Jivan @ Shutduwn - 17 in Hindi Fiction Stories by Neelam Kulshreshtha books and stories PDF | जीवन @ शटडाऊन - 17

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जीवन @ शटडाऊन - 17

एपीसोड --3

अपने चेहरे पर उनकी ठहरी हुई वीभत्स आँखों के भय ने मेरी एक-एक शिरा झनझनाकर रख दिया । मैंने अपनी आँखें तुरन्त झुका लीं । वह कभी सिर पटकती, कभी हाथ-पैर ।

सोलह वर्ष पहले भी मामी भरतपुर में ऐसे ही मूँज की चारपाई पर पड़ी छटपटा रही थीं। कभी सिर झटकतीं, कभी हाथ पटकतीं । तब भी उनके काले, घुँघराले बाल छिटककर ऐसे ही तकिए पर फैले हुए थे । ऐसे ही उनकी नाक की लौंग सिर के झटकने से कभी इधर, कभी उधर होती चमक उठती थी । वह चिल्ला रही थीं, “जिया ऽ ऽ ऽ...।”

“सन्ध्या ! चुप कर, चुप होती है या नहीं ।” डॉक्टर मौसी उन्हें घुड़क रही थीं । उस दिन सुबह से ही मामी को प्रसव पीड़ा आरम्भ हो गई थी । नानी का बीस दिन तक ब्रेन हेम्ब्रिज का इलाज करवाकर उन्हें घर लाया गया था । सभी अस्पताल की भागदौड़ से तंग आ गये थे । मौसी ने ही निर्णय लिया था, “मैं सन्ध्या की घर पर ही डिलीवरी करूँगी ।”

मामा ने चिन्तित स्वर में कहा था, “यदि सन्ध्या को कुछ हो गया तो?”

“कैसी बेवकूफ़ों जैसी बात कर रहा है ? इतने साल क्या मैं अस्पताल में मक्खी मारती रही हूँ । कितनी डिलीवरी कर डाली होंगी ?”

मैं भी घबराई हुई थी, “मौसी ! सोच लीजिये कुछ गड़बड़ हो गई तो ?”

“जब सब नार्मल है तो गड़बड़ क्यों होगी ? यदि कुछ हुआ भी तो अस्पताल पास में है । घर पर डिलीवरी से सबको आराम रहेगा । नहीं तो फिर अस्पताल की भागदौड़ करनी पड़ेगी ।”

मामा ने उनके कहने पर मूँज की चारपाई के पैरों की तरफ़ वाली मोटी रस्सी बीच से खोल दी थी । प्रसवपीड़ा जब चरम पर पहुँचने लगी तो मौसी ने मामी को इस पर लिटा दिया । उन्होंने पास में एक चिलमची में उबला पानी रखवा कर मामी के कमर में इंजेक्शन लगाया । मामी ज़ोर से चीखीं, “जिया ऽ ऽ ऽ...।”

सोलह वर्ष बाद मामी जयपुर में भी ऐसे तड़फड़ा रही थीं जैसे पीड़ा से उनकी नस-नस फटी जा रही हो। बीच-बीच में उनकी माँ बड़बड़ाती, “कोई डॉक्टर को तो बुलाओ।”

मामा दो-तीन डॉक्टर को फ़ोन करके देख चुके थे, किसी से सम्पर्क नहीं हो पा रहा था । हम नौ लोग लाचार, बेबस उनको तड़फड़ाते हुए देख रहे थे। उन्हें सुकून पहुँचाने का, उनके प्राणों को राहत पहुँचाने का कोई उपाय नहीं था हमारे पास ।

मैंने मामा को बरामदे में आने का इशारा किया । बड़ी मुश्किल से मेरी आवाज़ निकली, “मामा ! वे इतनी तड़प रही हैं, किसी डॉक्टर को तो बुलाइये ।”

“रात का एक बज़ रहा है । कोई डॉक्टर आने को तैयार नहीं होगा । डॉक्टर ने डेढ़ महीने पहले ही कह दिया था अब किसी के बस का कुछ नहीं है । अच्छा है, सन्ध्या को जल्दी मुक्ति मिले ।”

मुझे लगा था मामा रो न पड़ें लेकिन मामी की लम्बी बीमारी की तकलीफ़ से उन्हें इतना पथरा दिया था कि वे उनकी मुक्ति की कामना कर रहे थे ।

“प्रदीप...।” अन्दर से कुसुम मौसी चीखीं ।

हम दोनों दौड़ते से कमरे में आए । वे मामी की नब्ज़ पकड़े बैठी थीं, “इसकी नब्ज़ छूटी जा रही है ।” जैसे ही उन्होंने नब्ज़ पर हाथ रखा वह नार्मल हो चुकी थी । थोड़ी देर बाद वह आँखें खोलकर चिल्लाई, “आशु ! तू सुनता नहीं है । पता नहीं कहाँ चला जाता है ।”

सोलह वर्ष पहले की उनकी छटपटाहट आज की उनकी तड़फड़ाहट जैसे गडमड हुई जा रही थी। डॉक्टर मौसी ने पास में खड़ी बड़ी मामी व मुझसे कहा, “बच्चे का सिर नीचे की तरफ़ आ रहा है । तुम दोनों ज़रा पेट को ऊपर से दबाओ ।”

मैं अचकचा गई थी, “कौन मैं?”

“और क्या ? तू भी पेट दबा । तू क्या सोलह बरस की है जो डर रही है ? तेरी शादी तो हो गई है।”

मैंने व मामी ने अपने दोनों हाथों से मामी के पेट के उस हिस्से को दबाना आरम्भ कर दिया था जो बच्चा खाली छोड़ चुका था ।

“और ज़ोर लगाओ ।”

हम भरसक दम लगा रहे थे । हल्के-हल्के मेरा दिल काँप रहा था ।

“क्या दम नहीं है ? ज़ोर नहीं लगाया जा रहा ?” अब तक मौसी हाथ पर दस्ताना चढ़ा चुकी थीं । उन्होंने बच्चे के सिर पर हाथ रख दिया था, “देखो एक तिहाई सिर बाहर आ चुका है, और ज़ोर लगाओ ।”

अब तक हम दोनों उनका पेट दबाते-दबाते पसीने से तरबतर हो गये थे । मामी चीख रही थीं, “क्या कर रही हो? क्या मुझे मार डालोगी । डॉक्टर जीजी ! मेरा शरीर नीचे से फटा जा रहा है ।”

--------“जिया ऽ ऽ ऽ...मुझे बचाओ।” जयपुर के घर में भी मामी चीख रही थीं ।

--------“हाय ऽ ऽ ऽ...मैं मरी जा रही हूँ ।”भरतपुर के घर में मैं पसीने हुए अपने शरीर को लेकर अलग खड़ी हो गई थी । जन्म की क्रिया से जुड़े इस वितृष्णापूर्ण दृश्य को देखकर एक थर्राहट शरीर में फैल रही थी ।

“कैसी इडियट लड़की है ।पेट को नहीं दबाया जा रहा । यहाँ हम रोज़ बच्चे पैदा करते हैं।”

“मौसी ! आप तो डॉक्टर हैं ।”

“डॉक्टर की बच्ची । जल्दी पेट दबा नहीं तो बच्चा बीच में फँसकर मर न जाए ।”

उनकी इस बात से जैसे मेरे शरीर में बिजली भर गई । पूरी ताकत से उनका पेट दबाते हुए मन-ही-मन उन नर्सों की किस्मत पर तरस खाने लगी जो ऑपरेशन थियेटर में रोज़ मौसी की कर्कश डाँट खाती होंगी ।

“हाय मरी...।” जयपुर में मामी हाथ-पैर झटक रही थीं । अब तक उनके सिर के आस-पास फैले हुए घुँघराले बाल पसीने के कारण कुछ तकिए पर कुछ उनके चेहरे पर चिपक गए थे । हम बेबस लोगों में से कोई एक उनका सिर सहलाता, कोई हाथ पकड़ता, कोई पैर सहलाता । जाते हुए प्राणों को अपनी हथेली से रोकने की असफ़ल कोशिश करते हुए कहाँ से निकलते होंगे प्राण ? इन खूँखार घूमती पुतलियों से, सिर से ? हाथ की अनामिका से ? या पैर के तलवे से ? मौत जैसे कमरे में हम सबके पास तांडव कर रही थी । हम न उसे देख पा रहे थे, न सूँघ पा रहे थे । यदि मान लिया जाए तो मामी के शरीर द्वारा उसके आगमन को स्पर्श कर पा रहे थे । जिसकी थर्राहट हमारी शिराएँ झनझनाए दे रही थी । मज़बूरी की यही आखिरी हद थी क्या ? उनका पलंग घेरे हम नौ लोगों की नौ मज़बूरियाँ सिर्फ एक अहसास से हारे जा रही थी... मौत के अहसास से ।

“जीजी ! कुछ कहना है ।” उनकी बहिन उनकी अन्तिम गिरती-उठती साँसों को देख पूछ रही थी । वह उत्तर में गहरी-गहरी साँसें लिये हाँफ़े जा रही थीं ।

“जीजी ! बोलो ।” वह भी न जाने क्या जानने को उत्सुक थी , “जीजी ! कोई बात मन में है ।”

उत्तर में वह और हाँफने लगतीं, हाँफती हुई तनावग्रस्त हो जातीं ।

“प्लीज ! उन्हें शान्ति से जाने दीजिए ।” मैं फुसफुसाई ।

----------उधर भरतपुर के घर में डॉक्टर मौसी ने डपटा था, “ज़ोर लगाओ सन्ध्या ! जरा नीचे की तरफ़ ज़ोर लगाओ ।”

“मुझे बेहोश कर दो, या मार डालो । अब नहीं सहा जा रहा ।”

हमने भी उनके पेट को पूरी ताकत से दबाया कि पेट में पड़ा वह मांस पिण्ड थोड़ा आगे खिसका । मामी के तड़पते स्वर पर मौसी की आवाज़ हावी थी,`` शाबास !ज़रा-सा ज़ोर और लगा, थोड़ा सिर और रह गया है ।``

मामी चीख़ते हुए फंसती सी आवाज़ में बोलीं थीं ,``यदि और ज़ोर लगाया तो मैं मर जाऊँगी --  नीचे ऐसा लग रहा है कोई आरी से बदन काट रहा है। बहुत दर्द हो रहा है।``

उत्साहित होकर हमने और ज़ोर लगाया ।

----उधर जयपुर में मामी की माँ रो रही थीं, “मेरी बेटी मरी जा रही है ।”

मामा स्थितप्रज्ञ आँखों से मामी को देख रहे थे एक निश्चित सत्य को पूर्णतः आत्मसात करने को तैयार ।

उधर भरतपुर के घर में ...``थोड़ा और ज़ोर शाबास !”

“उई...।” मामी के आर्तनाद ने हम दोनों का कलेजा दहला दिया था । हमारे थोड़े से और दबाव से वह मांस पिंड नीचे की तरफ़ खिसकता हुआ मौसी के हाथों में आ चुका था । खून से रँगे उस मिचमिची आँखोंवाले छौने को देखकर मौसी खुशी से बोलीं, “लड़का हुआ है ।”

हाँफती हुई बड़ी मामी जैसे खुश हुई थीं, “चलो सकुशल हो गया ।”

मैं निश्चिन्त हुई थी हमारे पहली बार प्रसव पेट के दबाने को कलंक नहीं लगा । उधर सोलह वर्ष बाद वहीं छौना आशु माँ की पलँग की पाटी पर बैठा था । मामी ने अन्तिम आर्तनाद किया , “आशु ऽ ऽ ऽ ...”

उनकी साँसें धीमे-धीमे कम होने लगीं, उन्होंने थोड़ी-थोड़ी देर के अन्तराल से दो-तीन आधी-अधूरी साँसें और लीं । सब कुछ शान्त हो गया उनके सिर का झटकना, उनके हाथ-पैरों का पटकना । उनके पलँग के चारों ओर घेरे खड़े थे हम नौ बेबस लोग अपनी बिचारगी पर शर्मिन्दा। प्रकृति की दी हुई उस जाती हुई जीवन्त चीज़ को रोक न पाने के अपने बौनेपन के अहसास से दबे हम बिचारे नौ लोग ।

मैं जीवन दान देती मामी को देख चुकी थी, नियति कैसे मुझे यहाँ सैकड़ों किलोमीटर दूर खींच लाई थी, उन्हीं मामी की मृत्यु का दृश्य दिखाने ।

उनके तृतीय दिन के अनुष्ठान के बाद मैं मामा से विदा माँगने उनके कमरे में गई थी। वह नीचे फर्श पर बिछे बिस्तर पर आदतन सफ़ेद बिना बाहों की बनियान व सफेद पायजामा पहने थकान से चूर उल्टे सो रहे थे । मैंने उन्हें जगाना उचित नहीं समझा था । बिना विदाई माँगे मैं बेवकूफ़ जयपुर से चली आई थी । तब कहाँ सोच पाई थी कि एक वर्ष बाद वे मुझे अस्पताल के बिस्तर पर सोते मिलेंगे ।

उनकी हालत देखकर मैं समझ नहीं पाती जिन बच्चों की माँ चली गई है उनके नाम की फ़रियाद किससे करूँ ? स्वर्गवालों से या नर्कवालों से ? उनके द्वार किधर हैं ? ऊपर सफ़ेद आसमान के बादलों को फाड़कर पूछूँ ऊपर कोई है भी या नहीं? तब मैं अपने घर लौट आई थी चेहरे व प्राणों पर सनबर्न जैसा लिये । उनके महाप्रयाण की ख़बर पन्द्रह दिन बाद आई थी तो मामा व उनकी तीमारदारी करते लोग दोधारी तलवार से मुक्त हो गये थे, मन शान्त हो सँभल गया था । चेहरे का सनबर्न अपने-आप मिटने लगा था।

बरस तो गुजरने ही थे। कुसुम मौसी ने उनके बच्चों को सहारा दे दिया था । वैसे भी उनका रिटायरमेंट भी पास था । और भगवान ने इन दोनों से कुछ छीना था तो संतुलित तेज़ बुद्धि दी थी। दोनों अच्छे पदों पर आसीन हो गए थे।

***

बरसों बाद मम्मी के घर आगरा में हम शाम की चाय पी रहे थे। तभी वे आए माथे पर पीछे की तरफ़ काढ़े काले घुँघराले बालों वाले हमारे टीपू मामा ।

अचानक वे कमरे के दरवाजे से बरामदे में प्रकट हुए । हमें देखते ही उनकी दाँतों की धवल पंक्तियाँ चमक उठीं । उसी चहकी-सी शोख आवाज़ में बोले, “सब लोगों को नमस्ते ।”

मैं हड़बड़ाकर चकित सी खड़ी हो गई । होंठ उन्हें `टीपू मामा `कहकर सम्बोधित करने के लिए थरथरा रहे थे।

उनके चेहरे पर वही पुराना आकर्षण था । वे नटखट आँखों से मुस्कुरा दिए, “आप मुझे ऐसे क्या देख रही हैं ? क्या पहचान नहीं पाईं ? मैं आपका भाई आशु हूँ ।”

“आशु ! तू इतना बड़ा हो गया ?” मैं कूदती-फाँदती उसके गले जा लगी । लगा टीपू मामा के गले लग रही हूँ ।

चाय पीकर आशु बोला, “मैं अभी आया ।” वह बाहर के कमरे से एक छोटा बैग उठा लाया,`` मैं नानी के पास से हाथरस से आ रहा हूँ । सोचा आपके लिए हाथरस की हींग ले चलूँ । पापा बताते थे आपको ये बहुत पसन्द है ।``

बैग खोलकर उसमें से छोटी-छोटी हींग की थैली निकालते हाथ किसके हैं ? आशु के या प्रदीप मामा के ? मैं समझ नहीं पा रही हूँ । लगता है मैं बेहद छोटी बच्ची हो गई हूँ । इत्ती-सी बच्ची जब टीपू मामा का छलछलाता लाड़ हमारी नस-नस में छलछलाता था ।

मुझे आशु के चेहरे पर यही मुस्कराहट देखनी है, यही छलकती खुशी देखनी है । मामा-मामी के निष्प्राण चेहरों की छाया से मैं निज़ात पाना चाहतीं हूँ । मैं कसकर आशु का हाथ पकड़ लेती हूँ, बुदबुदाती हूँ , “मुझे अब और सनबर्न नहीं चाहिए ।”

 

नीलम कुलश्रेष्ठ

Kneeli@rediffmail.com