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आज के आदमी की परेशानी यह है कि वह दूसरे को देखकर यह नहीं सोच पाता कि सामने वाला किन कठिनाइयों, परेशानियों और अपने श्रम से आज की स्थिति पर पहुँचा होगा | जैसे पूरा जीवन लग जाता है किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने में लेकिन सामने वाला केवल उसकी सफलता का परिणाम देखता है, उसका वर्षों का श्रम, रात-दिन का जागना, उसका जूझना नहीं देखता | उसे बस वह चमक दिखाई देती है जो उसके सामने चमक रही होती है | इसीलिए उसे रातों-रात उस स्थान पर पहुंचना होता है जिस पर वह सामने वाले को बैठा हुआ देखता है |
पापा-अम्मा के संघर्ष के बारे में कोई कैसे जान सकता था ? उन्हें तो बस दिखाई देता इतना बड़ा संस्थान, इतनी लंबी-चौड़ी जगह में फैला हुआ जो हर साल बढ़ता ही रहा था | गाड़ियों से उतरते-चढ़ते बच्चे जिनकी गाड़ियों के दरवाज़े अधिकतर शोफ़र्स खोलते, बंद करते थे | इतने सारे कर्मचारी जो संस्थान के अंग थे और जो शिद्दत से पापा-अम्मा के आदेशों का पालन करते थे | ऊपर से अम्मा-पापा का विनम्र व करुणापूर्ण स्वभाव ! श्रेष्ठ को लगता था कि हम सबको अपनी ‘डिगनिटी’, अपने ‘स्टेट्स’ का ख्याल रखना चाहिए | यानि अगर आपके पास पैसा आ जाए तो आप आम आदमी से कहीं बड़े हो गए, अलग हो गए!क्या लॉजिक था ? साथ ही छोटे लोगों को अपने इतने पास नहीं आने देना चाहिए, केवल बड़े लोगों से संपर्क रखो न, वो ही तो ‘स्टेट्स’ बनाते व समझते हैं |
जब पहली बार उसके मुँह से कुछ इसी तरह की बात सुनी थी तब मैं केवल उसका मुँह ही देखती रही थी, मन ने आक्रमण करने की सोची लेकिन कर नहीं पाई | शायद तब तक मैं भी कुछ ऐसा ही सोचती थी क्या?पता नहीं !लेकिन जब कई बार उसके मुँह से घुमा-फिराकर कुछ ऐसी ही बातें सुनीं तो खीज गई थी | फिर तो कई बार उसमें से बड़ेपन की ‘बू’मुझे काटने को आने लगी थी जैसे | मन में कुछ गली सी उठी भी थी----बुल---दे नहीं पाई थी मैं, शायद संभल गई थी | अब मुझे पीछे मुड़कर देखने की ज़रूरत महसूस हो रही थी लेकिन क्यों ?गधे को पता नहीं जो छोटे काम आते हैं, उतनी ताकत तथाकथित बड़ों में कहाँ होती है ?वे ऐसे ही दिखावटी होते हैं जैसा श्रेष्ठ था |
उसकी इसी तरह की सोचों ने पहले ही मुझे उससे दूर कर दिया था | उसके बाद अम्मा-पापा वाले रेस्टोरेंट में जाने के समय उसका मुँह देखने जैसा था | मैंने बताया भी था कि अम्मा-पापा का प्रेम इसी रेस्टोरेंट में पनपा था, वह जगह मेरे क्या हमारे पूरे परिवार के लिए बहुत संवेदनशील थी और अगर वह ज़रा सा भी महसूस कर सकता तो मेरे चेहरे पर खिलती, मुस्कराती हुई लकीरों में मुझे तलाश सकता था फिर फ़ाइव स्टार का उसका रवैया !जिसने मुझे बहुत कुछ सोचने के लिए बाध्य कर दिया था और मन ने बिलकुल उसकी ओर से आँखें फेर लीं थीं | इस प्रेम के अन्वेषण में ही तो मुझे पता चला था कि प्रेम के भी आँखें होती हैं जो सीधे दिल से सर्च लाइट फेंकती हैं और चीज़ों को स्पष्ट करती हैं |
मुझे श्रेष्ठ से बातें करते हुए उसके नज़रिए से एक ऐसी ‘गंध’आने लगी थी जो कम से कम हमारी जैसी सोच के लोगों के लिए बर्दाश्त करना बड़ी कठिन थी | ऐसे लोगों के पास जाना, उनकी हाँ में हाँ मिलाना बड़ा कठिन होता है | आप अपना अस्तित्व ही खो देते हैं | ‘मिडिल क्लास मैन्टेलिटी’जैसे कोई बहुत बड़ा अपराध या गाली हो, उसके व्यवहार से ऐसा ही महसूस होता और मुझे उस सबसे बड़ी परेशानी होती | मुझे ही नहीं, हमारे परिवार में सभी तो इसी सोच के थे | खूब श्रम करो और उनकी सहायता करो जिनको वास्तव में ज़रूरत है |
पिछले कुछ वर्षों में संस्थान में कुछ ऐसे कला के विभिन्न गुरु आए थे जिन्होंने दूसरे संस्थानों के बारे में प्रत्यक्षदर्शी ऐसी बातें साझा की थीं कि हमें ‘कला’के नाम से जुड़ी बहुत सी बातों पर शक होने लगा था | हमारे संस्थान में रतनी व शीला दीदी के परिवार की अहमियत देखकर सबको बहुत आश्चर्य होता था | उनकी संस्थान में कितनी महत्ता थी, कितनी पूछ थी, कितना आदर था, इस बात की गहराई को समझने में अधिकांश लोग असमर्थ रहते | इन सब संवेदनाओं को समझने के लिए सरल, सहज सोच की आवश्यकता होती है न कि किसी बनावटीपन की |
हर संस्थान में कला के प्रदर्शन के लिए ग्रुप्स जाते ही रहते | जो देश संस्थान व कलाकारों को आमंत्रित करता था वह सभी कलाकारों को प्रतिदिन के हिसाब से खर्च देता था | वह खर्चा संस्थान के प्रमुख के एकाउंट में जाता, वहाँ से उन कलाकारों को दिया जाता | जब मालूम चला कि उस प्रतिदिन के लिए दिए गए धन का आधा हिस्सा ही उन्हें दिया जाता है, शेष आधा धन संस्थान के संस्थापकों की जेब में जाता है जबकि उनके लिए अलग से अधिक धन देने की व्यवस्था थी | ऐसे उदाहरणों को सुनकर अम्मा-पापा दुखी हो जाते | उनके संबंध सदा से सबसे ही बहुत अच्छे रहे थे इसलिए वे कुछ किसी से कह तो क्या कहीं चर्चा भी नहीं करते थे लेकिन यह बड़ा स्वाभाविक था कि उन संस्थानों व उनके संस्थापकों के प्रति उनके मन में थोड़ी ग्लानि तो हो ही जानी थी |
अधिकांश बेकार की बातें मन में घर करने पर मन की धरती उथल-पुथल होती रहती है और इंसान जीवन के सत्य को स्वीकार करते हुए भी एक घटाटोप स्थिति में आ जाता है | टीका-सेंटर से लौटते हुए पता नहीं क्यों मैं और उत्पल पूरे रास्ते कुछ खास नहीं बोले | मेरे मन के दरवाज़े में अभी भी हरे पर्दे से हिलती परछाइयाँ अपनी छाप लेकर लुका-छिपी कर रही थीं | हरे पर्दों के पीछे की हलचल को महसूसते हुए मैं कुछ और ही सोचती रही थी | शायद उत्पल ने कई बार कुछ बोलने की कोशिश की भी थी लेकिन मैं न जाने कहाँ भटकती रही थी | उसी भटकाव में हम कब संस्थान पहुँच गए और संस्थान में जो सिस्टम बना हुआ था कि सब पहले ‘गैस्ट-रूम्स’के बाथरूम्स में नहा-धोकर, फ़्रेश होकर अंदर जाते थे, हमें वहीं जाना था |
उत्पल ने अपनी गाड़ी उसी स्थान पर खड़ी की जहाँ वह हर बार खड़ी करता था, उसी फूलों वाले घने पेड़ के नीचे | मैं गाड़ी से उतरने के लिए एक पैर गाड़ी से बाहर रख चुकी थी। अचानक हर बार की तरह मैं फिर फूलों से नहा उठी | मुझे पता भी नहीं चलता था कि कब मैं फूलों से नहा उठती थी फिर खिसियाकर उत्पल की ओर देखती जो हमेशा प्यारी सी मुस्कान चेहरे पर ओढ़े खड़ा रहता |
“कमाल हो तुम भी, अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आते---”मैंने गाड़ी से दूसरा पैर भी बाहर निकाल लिया था और अब फूलों वाले पेड़ के नीचे खड़ी हुई थी |
उत्पल ने मेरी बात का कोई उत्तर नहीं दिया, मेरी आँखों में आँखें डालकर वह मुस्कराया और संस्थान के अंदर चलने के लिए इशारा किया |
“हर हाइनैस----“ उसने अपने बाएं हाथ को अपनी छाती पर लगा लिया और दाहिने हाथ से मुझे अपने आगे चलने का इशारा किया |
उसकी इन हरकतों से मुझे उसमें से पहले वाला उत्पल यानि वह शरारती उत्पल झाँकता दिखाई दिया जो मेरे दिल की धड़कनें बढ़ा देता था | उसकी दृष्टि ने सदा मुझसे पूछा था कि क्या मुझे वह सब अच्छा नहीं लगता जो वह करता रहता है | एक प्रकार से तसल्ली सी भी हुई, वह बहुत दिनों से मायूस दिखाई दे रहा था लेकिन आज मेरे साथ बाहर जाकर उसके चेहरे पर उसका वही प्यारा स्वभाव चुगली खा रहा था |