बाप, खुद बाप बनने के बाद समझ आता है।
कहीं पढ़ा था,कि पिता-पुत्र के सम्बंध वक्त के साथ बदलते हैं। कम उम्र का बच्चा पिता को आइडोलाइज करता है, उसके जैसा बनना चाहता है।
लेकिन निजी वैयक्तिकता विकसित होते ही, सबसे पहला विद्रोह भी उसी से करता है।
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क्योकि किशोरवय बालक के पास आलोचना का आसानी से उपलब्ध..
और सबसे "सेफ टारगेट" पिता है।
बाप की हेयरस्टाइल, कपड़े, सोच, तौर तरीक़े, लुक्स, उसकी आदतें.. किशोरावस्था में सब पिछड़ा, औऱ अनुपयोगी लगता है। बेटा पिता के ठीक उलट जाकर कुछ करना चाहता है।
खुद के तरीके, आजमाना चाहता है।
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भगतसिंह वही बेटा है।
किशोरवय है, उच्छृंखल है। आदर्श ऊंचे हैं, तरीक़े क्रांतिकारी। क्योकि एवोल्यूशन का धैर्य नही, उसे तो फटाफट रिवोल्यूशन चाहिए।
वो रूस जैसी क्रांति चाहता है। राजा को, राज्य को, उसकी व्यवस्था और सड़े गले सिस्टम को उखाड़ फेंकना चाहता है। इसलिए की व्यवस्था विदेशी है, इम्पीरियलिस्ट है, शोषक है।
वो सत्ता को डराकर, विस्फोट से बदलाव लाना चाहता है। मगर गांधी जानते हैं, कि हिंसा सिर्फ लक्षित को खत्म नही करती ..
उसके परिवेश को भी बर्बाद करती है।
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यह परिवेश राजव्यवस्था है। गांधी को अंग्रेजो से इस व्यवस्था को लेना है, हस्तगत करना है, नष्ट नही करना है।
थोड़ी देर लगे। मगर धैर्य से , यथावत, बिना टूट फूट अपने हाथ मे लेकर, बड़े जतन से बदलना है। स्वराज बनाना है, सुराज बनाना है। पॉलिश करना है, जनोन्मुख बनाना है।
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यह परिवेश हमारा समाज है। जिसमे पहले से ही नफरत भरी है। आपस मे धर्म, जाति, अश्पृश्यता, क्षेत्रीय सांस्कृतिक अलगाव की गहरी गहरी खाईं है।
इन फॉल्ट लाइंस के नीचे खौलता लावा है। सोता हुआ, दानव अंग्रेजो के खिलाफ जगेगा, लेकिन तुरन्त ही उधर मुड़ेगा, जिनसे सदियों की अदावत है।
गांधी को मालूम है, बारूद के ढेर पर बैठे समाज के नेता को चिंगारी की वकालत नही करनी चाहिए। गांधी ने मोपला देखा था। इसलिए वे हिंसा के जिन्न को चौरीचौरा में बोतलबंद कर चुके थे।
गांधी को भारत छिन्न भिन्न नही चाहिए।
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याने गांधी दूर की सोचता है। पिता है न.. और परिवक्व होने पर भगत भी वह बात समझने लगते हैं।
अब वे किवदंती बन चुके हैं, लेजेंड हैं, मकबूल हैं, सुपूजित हैं.. तो हिंसा के प्रतीक के रूप में याद नही किया जाना चाहते।
अब उनकी लेखनी, उनके विचार अब उसी अहिंसा की तजवीज करते हैं, जो गांधी बरसों से कर रहे थे। वे युवाओं को जवाहर को आइडोलाइज करने की सलाह देते हैं।
वो धर्म जाति और क्षेत्रीयता से उपर उठने का आवाहन करते है। वे खुद को हिंसा का समर्थक माने जाने से इनकार करते हैं।
उनका यह विकास, जेल की चहारदीवारी में , किताबो के बीच, जीवन के आखरी महीनों में होता है।
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पर अफसोस , उनका लेजेंड तो उस फांसी से ही पनपा, जो हिंसा की उपज थी।
तो लोकप्रिय धारणा में आज भी भगत हिंसा, हड़बड़ी और हमलावर सोच का प्रतीक हैं।मौजूदा दौर में फासिज्म इस पॉपुलर इमेज का फायदा उठा रहा है। हिंसा को प्रतिष्ठित करने के उसने दो औजार चुने हैं।
पहली है श्रीमद्भागवत गीता,
और दूसरे- भगतसिंह.. ।
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किशोर, अविकसित मेधा के बाहुल्य वाले आज के भारत मे, भगत को गांधी के खिलाफ खड़ा करना बेहद आसान हो गया है। वह पूछता है- तो क्या आजादी चरखा चलाने से मिली थी??
गुस्से से पगलाई, मिनटों में सब पलट देने, पेल देने, ठोक देने, ठीक कर देने की इच्छुक यह पीढ़ी भगत के हिंसक बदलाव से अपना तारतम्य तो जोड़ पाती है।
लेकिन गांधी से नही।
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पर मुझे लगता है, यह यंग नेशन है,
अधीर औऱ हिंसक है। जब उम्र बढ़ेगी, परिवार, समाज की जिम्मेदारियां, सुसंचालित व्यवस्था औऱ नॉर्मलसी का महत्व भी समझ आएगा।
जब गांधी से दूरी का नतीजा दिख जाएगा।
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क्योकि बाप से, बापू से रिश्ता जब सुधरता है, दरअसल दूरी से पनपे अलगाव, भुगते हुए नतीजों की प्रतिक्रिया में ही होता है।
और फिर बाप, खुद बाप बनने के बाद समझ आता है।
बहुत याद आता है।