जब अंबेडकर बन गए पाकिस्तान की सम्विधान सभा के सदस्य -
किस्मत इंसान को क्या क्या रंग दिखाती है। राजनीति और भी रंग दिखाती है। अंबेडकर राजनीति और किस्मत दोनो के बनाये अजीब हालात से गुजरना पड़ा।
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हुआ ये, कि 1946 में सम्विधान सभा के चुनाव होने थे। ये चुनाव प्रोविंशियल असेम्बली से होने थे। जैसे आजकल राज्यसभा के चुनाव होते हैं। विधायक वोट करते हैं।
जैसे, यदि एक स्टेट में 100 विधायक हैं। और वहां से राज्यसभा ( इस केस में सम्विधान सभा) के 5 सदस्य चुने जाने है। तो 20 वोट जिसे मिले, वो चुन लिया जाएगा।
अब किसी पार्टी के पास 68 सीट है, तो 3 सदस्य जिता लायेगा। पर उसके पास 8 वोट फालतू हैं। किसी के पास 25 सीट है, तो वो 1 सदस्य जितायेगा। पर 5 वोट फालतू होंगे।
इन फालतू वोट को कोई बाहरी आदमी सेट कर लिया, तो वह भी चुनकर माननीय बन सकता है। अक्सर विजय माल्या टाइप लोग, इन्ही फालतू वोट खरीदकर राज्यसभा के माननीय बनते है।
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तो महाराष्ट्र (बाम्बे प्रान्त) की असेम्बली में कांग्रेस का बम्फाड़ बहुमत था। अंबेडकर कांग्रेसी नही थे। बल्कि पूरा जीवन, गांधी को कोसते ही गुजरा। सो गृहराज्य से चुने जाने की राह बन्द थी।
दूर बंगाल में अवसर दिखा। वहां मुस्लिम लीग के पास फालतू वोट थे। मुस्लिम लीग से तो उनका पुराना याराना था।
पर वो किस्सा अगली क़िस्त में ..
तो लब्बोलुआब यह कि जिन्ना उनकी मदद कर दें, तो जुगाड़ हो सकता था। जिन्ना से मदद मिली। पर अभी भी कुछ वोट कम थे।
बंगाल में मुस्लिम लीग के एक नेता, जोगेंद्र नाथ मण्डल थे। उनका दिलीप (बिग C) मण्डल से कोई नातेदारी हो, तो मुझे नही पता।
मगर मण्डल साहब, अंबेडकर के बड़े अच्छे मित्र थे। आप संरक्षक, बड़ा भाई टाइप ही समझ लें। तो जिन्ना से जो कमी हुई, वो मण्डल ने इक्का दुक्का विधायक जोड़वाकर पूरी की।
तो आखिर बाबा साहेब, मुस्लिम लीग के समर्थन से निर्दल सदस्य होकर, बंगाल के रास्ते सम्विधान सभा पहुँचे।
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पहली नेहरू सरकार में मुस्लिम लीग के 6 मंत्री थे। इसमे लियाकत वित्तमंत्री, और जोगेंद्रनाथ मण्डल लॉ मिनिस्टर थे।
पर लीग वालो को भारत सरकार नही चलानी थी। उनको तो पाकिस्तान, याने बंटवारे का दबाव बनाना था। तो वित्त मंत्री लियाकत हर फाइल पर बैठ जाते। फंड न जारी करते। हर कैबिनेट में कांय-कचर होता।
उधर जिन्ना ने बंगाल में सीधी कार्यवाही भी शुरू करवा दी। एक तरफ दंगा, दूसरी तरफ पंगु सरकार। तंग आकर सरदार ने बंटवारे की योजना मानने का मन बना लिया।
गांधी टंच खिलाफ थे, "मेरी लाश पर विभाजन होगा" टाइप। नेहरू ढुलमुल, तभी मुस्लिम लीग के सभी सदस्यों ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया।
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इसमे अंबेडकर का फायदा हो गया। जोगेंद्रनाथ की खाली जगह पर, नेहरू ने उन्हें लॉ मिनिस्टर बनने का ऑफर दिया।
अंबेडकर भौचक थे। विपक्ष में हूँ, निर्दलीय हूँ, नेहरू जी फिर भी चांस दे रहे हैं। उस वक्त वे बड़े प्रसन्न तथा अनुग्रहित हुए। (यह बात 1951 में अपने इस्तीफे की स्पीच के पहले ही पैराग्राफ में कही)
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बहरहाल पाकिस्तान बन गया।
नया लोचा आ गया। जिन इलाकों को बंटवारे में, पाकिस्तान बनना था, वहां के सदस्य पाकिस्तान की सम्विधान सभा के सदस्य बनने थे।
अंबेडकर की सीट पाकिस्तान चली गयी। अब वो पाकिस्तान की सम्विधान सभा के सदस्य थे। मगर मंत्री तो भारत सरकार के थे।
उड़ी बाबा!!!
उधर जोगेंद्रनाथ मण्डल पाकिस्तान के लॉ मिनिस्टर एपोइंट हुए। याने एक अद्भुत वक्त इतिहास में ऐसा भी था, जब भारत और पाकिस्तान, दोनो के लॉ मिनिस्टर पाकिस्तानी सम्विधान सभा के आदमी थे।
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लेकिन जल्द ही वो सीटें नलिफाई हो गई। अब अंबेडकर सांसद न थे। सम्विधान न था, तो 6 माह अ-सदस्य को मंत्री बनने का प्रावधान भी न था।
पॉलीटकल कॅरियर खत्म था। जो वैसे भी 52 के बाद हुआ। पर अभी नेहरू नाम जीव बैठा था। खुले हृदय का स्वामी, शानदार पर्सनालिटी।
अपनी इस्तीफा स्पीच में, पहला पैरा छोड़, अंबेडकर ने, नेहरू को "बड़ा मंत्रालय न देने के लिए" काफी बुरा-भला कहा है।
उस वक्त वे भूल गए, कि इसी नेहरू ने ,अजीब सी स्थिति से बाहर निकाल, खत्म कॅरियर बचाया।
बाम्बे से सम्विधान सभा के एक मेम्बर थे, जयकर साहब।नेहरू ने उनसे जबरन इस्तीफा दिलवाया। पार्टी के घनघोर विरोध के बावजूद खाली सीट पर अंबेडकर को टिकट दिया।
जितवाया। फिर से सम्विधान सभा मे लाये। "संविधान मैंन" बनने का अवसर दिया।
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हालांकि नवभारत टाइम्स की एक रिपोर्ट कहती है कि अंबेडकर ने नेहरू को "धमकी दी थी", कि "उनकी सदस्यता का इंतजाम नही हुआ, तो वे सम्विधान को नही मानेंगे"
भला अंबेडकर जैसा शख्स "सम्विधान को न मानने" की धमकी कैसे दे सकता है।
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