छोटे लाल को अपने दामाद के रूप में पाकर केवल राम और माया तो यही सोच रहे थे कि जैसे उनका भले राम है वैसा ही छोटे लाल भी है।
केवल राम अपनी पत्नी से कह रहा था, "माया हम कितने भाग्यशाली हैं, अब से तो हमारे एक नहीं दो-दो बेटे हो गए हैं।"
" हाँ तुम बिल्कुल ठीक कह रहे हो। अभी कोई और लड़का होता तो कितनी औपचारिकतायें करनी पड़ती, है ना?
"हाँ फिर भी मैं उसे तिलक लगा कर एक बार उसके पाँव छू लूंगा। कुछ भी कहो आख़िर हमने अपनी बेटी दी है।"
"यह बात तो सोलह आने सच है तुम्हारी।"
अपनी पत्नी के साथ इस तरह विचार विमर्श करने के बाद केवल राम, छोटे लाल के पास आकर उसे तिलक लगाकर उसके पाँव छूने लगा तो छोटे की आँखों में चमक आ गई और उसे लगा चलो कुछ तो शुरुआत हुई... आख़िर वह इस घर का दामाद है। उसने बड़ी ही शान से केवल राम से अपने पैर पुजवा लिए। इस तरह से उसे पहली बार दामाद होने की थोड़ी-सी ख़ुशी महसूस हुई।
केवल राम को बिल्कुल उम्मीद नहीं थी कि छोटे लाल उससे पैर पड़वा लेगा क्योंकि अब तक तो हर वार त्यौहार पर छोटे ही 'चाचा जी आशीर्वाद दो' कहकर उन के पैर छूता था।
दो दिन कैसे निकल गए किसी को पता ही नहीं चला लेकिन छोटे लाल को यह दो दिन जैसे उसने सोच रखे थे वैसे बिल्कुल नहीं मिले। सब के द्वारा इतना प्यार मिलने के बावजूद भी उसे कुछ खल रहा था और वह था मान सम्मान।
ख़ैर तीसरे दिन सुबह-सुबह ही वे पति पत्नी अपने ख़ुद के घर चले गए। अभी भी पहले की ही तरह भले राम उसे छोटे कह कर ही बुलाता था। जीजाजी जैसा शब्द छोटे लाल सुनना चाहता है उस बात से भले बिल्कुल अंजान था। दुकान में भी सब कुछ पहले की ही तरह चल रहा था, दोनों को बराबरी से काम करना पड़ता।
केवल से जब छोटे लाल की नज़रें मिलतीं तो वह भी पहले की ही तरह व्यवहार करते। इन सब बातों से छोटे लाल को लगता था कि यह तो उसका अपमान है। यदि कहीं बाहर से दामाद ढूँढ कर लाते, क्या तब भी ऐसा ही व्यवहार करते? फिर वह ख़ुद ही इसका जवाब भी ढूँढ लेता, नहीं-नहीं तब तो यह लोग उसकी दिन रात खुशामद करते, उसके आगे पीछे घूमते, कीमती उपहार भी लाकर देते। वह सोचता उसकी तो क़िस्मत ही खराब है। उसने ख़ुद ही अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार ली है। इसी तरह के नकारात्मक ख़्यालों ने छोटे लाल को चिड़चिड़ा कर दिया। अब वह पहले जैसा नहीं रहा, ना ही उसका व्यवहार अब पहले जैसा रह गया।
परेशान होकर आख़िर एक दिन उसने सरोज को कह ही दिया, "सरोज एक बात कहूँ?"
"हाँ बोलो ना, यह पूछने की क्या ज़रूरत है, बोलो क्या है?"
"सरोज तुमसे ब्याह करके तो मैं ..."
सरोज ने बीच में ही कहा, "जानती हूँ तुम बहुत ख़ुश हो, मैं भी तुम्हारे जितनी ही ख़ुश हूँ।"
"नहीं सरोज तुम ग़लत समझ रही हो।"
"ग़लत समझ रही हूँ? लेकिन इसमें ग़लत क्या है?"
"सरोज मैं कहने जा रहा था कि तुमसे शादी करके मैं बहुत पछता रहा हूँ।"
सरोज ने हैरान होते हुए पूछा, "ऐसा क्यों कह रहे हो? मज़ाक कर रहे हो ना तुम मुझे सताने के लिए?"
"नहीं सरोज तुमसे शादी करने के बाद मुझे तुम्हारे घर में कभी भी दामाद की तरह मान सम्मान नहीं मिला।"
"पागल हो गए हो क्या? ऐसा कैसे सोच सकते हो तुम? सब कितना प्यार करते हैं तुमसे।"
"क्यों क्या तुमने कभी देखा नहीं सरोज, दूसरे के घरों में?"
"क्या नहीं देखा मैंने?"
"यही कि जब दामाद घर यानी अपनी ससुराल आता है, कितना आदर सत्कार होता है। सब आगे पीछे घूमने लगते हैं। अरे यहाँ तक कि परात में पाँव भी धोये जाते हैं पर यहाँ तो कुछ नहीं हुआ। मैं जाता हूँ तो किसी को कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ता। अरे कोई बैठने तक के लिए नहीं कहता। पाँव पूजने की तो बात ही जाने दो।"
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः