नि:शब्द के शब्द / धारावाहिक
अपनी कब्र पर फूल रखने और मोमबत्तियां जलाने आई हूँ
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होटल ग्रीज़ी.
जितना मनहूस नाम इस होटल का था, उससे भी कहीं अधिक इसके यहाँ की बनी हुई शाकाहारी बिरियानी की विशेष प्लेट भी सारे शहर में मशहूर थी. यह होटल जैसे ही सुबह दस बजे से खुलता था तो फिर रात के बारह बजे तक इसकी भीड़ ही समाप्त नहीं होती थी. इसी कारण, मोहिनी ने भी जब इसकी चर्चा सुनी तो उसने भी आज दोपहर का लंच यहाँ खाने का अपना मन बना लिया था.
वह अपनी कार में बैठी हुई चली जा रही थी और साथ ही अपने पिछले दिनों की हुई उस घटना को भी याद कर रही थी, जिसमें मोहित जैसे फिर एक बार उसे अजमाने के लिए सीवन नदी के मरघट पर टकरा गया था. सो वह यह सोचने पर मजबूर हो चुकी थी कि, कहीं-न-कहीं मोहित के दिल में उसके प्रति कोई तो ऐसा विश्वास है जो उसकी शक्ल देखते ही अविश्वास में बदल जाता है. वह उसके द्वारा दिए गये तमाम सबूत और बातों पर तो विश्वास कर लेता है परन्तु उसका चेहरा जब वह देखता है तो तुरंत ही शक के घेरे उसे चारों तरफ से घेर लेते हैं. साथ ही मोहिनी के वे कार्य-कलाप जो इकरा की आत्मा के द्वारा उसकी उपस्थिति में किये गये थे, उनसे भी वह जैसे भयभीत हो चुका था. फिर भी, इतना सब कुछ होने के बाद भी अब मोहित की बेवफाई के कारण उसकी तस्वीर मोहिनी के दिल-ओ-दिमाग से उतर चुकी थी. उसने सोच लिया था कि, अगर ईश्वर ने, ऊपर वाले ने, अथवा 'शान्ति के राजा' ने उसे कोई भी जीवन-साथी, जैसा भी दिया, तो फिर वह उसी के लिए सदा को समर्पित हो जायेगी, मगर इस मोहित के लिए भूलकर भी अपना जीवन अब दांव पर नहीं लगाएगी. इंसान का दिल एक शीशा ही तो है, अगर टूट गया तो फिर वह कभी भी जुड़ता नहीं है। यही सोचती हुई ग्रीज़ी आ गया तो उसने अपनी कार को पार्किंग में खड़ा किया और फिर जैसे ही दरवाज़ा खोलकर, अपना पर्स कंधे से लटकाकर नीचे पग रखा ही था कि, तभी एक आठ-दस साल के गरीब लड़के ने उसके पैर के सैंडिल पर अपना सिर रख दिया और उससे गिड़-गिड़ाने लगा,
'आंटी ! कुछ नहीं चाहिए, बस दो रोटी खिला दीजिये. तीन दिनों से कुछ खाया नहीं है. केवल पानी पी रहा हूँ.'
'अच्छा, पहले मेरे पैर छोड़ो और उठकर खड़े हो.' मोहिनी ने उस लड़के को आश्चर्य से देखते हुए कहा तो वह लड़का तुरंत ही खड़ा हो गया और एक उम्मीद से उसका मुख निहारने लगा.
'कौन हो तुम?' तब मोहिनी ने पूछा.
'आशू.' उस लड़के ने अपना नाम बताया.
'कितने दिन से भूखे हो तुम?'
'?'- उस लड़के ने अपने हाथ की चार अंगुलियाँ दिखाईं तो मोहिनी उससे बोली,
'मैं भी खाना खाने ही जा रही हूँ. तुम्हें भी खिलाऊँगी. लो तब तक यह खाओ.' यह कहकर मोहिनी ने अपने पर्स से 'स्नीकर' की चोकलेट कैंडी निकालकर उसे खाने को दी.
सो उस आशू नाम के अनजान और अपरिचित लड़के ने तुरंत ही वह कैंडी ले ली और उसे खोलकर शीघ्र ही खाने लगा. मोहिनी उसके कैंडी खाने के अंदाज़ से ही समझ गई कि, सचमुच वह लड़का कई दिनों का भूखा था.
