(एक बेहद मार्मिक उपन्यास)
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मुक्तेश्वर।
छोटी-सी जगह. भरा पूरा कस्बा। ब्रिटिश शासन में किसी अंग्रेज़ गवर्नर का निवास स्थान होने के कारण यहाँ पर अधिकांशतः इमारतें उसी काल की बनी हुई थीं- लाल और मज़बूत पक्की ईंटों की विशाल इमारतें देखते ही लगता था कि आज भी वे इस आधुनिक युग की बनी बिल्डिंगों के मुकाबले अत्यधिक प्रबलता के साथ अपनी दृढ़ता का प्रमाण दे रही थीं, साथ ही समझनेवालों के लिए अतीत की उन कठोर और ज़ख्मी स्मृतियों को भी उनके मानसपटल पर आज भी प्रतिबिंबित कर देती थीं जबकि अंग्रेज़ों के एक अदना सिपाही तक ने हमें अंगुलियों पर नचाया था।
अधिकांश सभी कुछ तो उसी ही समय का आज भी जैसा-का-तैसा था- मिशन अस्पताल, क्रिश्चियन कालेज, स्कूल, जीसस किड्स होम, चर्च की गगनचुंबित क्रास की चोटी एवं रेलवे स्टेशन इत्यादि तक, परन्तु फिर भी सरकार ने अभी तक इस कस्बे को तहसील तक ही सीमित रहने दिया था। पर इतना अवश्य था कि लोगों में जाति-पांति और पक्षपात का भेद समाप्त हो जाए, इसलिए एक राजकीय कालेज और राजकीय अस्पताल अवश्य ही खुलवा दिया था।
चूंकि, कभी ये क्षेत्र किसी अंग्रेज़ गर्वनर का मुख्य स्थान था, इस कारण यहां पर ईसाइयों की संख्या अन्य जातियों के मुकाबले अधिक नहीं तो कम भी नहीं थी-अधिकतर ईसाई लोग स्कूल, कालेज, अस्पताल एवं मिशन की अन्य सेवाओं तक ही सीमित थे।
अभी रात-भर की नम सुबह की घास पर आकाश से टपकी शबनम की बूँदें सूर्य-रश्मियों को ढ़ंग से चूम भी नहीं पाई थीं कि चर्च के घंटे रुक-रुककर बजने लगे थे-मानो तरस-तरसकर-इस प्रकार की उनकी एक ही गूँज से आसपास वातावरण सहम सा जाता था। दूर आकाश में छुटपुटे बादलों के टुकड़े लावारिसों के समान टिके हुए चुपचाप चर्च के इन दर्द भरे घंटों की आवाज़ को दिल थामकर सुनने जा रहे थे। सारा वातावरण ख़ामोश था। हरेक वस्तु की मानो ज़ुबान काटकर फेंक दी गई थी। ईसाईयों की बस्ती में एक अजीब ही सन्नाटा और दिल सुखा देनेवाली मनहूसियत छा गई थी।
रविवार का दिन था, परन्तु मसीही लोगों के समूह चर्च की ओर न जाकर, आज सड़क के दूसरी ओर बने एक बेहद ख़ामोश और वीरान स्थान में जाकर खड़े हो गए थे-कब्रिस्तान के प्राचीर में सभी चुप खड़े थे। मुँह लटकाये, झुके-झुके उदास चेहरे वहाँ के दुख भरे उदास वातावरण का सहारा लेकर इस बात की बेआवाज़ सूचना दे रहे थे कि उनका कोई प्रियजन आज सदा के लिए उनको अंतिम नमस्कार करके कभी भी न टूटने वाली गहरी नींद में सो गया है।
श्रीमती राय!
