सीढ़ियाँ
एपीसोड --2
भरुच के उस होटल में जैसे ही मंदा के साथ वाले आदमी को पता लगा कि वह मंदा का पति है तो वह आदमी बिना एक सेकंड गंवाए तेजी से चलता होटल के बाहर हो गया ।
दोनों सकते की हालत में एक दूसरे को घूरते रहे । महेश अपने को नियंत्रित करता हुआ मंदा के पास आया, “चलो, मेरे कमरे में चलो ।”
वह सहमी हुई सी उस के पीछे आ कर उस के कमरे में पलंग पर बैठ गई ।
महेश ने कमरे के बीच में खड़े खड़े पूछा, “वह कौन था?”
“शादी से पहले मेरा उस से प्रेम था ।”
“तो मुझ से शादी क्यों की?”
“इस के माता पिता ने इस की शादी कहीं ओर कर दी ।”
“तुम हर महीने माँ के घर जाने का बहाना कर के इस से मिलती हो ?” महेश ने गुस्से से पूछा ।
“हर महीने नहीं, बस, कभी कभी ।” कहते कहते उस की आँखें डबडबा आईं ।
`तड़ाक` की आवाज़ कमरे में गूँज गई । न चाहते हुए भी मंदा के गाल पर उस का एक चाँटा पड़ गया , “अब तू कभी माँ के घर कदम नहीं रखेगी । उन्हें जब भी मिलना होगा वह हमारे घर आएँगी ।”
अंततः वह मंदा को लेकर घर आ गया ।
पापा ने घर का दरवाजा खोलते हुए पूछा, “अरे, मंदा भी साथ है? मैं इसे लेने इस की माँ के घर गया था । उन्होंने बताया कि मंदा अपनी बीमार मौसी को देखने गई है । बेटी! अब तुम्हारी मौसी कैसी हैं ?”
“ठीक हैं,” मंदा ने कातर आँखों से महेश की तरफ देखते हुए कहा । वैसे भी वह किस मुँह से पापा से शिकायत करती ।
मंदा के रोमnरोम से महेश को घृणा हो रही थी । साफ nसुथरा, चमकता हुआ घर जैसे उस की सांसों का गला घोंटता सा लग रहा था । इतना प्यार देने पर भी वह बेवफ़ाई किये जा रही थी । अकेले में उस ने पूछा भी, “तू उसके साथ अभी भी जाना चाहे तो चली जा । मैं तुझे रोकूँगा नहीं ।”
“वह शादीशुदा है । मुझे कैसे रखेगा ? अब तो मैं तुम्हारी पत्नी हूँ । तुम्हें भी तो मैं चाहती हूं । यह गलती माफ कर दो ।” कहते हुए मंदा उस के गले लग गई थी और अपनी उंगलियाँ उस के सीने पर फेरने लगी थी, फिर वह उस में उलझता चला गया था ।
मंदा अपने पर लगे प्रतिबंध से छटपटाती थी, किंतु माँ के घर जाने की हिम्मत नहीं कर पाती थी । वह उसे इशारों ही इशारों में कितनी बार संकेत कर चुका था कि उसे अब इस घर में किलकारियों की गूँज चाहिये पर मंदा टाल देती । वह कहती, “यह साल निकल जाने दो, मेरा मन अस्थिर है । इस का बच्चे पर भी प्रभाव पड़ेगा ।”
वह भी स्वस्थ व दिमाग से मजबूत बच्चा चाहता था । उस ने सोच लिया था कि वह अब बच्चे के लिये जिद नहीं करेगा ।
लगभग आठ महीने गुजरे होंगे । एक दिन पेट्रोल पंप से लौट कर पापा ने अपना ब्रीफकेस मेज पर रखते हुए कहा, “इस भार जीतू भाई राठवा लोकसभा चुनाव में खड़े हो रहे हैं । दिवाकर भाई ने मुझ से कहा है कि मैं उन का चुनाव प्रचार करूं ।”
“पेट्रोल पंप का हिसाब किताब कौन देखेगा ?”
“जीवा भाई संभाल लेगा । मुझे देर हो जाये तो तुम चिंता मत करना?”
वह तो जैसे भरा बैठा था, क्रोध में भड़क कर बोला, “पापा मैं तो इस बार चुनाव में वोट नहीं दूँगा ।”
“तुम्हारे वोट देने न देने से क्या फर्क पड़ेगा?”
“देखना, फिर मिली जुली सरकार बनेगी । कुछ महीनों बाद वही नौटंकी शुरू हो जायेगी । फलां पार्टी अपना समर्थन वापस ले रही है । कभी किसी दल के नेता के नखरे शुरू हो जायेंगे । कभी पर्दे के पीछे सदस्यों की खरीद फरोख़्त होगी ।”
“हम क्या कर सकते हैं? हम तो भेड़ें हैं । दो समय रोटी मिल जाये, सिर छिपाने को छत । बस, यही काफी है ।”
“जीतू भी कितना बदमाश आदमी है । क्या आप नहीं जानते ? फिर भी उस के लिये काम करेंगे? दिवाकर भाई ने तो उन का पल्ला पकड़ रखा है । देखा नहीं दिवाकर भाई कहाँ से कहाँ पहुँच गये हैं ।”
पापा उस का क्रोध शांत करते हुए बोले, “हमेशा भले आदमी ही ऊपर उठते हैं । जब मैं स्कूल में पढ़ाया करता था तब स्कूल के सामने ही दिवाकर भाई की पान की दुकान थी । उस ने धीरे धीरे एस.टी.डी. बूथ खोला। आज पेट्रोल पंप का मालिक बन गया है । वह तब भी मेरा वैसे ही आदर करता था जैसे आज कर रहा है । रिटायर होते ही उस ने मुझे अपने पेट्रोल पंप पर नौकरी दे दी । बता मैं कैसे उस की बात नहीं मानूं ?”
महेश कई बार पापा से यह कथा सुन चुका है । जब भी पापा भावुक होते हैं यह कहानी जरूर सुनाते हैं।
दिवाकर भाई जीतू भाई राठवा के चुनाव प्रचार के लिये इस्तेमाल हो रही कारों, जीपों, स्कूटरों के लिये जैसे अपने पेट्रोल पंप के सारे पाइपों का पेट्रोल बहाने के लिये तत्पर थे । उन की पार्टी का कोई भी कार्यकर्ता पार्टी का बैज लगाये उन के एस.टी.डी. बूथ में आ कर कितने ही फोन कर सकता था । उन की पान की दुकान पर बैठा उन का नौकर आते जाते कार्यकर्ताओं का स्वागत करता रहता था । पापा की आँखें यह सब देख कर चौंधिया जाती थीं ।
“क्या दिलेर हैं दिवाकर भाई । यदि किसी का साथ देते हैं तो पूरा दिल खोल कर । सुना है जीतू भाई के चरणों में इन्होंने लाखों रुपया रख दिया है ।”
चुनाव की सरगर्मी सारे शहर में मची थी । उस दिन रात के दस बजे थे, जब दरवाजे पर ठकठक हुई थी। उस ने यही सोचा, पापा घर लौटे होंगे । दरवाजा खोलते ही उस ने देखा सामने एक अपरिचित खड़ा था, जिस के खुरदरे चेहरे से काइयांपन टपक रहा था । वह बोला, “मंदा बेन हैं?”
किसी अजनबी के मुँह से मंदा का नाम इतनी रात गए सुन कर उसे बहुत खराब लगा । फिर भी उस ने नरमी से कहा, “आप कौन हो? मैंने आप को पहचाना नहीं ।”
“मंदा मुझे पहचानती है, उसे बुलाओ ।”
उस का मन हुआ उस बदतमीज आदमी को बाहर से ही लौटा दे, लेकिन मंदा ने आवाज़ सुन ली थी । वह अंदर के कमरे से बाहर के कमरे में आती हुई बोली, “कौन है?”
“तुम्हीं देखो।”
दरवाजे पर खड़े उस आदमी को देख कर उस का चेहरा सफेद पड़ गया, “तुम?”
“हाँ, मैं। साबजी ने खबर भिजवाई है कि मंदा को तुरंत ले कर आओ।”
मंदा जैसे सहम गई थी । कुछ अटकते हुए बोली, “मैंने वह सब छोड़ दिया है ।”
वह आदमी गुर्राया, “क्या छोड़ दिया है ? ज़रूरत के समय साथियों का साथ नहीं देंगी ?”
“मैं तुम्हारे साथ नहीं जाऊँगी ।” मंदा------से उस के पीछे छिप गई थी ।
महेश उन के बीच की बात सुनकर असमंजस में पड़ा हुआ था कि यह किस संदर्भ में बात हो रही है । उस ने मंदा की तरफ मुड़ कर पूछा, “मंदा, ये कौन है?”
“उस से क्या पूछता है, मुझसे सीधे बात कर । साबजी ने इसे फौरन बुलाया है । चुनाव का समय है । जीतू भाई को छोकरी बहुत कम पड़ गई हैं । क्या तुम को मालूम नहीं है चुनाव में कितने लोगों को छोकरी भेज कर खुश करना पड़ता है । सारी छोकरी लोग काम पर लग गई हैं, फिर भी कमी पड़ रही है ।”
“तुम कौन सी भाषा बोल रहे हो ?” महेश उस की घिनौनी भाषा सुन कर सकते की हालत में खड़ा उस का मुँह देखता रह गया था ।
“तुम अब काहे को यह भाषा समझेगा ? शादी के बाद हर महीने घर वाली को धंधे पर भेज ढेरों पैसे बना लिये हैं, अब साधू की तरह बात कर रहा है ।”
वह इस आरोप से तिलमिला गया । इस से पहले मंदा ने उसे पीछे से पकड़ लिया, “इसे कुछ मत बोलो।”
“मंदा, यह क्या कह रहा है ?”
“मैं क्या दूसरे लोक की भाषा बोल रहा हूँ ? तुझ को समझ नहीं पड़ रही । चुनावों में इस से पहले कभी छोकरी लोगों की इतनी कमी नहीं हुई । मंदा की बहन यहाँ तक कि उस की माँ को भी ड्यूटी पर चढ़ा दिया है,” फिर उस ने मंदा की तरफ आँखे तरेरीं, “चल मंदा, तुझे साब जी ने बुलाया है ,” वह पीछे खड़ी मंदा का हाथ पकड़ कर उसे घसीटते हुए बोला ।
उस से अब रहा नहीं गया । उस ने उस आदमी को जोर से एक धक्का मारते हुए कहा, “क्या साबजी, साबजी, लगा रखा है? मंदा मेरी बीवी है, कोई धंधे वाली नहीं है ।”
“वाह वाह, क्या भली मानुस बन रही है । पहले साबजी...”
“कौन साबजी?” महेश बीच में बोला ।
“अरे, बन तो ऐसे रहा है कि जैसे दिवाकर भाई साबजी को पहचानता नहीं है । पहले तो उस की छोकरी से शादी बनाई । हर महीने उस से धंधा करवाया और अब आँखें निकाल रहा है?”
“क्या ?” उसे लगा कि वह पत्थर का बुत बन गया है । तो भरूच में मिलने वाला वह व्यक्ति मंदा का प्रेमी नहीं था ? और दिवाकर भाई ? उसे लगा कि उस से आगे कुछ सोचा नहीं जायेगा ।
“अब न भी कर बस, बहुत नखरे दिखा लिये,” कहता हुआ वह व्यक्ति मंदा की कलाई पकड़ कर खींचने लगा । मंदा उस की जकड़ से छूट कर उस से लिपट कर रो दी, “महेश, मुझे बचा लो । पिताजी के मरते ही इस राक्षस दिवाकर ने हम तीनों मां बेटी का जीना हराम कर दिया है ।”
महेश सब कुछ भूल कर गरज पड़ा, “मंदा इस घर की बहू है । अब यह किसी के मन बहलाव का साधन नहीं बनेगी ।”
“कैसे नहीं बनेगी?” बाहर अँधेरे में से दो आदमी लाठी ले कर निकल आये । फिर मंदा की खींच तान शुरू हो गई । उन दोनों में से किस ने कहाँ लाठी मारी याद नहीं ।
सिर की चोटों को याद कर के उसे लगा कि उस का सिर फटा जा रहा है । उस की तीमारदारी करते पिता कुछ घंटों में कैसे बुढ़ा गये हैं । दिवाकर ने उसे ही क्यों धोखा दिया? क्यों वह अपने हाथ में शादी का सुयोग लिखा कर नहीं लाया । मंदा कहाँ होगी, किस हालत में होगी ? उस के ठीक होने पर वह उस का किस तरह का सामना करेगी?
महेश क्या फिर से मंदा की उंगलियों की छुअन से सिहर सकेगा ? वह सचमुच ही कुछ सोचना नहीं चाहता । मन होता है कि दिवाकर भाई का आदमी अचानक अस्पताल के वार्ड में आये और उस के इस सोचते हुए पीड़ित सिर पर फिर से दन्न से एक लाठी का प्रहार करे और वह नीम अंधेरे में डूब जाये हमेशा के लिए। ,
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- श्रीमती नीलम कुलश्रेष्ठ
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