तब मोहिनी अंदर होटल में गई और उस लड़के को भी साथ ले गई. दोनों अंदर जाकर एक मेज पर बैठ गये. होटल के बैरे के आने पर मोहिनी ने दो जनों के खाने का ऑर्डर दे दिया. फिर जब खाना आ गया तो आशू मोहिनी से बोला,
'आंटी, मैं हाथ धोकर आता हूँ.'
'?'- मोहिनी ने आँखों से ही उसे हां बोल दिया. तब वह गया और अंदर हाथ धोकर शीघ्र ही आ गया. तब मोहिनी ने उससे कहा कि,
'खूब, आराम से खाओ. बिलकुल मत झिझकना.'
तब उस आशू ने मोहिनी को देखकर अपने दोनों हाथ जोड़कर पहले कोई प्रार्थना की और उसके बाद वह खाने लगा.
फिर मोहिनी ने भोजन के मध्य ही उससे पूछा कि,
'आशू ! तुम ईसाई हो क्या?'
'पता नहीं.'
'तो फिर तुमने भोजन खाने से पहले दुआ क्यों की थी?'
'वह मेरी मां ने सिखाया है कि, खाना खाने से पहले, खाना देने वाले को धन्यवाद जरुर देना चाहिए.'
'तुम्हारी मां कहाँ रहती हैं?'
'ऊपर, परमेश्वर के यहाँ.' आशु बोला तो मोहिनी कुछेक पलों के लिए चुप हो गई.
इस प्रकार मोहिनी को आशू नामक उस लड़के के बारे में जो जानकारी मिली वह इस प्रकार से है;
आशू को अपने पिता के बारे में कोई भी जानकारी नहीं थी. उसकी मां गोरे अंग्रेजों के कब्रिस्थान के पास जो मसीही बस्ती है, उसी के मुर्गी फ़ार्म में काम करती थी और वहीं उसे एक कोठरी भी रहने के लिए दे दी गई थी. मगर एक दिन उसे अचानक से बुखार आया और डेंगू हो गया. इसी डेंगू ने उसकी जान ले ली. मां के मरने के बाद आशू अनाथ हो गया. जब उसकी मां नहीं रही तो वह कोठरी भी उससे ले गई और आशू को सरकारी अनाथालय में भेज दिया गया. अनाथालय में उसके साथ बुरा सलूक हुआ तो वहां से तंग आकर वह भाग आया. तब मसीही बस्ती के ही एक अन्य सज्जन पुरुष ज्योतिर्मय ने उस पर तरस खाया और उसे अपने पास रख लिया. वह उनका घर आदि का काम करता था और वहीं रहता भी था. लेकिन, ज्योतिर्मय चार दिनों की कहकर अपने घर, गाँव गये हुए हैं और तब से लौटकर भी नहीं आये हैं. उनके घर में ताला लगा हुआ है और केवल आंगन ही खुला है, जंहा वह अभी भी सोने के लिए जाता है.'
आशू की सम्पूर्ण दुखभरी कहानी सुनकर मोहिनी ने उससे कहा कि,
तुम खाना खा लो. उसके बाद मैं तुम्हें घर छोड़ आऊँगी.'
आशू ने जी-भर कर, भरपेट भोजन किया और बाद में मोहिनी को धन्यवाद देते हुए थैंक यू भी कहा तो मोहिनी की अंतरात्मा अंदर तक खुशियों से भर गई. इसलिए नहीं कि, उसने किसी भूखे को खाना खिला दिया था, बल्कि, इसलिए कि, आज उसके हाथों कोई ईश्वरीय कार्य सम्पन्न हो सका था.
तब खाने आदि से निवृत होने के बाद मोहिनी आशू को छोड़ने उसके निवास तक, ज्योतिर्मय के घर तक गई. मगर जाते समय जब वह अंग्रेज गोरों के कब्रिस्थान के पास से गुजरी तो उसके प्राचीर को देख कर उसके अतीत के सोये हुए तार जैसे फिर एक बार झनझना उठे. उसे तुरंत याद आया कि एक समय था जब वह इसी कब्रिस्थान में, उसकी बाहरी दीवार पर, कभी अन्य कब्रों के पत्थरों पर उदास, परेशान और अकेली बैठी रहती थी. वह जानती है कि, एक दिन था जबकि, इसी कब्रिस्थान की सौ साल से भी अधिक पुरानी कब्र में उसको बेरहमी से मारकर, मोहित के चाचा और उनके साथियों ने, उसके जख्मी बदन को दफना दिया था.