इन मसीहियों के लिए एक ईसाई प्रचारक वृद्ध महिला थीं, आरम्भ से ही उन्होंने ईश्वर की सेवा के लिए कार्य किया था। अपना समस्त जीवन उन्होंने मनुष्यों की भलाई एवं ज़रूरतमंदों की आवश्यकताएँ पूर्ण करने और परोपकार में लगा दिया था। आचार-विचार से वे बेहद नम्र, मिलनसार और मृदुभाषी महिला थीं। वे सदैव दूसरों के प्रति अपने ह्रदय में दर्द की वेदना को बसाए हुए हर किसी का दुख बांटने को सर्दव तत्पर रहती थीं। इन्हीं ईसाई लोगों के बीच मुक्तेश्वर की इस छोटी-सी बस्ती में उनका अपना घर था। थोड़ी-सी भूमि थी, जो उनको अपने पति से विरासत में मिली थी। इसके साथ-साथ वे मिशन में वर्षों से प्रचार सेवा का कार्य तो कर ही रही थीं। मुख्यतः उनकी आय का साधन तो यही था।
मुक्तेश्वर के इस विशाल, वीरान सन्नाटे में डूबे हुए अंग्रेज़ों के इस कब्रिस्तान में सब ही की दुखद आंखें चुपचाप अपने बीच रखे हुए उस काले ताबूत को निहार रही थीं जिसमें श्रीमती राय का शव बंद करके रख दिया था। जीवन के बासठ वर्ष तक की आयु पूर्ण करने तक उन्होंने मानव भलाई के लिए ही कार्य किया था। अपने जीवन का एक-एक पल वे दूसरों को अर्पित करती रही थीं, सदैव दूसरों को समझाया था, एक-दूसरे का दुख बांटने और आपस में प्रेम करने की शिक्षा दी थी और यही कारण था कि उनका मृदु व्यवहार बस्ती के हरेक मनुष्य, प्रत्येक स्त्री और बच्चे एवं युवाओं के लिए एनके प्रति एक कभी भी न समाप्त होने वाली श्रद्धा के रूप में स्थान बना चुका था। प्रत्येक पुरुष उनका सम्मान करता था।
सब-के-सब मूक पत्थरों के बुतों के समान अपने मध्य से श्रीमती राय को यूं सदा के लिए दूर चले जाने के वियोग में टुकुर-टुकुर निहार रहे थे। झुके-झुके और मंुह लटकाये चेहरे, आंखों में बेबसी और दिलों में अपार दुख के साथ अपनी निराशा का प्रदर्शन कर रहे थे। सब ही इस तथ्य को जानते और समझते थे कि उनके लिए मानव जीवन का यह वह स्थान था कि जहां पर आकर मनुष्य न चाहते हुए भी आकर ठहर जाता है ओर यहां आकर वह फिर कभी दुबारा टूटता नहीं है बिखरता नहीं है- असहाय नहीं पड़ता है, बल्कि एक ऐसी चिरनिद्रा का आनंद ले रहा होता है कि जिसके स्वाद का बखान आज तक कोई नहीं कर सका है।
ताबूत को जैसे ही रस्सियों के सहारे नीचे कब्र में उतारा जाने लगा तो वहां खड़े हुए समुदाय के लोगों के दिल जैसे बाहर निकल पड़े, स्त्रियां सुबक पड़ीं। सभी मनुष्यों के चेहरे दुख के भार से बोझिल हो गए, परंतु तभी पादरी महोदय ने बाइबिल से कोई पद पढ़कर सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया।
श्रीमती राय का दुख सभी को था, सब ही उनकी अनुपस्थिति से बेचैन थे-बेसब्र और दुखी। लेकिन इन सब से भी अधिक दुख था, तो वह थी ‘रचना‘। भोली-भाली प्यारी कोमल पुष्प-सी मात्र पांच वर्षीय अबोध बच्ची। मासूम, बेहद नादान, जो संसार के जीवन-मृत्यु जैसे शब्दों का अर्थ तो भली-भांति नहीं समझती थी, परन्तु ये अवश्य ही महसूस कर रही थी कि उसके सिर पर ममता का हाथ रखने वाली श्रीमती राय को काले लकड़ी के ताबूत में अवश्य ही बंद कर दिया गया है। उन्हें भूमि में बंद कर रहे हैं लोग....? क्यों....और किसलिए? श्रीमती राय के निधन के साथ ही मानो वह एक बार पुनः अनाथ हो चुकी है। जीवन के इस कटु तथ्य को वह अब तक नहीं समझ पा रही थी।
