(17)
फिर अचानक दोनों ही चौंक पड़े थे । कहीं दूर से घोड़े की हिनहिनाने की आवाज आई थी । राजेश पूरी तरह सतर्क भी हो गया था। घोड़े के हिनहिनाने की आवाज फिर सुनाई दी। इस बार राजेश ने दिशा का भी ज्ञान लगा लिया था । "तुम यहीं ठहरो -" राजेश ने कहा और उछल कर घोड़े की पीठ पर बैठने ही वाला था कि सलविया उसकी कमर थाम कर झूल गई ।
“यह क्या कर रही हो—–?" राजेश ने झल्ला कर कहा ।
"तुम मुझे अकेला नहीं छोड़ सकते -"
"हम पैदल उसका पीछा न कर सकेंगे।"
"किसका?"
"हो सकता है यह मेरा वही साथी हो जिसे मारथा ले भागी है-'
"दोनों नरक में जायें-"
"अच्छा ! तुम घोड़े सहित यहीं ठहरो- मैं पैदल ही दौड़ लगाऊंगा।"
"यह भी नहीं हो सकता"
"तब फिर मैं तुम्हें मार डालू गा--" राजेश किचकिचा कर बोला ।
“अच्छा मैं तुम्हारे पीछे घोड़े पर बैठ जाऊंगी ।” "और जुएं?"
"वह तो पड़नी ही हैं कब तक बचोगी--।"
"चलो-जल्दी करो-"
वह दोनों घोड़े पर सवार हुये। सलविया ने पीछे से उसकी कमर पकड़ रखी थी। सलविया ने कहा । "अगर कोई आदमी हमें इस प्रकार देख ले तो उसका क्या रिमार्क होगा -?"
"कहेगा कि घोड़े पर कन्ट्रास्ट बैठा हुआ है-
अज्ञात घोड़े की हिनहिनाहट थोड़ी थोड़ी देर बाद सुनाई देती । दिशा का ज्ञान हो ही चुका था। राजेश का घोड़ा आगे बढ़ता रहा। यहां तक कि वह आवाज से बहुत निकट हो गये और फिर उन्हें एक जगह एक घोड़ा पेड़ के तने से बंधा हुआ दिखाई दिया।
फिर दोनों घोड़े एक साथ हिनहिनाये थे।
"परिचय प्रकाशन -" राजेश बोला "यह मेरे उसी साथी का घोड़ा है जो हमसे बिछड़ गया था "
वह उतर पड़े और राजेश जोर जोर से सरदार बहादुर की आवाजें देने लगा।
“चले जाओ - " निकट की झाड़ियों से शकराली भाषा में गुर्राहट सुनाई दी ।
"शर्मिन्दा होने की जरुरत नहीं है-" राजेश ने कहा "तुम खैरियत से हो ना?"
इस बार आवाज नहीं आई। सलविया जो राजेश के पास ही खड़ी थी धीरे से बोली ।
"मैं वैसी ही महक महसूस कर रही हूँ-"
"तब तो तुम्हें खुश होना चाहिये-" राजेश ने कहा ।
"यह कहां से बोल रहा है-?"
"सामने वाली झाड़ियों से --।"
"यह कौन है--?" अचानक बहादुर की गुर्राहट फिर सुनाई दी।
"मादा है—सफेद नस्ल की एक और थी सुनहरी रंगत वाली। उसे खुशहाल ले भागा—यह तुम्हारे लिये ठीक रहेगी—बस बाहर आओ ।"
"मैं कहता हूँ चले जाओ तुम्हारी ही बातों में पड़ कर इस हाल को पहुंचा हूँ।"
"तुम गलत कह रहे हो बहादुर।" राजेश ने कहा, "अगर तुम सचमुच वनमानुष हो गये हो तो तुमसे खालों वाला लिबास उतारने की गलती जरूर हुई होगी।"
"उससे क्या होता है?"
"हूँ तो यह सच है कि तुमने खालों वाला लिबास उतार दिया था।"
"खामोश रहो।" आवाज आई।
"मैं आस्मानी बला का शिकार हुआ हूँ। न मैंने खुशहाल की तरह कोई महक महसूस की थी और न मुझे बुखार आया था ।"
"मैं पूछ रहा हूँ कि उस बला का शिकार होने से पहले तुमने वह लिबास उतारा था या नहीं?"
"हां मैंने वह लिबास उतार दिया था-" आवाज आई।
"तो फिर मुझे क्यों इल्जाम दे रहे हो मैं तो अब भी पहले जैसा हूँ।"
“अब मेरा क्या होगा सूरमा ?" इस बार आवाज में भर्राहट थी ।
"आस्मान वाला ही जाने- " राजेश ने लम्बी सांस खींचकर कहा। "या तो तुम मेरे साथ न आते या फिर वही करते जो मैंने कहा था— अब भी अक्ल से काम लो और मुझसे भागने की कोशिश न करो।"
"अब कुछ नहीं हो सकता।"
"बाहर आओ।" राजेश ने इस बार आज्ञा सूचक स्वर में कहा, "वर्ना तुम मुझे अच्छी तरह जानते हो मुझे इसकी भी परवाह न होगी कि तुम मुझे छिप कर गोली मार दोगे--।"
अचानक झाड़ियां हिली और बहादुर छलांगें मारता हुआ उसके सामने आ खड़ा हुआ फिर अपनी छाती पीटता हुआ दहाड़ा ।
"मैं सरदारों का सरदार-सरदार--- बहादुर । तुम्हें छिप कर गोली मारूंगा ।"
“चलो इसी तरह सही —तुम सामने तो आये-" राजेश ने हंसकर कहा। मगर बहादुर अब सलविया की ओर आकृष्ट हो गया था और इस प्रकार नयने सिकोड़ सिकोड़ कर सांसें ले रहा था जैसे किसी प्रकार की गंध का अनुमान लगा रहा हो।"
"क्या मेरे बारे में कुछ कह रहा है?" सलविया ने अंग्रेजी में पूछा। "अभी तो नहीं कह रहा मगर कहेगा अवश्य-तुम इत्मीनान रखो-" राजेश ने कहा।
"आखिर तुम्हारे पास से महक क्यों नहीं आतीं ?" "मैं बचपन से ही कारबोलिक साबुन खाता रहा हूँ इसलिये ।"
"यह ...यह तो कोई फिरंगिन मालूम होती है- बहादुर ने कहा ।
"हां- और अब तुम खुद सोचो कि इस घाटी में किसी फिरंगिन का क्या काम? " राजेश ने शकराली भाषा में कहा। "यह समुन्दर पार के एक देश में रहती एक रात अपने घर में सोई आंख खुली तो यहां थी और सफेद वनमानुष को मादा बन चुकी थी।"
"मेरी समझ में नहीं जाता ।"
"क्या तुम इसके लिये कुछ महसूस कर रहे हो ?"
"हां कुछ तो है।" बहादुर ने कहा, "यह महक शायद इसी के बदन से फूट रही है।"
"खुशहाल ने भी यही कहा था और सुनहरी मादा को ले भागा था।
"क्या तुम यह महक नहीं महसूस कर रहे हो -?"
"नहीं...!" राजेश ने कहा "मैंने बड़े बालों वाली खाल का लिबास पहन रखा है। "
"इससे पूछो क्या यह मेरे साथ रहना पसन्द करेगी ?" बहादुर ने कहा।
"जरूर पूछूंगा मगर पहले तुम यह बताओ कि तुम किस तरह जानवर बने थे?"
"जरूर बताऊंगा-"
"पहले यह बताओ कि खालों वाला लिबास तुमने कहां फेंका था ?"
"फेंका नहीं था बल्कि एक गढ़े में छिपा कर गढ़ा ऊपर से बराबर कर दिया था।"
"तो मुझे फौरन वहां ले चलो-तुम्हारी कहानी बाद में सुनूगा ।"
खालों वाला वस्त्र गढ़े में मौजूद था। राजेश ने संतोष की सांस ली। "तो इसका मतलब यह हुआ कि इन हरकतों के जिम्मेदार लोगों ने तुम्हें आदमियों के लिबास में देखा था— अगर इस खालों वाले लिबास में देखा होता तो यह यहाँ मौजूद न होता। हा अब सुनाओ।"
बहादुर ने ठहरे ठहर कर विवरण सहित अपनी कहानी दुहराई या और रेशों का उल्लेख करता हुआ बोला था ।
"मैं नहीं कह सकता कि वह रेशे कहां से आ रहे थे । बारीक और लम्बे लम्बे रेशे मुझे जकड़े जा रहे थे। इतने घने थे कि मैं उनके पार नहीं देख सकता था फिर में बेहोश हो गया था। होश आया था तो वहीं पड़ा हुआ था जहां रेशों ने मुझपर हमला किया था और मैं तब आदमी से जानवर बना हुआ था ।"
"और तुम्हारे बदन के कपड़े..?" राजेश ने पूछा ।
"वह मेरे जिस्म पर नहीं थे ।"
"तुमने उन्हें तलाश किया था ?"
"हां किया था. मगर नहीं मिले थे ।"
“आस्मानी बला ले गई होगी..." राजेश ने हंसकर कहा " हालांकि खुशहाल ने अपने कपड़े अपने हाथों से नोचे और फाड़े थे।"
"यही तो समझ में नहीं आता." बहादुर ने कहा ।
"फिलहाल आदमी से जानवर बनाने के सिलसिले में दो तरीके समझ में आये हैं—एक वह जो खुशहाल को जानवर बनाने में काम में लाया गया और दूसरा वह जो तुम पर आजमाया गया और तीसरा वह कि इन दोनों लड़कियों को मालूम हो न हो सका कि यह सोते सोते जानवर कैसे बन गई । अब तुम मुझे वहां ले चलो जहां रेशों ने हमला किया था।"
"मैं तुम्हें वहां नहीं ले जाऊंगा" बहादुर ने कहा । "
"क्यों—?"
"मैं नहीं चाहता कि तुम भी जानवर बन जाओ "
"मैं असल में यह देखना चाहता हूँ कि वह रेशे आजाद है या किसी इशारे पर हमला करते हैं ।"
"होगा में आने के बाद मुझे वहां एक रेशा भी नहीं दिखाई दिया
" वैसे तुम वहां न जाओ।"
"सुनो बहादुर !” राजेश गम्भीरता से बोला "अगर मुझ पर भी HTM का हमला हुआ तो तुम्हारी ही तरह मैं भी मान लूँगा कि वह कोई आस्मानी बला ही है- अगर हमला न हुआ तो फिर इसी ख्याल पर जमा रहूँगा कि दूर से देखने वाली कोई आंख मुझे जानवर ही समझ रही है-"
बहादुर बड़ी कठिनाई के बाद इस पर तैयार हुआ था। तीनों उस स्थान पर आये जहां रेशों ने बहादुर पर हमला किया था मगर वहां एक रेशा भी नहीं दिखाई दिया।
"रेशे -- जानवरों की बालदार खालों से बने हुये कपड़ों के नीचे नहीं देख सकते।" राजेश बड़बड़ाया। - "
मुझसे बहुत बड़ी भूल हुई थी।" बहादुर ने कहा।
"उसे भूल जाओ दोस्त -अब हमें मिल जुल कर कोशिश करनी होगी ।"
"हम क्या कर सकेंगे।" बहादुर ने निराशाजनक स्वर में कहा। "तुम मुझे भी बताओ कि तुम लोग इतनी देर से क्या बातें कर रहे हो -" सलविया बोल पड़ी।
“मेरे इस साथी की समझ में नहीं आ रहा है कि तुम्हें भूनकर खाये या उबाल कर।"
"नहीं।" सलविया भयपूर्ण स्वर में बोली ।
“और में इसे समझा रहा हूँ कि फिरंगियों का गोश्त बड़ा सख्त होता है । किसी तरह हज्म नहीं होता इसलिये अब तुम चुप हो रहना-" राजेश ने कहा फिर बहादुर से बोला "अब हमें अपनी संख्या बढ़ानी चाहिये ! तुम किसी न किसी तरह रजवान जाकर उन ग्यारहों को भी यहीं ले आओ ।"
बहादुर कुछ नहीं बोला । वह सलविया को गौर से देखे जा रहा है और सलविया पहले से भी आहत नजर आने लगीं की है। राजेश जोर से चीखा । और बहादुर चौक कर उसकी हसक स्वर में बोला ।
"सुरमा ! तुम मुझे बड़ा समझते हो। में काट काट कर फेंक दूंगा - "
"मैं क्या सभऊँगा।" राजेशने हंस कर कहा अब तो यही सब कुछ समझेगी।"
“मैं इसको मार डालता हूँ फिर शायद वह अपनी धमकी पूरी ही कर देता अगर राजेश उन दोनों के मध्य न आ गया होता। वह बहादुर को पीछे ढकेलता हुआ बोला |
"बस बस मैं तो सिर्फ यह जानना चाहता था कि कहीं तुम भी तो खुशहाल की तरह मुझे अकेला नहीं छोड़ जाओगे।"
"खुशहाल — खुशहाल—" बहादुर पैर पटक कर बोला। "मेरा मुकाबिला खुशहाल से कर रहे हो । मैं पूरे कराल का सरदार हूँ." सरदारों का ---सरदार।"
राजेश कुछ नहीं बोला। सलविया डरी खड़ी थी । शायद उसे राजेश की उस बात का विश्वास हो गया था कि उसका साथी जानवर उसे खा जाने के चक्कर में हैं'। और सरदार बहादुर तीखी नजरों से राजेश को देखे जा रहा था। दोपहर का सूरज उनके सिरों पर चमकता रहा था।
-: समाप्त :-