मोहिनी को अपनी कब्र याद आई. उसे जमीन में अपना दबाया हुआ शरीर याद आया. और साथ ही अपना भटकता हुआ आत्मिक जीवन याद आया कि, कैसे वह तब एक पंख कटे हुए पक्षी के समान, फड़-फड़ाती हुई आसमान और इस धरती पर मारी-मारी फिर रही थी.
सो मोहिनी ने आशू को उसके निवास तक छोड़ा. साथ में थोड़े से पैसे भी दिए और अपना कार्ड निकालकर भी दिया और कहा कि, अगर उसे किसी भी चीज़ की जरूरत हो तो वह उसके पास आ सकता है. इतना करके, मोहिनी सीधे, बाज़ार गई. वहां से ताज़े गुलाब के फूल खरीदे. मोमबत्तियां लीं और चल दी सीधी, अंग्रेज गोरों के कब्रिस्थान की तरफ- अपने द्वारा, अपनी ही कब्र पर, अपनी ही श्रृद्धांजलि देने के लिए. कोई नहीं जानता था कि, मोहिनी के लिए उसकी कब्र पर ये रखे जाने वाले फूल उसकी अपनी मृत्यु के मातम के प्रतीक थे अथवा उसके जीवन की उन खुशियों के लिए जिन्हें पाने के लिए वह आज भी अपने हाथ-पाँव मार रही है?
दिन के लगभग दो बज रहे थे. आकाश में बादल छाये हुए थे, अक्टूबर का महीना होने के कारण वातावरण में हल्की-सी ठंडक का बसेरा था. धूप निकली हुई थी, पर वह भी जैसे रात की शबनम से अभी तक पसीजी हुई थी.
मोहिनी ने अपनी 'इनोवा' कार जैसे ही अंग्रेज गोरों के कब्रिस्थान के बड़े लोहे के गेट के सामने रोकी तो कब्रिस्थान के चौकीदार नबीदास की आँखें उसे एक संशय से देखने लगी.
मोहिनी चुपचाप अपनी कार से उतरी. कार में से गुलाब के फूल उठाये. मोमबत्तियों के पेकेट निकाले. मोमबत्तियां जलाने के लिए माचिश निकाली, और अपने पैरों से सैंडिलों को उतारकर, श्रद्धा का सारा सामान अपने हाथों में पकड़े हुए वह जैसे ही कब्रिस्थान के गेट के पास आई तो नबीदास ने पहले तो उसे नमस्कार किया फिर बोला,
'मेम साहब ! किस मिट्टी की तरफ जाना है आपको. मैं कोई मदद करूं आपकी?'
'जी ! थैंक यू. मैं खुद चली जाऊंगी.'
'वैसे, मैंने आपको पहचाना नहीं. अगर बुरा न माने तो . . .?'
'मैं मोहिनी व्यास हूँ.' मोहिनी ने अपना नाम बताया तो नबीदास पहले से भी अधिक आश्चर्य से घिर गया.
'?'- यहाँ, आपको किसकी कब्र पर फूल रखने हैं?' नबीदास से नहीं रहा गया तो उसने पूछ ही लिया.
'अपनी खुद की कब्र पर?'
मोहिनी ने कहा तो नबीदास अंदर ही अंदर काँप गया. वह सोचने लगा कि, अब तक तो आत्माएं अकेले ही, खाली हाथ दिखा करती थीं, पर आज तो बाकायदा कार से आई है और वह भी खुद की कब्र पर श्रद्धांजली देने के लिए? सोचने ही मात्र से उसे पसीने आ गये. लेकिन, उसने साहस करते हुए मोहिनी से आगे पूछा. वह बोला कि,
'मेम साहब, मुझे मॉफ करिएगा. मैं कुछ समझा नहीं?"
'मैं समझाती हूँ. मैं मरी नहीं थी, बल्कि मेरा कत्ल कर दिया था और मुझे यहीं किसी की कब्र में दबा दिया गया था. अब मैं दोबारा इस संसार में आई हूँ. चाहती हूँ कि, अपने बदन पर खुद ही कुछ फूल अर्पण कर दूँ. आइये मेरे साथ.'