रचना को श्रीमती राय ने अपनी बच्ची के समान ही पाला था। वह उनको अनजाने में ही जीवन की चलती राह की ख़ामोशी में एक किलकारी के रूप में प्राप्त हुई थी। रचना कौन थी, कहां से आई थी, उसके माता-पिता कौन थे, ये कोई नहीं जानता था। शायद किसी की वह संतान थी, जिसे हमारा समाज अनुचित जैसे शब्दों का प्रयोग उनके मान-सम्मान पर आरोप लगाकर अपनी अभद्रता का प्रदर्शन करता है। ये वह ‘रचना’ थी, जिसे मानव ने बनाया था और मानव ने ही उसे जन्म दिया था। वह नाज़ुक फूल थी जो अपने जन्म से पूर्व ही अपनी फूटी किस्मत का भाग्य लेकर अपनी मां की कोख में जन्म ले चुकी थी। समय की मार ने उसके साथ कोई रियायत नहीं की थी।
रचना का जन्म किन परिस्थितियों में हुआ था, ये तो किसी को भी ठीक से ज्ञात नहीं था, परन्तु जिन हालात में वह श्रीमती राय को प्राप्त हुई थी, उससे तो यही ज्ञात होता था कि उसको जन्म देने वाली उसकी सगी मां भी उसकी अपनी नहीं हो सकी थी। कोई उसको भारी ठंड से किटकिटाती रात्रि की ख़ामोशी में श्रीमती राय के बगीचे में छोड़ गया था। श्रीमती राय को प्राप्त होने पर रचना कोई भी पता-सूत्र नहीं मिल सका था। केवल बच्ची के साथ उन्हें शुद्ध हिंदी में लिखा हुआ उसकी दुखियारी मां का एक छोटा-सा पत्र अवश्य ही मिला था, जिसमें केवल इतना ही लिखा था-
‘मैं इस अबोध बच्ची को उसकी किस्मत के आसरे आपके द्वार पर इस आस और उम्मीद पर छोड़कर जा रही हूं कि आप उसको उसी प्रकार गले लगा लेंगी जैसे कि जीसस ने बच्चों को गले लगाया था और कहा था कि स्वर्ग का राज्य ऐसों (बच्चों) ही का है। मेरी विवशता ये है कि मैं इसकी अविवाहित मां हूं, और एक मां होकर अपनी इस प्यारी-सी ‘रचना’ को अपने कलेजे से नहीं लगा सकती.....’
श्रीमती राय तो स्वभाव से वैसे भी बति कोमल मन की थीं। हालांकि, वे विवाहित होकर भी मां तो नहीं बन सकी थीं, परन्तु उनके पास एक मां का हृदय अवश्य था। इसी कारण उन्होंने काई भी आगे पीछे सोचे बगैर उस अबोध बच्ची को अपना लिया था और उसका नाम उसकी मां के पत्र में लिखे नाम के अनुसार रचना ही रखा था। और इस प्रकार से कौन जानता था कि मानवीय प्यार की बेकद्री एवं वासना के ज्वार में पैदा हुई संतानों को शायद यही हश्र होता है। समय से पहले ही बेसहारा बच्चे अपने सुंदर और उज्जवल भविष्य की ओर न जाकर अपने आने वाले कल के काले पृष्ठों को पलटने पर विवश हो जाते हैं-बिना ब्याही हुई मांएं, कुंवारे बाप अपनी संतानों को देखकर पहचानते हैं, और फिर समाज में अपने झूठे और खोखले आदर्शों का मान रखने की वजह से मुंह फेरकर यूं चल देते हैं कि मानों ऐसी अबोध ऐसी अबोध ज़िंदगियों से उनका कोई वास्ता ही न रहा हो। जीवन के अनमोल मूल्यों के सांचों में ढली ये संतानें संसार में आती हैं और मानव पतन की एक गिरी दशा का प्रमाण बनकर रह जाती हैं।
बच्ची को पाकर आरंभ में श्रीमती राय फूली नहीं समाई थीं। उसको देखकर उन्हें ऐसा लगा था कि वर्षों से वह जिस फूल को अपने आंगन में खिलाने का स्वप्न देख रही थीं, वह अब अचानक ही एक मासूम कली के समान उभरकर जन्म ले चुका है। वह ऐसी कली थी, जो एक दिन शायद उनके घर का पुष्प बनकर अपने आस-पास के सारे चमन तक को अपनी मनमोहक से सराबोर कर देगी। ऐसी मुस्कान कि जिसके आंचल में उनके शेष जीवन की खुशियों भरी झंकारें सदा के लिए सुरक्षित हो चुकी थीं-ऐसी किलकारी जिसके पग पड़ते ही उनके मायूस-ख़ामोश जीवन में एक आस और उम्मीद की तरंगें बिखर गई थीं। इतना सब होने होने पर भी उन्होंने तो उसी समय बच्ची को अपने हृदय की सच्ची भावना से अपना लिया था, परंतु भले ही वह एक ओर स्वभाव से ईसाई महिला थीं और बच्ची को अपना बनाना उनका कर्तव्य था, वह जीसस क्राइस्ट में दिल-ओ-जान से विश्वास भी रखती थीं, लेकिन दूसरी और वह अपने आदर्शों और कानूनी नियमों की भी पक्की थीं।
सबसे बड़ी समस्या बच्ची को लेकर जो उनके पास आई थी, वह यही थी कि वे यह निर्णय नहीं ले पा रही थीं कि उसका पालन-पोषण किस धर्म के आवरण में किया जाए? क्योंकि बच्ची के नाक-नक्श और कपड़ों के हिसाब से वह किसी हिंदु परिवार की लगती थी। उसके मस्तिष्क पर काला टीका, हाथों में शगुन के डोर और गले में काले डोरे में किसी हल्की धातु का बना हुआ स्वास्तिक का चिन्ह। इन सब वस्तुओं से तो यही ज़ाहिर होता था कि बच्ची का पिता चाहे भले ही हिंदु न रहा हो, पर उसकी मां अवश्य ही हिंदु संस्कारों में विश्वास रखने वाली थी। और इस प्रकार से बच्ची का पालन-पोषण हिंदु रीति-रिवाज़ों से ही होना चाहिए था-लेकिन उनकी शिक्षा, उनके धार्मिक बंधन अपने घर दहलीज़ के अंदर ये सब करने की आज्ञा नहीं देते थे।
वह ये भी जानती थीं कि बच्चा कोई भी जन्म से किसी भी धर्म को लेकर नहीं आता है। मनुष्य ही बच्चे को किसी भी धर्म का अनुयायी बनाता है और एक मासूम बच्चे को किसी भी राह पर मोड़ने और लाने में उसकी परवरिश करने वाली उसकी मां का दायित्व सबसे बड़ा होता है और हो सकता है कि कल को भारतीय समाज उनसे इस बात का जवाब तलब करे कि उसका धर्म-परिवर्तन क्यों कर दिया गया? क्योंकि इतना तो निश्चित था कि यदि बच्ची उनके घर में पलेगी-बढ़ेगी तो वे उसे किसी प्रकार से ईसाई धर्म से संलग्न होने से विमुख नहीं कर सकेंगी-क्योंकि यदि वे ऐसा करतीं तो उनके लिए ये सबसे बड़ा पाप था-धर्म और इंसानियत दोनों ही रीतियों से।
इस कारण इस समय उन्होंने बच्ची की फोटो के साथ अखबार में इस प्रकार का विज्ञापन दे दिया था कि ऐसी परिस्थितियों में बच्ची उनको मिली है जो जन्म से हिंदु है। यदि उसके मां-बाप कोई भी जीवित हैं तो वे आकर बच्ची को ले जाएं-उनका नाम व पता यदि वे चाहेंगे तो गुप्त रखा जाएगा और बच्ची के पालन-पोषण के लिए आर्थिक सहायता का प्रबंध भी किया जा सकता है। इसके लिए यदि कोई अन्य व्यक्ति बच्ची को अपनाना चाहता है, तो उन्हें कोई भी आपत्ति नहीं होगी, अन्यथा फिर बच्ची उनके अपने परिवार में उनके अपने एक सदस्य के रूप में पलेगी और इस ज़िम्मेदारी का उत्तरदायित्व उनका अपना नहीं होगा।
पर जैसी कि उनको आशा थी, वैसा तो विज्ञापन के पश्चात् कुछ भी नहीं हुआ। एक भी व्यक्ति-स्त्री उस बच्ची के बारे में झूठे-से भी नहीं पूछने आया; परन्तु हां, शहर के कुछेक समाजसेवी नेता लोग अवश्य ही उनके यहां आ धमके और उन्होंने उसे राजकीय अनाथालय में भेजने का जोर अवश्य दिया था। लेकिन ये बात भी नहीं थी, और तब हार मानकर श्रीमती राय को बच्ची अपने पास ही रखनी पड़ी थी। तब यही सोचकर उन्होंने उसे गले लगा लिया था कि कोई निर्णय करे अथवा न करे, परंतु परमेश्वर इसका न्याय अवश्य ही करेगा। और इस प्रकार से बच्ची उनके परिवार की एक प्यारी-सी सदस्या बन गई थी। ताबूत को कब्र में उतारने के पश्चात् जैसे ही वहां, उदास खड़े लोगों ने अंतिम मिट्टी देना आरंभ की, तो एक ओर खड़ी हुई मासूम-अबोध रचना अपनी प्यारी आंटी को यूं मिट्टी में बंद होते देख सुबक पड़ी-श्रीमती राय को वह आंटी ही कहकर सम्बोधित करती थी। रचना से जब नहीं रहा गया तो वह रोने लगी। सुबह-शाम तक मृत्यु के इन अंतिम दृश्यों को देखती रही थी, परंतु भोली और नासमझ होने के कारण वह पहले कुछ समझ नहीं सकी थी; अब जबकि उसके सामने ही उसकी आंटी को मिट्टी में बंद कर दिया गया था तो वह रो पड़ी थी। बच्ची का दिल था-मासूम और बेहद कोमल-वह रोने के अतिरिक्त और कर भी क्या सकती थी।
जब वह जोर से रोने लगी तो वहां खड़ी हुई दूसरी महिला ने उसे अपनी गोद में उठा लिया। अब, सभी का ध्यान रचना की ओर केंद्रित हो चुका था। अबोध रचना को सब देखते थे और फिर सोचते थे-और जब सोचते थे, तो फिर सेाचकर विवश हो जाते थे; बेचारी! इसका क्या होगा अब? क्या करेगी ये? कौन पालेगा अब इसे? एक तो पहले ही बिन मां के थी, अब तो बिल्कुल ही बेसहारा हो गई है। इस बेचारी के दूध के दांत भी नहीं टूटे होंगे कि अब तो ये कहीं की भी नहीं रही है। वैसे भी इसका इस संसार में श्रीमती राय के अतिरिक्त था ही कौन? कौन संभालेगा इसको अब? कौन इसको आश्रय देगा? यदि ये लड़का होती तो शायद कोई इसको अपना ही लेता-कोई तो गोद आसानी से ले ही लेता। परंतु एक लड़की को पालकर कौन जीते-जी एक बड़ी ज़िम्मेदारी अपने सिर पर लेना चाहेगा। इस मुक्तेश्वर की इस छोटी-सी बस्ती में तो कोई है भी नहीं ऐसा जो इसको आश्रय दे सके। वैसे भी ये अनाथ लड़की आरंभ से ही अपना फूटा नसीब लेकर इस दुनिया में आई थी। कितना खोटा भाग्य है इसका। संसार में आते ही पहले बाप छोड़ गया होगा, फिर जन्म के पश्चात् लोक-लाज की खातिर मां ने दामन छुड़ा लिया; और जबकि थोड़ा-बहुत ठिकाना मिला भी था, तो वह सहारा खुदा ने छीन लिया। अब ये क्या करे? कहां जाए? किसके आसरे रहे? कौन इसको अपने गले से लगा सकेगा? शायद जितने लोग थे, उसी प्रकार से उनके अपने-अपने विचार भी थे।
दफन की रस्म पूरी हो गई, तो शायद चेहरे निराश कामनाओं के लुटे हुए काफिलों के समान धीरे-धीरे पीछे लौटने लगे। थके-थके से कदम-मानो उठना ही नहीं चाहते थे। फिर भी उन्हें वापस आना था। कैसे भी मन मारकर धीरे-धीरे मूक बुतों के समान वापस हो लिए थे। तो भी उदासियों के चक्रों में घिरे हुए पांव कितना भी धीमे चलते, ये फासला तो दूर होना ही था, इसलिए दुःख के मारे लोग चलते थे-रुकते थे-रुककर पीछे कब्रिस्तान के प्रचीर में संसार से उठने वाले एक और जीवन का अंतिम हश्र निहारते थे और फिर मायूस बदलियों के समान अपना स्थान छोड़कर आगे बढ़ जाते थे।
रचना को जब कोई भी आश्रय नहीं मिल सका, तो कुछ समय के लिए उसे मुक्तेश्वर के चर्च पास्टर दीनानाथ ने उसे अपने घर में रख लिया। दिवंगत श्रीमती राय पहले से कोई अपनी वसीयत तो कर नहीं सकीं थीं, इस कारण उनका अपना निजी घर, सारा सामान और थोड़ी-सी भूमि आदि जो कुछ भी थी, उनके दूर के रिश्तेदार की एक बहन जो अभी तक मसीह को अपना नहीं पाई थी, और गैर-मसीही थी; उनके हाथों में लग गई। उनकी बहन ने भी केवल श्रीमती राय की सम्पत्ति को हथियाना ही अपना ध्येय समझा और रचना को अपनाने के लिए स्पष्ट मना कर दिया। भारतीय कानून के नियमानुसार ये ठीक