प्राइमिनिस्टर गांधी !!!!
1924 बेलगाम अधिवेशन में गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बने। अफ्रीका से आये उन्हें 10 साल हो गए थे। अब तक उनकी वो छवि बन चुकी थी, जो कांग्रेस के ढांचे से ऊपर थी।
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उनके पूर्व गोखले, तिलक, लाजपत राय कांग्रेस लीडर थे। मदनमोहन मालवीय, मोहम्मद अली जिन्ना, विपिन चन्द्र पाल, चित्तरंजन दास, मोतीलाल नेहरू, एनिबेसेन्ट दूसरी पंक्ति के लीडर थे।
गांधी के पदार्पण पर इक्वेशन बदला। लोग गांधी को स्वीकारते गए... या कांग्रेस छोड़ते गए।
जिन्ना उन्हें स्वीकार न कर सके, मुस्लिम लीग में गए। हेडगेवार, मुंजे जैसे छुटभैये हिन्दू महासभा की तरफ बढ़े।
कुछ असहयोग आंदोलन करने से खफा होकर गए, कुछ आंदोलन रोकने से खफा होकर। कुछ कांग्रेस द्वारा चुनाव न लड़ने का फैसले की वजह से छोड़ गए।
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मांटैस्क्यू चेम्सफोर्ड सुधारो के बाद, स्टेट्स और सेंट्रल असेम्बली गठित होनी थी। नई दिल्ली में इसीलिए वो भवन बना, जहां कल तक संसद भवन कहा गया।
पर ये शोपीस असम्बलियाँ थी। अधिकार विहीन, तो गांधी ने ऑफर खारिज कर दिया।
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कई कांग्रेसी लड़ने को लालायित थे। तो चितरंजन दास ने बनाई- स्वराज पार्टी। इसमे गए मोतीलाल नेहरू, सुभाषचन्द्र बोस।
भविष्य में बंगाल के फेमस होने वाले मुख्यमंत्री सुहरावर्दी, बल्लभभाई पटेल के बड़े भाई विट्ठलभाई पटेल वगैरह। सब चुनाव लड़े, सभासद बने। जब भगतसिंह ने लोकसभा में बम फेंका, उस वक्त सभापति की चेयर पर विट्ठलभाई पटेल थे।
लेकिन ज्यादातर कांग्रेसी, गांधी के पक्के अनुयायी बने रहे। इसमे मोती का लड़का जवाहर भी था। वो बापू के साथ गया, बाप के साथ नही।
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1925 मे दास की मौत से स्वराज पार्टी का केंद्रीय सूत्र टूट गया। अधिकांश नेता कांग्रेस में लौट आये।
पर नेताओ के आने जाने, छोड़ने लौटने से,गांधी सदा बेपरवाह रहे। जनता से सीधा कनेक्ट था। गांधी नाम ही काफी था।
सुप्रीम लीडर की तरह, आगे पच्चीस साल, गांधी ने कांग्रेस को अपनी सोच पर चलाया। उसकी रीति नीति तय की - पूर्ण स्वराज्य, धर्म निरपेक्षता, अहिंसा, भाईचारा..
लेकिन खुद, केवल 1 बार अध्यक्ष रहे। 7
वही 1924- बेलगाम में।
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तो गांधी युग मे गांधी नही, तमाम दूसरी पंक्ति के नेता अध्यक्ष हुए। कई तो आप पहचानते नहीं।
सरोजिनी नायडू, श्रीनिवास अयंगर, मुख्तार अंसारी, मोतीलाल, जवाहरलाल, वल्लभभाई, मदनमोहन मालवेयर, नेली सेनगुप्ता, राजेन्द्र प्रसाद, सुभाष, अबुल कलाम आजाद, कृपलानी । कांग्रेस का अध्यक्ष विचार विमर्श, सर्वसहमति से चुना जाता। मगर अंतिम मुहर गांधी लगाते।
परम्परा बस एक बार टूटी, जब सुभाष ने दोबारा अध्यक्षी पाने के लिए चुनाव की नौबत ला दी।
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अध्यक्ष 1 वर्ष का होता। नेहरू, बल्लभभाई, राजेन्द्र प्रसाद रिपीट भी हुए। ये सारे अध्यक्ष, आजादी की लीडरशिप का पूरा तारामंडल, गांधी ने ही खोजा, पोसा, बढाया, मौके दिए।
कांग्रेस के अध्यक्ष ही नही, भारत का प्रधानमंत्री भी गांधी ने चुना।
बड़ा हल्ला है, गुस्सा है, क्षोभ है, की गांधी ने कांग्रेस की पसन्द, सरदार पटेल के स्थान पर नेहरू को चुना।
गहरा गुस्सा, बड़ा क्षोभ मुझे भी है।
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कौन नेहरू, किसलिये सरदार??
गांधी को अपने आपको चुनना था।
था कोई माई का लाल था कांग्रेस में??
या देश मे, या RSS में?
जो गांधी को पीएम बनने से रोक लेता।
अरे, जरूरत क्या थी किसी नेहरू या सरदार को चुनने की? नेल्सन मंडेला की तरह शान से खुद शपथ लेते-
"मैं, मोहनदास करमचंद गांधी , सत्यनिष्ठा से शपथ लेता हूँ कि.."
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फकीर आदमी शुरुआत में ही पीएम बन जाता। बढ़िया पोशाक पहनकर विदेश जाता। मेडिसन से वेम्बले तक, भाड़े के भांड, ढोल ताशे लेकर स्वागत करने आते। सोचिये, भारत का कितना डंका बजता।
काम धाम के लिए डिप्टी पीएम बना लेते, एक जिन्ना, एक नेहरू, एक सरदार। ज्यादा भी बना सकते थे। अंबेडकर को "दलित डिप्टी पीएम" बना लेते।
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बात मजाक सी लगती है। मगर गम्भीरता से सोचिये, की गांधी खुद ही प्रधानमंत्री क्यो नही बन सकते थे।
गांधी से आप, सिर्फ त्याग, दूसरो को दान देने की उम्मीद ही क्यो करते हैं?फिर आप उम्मीद करते हैं, की वे नेहरू की जगह सरदार का ही चयन करें।
खुद को नही ?? क्योकि आप खुद मानते हैं कि वे तो संत थे। महात्मा थे।
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देखो भाई, या वो सरदार का हक मारने वाले "कुटिल राजनेता" थे।
या स्वयं की नैचुरल हकदारी छोड़ किसी युवा, योग्य प्रशासक को गद्दी सौंप देने वाले "निस्वार्थ संत" थे।
आप इन दोनों में कोई एक बात तय कीजिए।
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एक मजेदार विमर्श यह हो सकता है, कि वे खुद का चयन करते तो, प्रधानमंत्री मोहनदास कैसे प्रशासक साबित होते,
यह कोई नही बता सकता।
मगर एक चीज मैं बता सकता हूँ। प्राइमिनिस्टर गांधी को कोई सड़क छाप गोडसे, इतनी आसानी से..
"घर मे घुसकर" मार नही पाता।