मोहिनी कहते हुए आगे चलने लगी तो नबीदास भी एक भय और संशय के साथ उसके पीछे चलने लगा. तब मोहिनी कब्रिस्थान के प्राचीर में अंदर जाकर उसी कब्र के सामने जाकर ठहर गई, जिस पर अंग्रेजी के शब्दों में उस पर खड़ी हुई सलीब पर लिखा हुआ था- 'कैटी जौर्जियन, 10/10/1800 - 11/8/1890.
नबीदास ने जब उपरोक्त शब्द पढ़े तो वह भयभीत होकर, एक संशय और हैरानी के साथ, मोहिनी का मुख ताकने लगा. इस पर मोहिनी ने नबीदास को देखा तो उसे टोक दिया. वह बोली कि,
'आप ऐसे क्या देख रहे हैं? यही मेरी कब्र है. इसी में मेरा बदन, कत्ल करनेवालों ने दफन कर दिया है.'
'?'- नबीदास का मुंह एक विस्मय से खुला का खुला रह गया.
'अगर, यकीन नहीं है तो खोद कर देख लीजिये?'
'नहीं. . .नहीं, सब ठीक है. सब ठीक है. आप मोमबत्तियां जलाइये.'
यह कहकर नबीदास, शीघ्र ही कब्रिस्थान के बाहर निकला और तुरंत ही प्रीस्ट की कोठी की ओर दौड़ गया. वह सोचने पर मजबूर था कि, आज फिर वर्षों बाद उसने उसी प्रेतात्मा को देख लिया है कि, जिसके कारण उसने कभी कब्रिस्थान की चौकीदारी की नौकरी छोड़ देने की बात अपने प्रीस्ट से कही थी. भला, ऐसा कभी हुआ भी है कि, कोई खुद ही अपनी कब्र पर फूल और मोमबत्तियां रखने व जलाने आये? इन बलाओं का क्या भरोसा? अभी हम से सभ्यता से बात कर रही हैं और दूसरे ही पल, क्रोधित होकर, अगर मेरा ही गला पकड़ ले, तो?
नबीदास ने घबराते, डरते और हैरान होते हुए प्रीस्ट के दरवाज़े की घंटी बजाई तो वे लगभग दस मिनट के बाद अपनी आँखें मलते हुए बाहर आये. लगता था कि, जैसे दोपहर का लंच खाकर सोने चले गये थे. उन्हें दरवाज़े के बाहर आते, देखते ही नबीदास अपने चेहरे पर हवाइयां बिखेरते हुए जैसे बदहभास में बोला कि,
'साहब ! जल्दी से चलिए. आज वह फिर-से आई है. अपनी ही कब्र पर फूल रखने और अगरबत्तियाँ जलाने के लिए? और वह भी नई चमचमाती, आलीशान, मंहगी कार लेकर.?'
'क्या मतलब? कौन आई है?' प्रीस्ट ने आश्चर्य से नबीदास को देखा.
'अरे ! वही बला और कौन?'
'तुम्हारा दिमाग तो ठीक है?'
'मैं, बिलकुल ठीक हूँ. कहती है कि, मैं, अपनी ही कब्र पर मोमबत्तियां जलाऊँगी.' नबीदास ने कहा तो प्रीस्ट ने फिर से आश्चर्य से कहा कि,
'मैं समझा नहीं'
'आप नहीं समझ पायेंगे, जब तक खुद चलकर नहीं देखेंगे? एक बार चलकर तो देखिये?' नबीदास ने आग्रह किया तो वे बोले कि,
'अच्छा, चलो.'
इतना कहकर प्रीस्ट घर में से निकलकर नबीदास के साथ कब्रिस्थान की तरफ जाने लगे. जब तक वे दोनों, वहां पर पहुंचे तो मोहिनी कब्रिस्थान के गेट से बाहर निकल कर अपनी कार की तरफ जा रही थी. कहीं, उनके वहां पहुंचने से पहले वह चली न जाए, यह सोचकर नबीदास मोहिनी की तरफ भागा और उसको रोकते हुए बोला,
'मिस. . .मिस? ज़रा रुकिए तो. मेरे पादरी साहब आपसे मिलना चाहते हैं?'