था कि श्रीमती राय की सम्पत्ति पर रचना का दत्तक-पुत्री के रूप में पूरा अधिकार था, परंतु उसके मात्र बच्ची होने के कारण, वह उस पर अधिकार नहीं कर सकती थी। फिर इस प्रकार श्रीमती राय की बहन उनकी सम्पत्ति को हथियाकर वापस लौट गई और रचना फिर से अनाथ बनकर अपने किसी सहारे के लिए इधर-उधर मुंह ताकने लगी। अब उसका आगे-पीछे कोई भी नहीं था। वह कहां जाती? किसके लिए और किस उम्मीद पर अपने सहारे का आंचल फैलाती? ऐसी दशा में जब दुनिया के करतार का ही साया उसके ऊपर नहीं रहा था। फिर पांच वर्षीय, फूल-सी कोमल, एकदम नादान बच्ची-ऐसी अबोध जो अभी तक इस संसार के बदलते हुए रंगों का मिजाज़ ही नहीं पाई थी और जिसने अभी इस धरती पर संभलकर चलना भी नहीं सीखा था मुक्तेश्वर की सारी मसीही बस्ती के लिए एक चिंता का विषय तो बन गई थी, पर उस चिंता का समाधान करने के लिए कोई भी आगे नहीं बढ़ सका था-सब-के-सब जैसे चुपचाप, मौन, मौसमी हवाओं के समान कतराकर खिसक जाना चाहते थे।
दूसरी ओर, हालांकि, पास्टर दीनानाथ ने रचना को अभी तक अस्थायी संरक्षण तो दे रखा था, परंतु वे स्वयं भी एक दम्पत्ति थे-उनके अपने भी पांच बच्चे थे, घर-परिवार था-एक पूरे भरे-पूरे परिवार की हरेक तरह की सारी ही ज़िम्मेदारियां उनके सिर और कंधों पर टिकी हुई थीं। ऐसी दशा में जहां एक ओर फूल-सी रचना की मधुर सुगंध को संभालना उनका कर्तव्य बनता था, वहीं उनके लिए वह एक दूसरी समस्या और उत्तरदायित्व का भार बन चुकी थी। रचना के भावी भविष्य के लिए उन्होंने काफी लोगों से अब तक बातचीत की थी-उन सभी की सलाह-मशवरा और व्यक्तिगत राय भी वे ले चुके थे-स्वयं की परिस्थितियां, अपनी व्यक्तिगत समस्याओं, कठिनाइयों तथा विवशताओं से अवगत भी कराया था, परंतु सबकी राय और समय की परिस्थिति को सामने रखते हुए जो निर्णय और निचोड़ उनके सामने आया था, उसका आशय यही था कि रचना को किसी अनाथालय की शरण में भेज दिया जाए। फिर बिन मां-बाप और बिन सहारे की इस मासूम अबोध सी अधखिली कली के लिए किसी अनाथालय से अधिक सुरक्षित स्थान और हो भी क्या सकता था? वहां इस प्रकार के बच्चों को एक आश्रय तो मिलता ही है-रचना भी अपना कहीं-न-कहीं सिर छिपा ही लेगी। हो सकता है कि वहां पर उसका उज्जवल भविष्य भी सुरक्षित हो सकेगा, फिर सबसे बड़ी बात कि अनाथालय में किसी के व्यक्तिगत कंधों का भार बनकर तो नहीं रह सकेगी। इस प्रकार आरंभ में उसे मुक्तेश्वर के ‘जीसस किड्स होम’ में भेज दिया गया। फिर बाद में कुछ समय के पश्चात् उसको वंदनापुर के मिशनरी अनाथालय में स्थानांतरित कर दिया गया। ये था रचना का टूटा-फूटा भाग्य, जिसने उसे जन्म से अनाथ तो बनाया ही था, साथ ही उसे किसी का शरणायक भी बना दिया था। भारतीय संप्रदाय चाहे वह किसी समाज, व धर्म के ही क्यों न हों, आज भी इस प्रकार की कड़वी मिसालों से रिक्त नहीं हैं।
वंदनापुर के मिशनरी अनाथालय में पहुंचकर मुक्तेश्वर के चर्च पास्टर दीनानाथ, रचना का ध्यान रखते रहे। वे वहां आते-जाते रहे और रचना का हालचाल पूछते रहते थे। स्वयं रचना भी कभी-कभी उनके साथ कुछ दिनों के लिए उनके घर मुक्तेश्वर आती-जाती रही। दीनानाथ उसको अपने उत्तरदायित्व पर मुक्तेश्वर अपने घर ले आते थे। इस प्रकार अनाथालय की शरण में पहुंचकर भी रचना का संबंध मुक्तेश्वर से बराबर बना रहा।
क्रमश: