आपातकाल लगा !!! धब्बा है, तानाशाही, लोकतंत्र की हत्या ..
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कुछ मिथ है, इमरजेंसी के इर्दगिर्द। उन्हें कभी क्वेश्चन नही किया जा सकता है। जैसे
सिद्धांत क्रमांक 1- इंदिरा की मंशा लोकतंत्र का सफाया कर, तानाशाह बनने की थी।
ओह!!! मगर आपातकाल एक सुबह खुद- ब-खुद हटा क्यों?? 19 माह में वो इच्छा भला खत्म क्यो हुई। इमरजेंसी लगाकर तो 20 साल मौज करती।
क्या इमरजेंसी खत्म करने के लिए देशव्यापी आंदोलन, अहिसंक प्रदर्शन आपकी जानकारी में हैं??
एक्को नही।
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सिद्धांत क्रमांक 2 - इमरजेंसी में भयंकर अत्याचार हुए।
तो भयंकर अत्याचार के उदाहरण है- तुर्कमान गेट अवैध बस्ती पर बुलडोजर, दिल्ली हरियाणा गलत नसबंदी के 100 -200 केस..
बिहार, गुजरात, नार्थ इंडिया की कुछ जगहों पर राजनैतिक प्रदर्शनकारियों को बन्दी बनाना। अफवाहबाज अख़बारों पर सेंसर। इंदर गुजराल का इस्तीफा,
संजय गांधी के दोस्त, उसकी अय्याशियों के नेहरू एडविना टाइप किस्से, और बड़ा खतरनाक था .. "रेडियो पर किशोर कुमार के गाने न बजवाना"
पर क्या कहीं आम लोगो जनसंहार, गोलीबारी, ज्यूडिशियल किलिंग, मुठभेड़, या जजों की लोया गति, औरतों की नग्न परेड जैसी जानकारी आपको है??
क्या कहा?
एक भी नहीं??
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सिद्धांत क्रमांक 3- इमरजेंसी अवैध थी, लोकतंत्र पर धब्बा थी।
पर यह धब्बा क्रमांक 3 थी। क्योकि 2 बार पहले भी लग चुकी थी। कब लगी, करिये गूगल।
इमरजेंसी की घोषणा असंवेधानिक नही।परफेक्टली कॉन्स्टिट्यूशनल है।
"गवर्नमेंट ऑफ द डे" को अधिकार है, जो बाबा साहब और श्यामा मुखर्जी के बनाये सम्विधान में अनुच्छेद 352 में लिखकर दिया।
हाँ, मगर तभी इस्तेमाल करना है, जब परिस्थितियों का तकाजा हो।
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अब बेसिक सवाल यह, कि उचित परिस्थिति थी, या नही ?? इस सवाल पर बात नही होती।
1974-75 देश मे विपक्ष, याने कांग्रेस के भीतर और बाहर बैठे तत्व का सरकार के इकबाल को चुनौती दे रहे थे। तो क्या वे शांतिपूर्ण धरना करते थे??
- जिंदा कौम 5 साल वेट नही करती
- "टोटल रिवोल्यूशन",
- सिंहासन खाली करो..
अरे, क्यूँ करूं ब्रो?? जनता (पार्टी) आती है, तो आये। वेलकम, चुनाव के जरिये आये। अगले साल 1975 में चुनाव तय है। लड़ लो..
लेकिन जिंदा कौम को तो इस्तीफा चाहिए, अब्भी। वो तोड़फोड़ करती हैं। 150-200 की भीड़ सांसद/ विधायक को घेरकर, धमकाकर इस्तीफा लिखवाती है।
छात्रों को भड़काकर आगे करती है। देश के रेल मंत्री ललित नारायण को बम से उड़ाती हैं।
ट्रेन की पटरियां उखाड़ती है। रेलवे की देशव्यापी हड़ताल कराती है।
दिल्ली में विशाल जनसभा कर, सेना और पुलिस से, सरकार के आदेशों की अवहेलना का आव्हान करती है।
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जरा आज के दौर में राहुल गांधी औऱ विपक्ष से इसी तोड़फोड़, विस्फोट, धमकी और दबंगई की कल्पना कीजिए। सैनिक विद्रोह के आव्हान की कल्पना कीजिये।
खुद को गद्दी पर फील कीजिए। क्या इनके राइट्स सस्पेंड कर, जेल न डालेंगे?? या मणिपुर की तरह जलता छोड़ देंगे??
मैं होता, तो इमरजेंसी लगाता। आप भी होते तो लगाते। व्यवस्था उखाड़ती पगलाई भीड़, देश का मुस्तकबिल रौंद दे, कौन मंजूर करेगा??
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इमरजेंसी लगी। संघियों को जेल डाला गया। सबने भर भर के माफीनामे लिखे। इनके सरगना देवरस ने इंदिरा को चिट्ठी लिखी। अच्छे कंडक्ट की कसम खाई।
देश शांत, तो इमरजेंसी नैचुरली हट गई।
चुनाव हुए। इंदिरा हारी।
तो सत्ता सौपकर चल दी। ये तो तानाशाह के लक्षण नही होते।
इमरजेंसी पूर्व के दौर की आपको जानकारी नही। वह स्कूल के पाठ्यक्रमो में नही। तो आजकल के कांग्रेसी भी डिटेल्स नही जानते। खुद ही व्हाट्सप के प्रभाव में है। अंदर अंदर इंदिरा को दोषी मानते हैं।
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पापुलर कल्चर में धारणा है कि इंदिरा को कोर्ट के फैसले ने प्रधानमंत्री पद से हटा दिया, सो इमरजेंसी लगी।
झूठ है।
सुप्रीम कोर्ट ने राहत दे दी थी।
इंदिरा सांसद न रहते हुए भी 6 माह पीएम रह सकती थी, और टोटल कार्यकाल ही 11 माह बचा था। मजे से अटल या राजीव की तरह, 5 माह पहले चुनाव करवा लेती।
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लेकिन चुनाव का माहौल नही था। अशांति थी। विपक्ष आंतरिक विद्रोह भड़का रहा था। तो
उस वक्त इंदिरा जैसी लीडर को जो सही लगा, किया।
उस अधिकार का इस्तेमाल किया, जो परफेक्टली लीगल था, और बाबा साहब और श्यामा मुखर्जी के बनाये सम्विधान ने लिखकर दिया गया है।
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याद रहे, "अवैध" तो बिना इमरजेंसी घोषित किये आपातकालीन ताकतो का उपयोग है। चुपचाप प्रेस, ज्यूडिशियरी, सेना और तमाम संस्थाओं का स्ट्रक्चर पॉल्युट करना है।
अनैतिक तो पत्रकारों को सच लिखने के लिए जेल भेजना है। विधायकों को डरा धमकाकर सरकारें अस्थिर करना है। यूनिवर्सिटी में गुंडे भेजना, और घरों पर बुलडोजर चलाना है।
ये,मेरे दोस्त, धब्बा है,इमरजेंसी हैं
अवैध है।