उसने एक के बाद एक अपनी चार अंगूठियों को चूमना शुरू किया जो उसने अपने दाहिने हाथ की अंगुलियों में पहन रखी थीं। ‘मेरा काम आज खत्म हो जाएगा’ वह आश्वस्ति के साथ मुस्कुराया। ‘क्या यह दिन दोबारा आएगा?’ उसने एक बार फिर अखबार उठा तो लिया पर उसका सारा ध्यान अपनी कलाई पर बंधी घड़ी की ओर लगा रहा। जब प्रतिभा उसके लिए बहुप्रतीक्षित चाय का कप लेकर आ रही थी, उसने हसरत भरी नजरों से रसोई की ओर देखा। चाय का कप सूर्यकान्त को थमाने से पहले प्रतिभा ने उसे एक बार फिर याद दिलाई कि लैंडलाइन टेलीफोन कनेक्शन को आउटहाउस से अपने घर के भीतर शिफ्ट करना है। उसने कप हाथ में लिया और बुदबुदाया, ‘’आज बहुत सारे काम निपटाने हैं। पर तुम फिक्र मत करो, ट्रांसफर के लिए मैंने पहले ही अप्लाई कर रखा है। आज मैं खुद जाकर मिल लेता हूं। ’’
सूर्यकान्त ने पहले प्रतिभा को निहारा फिर अपनी कलाई पर बंधी घड़ी को देखा। प्रतिभा ने अनुभव किया कि देर होती जा रही है, वह चुपचाप वहां से हट गई। ‘आखिर कोई इतना शांत कैसे रह सकता है?’ चाय सुड़कते और ऐक्य पढ़ते हुए सूर्यकान्त आश्चर्य में था।
उसने मुश्किल से चार पन्ने ही पढ़े होंगे कि प्रतिभा छोटे बेटे संकेत के साथ फिर आ गई। उसके बाल गीले थे और शर्ट के बटन भी लगे हुए नहीं थे। प्रतिभा ने कुछ नहीं कहा, बस सूर्यकान्त की ओर इस नजर से देखा कि वह समझ गया क अब उसे संकेत को स्कूल के लिए तैयार की जिम्मेदारी उठानी होगी। उसने बेटे को नजदीक खींचा और प्रतिभा से पूछा कि आज नाश्ते में क्या मिलने वाला है। इसके पहले की प्रतिभा कुछ जवाब देती, संकेत ने अतिउत्साह में अपनी मां से कहा कि वरण भात (एक महाराष्ट्रीयन पकवान) बनाए। सूर्यकान्त ठठाकर हंसा और बोल पड़ा, “भला नाश्ते में भी कोई वरण भात खाता है!’’ प्रतिभा ने कहा वह कान्दा-पोहा खिलाने जा रही है। संकेत नाराज हो गया। उसने अपनी नाखुशी पैर पटकते हुए व्यक्त की और वरण भात का आग्रह करता रहा। प्रतिभा ने बेटे को आश्वस्त किया कि वह शाम को उसका पसंदीदा व्यंजन बनाकर खिलाएगी। सूर्यकान्त बुदबुदाया, “ हां, हमें हर रात को भोजन में कुछ मीठा खाना पसंद है। यह अच्छा रहेगा।’’
प्रतिभा को अपने बड़े बेटे सौरभ को भी जगाना था। वह फुर्ती से निकल गई। सूर्यकान्त ने संकेत के बालों को सुखाया, बटनों को ठीक से लगाकर शर्ट को पैंट में खोंसा। उसने बड़े प्यार से बेटे के सिर पर थपकी दी। उस वक्त वह किसी शेर की मानिंद अपने शावक पर गर्व महसूस कर रहा था। इससे संकेत को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। वह तैयार होकर अपने पिता से दूर अपने बैट-बॉल से खेलने के लिए भाग गया।
सूर्यकान्त फिर से अखबार पढ़ने लगा। उसका भाई विवेक नाश्ते पर उसका साथ देने आ पहुंचा था। विवेक की आंखें सुर्ख थीं, संभवतः वह रात को ठीक से सो नहीं पाया हो। उसने अपने भाई का ध्यान खींचने के लिए जरा ज़ोर से जम्हाई ली, लेकिन सूर्यकान्त अखबार पढ़ता रहा।
“सब कुछ सही तो है?” उसने भाई से नजरें मिलाए बगैर ही पूछा।
विवेक ने सर हिलाकर हामी भर दी।
“क्या आज का काम सही तरीके से निपट जाएगा?” उसने जरा तल्ख़ी से पूछा।
विवेक थोड़ा शर्मिंदा हुआ।
“दादा, सबकुछ सही तरीके से जमा दिया गया है, ठीक ढंग से पूरा हो जाएगा. मेरा काम कब होने जा रहा है ....”
यह बातचीत एकाएक ही रुक गई, दरअसल, संकेत ने बॉल पर जोरदार तरीके से प्रहार किया था और वह एक खिड़की से टकरा गई थी। साई विहार की दीवारों में एक कंपन सी हुई, इसने टेरेस पर बैठे हुए परिंदे को भी विचलित कर दिया। वह कर्णभेदी क्रंदन करता हुआ दूर उड़ गया।
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एक जोड़ी आंखें कुछ दूरी से साई विहार को निहार रही थीं। ग्रे रंग के स्कूटर पर बैठा व्यक्ति गुस्से और नफरत से उबल रहा था। एक कुटिल मुस्कान के साथ उसने आकाश की ओर देखा।
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प्रतिभा रसोई से प्लेटों में कांदा पोहा भरकर बाहर आई। सौरभ उसके पीछे-पीछे था। वह स्कूल यूनिफॉर्म में बड़े सलीके से तैयार हुआ दिखाई दे रहा था। सूर्यकान्त, विवेक और सौरभ ने नाश्ता करना शुरू किया। प्रतिभा ने संकेत के हाथों से बैट बॉल लिया, उसे गोद में उठाया और पिता के सुपुर्द कर दिया। सूर्यकान्त ने उसे चम्मच से पोहा खिलाने लगा। खिलाते हुए वह सतर्क भी था कि कहीं पोहा इतना गर्म न हो कि उसके नन्हें को खाने में परेशानी हो। सौरभ और विवेक दोनों ही उसकी इस अनुराग्य भावभंगिमा को देख रहे थे, लेकिन इस दौरान दोनों की विचार प्रक्रियाएं अलग-अलग थीं। जहां सौरभ बखूबी जानता था कि उसने उस उम्र को पार कर लिया है जब उसके माता-पिता उसे अपने हाथों से खिलाया करते थे और इस तरह दुलार करते थे। विवेक इस सोच में था कि क्या कभी उसके बच्चे, पराग और पायल इस तरह की ममता पा सकेंगे। तिरस्कार और नफरत के साथ उसने खुद को समझाया, ‘आज मैं इस स्थिति को हमेशा के लिए बदल कर रख दूंगा।’
संकेत और पोहा नहीं खाना चाहता था। वह झुंझलाने लगा था। सूर्यकान्त उसे बड़े प्यार से अपने और करीब खींचा और समझाने लगा कि वह एक अच्छा बच्चा है और अच्छे बच्चे अपना नाश्ता समय पर पूरा खत्म करते हैं नहीं तो उन्हें स्कूल के लिए देर हो जाती है।
“ बाबा, क्या आप मुझे अपनी बाइक में स्कूल छोड़ देंगे?”
“मुझे बहुत सारे काम करने हैं, इसलिए मैं तुमको नहीं छोड़ सकता। ”
“यदि आप मुझे नहीं छोड़ेंगे, तो मैं स्कूल नहीं जाऊंगा। ”
विवेक ने कहा, वह उसे स्कूल छोड़ देगा।
“ नहीं, मैं आपके साथ नहीं जाऊंगा। बाबा के साथ उनकी बाइक पर जाने में बड़ा मजा आता है।”
“ चलो, अब तुम दोनों अपने चाचा के साथ स्कूल जाओ। मैं शाम को तुमको बाइक पर लॉंग ड्राइव पर लेकर जाऊंगा।”
“ आपको हमें नदी, पुल और किले तक लेकर जाना होगा!”
सूर्यकान्त उन्हें ऐसे स्थानों पर ले जाने के लिए राजी हो गया जहां वे इसके पहले कभी नहीं गए थे। उसने संकेत को गोद में उठाया और गालों को चूम लिया। ऐसा लगा मानो संकेत को अपने पिता का प्रेम प्रदर्शित करने का यह तरीका पसंद नहीं आया। उसने अपने गालों को पोंछ डाला, ये देखकर उसके पिता जोर से हंस पड़े।
विवेक दोनों को देख रहा था। सौरभ ने उससे पूछा पायल और पराग कहां हैं। इसके पहले कि विवेक उत्तर देता, सूर्यकान्त बोल पड़ा, “वे सो रहे होंगे। उनकी स्कूल दोपहर में होती है।”
विवके ने साई विहार से ठीक 9 बजे विदा ली। उसे संकेत और सौरभ को स्कूल छोड़ने जाना था। प्रतिभा को यह बंदोबस्त जंचा नहीं। वह सूर्यकान्त के नजदीक जाकर बुदबुदाई, “यदि आज हम बच्चों को स्कूल न भेजें तो क्या हो जाएगा?”
सूर्यकान्त बेचैन हो उठा, “तुम स्कूल चली जाओगी, मैं अपने काम पर निकल जाऊंगा। बच्चों को घर पर अकेले छोड़ने से अच्छा है उन्हें स्कूल भेज देना...तुमने आज अचानक ऐसा क्यों कहा?” वह पूछ बैठा।
प्रतिभा ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह सुस्त कदमों से रसोई की ओर निकल गई। सूर्यकान्त सोच रहा था, ‘यह ठीक है कि कोई भी मां अपने बच्चों को अपने से दूर होता नहीं देख सकती, लेकिन ऐसा आखिर कब तक चलेगा...? और वह मेरे प्रश्नों के उत्तर कभी नहीं देती। ’
तभी उसको अहसास हुआ कि उसे नहाने के लिए जाना चाहिए, वरना उसे काम में विलंब हो जाएगा। आज का दिन बड़ा महत्वपूर्ण है, उसे कई जरूरी काम निपटाने हैं।
जैसे ही सूर्यकान्त बाथरूम में घुसा, विवेक और उसके दोनों भतीजों ने साई विहार से बाहर निकल गए। फातिमा उन तीनों को एकसाथ देखकर बहुत खुश थी। वह टेलीफोन की तरफ भागी। विवेक ने अपनी बाइक स्टार्ट की। इस आवाज को सुनकर, परिंदे ने जो साई विहार के ईर्द गिर्द चक्कर लगा रहा था, शिरवळ शवदाहगृह की ओर उड़ान भरी।
ठीक इसी समय, स्कूटर पर बैठे व्यक्ति ने भी अपनी गाड़ी स्टार्ट कर दी। जैसे ही विवेक की बाइक सड़क से गुजरी, कोई नहीं जानता था कि कैसे इनमें से एक व्यक्ति का आज डरावना अंत होने वाला है।
अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार
©प्रफुल शाह