'?'- मोहिनी नबीदास को देखते हुए थम गई और उसके पीछे प्रीस्ट को अपनी तरफ आते हुए देखने लगी.
फिर जब प्रीस्ट मोहिनी के करीब आये तो मोहिनी ने उनके अभिवादन में अपने दोनों हाथ जोड़कर नमस्ते की तो वे आश्चर्य से नबीदास की तरफ देखने लगे. फिर जैसे तनिक क्रोध में उससे बोले कि,
'तुम इन्हीं को बला. . .?'
'?'- नबीदास चुप ही रहा. तब प्रीस्ट मोहिनी की ओर सम्बोधित हुए. बोले,
'आप यहाँ पहली बार आई हैं. कभी दिखी नहीं? कहाँ रहती हैं आप?'
'?'- मोहिनी ने पहले तो उन्हें आश्चर्य से देखा. फिर बोली,
'रहती तो मैं यहीं पर थी, पर करीबन तीन साल पहले यहाँ से चली गई थी.'
'यहीं पर? मतलब, हमारे मसीही कैम्पस में?' प्रीस्ट ने जैसे अपने मस्तिष्क पर बल डाले.
'जी नहीं. यहीं पर.'
'मैं आपका नाम पूछ सकता हूँ क्या?'
'मोहिनी. मेरा मतलब मोहिनी व्यास.'
'यहाँ, कहाँ पर रहा करती थी आप?'
'बताया न मैंने आपको. यहीं, इसी कब्रिस्थान में.'
'कब्रिस्थान में . . .? मैं कुछ समझा नहीं. ज़रा खुलकर बताइए?'
तब मोहिनी ने उनसे कहा कि,
'ऐसे आपको समझाना कठिन होगा. आइये मेरे साथ.'
यह ककर मोहिनी उन्हें, अपनी उसी कब्र के पास ले गई, जिसमें उसे मारकर दफना दिया गया था. सो वह उस कब्र की ओर अपने हाथ का इशारा करती हुई बोली,
'यह कब्र देख रहे हैं आप . . .? आज से करीब तीन साल पहले मेरी निर्ममता से हत्या करके इसी कब्र में मेरे बदन को दबा दिया गया था. तब मरने के बाद मैं इसी कब्र के ऊपर, कभी इसी कब्रिस्थान में बैठी रहती, तो कभी घूमती-फिरती रहती थी. आप चाहें तो खुदवाकर देख सकते हैं इस कब्र को.'
'?'- प्रीस्ट के साथ-साथ नबीदास ने भी मोहिनी को हैरत से देखा तो वह आगे बोली,
'मुझे मालुम है कि, आपका मेरी बातों पर विश्वास करना ज़रा मुश्किल ही होगा. मगर जब आपने बात आरम्भ ही कर दी है तो फिर आगे सुनिए,
'यहाँ से भटकने के पश्चात मैं एक दिन, आसमान में 'मनुष्य के पुत्र' के 'शान्ति के राज्य' के महल में पहुंची और उनसे विनती की कि, मुझे फिर से संसार में भेज दिया जाए क्योंकि, मुझसे मेरे मंगेतर का दुःख देखा नहीं जाता है. सो, उन्होंने मुझ पर दया की और एक दिन मुझे दूसरी औरत के बदन में, जिसका नाम इकरा हामिद था, भेज दिया. इस तरह से मेरे पास बदन तो इकरा हामिद का है, पर मेरे अंदर आत्मा मोहिनी की है.'
'किसका राज्य बताया था आपने. . .? क्या 'मनुष्य के पुत्र का?'
'जी हां.'
'आपने देखा है उन्हें?'
'हां, बात भी की है. लेकिन, मैं उनका चेहरा नहीं देख सकी थी.'
'क्यों?'
'उनके चेहरे पर सूरज से भी अधिक तेज रोशनी चमक रही थी.'
'मनुष्य का पुत्र?, 'शान्ति का राजकुमार? आपका मतलब जीजस, यीशु मसीह या ईसा मसीह से है?'
'मुझे नहीं मालुम कि, उनका क्या नाम था. मैंने पूछा नहीं, उन्होंने बताया नहीं.'
'और क्या देखा था आपने?' प्रीस्ट की उत्सुकता बढ़ चुकी थी.
'उन मनुष्य के पुत्र के महल के राजगढ़ की दीवारें चोखे सोने की बनी हुई थीं. वहां पर बहुत ही मनभावनी शान्ति थी और महल की दीवारों पर जगह-जगह लिखा हुआ था- 'शान्ति का राजकुमार', 'जीवन और मार्ग मैं हूँ', 'जगत की ज्योति मैं हूँ', 'देखो, मैं फिर से आऊँगा', 'मैं ही तुम्हारा हरकारा हूँ और मैंने तुम सबको अपने लहू से खरीदा है', 'तुम अगर बहुत थक चुके हो, अपने बोझ से दबे हुए हो तो मेरे पास आ जाओ,. मैं ही तुमको विश्राम दूंगा'. ऐसी ना जाने कितनी ही शांतिप्रिय बातें, उन सोने की दीवारों पर लिखी हुई थीं, मुझे तो अब बहुत-सी याद भी नहीं रहीं हैं.'
'?'- प्रीस्ट के साथ-साथ, नबीदास के भी हाथों से जैसे तोते उड़ गये. ऐसा लगा कि, मोहिनी की इन अप्रत्याशित बातों को सुनकर उनके मुखड़ों पर पसीने की बूँदें झलक आईं थी. सच और झूठ, डर और हैरानी तथा अपनी किसी हानि और घबराहट के भय से वे आगे कुछ और ना कह सके और ना ही कुछ बोल सके. मगर फिर भी, प्रीस्ट महोदय ने जैसे मन-ही-मन कोई दुआ आदि की और फिर उसके पश्चात वे साहस करके बोले,
'अगर आपको कोई एतराज़ न हो तो मैं आपको छूकर देख सकता हूँ. यूँ, भी मैं आपसे उम्र में आपके पिता के स्थान पर तो हो ही सकता हूँ.'
'हां. . .हां, क्यों नहीं?' यह कहकर मोहिनी ने उनका हाथ स्वयं ही पकड़ लिया तो प्रीस्ट जी उसको फिर एक बार हैरानी से देखने लगे.'
'?"- उनके साथ नबीदास भी दंग था.
'अब मैं जाऊं?' मोहिनी ने चलने की आज्ञा माँगी तो प्रीस्ट ने हां में अपनी गर्दन हिलाई. तब मोहिनी चलते हुए हल्के से मुस्कराकर बोली,
'एक बात कहूँ आपसे?'
'जरुर?'
'आपने तो मुझ पर कम-से-कम छूकर विश्वास किया. धन्य हो जाते हैं वे लोग, जो बगैर देखे विश्वास कर लेते हैं.' यह वाक्य भी मैंने, उस शान्ति के राजा के महल की दीवार पर लिखा देखा था.'
'?'- प्रीस्ट का चेहरा देखते ही प्रतीत होता था कि, जैसे मोहिनी की बातों को सुनकर उनके शरीर में काटने पर भी, घोर आश्चर्य के कारण रक्त की एक बूँद भी नहीं रही होगी. वे चुपचाप, उसे कार में बैठते हुए देखते रहे और वह वहां से उनके सामने-से चली भी गई. सोच रहे थे कि, आज तक उन्होंने केवल भटकी हुई आत्माओं की कहानियां और किस्से मात्र सुने और पढ़े ही थे, पर आज तो उनका सामना, आमने-सामने ही एक ऐसी लड़की से हो गया था कि, जिसके बारे में वे ठोस रूप से नहीं कह सकते थे कि, वह सचमुच में कोई आत्मा, भटकी हुई आत्मा, दुष्ट-आत्मा, प्रेतात्मा, कोई आकाशीय देवी, कोई मसान, कोई भूत, किसी तरह का कोई खतरनाक जिन्न आदि था अथवा वास्तव में कोई चलती-फिरती, ऑक्सीजन और जल के द्वारा सांस लेने वाली एक सामान्य स्त्री थी? वे बाद में यह सोचने पर विवश हो चुके थे कि, किसकी बातें सच हैं? उन लोगों की जो मरने के बाद लौटकर अपने नजरिये से, अपनी आँखों-देखी घटनाएँ सुनाया करते हैं, या फिर उन बातों को जो धर्म-ग्रंथों में लिखी हुई हैं?
-क्रमश: