एपीसोड –2
तब दोपहर में मेरी ड्यूटी अस्पताल में रहने की लगी थी । रात में कुसुम मौसी किसी को वहाँ रहने नहीं देती थीं, स्वयं ही वहाँ रहतीं ।
दोपहर में मैं उनके बिस्तर के सामने बैठकर ध्यान रखती ऑक्सीजन के सिलिंडर की नली ठीक है या नहीं । गले में कफ़ तो नहीं घड़घड़ा रहा । मैं उनके शरीर पर चिकोटी काटकर अवश्य देखती । उनके शरीर को एक झटका लगता पलकें कंम्पित होतीं ।
किशोरावस्था की अपनी मूर्खताओं पर अब बेहद शर्म क्या क्षोभ होता था । मैं उनकी लाड़ली भांजी थी । पढ़ने का शौक लगना ही था क्योंकि जब हमारी नानी पूरी पलटन को खाना खिलाकर दोपहर को एक बजे पलँग पर लेटतीं तो उनके हाथों में, कोई-न-कोई किताब होती, ये बात और हे इतना काम करने के बाद बीस-पच्चीस मिनट में उनके खर्राटे गूँजने लगते, चश्मा आँख पर लगा रह जाता किताब सीने पर पड़ी होती । तब हममें से कोई धीरे-धीरे चश्मा उतारकर उसे उसके केस में रखता, किताब बंद करके सिरहाने रख दी जाती |
हर तीसरे दिन मैं उनके पीछे पड़ जाती, “मामाजी! नयी किताब चाहिये``.
वे आनाकानी करते । तब उनके सिर की मालिश की जाती, कभी उन्हें शर्बत पिलाया जाता । अब तो सोचकर भी जी घबराता है वे यहाँ जून की आग बरसाती दोपहर में किस तरह पाँच-छः किलोमीटर साइकिल चलाकर दूर युनीवर्सिटी की लाइब्रेरी जाते होंगे । जब वे लौटते तो पसीने में तर-बतर। उनकी मेहनत से लाई किताब मैं एक दिन में पढ़ जाती । दूसरे दिन नयी किताब के लिए ज़िद शुरू ।
वे धीरज से समझाते, “पहले जिया को तो पढ़ लेने दे ।” इस तरह एक सप्ताह निकल जाता । कुकर व कुकिंग गैस की दुनिया में जीती हुई मैं दो बच्चों के परिवार के न ख़त्म होने वाले काम से हैरान हो आज भी सोचती हूँ । नानी किस तरह छः बजे उठकर अँगीठी पर धीरज से धीमी-धीमी आग पर पराँठे सेंककर सबको नाश्ता कराती थीं जिनका लजीज़ स्वाद अब एक जिव्हा पर रक्खा है।
साढ़े नौ-दस बजे के बीच, उनके पूजा के कमरों से ताली बजाते हुए आवाज आती थी, “प्रथम परनाम करूँ, भज गौरी नन्द गणेश ।” बीच-बीच में मम्मी को पुकारती, “बुटकन ! जरा देखियो सब्जी जल न जाए ।”
फिर शुरू करती, “शिवशंकर भोले भाले मेरे भक्तों के रखवाले.... कुसुम !... शारदा ! कोई तो देखो....कहीं दाल पतीली में लग न जाए...तुमको लाखों प्रणाम ।”
जैसे ही वह रसोई जाकर रोटी बनाने लगतीं किसी को खाना खाने के लिए` न `कहने की हिम्मत नहीं होती । एक घंटे में सब आते-जाते, खाना खाते जाते । एक बजे वे किताब सहित बिस्तर पर होतीं । मैं अतीत से अपने को खींचकर फिर मामा के पलँग के पास पड़े स्टूल पर ले आती हूँ । समझ नहीं पाती थी ये ऊपर वाले की कौन-सी व्यवस्था है या उसकी कौन-सी अदा है जिसके आगे हम दस बार सिर झुकाते हैं, वही पाते हैं जो उसकी मर्ज़ी होती है । वक्त बचपन में हमारी नस-नस में घोली इस सीख को झुठलाने में लगा है कि अच्छे का फल अच्छा होता है, बुरे का बुरा होता है।
हमारे टीपू मामा किसी का बुरा नहीं कर सकते थे । अपनी शादी के बाद जब भी आगरा जाती तो अक्सर वह अपने परिवार सहित वहाँ आ जाते। आते ही अपना बैग खोलते । उसमें से छोटे-छोटे पॉलिथिन के बैग निकालते, “देख ! तेरे लिए, क्या लाया हूँ ।”
मैं चहक उठती, “हाथरस की हींग ?” हर वर्ष सैंकड़ों किलोमीटर के दूर के मेरे घर के अचार के मर्तबानों में उनके प्यार की तरह हाथरस की हींग महका करती थी ।
मैं अस्पताल में निस्पन्द पड़ा शरीर देखकर सोचती-हमारे सीधे-सच्चे मामा किस व्यवस्था का शिकार होते जा रहे हैं, जिस पर उँगली भी उठाओ तो पता नहीं चलता उसकी दिशा किधर है । कटघरे में खड़ा भी करो, तो किसे करो ?
आज भी मैं अचरज करती हूँ उनके जीवन की सबसे दारुण घटना में भी कैसे अपनी सारी व्यस्तताएँ एक तरफ़ कर जयपुर जा पहुँची थी । कुछ वर्ष से मामी के स्तन कैंसर की खबरें मिल रही थीं । वे बम्बई से ऑपरेशन करवा कर वापिस आ गई थीं । उनकी कीमोथिरेपी के समाचार मिलते ही रहते थे कि किस तरह वे इसके बाद एक दो दिन शरीर की जलन से तड़पती रहती हैं, उनके बाल झड़ने लगे हैं । फिर सुना उन्होंने बम्बई से सुन्दर विग मँगा लिया है । शरीर का वजन कम होने व विग लगाने से वह आकर्षक लगने लगी हैं ।
कार्सीनोजन सेल्स यदि शरीर से काटकर निकाल दिये जाएँ तो बहुत भाग्यवान होते हैं वो जिनके शरीर से कैंसर के ये सल सब के सब निकल जाएँ । हमारी मामी उन भाग्यवानों में से नहीं थीं । ऑपरेशन के दस वर्ष बाद भी ये सेल बढ़कर लिवर तक पहुँच गये थे । उन्हें पीलिया हो गया था । अब तो मेरा रुकना सम्भव न था ।
दरवाज़ा मामा ने ही खोला था । अपनी चिरपरिचित मुस्कान के साथ “तू आ गई।``
मम्मी दो मौसियाँ एक-एक करके गले मिलती गई थीं । बस लग रहा था सबके गले में कुछ रुँध रहा है ।
पलंग पर लेटी मामी के पीले चेहरे को देखने के लिए मैं तैयार थी लेकिन उनके आँचल में छिपे सीने से मैं नज़रें चुरा रही थी। उनके उस आधे-अधूरेपन को देखने की मुझमें ताव नहीं थी । अपनी आँखों में आँसुओं को थामे मैं सहज होकर बात करती रही । वे मुस्कराकर बड़े आत्मविश्वास से बताती रही थीं, “पड़ौसिनें, कितनी बेवकूफ़ होती हैं । मुझसे कह रही थीं कि जो भी दान-पुण्य करना हो कर लो, जैसे मैं मरी जा रही हूँ ।”
“बेवकूफ़ है ।” मैंने रुँधे गले से कहा था । कैंसर के बाद हुए पीलिया का क्या मतलब होता है, समझते हुए भी वह अनजान बनी कुछ न कुछ बात करती रहीं । बाद में धीमे से मम्मी ने बताया वे किसी नकिसी बहाने अपनी दीर्घ आयु का विश्वास दिलाती रहती थीं जिससे उनके सामने कोई शोक न मनाए ।
मामा उनके गले में पड़े ताबीज़ को दिखाते हुए बोले, “ये हाथरस वाली चाची ने भेजा है ।” फिर उन्होंने तकिए के नीचे रखी एक पुड़िया निकाली, “इसमें कबूतर वाले बाबा की भभूत है । इनके छोटे भाई ने कलकत्ते से मन्त्र फूँकी हुई ये जड़ी बूटी भेजी है। जो इसे खाता है उसका कैसा भी रोग ठीक हो जाता है। ” वे कहकर कुछ क्षण चुप रहे फिर बोले, “अरे हाँ, तुझे ये गंडा दिखाना भूल गया । ये बाईं हाथ में बँधा गंडा यहाँ के बड़े मन्दिर के महन्त ने बाँधा है ।”
मामी के प्राणों को भभूत, ताबीज व गंडे से घेरने के भ्रम में जी रहे मामा को देखकर मेरी आँखें नम हो आई थीं । कितनी बार तो हम लोग अपनी गप्पों के बीच इन्हीं इंजीनियर मामा के साथ इन्हीं चीजों पर किए अन्धविश्वास की धज्जियाँ उड़ाकर रख देते थे ।
अचानक मामी की तेज़-तेज़ साँस चलने लगी । मैं चौंकी, “इनकी साँस तेज़ हो गई है।”
मामा निर्लिप्त से बोले, “कभी-कभी ऐसा हो जाता है ।”
मैं अब तक मामा के पास आकर इनकी ख़बर क्यों नहीं ले पाई ? इसी शर्मिन्दगी पर पर्दा डालने की कोशिश करती हूँ, “मामा जी ! दीपावली की छुट्टियाँ आ रही हैं । मैं दोनों बच्चों को आगरा छोड़ बीस-पच्चीस दिन के लिए यहाँ रह जाऊँगी ।”
“बेटे ! देखा जाएगा ।”
“आप संकोच मत करिए । आपके यहाँ कोई न कोई आता रहा है । इसलिए मेरा आना टलता रहा लेकिन अब मैं ही आऊँगी ।”
“तू चिन्ता मत कर । जैसा होगा तुझे सूचित करूँगा ।”
“आशु! जरा तकिया लाना ।” उन्होंने कमरे में आते अपने बेटे को पुकारकर कहा । आशु जैसे ही दूसरा तकिया लाया । मामी ने अपना एक हाथ ऊपर ले जाकर उसके सहारे से अपना सिर ऊँचा किया । उनका ढीला-ढाला ब्लाउज कुछ खिसक गया जो दृश्य मैं देखना नहीं चाहती थी वही दिखाई दे गया । एक तरफ़ के सीने के अपने सपाट हिस्से में लगे टाँकों के काले निशानों के कटीले दृश्य ने मेरी आँखों को चीर दिया ।
थोड़ी देर बात करने के बाद मामा बोले, “बेटे ! जा आराम कर ले । रात का सफ़र करके आई है । रात को फिर वापस लौटना है ।”
मैं उनके कमरे से बाहर निकली ही थी कि बाहर की कॉल बेल बजी । दरवाज़े पर मामी की माँ व बहिन सूटकेस लिये खड़ी थीं । मुझे लगा स्थिति बहुत नाज़ुक हो चुकी है।
रात के घर से साढ़े दस बजे निकलना था, आरक्षण करवाकर ही आई थी। नौ बजते-बजते मामी की साँस की रफ़्तार और तेज़ हो चली है । उन्हें साँस लेने में भी तकलीफ़ हो रही थी । उनकी आँखें जैसे कसकर मुँद गई थीं । मौसी ने आवाज दी, “संध्या! संध्या ।”
“हाँ ।” कहते हुए बहुत ज़ोर लगाकर उन्होंने एक पल के लिए आँख खोली व वापिस बन्द कर ली । साँस वैसे ही तेज़ी से चल रही थी ।
मैं शारदा मौसी के कान में फुसफुसाई, “क्या इनकी हालत पहले भी ऐसी हो चुकी है ?”
“हाँ, कभी-कभी ऐसा होता है । यदि हालत कुछ सुधर जाए तो तू निकल जाना ।”
उनकी हालत सँभलने के स्थान पर गिरती ही जा रही थी । अब तो आती जाती साँसों के साथ गहरी आवाज भी निकल रही थी । पन्द्रह मिनट बाद शारदा मौसी ने मुझे इशारे से बरामदे में बुलाया , “अब तू जाने का विचार छोड़ दे । सुबह तक ये ठीक हो जाए तो तू चली जाना, वैसे लगता...। ”
“जिया ऽ ऽ ऽ ...।” मामी का तेज़ आर्तनाद सुनकर हम दोनों कमरे की तरफ़ भागे ।
उनकी माँ पलँग पर बैठी माथा सहला रही थीं ।
“संध्या ! मैं तेरे पास हूँ ।”
मामी तो किसी और दुनिया में थीं । उन्हें न माँ की आवाज सुनाई दे रही थी न उनके स्नेह के स्पर्श उनके स्नायुओं में उतर पा रहे थे । वे फिर चिल्लाई, “जिया ऽ ऽ ऽ ...।”
इस बार उनके कुम्हलाए चेहरे पर न जाने कहाँ से ताकत आ गई थी। उनकी आँखें वैसे ही बड़ी थीं । वे खुल गई थीं व ऐसा लग रहा था उबलकर एकदम से बाहर आ जाएँगी । वे तेज़ी से इधर-उधर घूम रही थीं, “जिया ऽ ऽ ऽ... तुम कहाँ हो ?”
“संध्या! मैं तेरे पास तो हूँ ।” उनकी माँ का रुआँसा स्वर ही निकल पाया था।
लेकिन वह जैसे कुछ सुन नहीं रही थीं । फिर चीखीं “सुधा... तू कहाँ है ?” सिर झटकने से उनके घुँघराले बाल बिलकुल बिखर गये थे । पुतलियों की उभरी सफ़ेदी व उनके काले गोल हिस्से में चमकता हिंस्र भाव उनके चेहरे को वहशियाना बनाए दे रहा था । मामा उनका सिर सहला रहे थे। उनकी बहिन भी थोड़ी देर बाद बोल पाई, “जीजी ! जीजी ! मैं यहाँ हूँ ।”
उनका शरीर व चेहरा छटपटा रहा था । कुसुम मौसी व मम्मी उनके हाथ-पैर पकड़ने की कोशिश कर रहीं थीं । कुछ देर बाद “जीया...सुधा” कहती आवाज़ धीमी पड़ती गई बदन ढीला पड़ता गया । पलकें अपने-आप बन्द होती गईं । वह थककर निढाल पड़ गईं।
उनके चुप होने पर स्वतः ही मेरी साँस सहज हो पाई थी । मैं पास पड़ी एक कुर्सी पर बैठ गई । उनकी साँस अभी भी बुरी तरह चल रही थी ।
कुसुम मौसी बुदबुदाईं, “इतनी बुरी हालत तो कभी भी नहीं हुई ।”
कुछ समय शान्त रहने के बाद जैसे उनमें फिर तेज़ी आ गई, “सुधा आई कि नहीं ?” वह बन्द हुई पलकों से ही चिड़चिड़ाई,“मैं तुमसे कितनी बार कह रही हूँ सुधा को चिट्ठी डाल दो।”
“दीदी ! मैं आ गई हूँ ।” उनकी बहिन ने उनका हाथ पकड़कर हिलाया, उन्होंने आँखें खोलकर उसकी तरफ़ देखा जरूर, लेकिन वह तो अपनी पुतलियाँ घुमाती जाने कौन से लोक में थीं वह फिर चिल्लाई, “सुधा ऽ ऽ ऽ ...! तुझे चिट्ठी मिली या नहीं ?”
वे घूमती हुई बड़ी-बड़ी काली सफ़ेद कौड़ियों जैसी आँखें घुमाती हुई एक क्षण मेरे चेहरे पर ठहरीं, मुझे लगा उनकी आँखों में चंडालिका मौत जैसे अपना शिकार खोज रही है - कब उन पर झपट पड़े ।
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नीलम कुलश्रेष्ठ
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