पहली फोटो उस बन्दे की है, जिसने भगतसिंह का केस लड़ा। इनका परिचय दूं..
इसके पहले एक मजेदार घटना बताता हूँ।
2020 में मैनें भक्तों की भीड़ पर रैंडम पत्थर फेंका। चार लोग चोटिल हुए। पूछताछ में पता चला, उसमे से 3 इंजीनियर थे।
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यही रैंडम पत्थर अगर 1920 में देशभक्तों पर फेंका होता, तो चार में से 3 वकील निकलते। खराब एनॉलजी के लिए क्षमा, पर कवि कहना चाहता है कि जैसे आजकल सब भरभरा के इंजीनियरिंग करते है। तब लोग वकालत करते थे।
मगर जैसे आज के इंजीनियरिंग पढ़े सारे लोग बिल्डिंग नही बनाते, वैसे ही तब वकालत पढ़े सभी लोग, वकालत करते हों, ऐसा जरूरी नही।
अब जवाहरलाल नेहरू को लेलो, महात्मा गांधी को ले लो। इनको न मानो, तो सावरकर और अंबडेकर को ले लो। ये लोग वकालत पढ़े, मगर जिंदगी में वकालत किये नही।
आजादी की लड़ाई का हर दूसरा नेता वकील ही मिलेगा। लेकिन आप उससे मकान-दुकान-कत्ल का केस नही लड़वा सकते।
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जैसे घर बनवाने के लिए जैसे कोई "प्रैक्टिसिंग इंजीनियर" चाहिए, वैसे ही केस लड़ने के लिए एक "प्रैक्टिसिंग वकील" चाहिए।
और आसफ अली तो बहुतई प्रैक्टिसिंग वकील थे, एकदम राम जेठमलानी, या दामिनी के सन्नी देओल टाइप। उनका हाथ ढाई किलो का नही था, मगर लन्दन की प्रिवी काउंसिल के मेंबर रह चुके थे। तो उनको ही भगतसिंग का केस लड़ने का जिम्मा दिया गया।
मगर भगतसिंह ने वकील लिया नही। उनको अपनी पैरवी खुद करनी थी। खुद कोर्ट में स्पीच दें, तब तो रंग जमेगा।
उनके दिल में सरफरोशी की तमन्ना थी, छूटने बचने की नही।
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मगर तो स्पीच तगड़ी होनी चाहिए न।
तो वे, अपनी स्पीच के लीगल पहलू आसफ अली से ड्राफ्ट करवाते। पॉलीटिकल पहलू खुद तैयार करते। तब जाकर कोर्ट में झमाझम स्पीच निकलती।
(हां, बटुकेश्वर दत्त ने वकील लिया। आसफ अली ने उन्हें बचा भी लिया। राजगुरु सुखदेव को भी उन्होंने रिप्रेजेन्ट किया)
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जब भगत की स्पीच ने देश भर में धुंआ धुआं कर दिया। सरकार की झुरझुरी छूट गयी। मुकदमे को जनता की निगाह से दूर करना था।
बिल लायी- जिसके तहत ऐसे प्रकरण में ट्रिब्यूनल बनाकर, गुपचुप सुनवाई होती। मामला असेम्बली में आया। यहां जिन्ना मौजूद थे। ये भी, फ़ॉर योर काइंड इन्फो, वकील ही थे।
मगर अब पोलिटीशयन थे। और ये 1947 वाला जिन्ना नही था। ब्रिटिश सरकार को जो खरी खोटी सुनाई, कि पूरी असेम्बली, सारे इस बिल के खिलाफ आ गए। बिल गिर गया। पर सरकार अड़ी हुई थी।
वो इसे ऑर्डिनेंस बनाकर लायी, और लागू कर दिया। बन्द दीवारो के पीछे, बिना अपील, बिना दलील सजाये मौत मुकर्रर की गई।
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भगत, राजगुरु, सुखदेव शहीद हुए। बटुकेश्वर दत्त 1937-38 में रिहा हो गए। 1942 के आंदोलन में भाग भी लिया।
आसफ अली आजाद हिंद फौज के प्रकरण में भी डिफेन्स टीम में रहे। ये मामला POW और इंटरनेशनल लॉ से जुड़ा था, तो नेहरू भी करिया कोट डालकर गए। मगर जिरह, आसफ अली और भूलाभाई देसाई ने अधिक की।
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आने वाले समय मे वे नेहरू की अंतरिम कैबिनेट में रहने के बाद, अमरीका में भारत के प्रथम राजदूत नियुक्त हुए। इसके बाद स्विट्जरलैंड के राजदूत रहते 1953 में उनकी मृत्यु हुई।
आसफ अली बिजनौर के रहने वाले थे।