बेचैनी भरे इंतज़ार के लम्हों को समाप्त करते हुए मुन्ना लाल ने मुस्कुराते हुए कहा "गौरी जाओ भाई हलवा बना कर लाओ, सबका मुँह मीठा करवाओ।"
यह सुनते ही सभी की ख़ामोशी मुस्कुराहट में बदल गई और चेहरों पर चमक भी आ गई।
छोटे लाल भी कान लगाकर सुन रहा था। सबकी हाँ सुनकर उसका मन लंबी-लंबी उछालें मार रहा था; जैसे मानो पूनम की रात में सागर की लहरें मोटी-मोटी उछाल मार रही हों।
मुन्ना और गौरी भी बहुत ख़ुश थे। बिना ढूँढे, बिना माथापच्ची किए, इतनी अच्छी सुकन्या घर बैठे ही मिल गई थी। बस कुछ ही समय में हलवा बनकर काजू किशमिश के साथ प्लेटों में सज कर आ गया और रिश्ते के पक्का होने पर इस हलवे ने अपनी मुहर लगा दी।
मुन्ना लाल ने एक चम्मच हलवा केवल के मुँह में खिलाते हुए कहा, "चलो हम पड़ोसी से दोस्त बने थे और आज दोस्त से अब रिश्तेदार बन रहे हैं। अरे हम समधी बन गए समधी..., हमारा स्नेह तो बढ़ता ही जा रहा है।"
तभी केवल ने कहा, "बस किसी की नज़र ना लगे।"
"नज़र वज़र कुछ नहीं लगती केवल, बस यदि आपसी समझदारी हो तो रिश्ते बिना नोक-झोंक के, प्यार के साथ लंबे चलते ही जाते हैं," कहते हुए उसने केवल को गले से लगा लिया।
सरोज के मन में भी यह जान कर लड्डू फूट रहे थे क्योंकि हलवे की ख़ुशबू तो उसे भी आ रही थी और यही ख़ुशबू उसे हाँ का एहसास दिला रही थी। वह सोच रही थी कि मां-बाप की देहली छूटेगी ज़रूर लेकिन आस-पास रहने का सुख जीवन भर उसे मिलता रहेगा। दिन भर यहाँ से वहाँ आना जाना लगा रहेगा। वह कितनी भाग्यशाली है, जो उसके लिए भगवान ने इतना अच्छा रिश्ता तय करके रखा था।
उसके बाद चंद हफ़्तों के अंदर ही शुभ मुहूर्त देखकर बाजे-गाजे के साथ विवाह की रस्में शुरू हो गईं। छोटी-छोटी विधियाँ, हल्दी, मेहंदी, गाना, बजाना, सब चल रहा था। ढोलक की थाप और मंजीरे की कर्ण प्रिय आवाज़ से उनका आँगन गुंजायमान हो रहा था।
इस शादी में दहेज की कोई मांग नहीं थी लेकिन सरोज के लिए केवल राम और माया ने काफ़ी कुछ जोड़ कर रखा था। घर के आँगन में एक बड़ा-सा मंडप बना था। लड़की और लड़के वाले, दोनों की रस्में उसी आँगन में हो रही थीं। छोटे लाल की नज़र आती जाती सरोज पर यदि पड़ जाती तो नज़रें मिलते ही सरोज की पलकें शर्म से नीचे झुक जातीं।
इस तरह ब्याह वाला दिन भी आ गया। छोटे लाल दूल्हा बन कर बहुत ख़ुश था। जैसे ही वह सज-धज कर घोड़ी पर सवार हुआ उसी समय उसके अंदर एक दामाद ने जन्म ले लिया। इस समय वह मानो अपने आपको कोई राजकुमार ही समझ रहा था। घर के बाहर आँगन से निकलकर बारात पूरे गाँव में घूमती हुई, नाचते-गाते वापस उसी आँगन के सामने आ गई जहाँ से निकली थी।
छोटा-सा गाँव था और गाँव के अधिकतर परिवार इस विवाह में शामिल थे और बढ़-चढ़ कर नाचने गाने में हिस्सा भी ले रहे थे। पटाखों की आतिशबाजी से पूरा आकाश चमक रहा था। बारातियों का स्वागत कर सबको शरबत दिया जा रहा था। सभी बाराती आनंद विभोर हो रहे थे। किसी को विवाह देखने में रुचि थी और किसी को भोजन का इंतज़ार था।
सरोज का मन दो पाटों की चक्की की तरह घूम रहा था। जहाँ एक तरफ़ मायका छूटने का दुःख था तो वहीं ससुराल जाकर पति की बाँहों में जाने की ख़ुशी भी थी। इसी दुःख और ख़ुशी के बीच जब छोटे लाल ने उसकी मांग में सिंदूर भरा उन पलों में सरोज को प्यार की ऐसी अनुभूति हुई जिसे महसूस करके उसका तन मन रोमांचित हो उठा।
पंडित के मन्त्रों के साथ सरोज और छोटे लाल का गठबंधन चल रहा था। सात फेरों के पूरा होते ही सरोज छोटे की पत्नी बन गई और विवाह संपन्न हो गया।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः